खट्टे मीठे अनुभवों के साथ
गुज़री हुयी साल को अलविदा।
आओ नए साल का स्वागत करें।
दिव्या रुद्र की कृपा सब पर बरसती रहे.
खट्टे मीठे अनुभवों के साथ
गुज़री हुयी साल को अलविदा।
आओ नए साल का स्वागत करें।
दिव्या रुद्र की कृपा सब पर बरसती रहे.
शक्ति पराक्रम प्रतिमा हैं आप तो।
सद्गुणों की भावना हम में जगा दो॥
सद्गुणों की भावना हम में जगा दो।
दिशा.................................॥
शौर्य और साहस का संगम हैं आप तो।
मरुस्थल को मेरे मधुवन बना दो॥
मरुस्थल को मेरे मधुवन बना दो।
दिशा.....................................॥
दिशा हीन है हम दिशा खोजते हैं।
दृष्टि लगाए हम, तुम्हें देखते हैं॥
दिशा......................॥
धरती पे देखा मानवता लुप्त है।
पोषण ज़रा तुम उसे तो करा दो॥
पोषण ज़रा तुम उसे तो करा दो।
दिशा........................॥
अमृत कलंश है आपकी वाणी।
वाणी का अमृत हमें भी पिला दो॥
वाणी का अमृत हमें भी पिला दो।
दिशा............................॥
प्रस्तुति : अंजलि शर्मा
वैदिक काल में ऋषि मुनि ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए अपने आश्रम में स्कूल खोल लेते थे। वहाँ पर विद्यार्थी गुरु के परिजनों की तरह ही रहते थे। वो ज्ञान के बदले आश्रम के घरेलू काम भी किया करते थे। गुरु गृह में उन्हें च्चिक्षा के अलावा भोजन और रहने की सुविधा भी मिलती है तथा च्चिक्षा पूरी हो जाने के बाद च्चिष्य उन्हें गुरु दक्षिणा दिया करते थे। इस तरह परिवार पर आधारित च्चिक्षा साधारण तथा गुरुकुल कहलाती थी। समयान्तर यह च्चिक्षा संस्थानों में बदल गई। ऋषि मुनि समाज के साथ नदियों के किनारे रहा करते थे, बाद में ये ऋषि आश्रम विच्च्वविद्यालयों में बदल गये। आज हम यूरोप के कई विच्च्वविद्यालयों जैसे आक्सफोर्ड, केमब्रिज और सोरबोन जैसे पुराने शिक्ष्हा संस्थानों को जानते है। भारतीय विच्च्वविद्यालय जो इनसे भी ज्यादा प्राचीन थे विदेच्ची आक्रान्ता के विनाच्च के कारण जीवित न रह सकें। विध्वंस दो प्रकार का था। पहला था इन संस्थानों के मूल्यवान वस्तुओं, सोना, चाँदी की अविवेकतापूर्ण लूट। दूसरा था आक्रान्ताओं में असुरक्षा की भावना तथा उनकी यह सोच कि इन च्चिक्षा संस्थाओं का ज्ञान हमारे धर्म और विचारों को खतरा हो सकता है। इन्हीं दो कारणों से उन्होंने इन महान विच्च्वविद्यालयों को बर्बाद कर दिया।
इसरायलियों के जीवन में भजनों का विशेष महत्व था। मंदिर में बलिदान चढ़ाते वक्त गाये जाने वाले भजनों का निर्माण किया गया तथा बाद में सभागृह में भी भजनों को गाया जाता है। 'मंदिर में कुछ वाद्य यंत्र बजाने वाले थे और कुछ गायक मंडल थे......। भजनों के कुछ अंश पुरोहित गाते थे.....।
नबियों ने इसरायिलयों को सैद्धान्तिक तथा नैतिक शिक्षा प्रदान की परन्तु भजनों के माध्यम से उन्हें पापों का पश्चात्ताप, परमेश्वर के समाने तथा सताव एवं समस्या में जीवन को जीना सिखाया। इसरायली समाज एवं दिन प्रतिदिन के जीवन में भजनों का इतना महत्व था कि यह न केवल मंदिर एवं सभागृह तथा द्वितीय मंदिर में गाये जाते थे परन्तु घरों में भी ताकि बच्चे प्रारम्भ से ही इनके पवित्र शब्दों से परिचित हो जायें तथा उन्हें समझें। यद्यपि भजनों की अपनी पृष्ठ भूमि तथा संदर्भ है, कुछ भजन राजाओं हेतु रचे थे राजा मंदिर का उपासक तथा प्रबंधक था, मंदिर उपासना हेतु रचे गये।
दल दल को थल समझ रहा
गहरे में ना धँस जाना,
जब 'रुद्र' तुम्हें पुकारें तो
तुम ढूड़े से ना मिलो वहाँ।
ए मन मौजी.............॥
'रुद्र' ने तुम्हें आगाह किया
ए लव्य तू मन को सँभाल जरा,
क्यों इसको इतना बिगाड़ लिया
ना इस पर तुमने विचार किया।
एै मन मौजी..........................॥
आगरा से कु. लव्यता द्वारा प्रेषित भजन
ऐ मन मौजी मनुआ मेरे
अब मेरे साथ भी वक्त गुजार,
बहुत दिनों से तेरी मेरी
मिल जुल कर ना बात हुई।
भोगो की इस दुनियाँ में
तू तो इतना मस्त हुआ,
नेकी का जो काम मिला
वो भी तूने भुला दिया।
एै मन मौजी............॥
खून के प्यासे हैवानों ने दुनिया में आतंक मचाया।
मजहब के ठेकेदारों ने मौत का खेल रचाया॥
अमरीका ने इन आतंकी पिल्लों को पाल बढ़ाया।
जिन्होंने बदले में पेंटागन पर ही जहाज चलाया।
इसमें जलता रहा है भारतवर्ष अनेको वर्षों से।
पश्चिमियों को चिन्ता हुई है केवल कल परसों से॥
खुदगर्जी वो चाह रहे हैं दुनिया की बरबादी।
दुनिया को इन हत्यारों से कब मिलेगी आजादी॥
प्रस्तुति : राजकुमार बघेल
श्रवण के प्रथम चरण को हम घर पर पूरा कर लेते हैं और तृतीय चरण गुरु के साथ रहकर करना है। मध्य के चरण के लिए हमें किसी दूसरे की जरूरत होती है। हमारा सुझाव है कि इस निमित्त अपने ग्राम स्तर पर सभी साथी एक जगह सप्ताह में एक बार अवश्य एकत्रित हों। इस साप्ताहिक सत्संग को सुविधा के अनुसार किसी भी दिन का रख सकते हैं। वैसे रविवार को सभी का अवकाश रहता है। अतः प्रत्येक रविवार को एक दो घण्टे के लिए किसी एक स्थान पर एकत्रित हो जाऐं। गुरु ज्ञान की चर्चा करें। दूसरों की सुनें और अपनी सुनाऐं। आस पास के ग्रामों के लोगों के साथ प्रत्येक माह की ४ तारीख को किसी जगह एकत्रित हों। वहाँ पर एक केन्द्र बना लें, आपसी वार्तालाप करें। रुद्र संदेश को सुनें और दूसरों को सुनाऐं। इससे आपके अंदर चेतना का विकास होगा। इस मासिक कार्यक्रम की सूचना उपस्थित श्रावकों आदि के सम्बन्ध में पत्रिका में लेख भी भेजें तो और भी उत्तम रहेगा। इस स्तर तक विसित श्रावकों को गुरुदेव स्वतः ही अपने पास बुला लेंगे और उनको सत्यमार्ग साधना के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया सिखा देंगे।
श्री रुद्रगिरी जी महाराज द्वारा परिमार्जित की गयी सत्य मार्ग साधना पद्यति अत्यंत ही सहज है। यह कोई नयी पद्यति भी नहीं है। इस पद्यति के अंदर न तो कोई आडम्बर है और न किसी क्रिया का त्याग है। सहज रूप में इसके माध्यम से व्यक्ति अपने मानव जीवन के ध्येय को प्राप्त कर सकता है। गुरुदेव कहते हैं "सुनत, कहत रहत गति पावै'' अर्थात् सुनने, कहने तथा रहने से सद्गति मिलती है। पिछले दो अंकों में गौतमगिरी जी एवं कविता जी ने इस पर काफी प्रकाश डाला है। शारांशतः यह इस प्रकार है- प्रथम चरण में कोई भी दीक्षित शिष्य महाराज जी द्वारा कही गई कथाओं को ध्यान से सुनता है। जब उसकी समझ में वह कथाऐं आ जाती हैं तो अपने साथियों को सुनता है। यह सुनाना वह आपसी सत्यंग के माध्यम से कर सकता है। सत्संग के लिये संख्या महत्वपूर्ण नहीं होती। छोटे और बड़े दोनों प्रकार के सत्संग लाभप्रद हैं। छोटे सत्संग में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का मौका मिलता है। बड़े सत्संग में बात ज्यादा लोगों तक पहुँचती है। जितने ज्यादा लोगों तक गुरु ज्ञान पहुँचे उतना ही अच्छा होता है। जब श्रावक गण इस अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं तो उन्हें सत्य के आत्यसाती करण के लिए गुरुदेव के पावन सानिध्य की आवश्यकता होती है। उस अवस्था में केवल गुरु ही हमें पार कर सकते हैं।
प्रस्तुति :-आयुष्मान
शैव तन्त्र की तीन शाखायें हैं भेदवादी, भेदाभेदवादी और अभेदवादी। इनमें से प्रथम का प्रचलन शैव सिद्धान्त के नाम से तमिलनाडु में है। दूसरी शाखा वीर शैव के नाम से कर्णाटक में क्षीण दशा में है। तीसरी शाखा का प्रचलन काश्मीर में हुआ। यद्यपि कुछ लोग इसका मूल मध्य प्रदेश में मानते हैं। अभेदवादी शैव दर्शन को त्रिक दर्शन या प्रत्यभिज्ञा दर्शन के नामों से भी जाना जाता है।
आज तक की प्राप्त सूचनाओं के आधार पर लगभग २०० प्राचीन तन्त्र ग्रन्थों का नाम मिलता है। इनमें से भी बहुत से उपलब्ध नहीं हैं। वाराही तन्त्र के अनुसार यहां के तान्त्रिक ग्रन्थों में ९५७९५० श्लोक मिलते हैं। प्राचीन काल में भारत वसुन्धरा पर तन्त्रसाहित्य का विशाल भण्डार विद्यमान था। भेदप्रधान शैवागमों की संख्या १०, भेदाभेदप्रधान शैवागमों की १८ और अभेदवादी शैवागमों की संख्या ६४ है। इन ६४ आगमों का वर्गीकरण अष्टकों में हुआ है। आठ अष्टकों वाले इस भैरवागम के अष्टकों के नाम निम्नलिखित हैं१. भैरवाष्टक २. यामलाष्टक ३. मत्ताष्टक ४. मङ्गलाष्टक ५. चक्राष्टक ६. बहुरूपाष्टक ७. वागीशाष्टक ८. शिखाष्टक।
प्रभु की लीला अपरम्पार,जिसका है नहीं कोई बखान।
उंच नीच का भेद नहीं कुछ,वो प्राणी मात्र में है एक समान।
कण कण में वो बसा हुआ,तिनके तिनके में है, उसकी जान।
दुनिया का जीवन दाता है,उसकी दया मेहर का है प्रमान।
उसकी मर्जी के बिना,चल नहीं सकता ये जहान।
उसे हर दिल हर पल की खबर,उसकी सत्ता है महान।
वो अपने अंतर में मिलता है,ग्रन्थ शास्त्रों में है पहिचान।
चौरासी के चक्कर से छूट जाएगा,गर सन्त वचन को लेगा मान॥
प्रस्तुति : राज कुमार बघेल
अत्रि मुनि के तीन पुत्र थे दुर्वाशा, दत्तात्रेय और चन्द्रमा। ये तीनों क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा के अंश थे। मुनि ने इन तीनों को तीन प्रकार के तन्त्रों की दीक्षा दी थी। दुर्वाशा को शैव तन्त्र, दत्तात्रेय को अघोर तन्त्र और चन्द्रमा को वैष्णव तन्त्र की दीक्षा दी गयी। इन में से चन्द्रमा की तन्त्र परम्परा आज विद्यमान नहीं है।
प्राचीन काल में शैव, शाक्त, पाशुपत, भागवत, लकुलीश, गाणपत्य, पांचरात्र आदि तन्त्रों का प्रचलन इस देश में था। इनके अतिरिक्त बौद्ध और जैन तन्त्र भी इस देश में प्रचलित थे। कालक्रम के प्रभाव से बौद्ध तन्त्र भारत के बाहर चला गया और शैव आदि में से अनेक तन्त्रों की परम्परा उच्छिन्ना हो गयी। सम्प्रति केवल शैव और शाक्त तन्त्र ही जीवित हैं। इनमें भी आडम्बर घर करता जा रहा है।
अत्रि मुनि के तीन पुत्र थे दुर्वाशा, दत्तात्रेय और चन्द्रमा। ये तीनों क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा के अंश थे। मुनि ने इन तीनों को तीन प्रकार के तन्त्रों की दीक्षा दी थी। दुर्वाशा को शैव तन्त्र, दत्तात्रेय को अघोर तन्त्र और चन्द्रमा को वैष्णव तन्त्र की दीक्षा दी गयी। इन में से चन्द्रमा की तन्त्र परम्परा आज विद्यमान नहीं है।
प्राचीन काल में शैव, शाक्त, पाशुपत, भागवत, लकुलीश, गाणपत्य, पांचरात्र आदि तन्त्रों का प्रचलन इस देश में था। इनके अतिरिक्त बौद्ध और जैन तन्त्र भी इस देश में प्रचलित थे। कालक्रम के प्रभाव से बौद्ध तन्त्र भारत के बाहर चला गया और शैव आदि में से अनेक तन्त्रों की परम्परा उच्छिन्ना हो गयी। सम्प्रति केवल शैव और शाक्त तन्त्र ही जीवित हैं। इनमें भी आडम्बर घर करता जा रहा है।
वेद अनादि और अपौरुषेय हैं। ये महात्मा विष्णु के निःश्वास हैं ÷यस्य निःश्वसितं वेदाः' प्रारम्भ में वेद एक ही था। कालान्तर में शिष्यों की सुविधा को ध्यान में रखकर इसके तीन भाग किये गये ऋग, यजुः और साम। इन तीनों के समूह को त्रयी कहा गया। अथर्व वेद का संकलन बाद में हुआ। वेदों की भाँति तन्त्र भी अपौरुषेय हैं। प्रारम्भ में ये ध्वनि रूप में प्रकट हुये। बाद में परमेश्वर ने अपने लीलास्वातन्त्र्य के कारण अपने को उमापतिनाथ एवं उमा के रूप में अवतारित कर इस शास्त्र को प्रश्न और उत्तर के रूप में विस्तारित किया। इस प्रकार यह शिवमुखोक्त शास्त्र कहलाने लगा। यह तन्त्र शास्त्र भी पहले एक ही था किन्तु आधारभेद के कारण इसकी अनेक विधायें हो गयीं। इस अवतार क्रम में यह शास्त्र ऋषियों को प्राप्त हुआ और वे ही इसके प्रयोक्ता हुए। शैव आदि रहस्यशास्त्र अर्थात् तन्त्रशास्त्र सत्ययुग आदि में महात्मा ऋषियों के मुख में विद्यमान रहा करते थे। वे ही लोग अनुग्रह भी करते थे। कलियुग के प्रारम्भ में जब वे शास्त्र दुर्गम होने लगे और सिमट कर कलापि ग्राम में रह गये अन्यत्र उच्छिन्न हो गये तब कैलास पर्वत पर घूमते हुए भगवान् श्रीकण्ठनाथ ने अनुग्रह के लिये अपने को पृथिवी पर अवतीर्ण किया और ऊर्ध्वरेता दुर्वाशा को आज्ञा दी कि यह शास्त्र उच्छिन्ना न हो इसलिये रहस्य शास्त्र का वैसा प्रचार करो। अत्रि मुनि के तीन पुत्र थे दुर्वाशा, दत्तात्रेय और चन्द्रमा। ये तीनों क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा के अंश थे। मुनि ने इन तीनों को तीन प्रकार के तन्त्रों की दीक्षा दी थी। दुर्वाशा को शैव तन्त्र, दत्तात्रेय को अघोर तन्त्र और चन्द्रमा को वैष्णव तन्त्र की दीक्षा दी गयी। इन में से चन्द्रमा की तन्त्र परम्परा आज विद्यमान नहीं है। प्राचीन काल में शैव, शाक्त, पाशुपत, भागवत, लकुलीश, गाणपत्य, पांचरात्र आदि तन्त्रों का प्रचलन इस देश में था। इनके अतिरिक्त बौद्ध और जैन तन्त्र भी इस देश में प्रचलित थे। कालक्रम के प्रभाव से बौद्ध तन्त्र भारत के बाहर चला गया और शैव आदि में से अनेक तन्त्रों की परम्परा उच्छिन्ना हो गयी। सम्प्रति केवल शैव और शाक्त तन्त्र ही जीवित हैं। इनमें भी आडम्बर घर करता जा रहा है।
ज्ञान की क्रियात्मक अवस्था का नाम तन्त्र है -सोनम
तन्त्र एक मध्यवर्ती बिन्दु है। इसके पहले मन्त्र है और बाद में यन्त्र। मनन के द्वारा पदार्थों को उनके मूल रूप में जानना मन्त्र है। उन पदार्थों के संयोग और मिश्रण के द्वारा सम्भावित स्थितियों को जानना तन्त्र है तथा उस संयोग और मिश्रण को अक्षरों अङ्कों रेखाओं के द्वारा चिकिृत करना यन्त्र है। दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि परमसत्ता का अपने ऐश्वर्य से ज्ञानमय रूप प्राप्त करना मन्त्र है। इस ज्ञान की क्रियात्मक अवस्था का नाम तन्त्र है और इस क्रिया को व्यक्त करने का माध्यम यन्त्र है।
जन्मेजय के पोस्ट पर बहुत से फ़ोन आए । वास्तव में इस बालक ने सपने के मध्यम से लिखी इस रचना के मध्यम से हम सब को नंगा कर दिया है। हम भारतीय कब बनेंगे? हम भारतीय से पहले किसी न किसी जाती या धर्म से अपनी पहचान क्यों बना लेते हैं जिसके कारण ही ये नेता लोग हम लोगों का शोषण कराने की सोचने लगते हैं। हमारी फ़ुट के कारण ही यह दहशत गर्द इतना कराने की जुर्रत कर पाते हैं। वास्तव में आज देश एक होकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ खडा है। ऐसे ही हमें सदैव एक रहना चाहिए। फ़िर किसी की मजाल नही, की मेरे वतन की और ऊँगली भी उठा सके।
राम मूर्ति सिंह मुरादाबाद
जन्मेजय चौधरी क्लास ११ अ, मु, वि, अलीगढ
आप लोग चोंक रहे हैं ना कि मै आतंकवादी अंकल को धन्यवाद कर रहा हूं। क्या इसके लिए मुझ पर देश के साथ गद्दारी का इल्जाम लगना चाहिए? पिछले दिनों में आतंकवादियों ने बहुत बुरा किया। हमारी बम्बई पर उन्होंने जुल्म ढहाया। हमारे बहुत से सिपाही भी मार डाले। बहुत से लोग स्टेशन पर बेवजह मर गये। वाकई बहुत बुरा हुआ। मुझे भी बहुत दुख हुआ। मेरा मन हुआ कि मैं सुपरमैन बन कर पूरे पाकिस्तान को उड़ा दूं। सारे के सारे आतंकवादियों को सानी दयोल की तरह जोर जोर से चीख कर मार डालूं। मैंने गुरुजी से भी मन ही मन प्रार्थना की कि मुझे सुपरमैन बना दें।
इसी प्रार्थना के साथ, मैं पाकिस्तान और आतंकवादियों को कोसता कोसता सो गया। रात को सपने में मैंने देखा कि मेरे पास गुरुजी आ गए। उन्होंने मुझसे आंख बंद करने को कहा। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और आंख खोलने को कहा। अरे मैं तो बदल गया। मेरे सर पर सनी का सा कपड़ा बंधा था। अरे मैं तो सुपरमैन की तरह उड़ने लगा। मेरे शरीर के चारों ओर असले ही असले बंधे थे। अब मैं पूरा सुपरमैन बन गया था। मुझे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई थी। मैंने बिना एक मिनट की देर किए आतंकवादियों को ढूढना शुरू कर दिया। मैं उड़कर सीधे पाकिस्तान पहुंच गया। मैंने देखा वहां आतंकवादियों का कैम्प चल रहा था। एक दाड़ी वाला मौलाना कश्मीरी टोपी लगाकर वहां इकट्ठे हुए आतंकवादियों को बरगला रहा था। मैने गुस्से में भरकर वहां बमबारी शुरू कर दी। उनके बंकरों को नष्ट कर दिया। मैं जगह जगह उड़कर आतंकियों के ठिकानों को देख लेता था। फिर उन पर टूट पड़ता। और थोड़ी ही देर में वहां लाशों के ढेर लग जाते। इस तरह मैंने अनेक आतंकवादियों के कैम्पों को समाप्त कर दिया। आखिर में मैंने आतंकवादियों के बौस को पकड़ लिया और सनी की तरह उसकी तुड़ाई शुरु कर दी। आतंकवादियों के सरगना ने मुझसे कहा अल्लाह के लिए मुझे छोड़ दो नहीं तो तुम्हारा देश तबाह हो जाएगा। मैं ओर ज्यादा का्रेध में भरकर उसे मारने लगा। उसने कहा कि तुम मेरी बात को गम्भीरता से सुनो। हमारी वजह से ही तुम हिन्दुस्तानी एक रह पाते हो।
अगर हम हमला नहीं करते हो तो तुम आपस में लड़ना शुरू कर देते हो। कभी मराठी बिहारी के नाम पर तो कभी मीणा गूजर के नाम से तो तमिल सिंघली के नाम से या हिन्दू मुस्लिम के नाम से। यही सदा से होता आया है। तुम हिन्दुस्तानी तो केवल बाहर वालों से लड़ने के लिए एक होते हो अन्यथा सभी अलग अलग हो। तुम्ही देख लो हिन्दुस्तान या तो अंग्रजों से लड़ने को एक हुआ था या आतंकवाद से लड़ने को। अरे हम तो विदेशी हैं हमसे तो लड़कर जीत लोगे। लंकिन अगर हम न होंगे तो तुम आपस में लड़कर मर जाओगे। और हर मौत तुम्हारी ही हार होगी। उसकी बातें मुझे वाकई जंचने लगी थीं।
मैंने कहा थैंक यू अंकल तुम ठीक कह रहे हो। आज तुम्हारे हमले से कम से कम देश तो एक हो रहा है। वरना पिछले महीने तक तो मनसे के हमले में लोग भी मर रहे थे और देश भी टूट रहा था।
विस्तारार्थक 'तनु' धातु से 'त्रल्' या 'ष्ट्रन्' प्रत्यय जोड़कर तन्त्र शब्द बनता है। इस प्रकार तन्त्र आत्मा के विस्तार की चर्चा का दूसरा नाम है। चरम सत्ता या परमशिव अपनी इच्छा से अपने ऊपर अज्ञान का आवरण डाल कर अपने को संकुचित कर पशु या जीव के रूप में प्रकट करते हैं। यह अज्ञान तन्त्र की भाषा में ÷मल' कहलाता है। सारा संसार इसी अज्ञान या मल का कार्य है और अज्ञान या मल इस संसार का कारण। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है, ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः अर्थात इस जीवलोक अर्थात् देह में स्थित सनातन जीव मेरा ही अंश है। गोस्वामी जी ने मानस में लिखा है,
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी॥
जीव के अन्दर वे ही सर्वज्ञता आदि गुण विद्यमान हैं जो ईश्वर के अन्दर कहे गये हैं किन्तु मल के कारण वह अपने को अल्पज्ञ, अतृप्त, परतन्त्र, अल्पशक्तिमान् आदि समझता है। जो प्रक्रिया, जो पद्धति, जो नियम, जो रीति रिवाज इस आवरण को हटाकर आत्मा के वास्तविक स्वरूप की पहचान कराने या इस उद्देश्य की पूर्ति में साक्षात् या परम्परया कारण बनते हैं वे सब के सब तन्त्र हैं।
प्रस्तुति : परितोष नारायण
पवित्र बाइबल में इन तमाम बातों का वर्णन है तथा परिणाम भी स्पष्ट रूप से बताया गया है।
१। शकुन विद्या : परिचित आत्माओं की सहायता से भविष्य को पहले से देख लेना। इस प्रकार का कार्य करने वाले व्यक्ति को पत्थरवाह करके मार डालने का प्रावधान था।
२। भूत-सिद्धः यह एक मृतक व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित करना है। शाऊल मानक राजा ने शमूएल नबी से उसके मरणोपरांत एक स्त्री की सहायता से सम्पर्क स्थापित किया था - यह कार्य परमेश्वर की दृष्टि में अर्त्यत घृणित पाप है जिसे वैश्यावृत्ति समान बताया गया है।
३. पूर्वानुमान ;च्तवहतवेजपबंजपवदद्धः यह शकुन विचारना तथा पशु-पक्षियों की अंतड़ियों का निरीक्षण करना सम्मिलन हैः जिसका दण्ड बेबीलोन के राजा को परमेश्वर द्वारा दिया गया - यह मिस्त्र देश का महान विज्ञान था। इसमें विज्ञान ;खगोल एवं फलित ज्योतिषद्ध और परिचित आत्माओं का मिश्रण था वर्तमान काल में इसका प्रयोग सम्मोहन विद्या, मस्तिष्क के उपचार और भविष्य बताने में किया जाता है।
५। जादू टोना - इसमें तीन सूत्र हैं रसायन एवं खगोल विज्ञान तथा परिचित आत्माऐं। इनका वर्णन तथा प्रेरितों के कार्य में पाया जाता है।
६. ओझाई :- यह दुष्टात्माओं के साथ सचेत रूप में सहअपराध करना है। पौलुस प्रेरित अपने पत्रों में इसकी घोर भर्त्सना करते हैं। यह आवश्यक रूप से शैतान की आराधना है और इसे विद्रोह गिना गया है। ऐसा करने पर राजा शाउल का सर्वनाश हुआ तथा उसका राज्य छीन लिया गया।
उपरोक्त सारी विधियों तथा तंत्र मंत्र को बाइबल में नकारा गया है तथा घृणित पाप की संज्ञा दी गयी जैसा कि नीचे उल्लिखत हैः ÷÷तुझमें कोई ऐसा न हो जो...... भावी कहने वाला, व शुभ अशुभ मुहुर्तों का मानने वाला व टोना व तांत्रिक व बाजीगर, व ओझो से पूछने वाला, व भूत साधने वाला, व भूतों को जगाने वाला हो। क्योंकि जितने ऐसे ऐसे काम करते हैं वह सब यहोवा के सम्मुख घृणित हैं........'' । पवित्र धर्मशास्त्र बाइबल में उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट दृष्टिगोचर है कि जो भी विधि या क्रिया-कलाप सर्वज्ञानी, सर्वसामर्थी और सबसे प्रेम करने वाले परमेश्वर की महिमा को घटाती है तथा मनुष्यों के जीवन के प्रति उसके उद्वेश्यों को छिन्न-भिन्न करती है, हमें उनसे हमेशा दूर रहना चाहिए। प्रिय पाठकों! परमेश्वर और मनुष्य का शत्रु शैतान हमेशा यह चाहता है कि मनुष्य परमेश्वर की महिमा न करे या परमेश्वर की सामर्थ को कमतर करके आंके तथा स्वयं के प्रयास से परमेश्वर तक पहुँच सके। ऐसा नहीं हो सकता परमेश्वर को प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह स्वयं का १००ः समर्पण समर्पण, शून्य हो जाना तभी परमेश्वर हमें अपनी सारी शक्तियाँ प्रदान करता है जो मानव एवं प्रकृति के कल्याण हेतु है। उनसे किसी प्राणी का अहित नहीं हो सकता।
कवि विकल जी की लेखनी से रचित भारत भूमि को अभिनंदित एक कविता
हे ऋषियों की तपोभूमि तेरा शत् शत् वन्दन,
तेरे कण-कण को है मेरा बारम्बार नमन्।
गंगा यमुना सरस्वती मिलि, कल कल नाद करें,
धर्म अर्थ औ काम मोक्ष-श्रुति में संवाद भरें।
सत्यम् शिवम् सुन्दर करते तुझसे परिरम्भ्ण.....
हे ऋषियों की तपोभूमि....॥१॥
देवभूमि! हैं तुझे समर्पित ऋद्धि सिद्धि औ निद्धि,
करती निर्मल सदा ज्ञान से, सकल विश्व की बुद्धि।
मनसा वाचा और कर्मणा शिव संकल्पित मन.....
हे ऋषियों की तपोभूमि....॥२॥
परम पवित्र स्वर्ग सीढ़ी, पीढ़ी-पीढ़ी पावन,
तेरी रज ऋषियों-मुनियों के माथे का चन्दन।
करते प्रकृति विराट् अहर्निशि तेरा अभिनंदन.....
हे ऋषियों की तपोभूमि....॥३॥
रेव संतोष Paandey (धर्म पुरोहित ) चर्च ऑफ़ अस्सेंसिओंस अलीगढ
वर्तमान संसार में प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी क्षेत्र में अपने से अत्यधिक शक्तिशाली या अदृश्य ताकत की खोज में लगे रहते हैं। यह मानव जीवन के प्रत्येक सोपान में पाया जाता है उदाहरण स्वरूपः युवा किशोर या लड़की का राशिफल देखना, ओझा या तांत्रिक द्वारा किसी अदृश्य शक्ति की खोज तंत्र साधना द्वारा करना। वैज्ञानिकों द्वारा आकाशमंडल में छुपे रहस्यों की खोज+ करना। इसके अलावा ऐसे कई उदाहरण हमारे चारों ओर हैं जिनमें नरबलि तथा पशु बलि इत्यादि का सहारा लेकर तंत्र साधना की जाती है। जितनी कठिन एवं बड़ी साधना होगी उतनी ही अदृश्य ताकत प्राप्त होगी। उपरोक्त साधनाओं में हित के साथ-साथ किसी न किसी का अहित ही होता है और वह मानव ही है। कभी-कभी यह तंत्र-मंत्र जादू-टोना का रूप ले लेता है जिसका अर्थ है लैटिन भाषा में ÷÷छुपा हुआ या ढ़का हुआ।''
भाई himavant जी की आयी टिप्पणी के सन्दर्भ में निवेदन के साथ यह पोस्ट प्रकाशित है। सबसे पहले में उनके द्वारा प्रेषित टिप्पणी को लिख रहा हूँ
"सैद्धांतिक रुप से बुद्धि के स्तर पर इस थ्योरी को माना जा सकता है। लेकिन व्यवहारिक रुप से यह अतेन्द्रिय अनुभव कैसे हो सकता है? क्या आज जगत मे कोई ऐसा सदगुरु है जो एक कण की भी अंतिम सच्चाई को जानता हो ? कोई अगर इस अवस्थाको प्राप्त कर ले तो वह त्रिकालदर्शी हो जाएगा। परमात्मा से उसका भेद हीं मिट जाएगा। आपको कोई ऐसा सदगुरु मिले तो मुझे अवश्य अवगत कराइएगा ।"
हाँ यह बहुत आसान है। देवात्वा को प्राप्त करना कोई बड़ी बात नहीं। बात ब्रह्मत्वा को प्राप्त कराने की है। अपने अन्दर विल पॉवर को मज़बूत करो और प्रभु से प्रार्थना करो तो यह बहुत आसान है। जहाँ तक ऐसे सद्गुरु को पाने की बात है तो निश्चिंत रहिई आपको अवश्य मिलेंगे। हर काल में एक सद्गुरु अवश्य रहता है। बस उसे जानने के लिए हमें तड़प पैदा करनी है।
देवताओं को समझने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं। पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना तात्विक दृष्टि से एक रूप है। शरीर ही सही अर्थों में श्री चक्र है, इसी में संसार लीन होता हैऋ और शरीर को ही साध करके, इस शरीर को ही चक्र बनाकर, इस शरीर को ही त्रिपुर सुन्दरी में समाहित करके संसार की समस्त चेतना, संसार का समस्त ज्ञान, संसार की सारी कार्य पद्यति को समझा जा सकता है।
मनुष्य जब चेतन्यता को प्राप्त होता है तो वह अनुभव कर सकता है कि वह हाड़ मांस का सामान्य पुतला नहीं। वह महज रक्त और नाड़ियों से उलझा कोई यंत्र नहीं। वरन् उसके अंदर एक विराटता छिपी है- ठीक ऐसी ही विराटता जैसे अर्जुन ने भगवन श्री कृष्ण के अंदर देखी।
सौन्दर्य लहरी में शंकराचार्य ने माँ पार्वती को माध्यम बनाकर उनके सौन्दर्य का वर्णन किया है। बहुत से ज्ञानी भी यहाँ पर भ्रमित हो जाते हैं। जबकि वास्तविकता तो दूसरी ही है। यह मात्र पार्वती का सौन्दर्य वर्णन नहीं है अपितु तंत्र की श्रेष्ठतम व्याख्या है, जिसके माध्यम से पूरे तंत्र को समाहित कर यह स्पष्ट किया गया है कि बिना तंत्र के जीवन की पूर्ण व्याख्या सम्भव नहीं है। इसके बिना श्री यंत्र और श्री चक्र को समझना सम्भव भी नहीं। शरीर के अंदर इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना जैसी नाड़ियों एवं षट्चक्र और देवता रूपी शक्तियों के केन्द्रों की व्याख्या एवं सहायता से ही योग प(ति के साधना क्रम को समझा जा सकता है। यह शरीर अपने आप में पूर्ण श्री यंत्र बनाया जा सकता है और समस्त शक्तियाँ बीज रूप में शरीर में समाहित हैं। उन्हें जानने की आवश्यकता है और गुरु के आदेशानुसार क्रिया करना है। यदि इनका जागरण कर लिया जाए तो शरीर में ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है।
जगत् गुरु शंकराचार्य ने अपने गुरु गोविंदापादाचार्य से तंत्र के ज्ञान हेतु याचना की। गुरुदेव ने कहा कि तंत्र ज्ञान नित्य लीला विहारिणी दीक्षा है। इसके लिए गुरु आदेश का प्रतिपल अक्षरशः पालन करना पड़ता है, क्योंकि यह क्रिया देह को साधने और मन को बांधने के लिए अत्यंत आवश्यक है। गुरु आदेश प्राप्त कर शंकारार्च ने नर्मदा पुलिन पर एक गुफा में प्रवेश किया तथा साधना प्रारम्भ की। यह प्रकृति निर्मित गुफा आज भी जीवित, जाग्रत और चेतन्य है जहाँ जाने पर पवित्रता का बोध होता है। यहाँ जाने पर चेतना स्वतः जागृत होती है। इसी स्थान पर शंकराचार्य को ज्ञान हुआ कि 'ब्रह्म का ही स्थूल रूप माया है''। ब्रह्म से ही माया का प्रादुर्भाव होता है और माया पुनः ब्रह्म में लीन हो जाती है। गोविन्द पादाचार्य ने एक वर्ष तक शंकर की घोर परीक्षा ली। जब गुरु को विश्वास हो गया कि शंकर तंत्र ज्ञान हेतु अर्ह हैं तो उन्हें त्रिपुर सुन्दरी और श्री चक्र उपासना की साधना प्रदान की। यहीं से शंकराचार्य ने शिव के निर्गुण परम तत्व की प्राप्ति का ज्ञान प्राप्त किया, और शु( तंत्र विद्या का ज्ञान प्राप्त करते हुए श्री चक्र की उपासना का अनुभव किया।
gat aalekh par bhaai ankitji kee prem se saraabor paatee milee use jyon kaa tuon yahan prakashit kar rahe hain. ankit ji ko hriday kee gaharaayiyon se saadhubaad.
बहुत सुन्दर लेख है । प्रेम और निर्दयता भला एक साथ कैसे रह सकते हैं ? परमेशवर अपने प्रति जीव से उसके मन की कुरबानी मांगता है । वो मन जो अन्यथा अपने अहम को और माया के संसार और सांसारिक सम्बन्धों को ही प्राथमिकता देता है, अपने आत्मा-राम को नही । अपने मन को इसकी सारे गर्व , सारे मोह और सारी ईच्छाओं के साथ दिये बिना किसी को परमेश्वर के प्रेम(भक्ति) की सच्ची खुशी मिल ही नही सकती । आज की ईद जीव को इसी समर्पण की शिक्षा है ।सच्चे स्वामी के प्रति की गई कुर्बानी धन्य है , पर उस परम आत्माराम के पति ऐसी समपूर्ण कुर्बानी के नाम पर अगर हम किसी जीव को कष्ट पहुँचाते हैं , तो वास्तविक भक्ति नही होती । दूसरा किसी की पीडा को ना देखकर ये मन और पक्का ही हो जाता है , साथ ही साथ जीव अपने सिर पर कर्मों का भार और लादता है । कठोर मन तो कामनाऐं करने वाले मन से भी ज्यादा कंजूस होता है , फिर प्रीतम को क्या अर्पित किया गया ? बस एक निरिह बकरे का सिर ।
तंत्र वेत्ताओं ने जब प्रकृति को मल कहा तो अघोरियों ने कम्पन को अनुभव करने के लिए सार्थक प्रयास करने की वजाय गंदे रहना ही उद्देश्य बना लिया। महाराज जी ने इस पर एक वार्ता में बड़ी सटीक टिप्पणी की कि अगर गंदा रहने और मल खाने से ही मुक्ति मिलती तो सूअर तो स्वतः मुक्त हो जाता। इस प्रकार के साधनों से उस परम रुद्र को अनुभूत करने की साधना करने वाला साधक तो सूअर ही है। विस्तार भय से बचने के लिए हम यहाँ ज्यादा उदाहरण देना उचित नहीं समझ रहे हैं।
दिव्य रुद्र कहते हैं कि तंत्र तो आगम् विज्ञान है। यह ब्रह्म विद्या है। आगम के अंतर्गत ज्ञान आता है। आगम् से व्यक्ति ढलता है। लक्ष्य की दृष्टि से इसका उद्देश्य भी ज्ञान ही है। लेकिन यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है ज्ञान, गीता के श्लोक याद कर लेना नहीं है। ज्ञान है उस कम्पन की विशुद्ध अनुभूति जो सर्वव्यापी है और जो स्वयं के अंदर भी है। तंत्र के बारे में विभिन्न विद्वानों के आलेख इस अंक में प्रकाशित हो रहे हैं और भविष्य में भी इस पर चिंतन चलता रहेगा। यहाँ तो हम केवल परिचमात्मक चर्चा ही कर रहे हैं।
तंत्र की विभिन्न शाखाऐं हैं। जैसे वैष्णव, गाणपत्य, शक्ति, शाक्त, सौर आदि वहीं इसमें दो विचारधाराऐं हैं। दक्षिणपंथी वेदानुसार और वामपंथी वेद से अलग। तंत्र की दस महाविद्याऐं हैं जिनमें सबसे पहली त्रिपुर सुंदरी है। ज्ञानी जन त्रिपुर सुन्दरी कम्पनयुक्त शरीर को मानते हैं। शरीर के तीन पुर हैं। मूलधार से आज्ञा चक्र होते हुए सहस्राधार तक। इनकी साधना करने वाला व्यक्ति त्रिपुर सुंदरी को सिद्ध कर लेता है। और जो इसे सिद्ध कर लेता है उसके लिए जगत के पदार्थ अत्यंत ही छोटी वस्तु हो जाते हैं। प्रकृति तो ऐसे जन की चेरी होती है। आवश्यकता है तो केवल रुद्र को प्रतिफल प्रतिक्षण महसूस करने की।
बुद्ध और महावीर के बाद पैदा हुए अंधकार युग में पोंगाबाद के पनपने और अक्षम हाथों में सनातन परम्परा के आने के कारण ही कदाचित अर्थ का अनर्थ हो गया। योनि के द्वारा ब्लैक होल थ्योरी को समझने की जगह पोंगाबाद ने योनि के प्रति आकर्षण पैदा कर कामान्धता को प्रोत्साहन दे दिया। पश्चिमी देशों में तंत्र के नाम पर चल रही हजारों सैक्स की दुकानें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
तंत्र के तत्ववेत्ताओं ने शिव को रुद्र अर्थात् कम्पन रूप में अनुभूत किया। इस कम्पन्न ने जगत को मलरूप में अपने ऊपर धारण किया। यह कम्पन्न या रुद्र या शिव ही हर जीव के अंदर है और वह मल, अस्थि, मज्जा के मध्य स्पंदन करता है। इस प्रकार वह सब गुण जो सृष्टि में हैं उसकी इकाई के रूप में हर जीव का शरीर है। सृष्टि के अंदर जो कम्पन्न है उससे ही गति है और शरीर के अंदर के कम्पन से शरीर की गति है। अर्थात् जीव का शरीर अपने आप में सृष्टि की पूर्ण इकाई है। इसके अंदर का कम्पन स्वयं में पूर्ण कम्पन है।
तंत्र शब्द 'तन्' एवं 'त्र' से मिलकर बना है। तन् अर्थात् विस्तार। शूक्ष्म का विस्तार या शूक्ष्म को मूर्त रूप देना। परमात्मा अणुरूप है और वही विस्तार करता है। यह निराकार से साकार और शूक्ष्म से अनंत का ताना बाना है।
दिव्य रुद्र ने एक बार वार्ता में कहा कि तंत्र तो अंदर छिपी हुई कल्पना को साकार करने का विज्ञान है। किसी भी ज्ञान को समझाने के लिए उपलब्ध वस्तुओं का सहारा लेना पड़ता है। आज विज्ञान जिन रहस्योद्घाटनों की बात करता है उसे हमारे मनीषी हजारों हजार साल पहले उद्घाटित कर चुके हैं।
जिस ब्लैक होल थ्यौरी की आज विज्ञान चर्चा करता है उसे हमारी संहिताओं में हजारों हजार साल पहले वर्णित किया गया। उस वर्णन के लिए मनीषियों ने जिन प्रतीकों के माध्यम से समझाया, लोगों ने उन प्रतीकों को पकड़ लिया, जिस बात को वह समझाना चाहते थे उसे छोड़ दिया।
एक उदाहरण के माध्यम से क्षमा याचना के साथ यहाँ प्रकाश डालना चाहूँगा। अगर असहमति हो तो कृपा कर मुझे अवगत अवश्य कराये। उल्लेख मिलता है कि भगवती माहेश्वरी की योनि में सम्पूर्ण विश्व विराजमान होकर प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ता है और प्रलय काल में उसी योनि में तितोहित हो जाता है। क्या यह ब्लैक होल थ्यौरी नहीं है। जिसमें पाया गया है कि एक ब्लैक होल में यह पूरा जगत क्षण में विलुप्त हो जाता है। और उसी से निकल कर यह प्रकट होता है।
तंत्र शब्द आते ही सामान्य जन के अंदर डर का भाव पैदा हो जाता है। मैंने अपने एक प्रोफेसर मित्र से तंत्र विशेषांक छापने की इच्छा प्रकट की। मित्र ने कहा यह जादू टोना होता है। एक मित्र ने कहा कि तंत्र तो बुरी चीज हैं। एक अन्य मित्र ने कहा कि यह तो धर्म के नाम पर फरेबियों का कारोबार है। इन प्रतिक्रियाओं ने मेरे मन को दृढ़ किया कि तंत्र के बारे में सही जानकारी की जाए।
रुद्र संदेश पत्रिका का उद्देश्य ही सत्य की खोज है। साथ ही यह एक प्लेट फार्म है। इस प्लेट फार्म पर कुछ जिज्ञासु हैं और कुछ ज्ञानी। मंजिल सब की एक है। इंजन सभी का रुद्र है। रास्ता सभी का सत्य मार्ग है। हर अखबार का दूसरा पन्ना तांत्रिकों के विज्ञापनों से भरा है। ये विज्ञापन भी सामान्य जन को भ्रमित करते हैं। तंत्र का नाम आते ही कंकाल का चित्र दिमाग़ में बनने लगता है।
महाराज जी कहते हैं कि तंत्र तो वेदों से भी पहले से हैं। तंत्र विशुद्ध विज्ञान है। फिर उसकी छवि इतनी खराब क्यों है? इन समस्त बिन्दुओं ने मुझे प्रेरित किया कि तंत्र के विषय में विविध जानकारियाँ एकत्रित की जाऐं। इस पर सार्थक बहस हो। जन सामान्य के मानस पटल पर अंकित तंत्र की तथाकथित तस्वीर से धूल हटे, और सत्य मार्ग के समस्त दीक्षित, श्रावक, सत्संगी एवं साधक तंत्र का शोधन कर सत्य को आत्मसात करें।
मनुष्य उस परमात्मा का ही अंश है, जो कि सम्पूर्ण आनन्द को देने वाला है। उस परमात्मा का अंश होने के कारण उसका गुण भी हममें अवश्य ही विद्यमान है। परन्तु हम तो उस मृग के समान हैं जो स्वयं अंदर स्थित कस्तूरी की सुगंध से आकर्षित हो पूरे जंगल में भटकता फिरता है। फिर जब वो थक हार कर बैठता है तब उसे अहसास होता है कि यह सुगन्ध तो उसकी स्वयं की नाभि से आ रही है। हम भी अपने स्वरूप को बिसर कर सुख शांति आनन्द की तलाश में संसार में भटकते फिरते हैं, जबकि सच्चा शाश्वत आनन्द तो हमारे स्वरूप में ही स्थित है। बस हमें अपने उस प्रेममय, आनन्द, शान्ति, मौन से परिपूर्ण स्वरूप का ज्ञान हो जाए, जो कि "हम यह शरीर नहीं आत्मा हैं'' ऐसा मानने से होता है।
मनुष्य को पूर्ण सुखी जीवन पाने के लिए प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाना आवश्यक है। परन्तु उसके मन के विकारों खासकर लोभ ने उसे अन्धा बना दिया तथा वह प्रकृति से खिलवाड़ करने लगा। आवश्यकता से अधिक खनन, प्रदूषण, प्राकृतिक स्रोतों के अनुचित दोहन के कारण ही आज ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, भूकम्प, सुनामी, सूखा, अकाल, महामारी जैसी प्राड्डतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। हमें इनसे उबरने के लिए सिर्फ अपने भीतर की प्रकृति को सुधारना है, बाह्य प्रकृति स्वयं सुधर जाएगी।
जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ और शेष नहीं रह जाता। दुःख तब प्राप्त होता है जब हम अनुकूलता की आशा, सुख की इच्छा रखते हैं। इस आशा और इच्छा का परित्याग करके पीड़ा को प्रसन्नता पूर्वक सहना ही प्रतिकूलता का सदुपयोग है। यह हमें उस दुःख से उबार लेता है। सुख का सदुपयोग कैसे हो? इससे पहले जानें कि सुख किनके कारण होता है? यदि कोई व्यक्ति लखपति हो तो उसे अपने लखपति होने का अभिमान या सुख तभी होगा यदि उसके सामने वाला लखपति न हो। परन्तु यदि वह जिस जिस से मिले वे सभी करोड़पति हों तो उसे लखपति होना भी सुख नहीं देगा। इससे सिद्ध होता है कि हमारा सुख हमें दीन-दुःखी, अभाव ग्रस्त लोगों के द्वारा दिया गया है, अतः इसे इन्हीं की सेवा में लगा देना ही सुख का सदुपयोग है। यही सुखी का कर्तव्य है कि वह सुख बाँटे। जो सुख दुःख का भोग करता है, उस भोगी का पतन हो जाता है और जो सुख-दुःख का सदुपयोग करता है, वह इनसे ऊपर उठकर अमरता का अनुभव करता है।
आवश्यकता यह जानने की है कि पदार्थ, इन्द्रियाँ तथा मन सभी अनित्य तथा आने जाने वाले हैं। परन्तु हमारा वास्तविक स्वरूप नित्य तथा निर्विकार है। अतः सुख दुःख में धीरज रखकर उन्हें सह लेना चाहिए। संयोग तथा वियोग में अपना दृष्टा-साक्षी भाव बनाए रखें तथा निर्लिप्त, निर्विकार बने रहें। भगवान श्री Krishna ने गीता के दूसरे अध्याय के १४ वें श्लोक में कहा गया है-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः।
आगमापायिनो अनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥''
यह मनुष्य योनि हमें सुख दुःख भोगने के लिए नहीं अपितु इनसे ऊपर उठकर उस परमानन्द की प्राप्ति के लिए मिली है।
जहाँ सुख है वहीं दुःख है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। सभी कुछ अनित्य, विनाशी तथा परिवर्तनशील है अतः जिस व्यक्ति या वस्तु का संयोग आज सुख दे रहा है, कल वही वियोग होने पर दुःख का कारण भी होगा। वास्तव में इन पदार्थों में सुख दुःख देने की सामर्थ्य नहीं है परन्तु हम ही इनसे सम्बन्ध मानकर इनमें अनुकूलता, प्रतिकूलता की भावना कर लेते हैऋ जिससे ये पदार्थ सुख दुःख देने वाले बन जाते हैं। यही नहीं मन इंद्रियाँ भी निरंतर परिवर्तनशील होते हैं। जो आज मन-इन्द्रियों को अच्छा लग रहा है कल नहीं लगता। सुख देने वाली वस्तु का सुख लेने के बाद धीरे धीरे इन्द्रियाँ थक जाती हैं और नींद की आवश्यकता पड़ जाती है। लगातार किसी वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ से निरंतर सुख नहीं लिया जा सकता। जफसे यदि कोई अपने मित्र को प्रेम से गले लगा ले तो सुख लगता है परन्तु यदि फिर छोड़े ही ना तो वही दुःख रूप हो जाएगा। सुख दुःख एक दूसरे से इतने गहरे जुड़े हैं कि यह पता नहीं चलता कि कब सुख दुःख बन गया और कब दुःख सुख बन गया।
अक्सर हम देखते हैं कि लोग इस जीवन को दुःख रूप मानते हैं, तथा कहते हैं कि हमें यह जीवन मिला ही कष्ट भोगने के लिए है। सच है कि दुःख जीवन का तथ्य है पर यह अधूरा तथ्य है। सच यह भी है कि सुख भी जीवन का तथ्य है। इसे माने बिना सम्पूर्ण तथ्य तक नहीं पहुँचा जा सकता है। इस जीवन में सुख है इसीलिए दुःख भी है। संसार से मिलने पर वस्तुओं तथा व्यक्तियों से संयोग भी है फिर वियोग भी है। हमारा मन कुछ व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों को चाहता है तथा कुछ को नहीं। जिन्हें मन पसंद करता है उनके संयोग में सुख लगता है तथा जिन्हें मन पसंद नहीं करता है, उनके वियोग में सुख लगता है। इसके उलट जिन्हें मन पसंद करता है उनके वियोग से और जिन्हें पसंद नहीं करता, उनके संयोग से दुःख उपजता है। हमारी कमजोरी यह है कि हम विवेक, बु(ि से मन को मारना नहीं जानते। यदि इसकी पसंद मानकर मन मोटा न करें तो यह बस में रहे और फिर समता का भाव बना रहे। पर हम अनुकूल परिस्थिति को तो पकड़कर रखना चाहते हैं, परन्तु प्रतिकूल परिस्थिति से तुरन्त छुटकारा चाहते हैं। समता का दामन छोड़ने से ही ऐसा होता है। यदि हम सुख आने पर बाँटें तथा दुःख को प्रारब्ध का फल मानकर सहन करते चलें तो परेशानी न हो।
देवेश :- हम सभी के भीतर एक दिव्यता विद्यमान है, जिसे प्रार्थना के द्वारा जागृत किया जा सकता है।
अतुल :- उपरोक्त मतों से दो विचारधाराएं देखी जा सकती हैं- द्वैत तथा अद्वैत। द्वैतवादी मानते हैं कि हमें एक व्यक्ति के रूप में भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। प्रार्थना कैसे, क्या तथा क्यों करें? इस पर उनके अपने-अपने मत हैं। जबकि अद्वैतवादी स्वयं तथा भगवान में भेद नहीं समझते। तत्वदृष्टि से देखें तो हमारी आत्मा भी परमात्मा का ही अंश है, ऐसा वे मानते हैं। इस प्रकार प्रार्थना का उनके लिए कोई महत्व नहीं। प्रश्न यह उठता है कि अद्वैतवादी को यह ज्ञान कैसे होता है कि द्विव्य या परमात्मा तथा उसकी आत्मा एक ही है तथा ऐसा पूर्ण बोध होने से पूर्व वह क्या करता है? उत्तर- कहा जाता है कि या तो तुम कर सकते हो...... या जान सकते हो.... जब आप जानते हैं तो यह सिर्फ जानना ही होता है जो शेष रहता है तथा जिसे जाना जाए, वह खो जाता है।............... तो आप कुछ न करें................. बस रहें। यह मेरी व्यक्तिगत राय है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
अनुवादः- प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं कि जो आत्मा इस संसार में जीव रूप में है वह मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन तथा पाँचों इन्द्रियों को अपना मान लेता है।
गूढ़ार्थः- यह श्लोक अति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रत्येक जिज्ञासु की इस जिज्ञासा को शान्त करता है कि मैं कौन हूँ? मेरा क्या है? मैं कहाँ से आया हूँ? और मुझको मेरी पहचान पाने में क्या बाधा है? यहाँ भगवान कहते हैं कि जीव परमात्मा का शाश्वत अंश है "ईश्वर अंश जीव अविनाशी" उसकी इस संसार से कोई एकता नहीं क्योंकि यह तो प्रकृति है, उसी का कार्य है। जीवात्मा इस संसार में जब शरीर धारण करता है तभी से उसे संसार के बंधनों में जकड़ा जाने लगता है। उस पर अपने माता-पिता के नाम, जाति, कुल, गोत्र, देश, रिश्ते आदि के लेबल लग जाते हैं। यह सब इतनी सहजता से होता है कि जीवात्मा भ्रमित हो जाता है और अज्ञानवश इस शरीर की इन पहचानों को ही अपनी पहचान मानने लगता है। वह शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि से एकता मान कर परमात्मा के अंशी आत्मा से जीव बन जाता है। यहाँ जब श्री हरि स्वयं यह कहें कि प्रत्येक जीवात्मा मेरा ही अंश है तो यह हम सबके लिए कितने हर्ष का विषय है! परमात्मा हमें कितना प्रेम करते हैं। हमसे कितनी आत्मीयता रखते हैं। परन्तु हमारी निष्ठुरता तो देखिए। हम परमात्मा से विमुख होकर संसार की ओर आकर्षित हो जाते हैं व मन-इन्द्रियों के दास बन जाते हैं। मन व इन्द्रियाँ हमारी कभी सगी नहीं होतीं। हम चाहें कितना भी प्रयास करें वे संतुष्ट नहीं होतीं हमारी सारी ऊर्जा, समय व धन हम इन्हीं को सन्तुष्ट करने पर लुटा देते हैं, जबकि इन सब पर असल अधिकार परमात्मा का है, जिसकी कृपा से हमें यह सब प्राप्त हुआ है। परन्तु स्वरूप के विस्मरण के कारण ही हम संसार में भ्रमित होते फिरते हैं। सच यह है कि संसार सत्य है ही नहीं क्योंकि सत्य तो शाश्वत होता है जबकि संसार में सब कुछ चलायमान व क्षणभंगुर है। अपने पद, मान, सामान, मकान, जमीन, सौंदर्य, शक्ति, कुल आदि का अभिमान मिथ्या है ये हमारी असली पहचान नहीं बन सकते क्योंकि ये हमारे विजातीय है इनसे हमारा सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। हम परमात्मा का अंश है तो हममें भी उसी के गुण व्याप्त हैं- परमात्मा अजर, अमर, अविनाशी, अकर्त्ता, अभोक्ता है जबकि इन सभी उपरिलिखित वस्तुओं में जरा, मृत्यु, विनाश, कर्तापन व भोक्तापन है। अतः हमारी पहचान कुछ और ही है जो इस संसार में पहचानी जाने वाली हमारी पहचान से परे हैं। वह है हमारी आत्मा-शुद्ध चैतन्य, सत्चित् आनन्द स्वरूप, अजर-अमर अविनाशी
मुझे मेरे स्वरूप के ज्ञान में क्या बाधा है? इस प्रश्न का उत्तर भी इस श्लोक में है- यहाँ यह जान लें कि हम हैं ही आत्मा, बस हमें अपने स्वरूप का विस्मरण हो गया है। अर्जुन ने कहा है-"स्मृतिर्लाब्धा नष्येमोहः।'' अर्थात् अब मुझे स्मृति हो गई है ;अपने स्वरूप की और मेरा मोह रूपी अज्ञान नष्ट हो गया है। स्मरण हो जाने से विस्मरण स्वतः ही चला जाता है बस बाधा है मोह की, अज्ञान की। यह अज्ञान भी क्या है? जीव संसार के सम्मुख हो गया इसमें संसार कारण नहीं, और परमात्मा से विमुख हो गया इसमें परमात्मा कारण नहीं दोनों ही दशाओं में जीव स्वयं ही कारण है। परमात्मा का अंश होने के कारण स्वतंत्रता उस जीव का गुण है। उसे मानने न मानने का अधिकार है। और इसी का दुरुपयोग उसने किया अब उसका सदुपयोग भी उसे ही करना होगा। इसके लिए साधक को श्री भगवान द्वारा तीन मार्ग बताए गए हैं- पहला जो संसार से मिला है उसे संसार की सेवा में लगा दे, निष्काम व निरहंकार होकर। यह मार्ग है कर्मयोग। दूसरा- स्वयं को शरीर और संसार से बिलकुल अलग कर ले अर्थात् ज्ञान योग। तीसरा- स्वयं को ही भगवान के अर्पण कर दे जो है भक्ति योग। तीनों में से कोई भी मार्ग अपना ले फल एक ही-मुक्ति।
Mamaivansho jeevaloke jeevabhootah sanatanah
manah shashthani-indriyani prakritisthaani karshati.
Translation : -
The supreme Lord says that the soul which is in the from of living entity in this world is my eternal fragment but due to being situated in material nature he accepts the six senses, including mind as his own.
Purport:- This verse is very important as it satisfies some curiosity of all seekers- who am I? What is mine? whence have I come? and What is the hindrance between me and my real identity?
Here the supreme Lord says that the living entity is eternal fragmental part of Him. This world being the work of material nature, the living entity can never be one with it. But as soon as the living entity is 'born' in this world he is bound in various bonds of parental identity, heraldry, caste, gotra, nationality relations etc. All these labels are clung onto him and all this is done so spontaneously that the living entity becomes confused and due to his own ignorance he begins to recognize this body and all the aforesaid bonds as his identity. He considers himself one with body, mind, and senses and thus the soul become conditioned and becomes a Jeeva.
Here the good news for all is that the Supreme Lord himself is saying that all living entities are His fragmental part. How much God loves us! How much affection he has for us! but look at our own callousness! We leave God and are attracted towards this world and become the servants of mind and senses. Mind and senses can never be truly our own. No matter how much we try to satisfy them they are never contented. They suck away all our time, money and energy though the real claimant of all these is the Lord, by whose grace we get all these things. But due to being forgetful of our real identity we all are illusioned in this world.
The truth is that world is not true as the Truth is always Eternal. Where as nothing is permanent in this world, everything is transient and temporary. We are falsely proud of our anthority, honour, property, beauty, power, hevaldry etc. but these can never be our true identity- these are not compatible with our real self. we are the fragmental parts of God and possess His attributes. So we are ever-existent, never growing old, and imperishable, non-performing, non-consuming. while all the aforesaid things behave against these divine attributes. Our real identity is beyond the identity given to us by this world. Our true identity is our soul-Pure, consciousness-the true eternal blissful self.
What is the hindrance between me and my true identity? to answer this curiosity the supreme Lord asks us to know that we are souls. The only thing is that we are forgetful of this fact. Arjuna says-"Smritirlabdha Nashtomohah" ie now I have gained the remembrance of my real self and my ignorance is destroyed. As the remembrance comes forgetfulness is dispelled of its own. The only hindrance is our own ignorance- our affection. What is this ignorance- Living entity is attracted towards the world (the world is not its cause). He turns away from God (but God is not the cause of it). In both the cases the jeeva (conditioned soul) himself is the cause. Being the fragmental part of the supreme Lord, freedom is the attribute of conditional soul. He has the rights to accept or not to accept. He misused this freedom not to accept his true identity and now he has to utilize this very freedom for his welfare.
For this the supreme Lord has told three ways:- first- Whatever he has got from this world, he should engage in serving the world. egolessy and selflessly. This path is called Karma yoga. Second is to detach oneself completely from one's body and the world. This is the path of Gyan yoga. And the third path is to surrender oneself completely to God. This path is called Bhakti yoga. No matter which path one chooses the result is the same- Salvation (Mukti)
उस्मान :- आध्यात्मा हमें प्रार्थना करना नहीं सिखाता बल्कि हमें अद्वैत की ओर ले जाता है। जब आप अपने तथा भगवान में कोई भेद नहीं जानेंगे तो प्रार्थना की आवश्यकता ही कहाँ रह जाएगी?
पूजा चौधरी :- व्यक्ति को प्रार्थना ऐसे करनी चाहिए जैसे सब कुछ भगवान पर निर्भर है तथा काम ऐसे करना चाहिए जैसे सब कुछ उसी पर निर्भर है। जिस प्रकार दिन भर शरीर पर जमी धूल, मिट्टी, पसीना तथा गन्दगी को हम साबुन, पानी आदि से धो डालते हैं उसी प्रकार मन के विकारों तथा ashuddhiyon से मुक्त करने हेतु सौभाग्य से प्रार्थना नामक कीटाणुनाशक vishanaashaka उपलब्ध है।
:- प्रार्थना भगवान से तुरंत सम्बन्ध स्थापित करवाती है। यह भगवान से वार्ता करने तथा उनके आशीषों के लिए उनको धन्यवाद देने का एक माध्यम है। यह न मांगने के और न ही उनसे अपने कष्टों को हरने के उद्देश्य से की जाए। परन्तु कलियुग में प्रार्थना की यही अधोगति हो गई है। एक कृतज्ञ हृदय की भावाभिव्यक्ति ही सच्ची प्रार्थना है। यह उस भावना से तुलनीय है, जब आपके हृदय में मौन भावातिरेक हो, आँखें नम, हाथों में कम्पन, काँपते होंठ हों जैसे- जब आप किसी परम प्रिय से लम्बे अन्तराल के बाद मिलते हैं। इस क्षण सब कुछ निशब्द ही, स्वतः ही कह दिया जाता है तथा आप उसे करीब पाकर स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। ''प्रार्थना सदा हमारी कृतज्ञता की भावना का स्वतः प्रवाह हो... हमारे अस्तित्व से.... न कि मन से।''
प्रस्तुति : अतुल
मनुष्य का प्रारब्ध उसके कर्मों से तथा भाग्य उसके परिश्रम तथा क्रियाओं से निर्धारित होता है। जब हम प्रार्थना करते हैं तो ऊर्जा तथा ज्ञान के अनन्त स्रोत से हमारा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तथा हमें उनसे आशीष तथा मार्गदर्शन प्राप्त होता है। पूर्व कर्मों पर बहुत अधिक आश्रित होने पर हम उन्नति नहीं कर सकते। अतः स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए प्रार्थना करो।
प्रस्तुति : सुभाष
प्रार्थना न तो भगवान को प्रभावित करती है और न ही इससे उनका निर्णय बदलता है। प्रार्थना तो भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण की अभिव्यक्ति है। यदि लगा- तार प्रार्थना की जाए तो यह हृदय परिवर्तन करती है। फिर जो कुछ भी हो, व्यक्ति शान्तिपूर्वक सह लेता है। इस प्रकार यह व्यक्ति को कर्म के चक्र से मुक्त कर देती है। कर्म का नियम जैसे को तैसा का नियम नहीं है। प्रार्थना आपके कर्म को बदल सकती है क्योंकि यह स्वयं में एक अच्छा कर्म है। वह बुरे कर्मों को निष्क्रिय कर देती है।
प्रस्तुति : जयदेव
कर्म का नियम कदाचित यह सुनिश्चित करता है कि आप अपने कर्मों का फल पाएं। यह कहता है कि कुछ भी पूर्व निर्धारित नहीं है। आपका भविष्य आपके अभी के तथा पूर्व के कर्मों पर आधारित होगा। जहाँ तक प्रार्थना का प्रश्न है मेरे विचार में प्रार्थना का उद्देश्य सिर्फ यही है कि हम स्वयं अपनी सहायता करने को उद्यत हों तथा कुछ सकारात्मक वचनों को बोलकर हम बेहतर तथा आशान्वित महसूस करते हैं तथा अधिक कुशलता से कर्म करने लगते हैं।
प्रस्तुति : प्रीतम
प्रार्थना शब्द दो शब्दों के योग से बना है प्रार तथा धना। प्रार का अभिप्राय प्राप्त करने से है तो धना का धन से। धन क्या है? सामान्य व्यवहार में हम रुपये, पैसे, सम्पत्ति को धन समझते हैं लेकिन क्या यह वास्तविक धन है? धन वह है जो सदैव आबश्यकता पड़ने पर काम आवे। क्या रुपया या सम्पत्ति सदैव काम आ सकती है? शायद नहीं। तो फिर ऐसा कौन सा धन है जो सदैव काम आ सके।
वह केवल ज्ञान है जो सदैव साथ रहता है और कभी भी काम में आ सकता है। ज्ञानीजन सर्वदा और सर्वत्र पूज्यनीय होते हैं। विश्व के समस्त धर्मों, मतों एवं सम्प्रदायों में प्रार्थना का विधान है। उसके रूप अलग-अलग हैं। देश काल परिस्थिति के अनुसार प्रार्थना का स्वरूप बदलता है। भाषा और लिपि के अनुसार शब्द बदलते हैं लेकिन प्रार्थना तो सभी करते हैं। गोस्वामी जी ने मानस में कर्म की प्रधानता कही तो श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित किया, बुद्ध व्यक्तित्व के उन्नयन के लिए कर्म पर बल देते हैं तो मुहम्मद साहब, मूसा, ईसा भी विश्व को कर्म प्रधान मानते हैं। धर्मग्रंथों में लिखा है कि ईश्वर ने सर्वप्रथम मानव को कर्म करने के लिए धरा पर भेजा। चाहे कहीं वह सजा के रूप में ही क्यों न हो। गीता में भगवान ने भक्तों के चार प्रकार बताए हैं। भक्तों की यह चार श्रेणियां उनके द्वारा भगवान के सम्मुख की जाने वाली प्रार्थना, याचना या विनती के आधार पर की हैं।
आर्त भक्त दैहिक, दैविक या भौतिक कष्टों से आर्त होकर भगवान की शरण हो कष्टों के निवारण हेतु प्रार्थना करते हैं, वहीं अर्थार्थी परिवार की सुख समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं। जिज्ञासु भक्त उनके स्वरूप के ज्ञान हेतु सन्मार्ग पर लगाने की प्रार्थना करते हैं जबकि इन सबमें श्रेष्ठ ज्ञानी भक्त भगवान को सर्वाधिक प्रिय हैं जो आत्मज्ञानी होने के कारण स्वयं भगवत स्वरूप होते हैं, उन पर तो भगवत् कृपा की वर्षा स्वयं ही होती है।
सभी धर्मों में प्रार्थना पर विशेष बल दिया जाता है। प्रार्थना में लोगों के विश्वास का अंदाज विभिन्न धर्मों के प्रार्थना स्थलों पर आने वाले लोगों की संख्या से लगाया जा सकता है। यह स्थापित सत्य है कि उद्देश्य कुछ भी हो, उसकी प्राप्ति के लिए हमें भगवान के अलावा किसी का आधार नहीं है। उसकी कृपा से क्या सम्भव नहीं - गूंगा वाचाल हो जाए, लंगड़ा भी पर्वत को लांघ जाए। लोगों का विश्वास है कि प्रभु के प्रति श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करने पर वह सुनते हैं और इच्छित फल प्रदान करते हैं।
इगलास स्थित प्रस्तावित रुद्रेश्वर महादेव मंदिर पर सत्य पर विराट चर्चा का आयोजन किया गया। सत्य के मंथन एवं मानवता के कल्याण हेतु आयोजित इस आयोजन में अनेकानेक विद्वानों ने भाग लिया। आयोजन की अध्यक्षता नानकदास महाराज ने की तथा संचालन महावीर स्वामी ने किया। कार्यक्रम की शुरुआत श्री हरवीर सिंह ने भजन के माध्यम से की। साहब सिंह जी ने मानवता की भलाई हेतु वक्तव्य दिया। नाहर सिंह जी ने कहा कि मानव जीवन एक नाटक के समान है जिसमे हर कोई अपना अपना किरदार निभाता है। श्री प्रभू दयाल शर्मा,श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय, श्री हनुमान जी महाराज, श्री कानूनगो जी, श्री दीपचन्द वर्मा जी एवं श्री ओम प्रकाश शर्मा, संजय सिंह सहित अनेक विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए।
ईशोपनिषद् में भक्त समस्त प्राणिमात्र का पोषण करने वाले सत्य स्वरूप सर्वेश्वर, जगदाधार परमेश्वर से कहता है कि हे सत्य स्वरूप! आपका श्रीमुख स्वर्णिम, ज्योतिर्मय सूर्य मण्डल रूप पात्र से ढका हुआ है। अपने सत्यनिष्ठ भक्त की मनोकामना पूर्ति हेतु आप अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को निरावरण कर प्रत्यक्ष प्रकट करें:
'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥'
सत्ता मात्र 'सत्' है। इसके अतिरिक्त प्रकृति और प्रकृति का कार्य क्रिया और पदार्थ है, वह 'असत्' न कभी था, न है और न कभी रहेगा और 'सत्' का कभी भी अभाव नहीं होता। 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।' अतः मानव को विवेकपूर्वक अपने तन, मन एवं बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। स्वेच्छाचार पतन की ओर ले जाता है, सदाचार नैतिकता का आधार है। कल्याण का मार्ग सत्य का अनुसरण ही है।
प्रस्तुति : -परमजीत
उपनिषद इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं: 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' अर्थात् ब्रह्म सत्य स्वरूप, ज्ञान-स्वरूप एवं अनन्त है और जब ब्रह्म 'रसो वै सः' है, परिपूर्ण आनन्द है तब सत्य का आश्रय परिपूर्ण आनन्द ही प्रदान करेगा अन्यथा कुछ भी नहीं, जो हमारी खोती जा रही शांति वापस ला सकता है। सत्य परमात्मा तत्व है।
तत्व के संबंध में कहा गया हैः 'अनारोपिता कारं तत्वम्' उसका कोई रूप नहीं होता। स्वर्ण आभूषणों का तत्व नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह आभूषणों से पूर्व टुकड़े के रूप में होता है। तत्व एक देशीय पदार्थ न होकर सर्वव्यापी तथा दृष्टि से परे होता है तथा अनुभवजन्य होता है। वैसे ही सत्य भी अनुभवजन्य है। जैसे आत्मा की सत्ता सदैव एवं सर्वथा अनुभव की जाती है किंतु उसका दर्शन संभव नहीं है, वैसे ही सत्य एक सुनिश्चित शक्ति सम्पन्न सिद्धान्त है जो सम्पूर्ण सृष्टि रूपी विराट शरीर का संचालक हृदय है। समय पर रितुओं का आना, वृक्षों का पुष्पित और फलित होना, सूर्य चन्द्रादि सहित सभी ग्रहों और आकाश गंगाओं का अपनी अपनी कक्षाओं में रहना आदि परम सत्य का ही प्रत्यक्ष दर्शन है। जन्म और मृत्यु दोनों ही शाश्वत सत्य पर ही आधारित हैं।
मंत्र द्रष्टा आचार्य अपने शिष्यों से संवाद के मध्य 'रितं वदिस्यामि, सत्यं वदिस्यामि' कह कर सत्य की परम सत्ता को ही पुष्ट करते हैं। 'रितं तपः, सत्यं तपः, स्वाध्यायां तपः' परम तप का द्योतक है। मुण्डकोपनिषद में 'सत्यमेव जयते नानृतं', सत्य के समक्ष असत्य को धराशायी करता है। यही तो देश का आस्था वाक्य है।
प्रस्तुति : -संगीता जोशी
सत्य की सत्ता सर्वोपरि है। आस्तिक या नास्तिक सभी इसे स्वीकारते हैं। सत्य की खोज, मानव की चिर पिपासा बनी हुई है। सभी धर्म, सभी विचारक सत्य के अन्वेषण हो ही अभीष्ट मानते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् की श्रुति 'असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतमगमय' २०वीं सदी में मार्गदर्शन का अद्भुत कारण बनी। तीनों ही महावाक्य सत्य की ओर ही इंगित करने वाले हैं। ज्योति और अमृत भी सत्य का ही स्वरूप है। महात्मा गांधी ने 'असतो मा सद्गमय' से प्रकाश पाकर 'सत्य एवं अहिंसा को अपनाया। इसी के बल पर उन्होंने महाशक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को पूर्णतः छिन्न-भिन्न कर डाला था। न केवल भारतवर्ष अपितु अनेक राष्ट्र सत्य और अहिंसा के आश्रय से योरोपीय देशों की सैंकड़ों वर्षों की पराधीनता से मुक्त हो गए। यह सत्य की महिमा है।
प्रस्तुति : -आशीष
श्रुतियां मुक्त कंठ से सत्य की प्रतिष्ठा करती हैं, उनका गुण-गान करती हैं। परमात्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है। आनन्द स्वरूप परमात्मा ही एक मात्र सत्य हैः ÷एकं सद् विप्रा वहुधा वदन्ति,' विद्वान उस एक सत्य को अनेक प्रकार से परिभाषित करते हैं, उसे अनेक नामों से जानते हैं। उस एक सत्य का दर्शन, मनन एवं निदिध्यासन ही उनका प्राप्तव्य होता है। श्री मद्भागवत महापुराण के महात्म्य के प्रारम्भ में ही उसे ÷सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे' कह कर सम्बोधित किया गया है। इस महापुराण के प्रथम स्कन्ध में मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में ही उस विराट् परम पुरूष, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के उद्भव- स्थिति- संहार का कारण है, का 'सत्यं परं धीमहि' कह कर स्तवन किया गया है। वह एक ही परम सत्य है जो अपनी स्वयं प्रभा ज्योति से माया को सदैव एवं सर्वदा बाधित रखता है। आज के युग में भौतिक जीवन की चकाचौंध में वास्तविक सुख एवं शांति विलीन होती जा रही है। भौतिक दृष्टि से जो सर्वाधिक सम्पन्न राष्ट्र हैं, वहां आत्महत्याएं एवं मानसिक रोग बढ़ रहे हैं। पाश्चात्यता का अंधानुकरण कर बहुत कुछ हमारा देश भी इसी और बढ़ रहा है। ऐसे में अपने पुरातन ग्रन्थों का आश्रय एवं मान्यताओं की पुनर्स्थापना ही हमें शांति प्रदान कर सकते हैं और शांति एवं आनन्द निहित है सत्य के आश्रय में, सदाचरण में।
प्रस्तुति : -शील सारस्वत
मैने आपके विचारो पर इस लिए प्रहार किया था की सत्य रुढी न बन जाए। शास्त्रो का महत्व बिल्कुल नही है, ऐसा मेरा कहना गलत था। लेकिन कुरान और बाईबल धर्म शास्त्र नही है – वह एक राजनैतिक साम्रज्यवादी उद्देश्य से गढी गई आचार संहिताए है। धर्मांतरीत कर अपने मतावलम्बियो की संख्या बढाने का प्रचारवादी उपक्रम मानवता के लिए त्रासदी हीं है। सभी ईतने जिज्ञासु कहां है ? सभी मे जिज्ञासा और प्यास तो होती है, लेकिन इतनी नही की वह उसे परम सत्य की तरफ तेजी से बढा दे। कम है ऐसे लोग जिन की प्यास और जिज्ञासा तीव्र हो। ज्ञानियो के दिखाए मार्ग पर चलने से समय आने पर आदमी की प्यास जगती ही है। गुरु कृपा, भगवत कृपा और श्रद्धा की आवश्यकता? खुद के अलावा कौन परम गुरु हो सकता है। क्षणीक काल के लिए ढेर सारे गुरु मिलते है, उनसे श्रद्धा पुर्वक ज्ञान प्राप्त करना ही चहिए। लेकिन उस गुरु पर ठहर गए तो खोज अधुरी ही रह जाएगी। जब पकोगे तो भगवत कृपा अवश्य होगी। यह पृकृति का नियम है। धार्मिक पुस्तको की विकसीत मानव के निर्माण मे कोई भुमिका नही हो सकती। जी मै ऐसा ही सोचता हुं। आप अगर पुस्तको पर श्रद्धा रखते है तो स्वयं कितनी बार वेद, पुराण, रामायण, माहाभारत, गीता, उपनिषद, बाईबिल और कुरान पढे है?
प्रस्तुति : हिमवंत
बात प्राचीन महाभारत काल की है। महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान में हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहणी सेना मारी गई, इस युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस हुए तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया? इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले पितामह आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे, लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गयेऋ क्योंकि पीठ के बल ही जाकर गिरा था? करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म! तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया। लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया। अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।
प्रस्तुति : सुनीलदत्त शर्मा "शैलेश'' हि. इ. कॉलेज अलीगढ़
एक समय की बात है एक सन्त की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली कि उन्हें भगवान के दर्शन होते हैं। वह कहते थे कि वे भगवान से रोज साक्षात्कार करते हैं। उनकी इस प्रसिद्धि से प्रभावित होकर एक दिन दो जिज्ञासु उनके पास आए और उनसे याचना की कि उनका भी प्रभु से साक्षात्कार करवाऐं। सन्त ने उन्हें कुछ देर ठहरने को कहा। फिर अपने साथ एक छोटा सा डिब्बा लेकर, उन्हें लेकर वे चल पड़े। कुछ दूर पर एक झोंपड़ी के सामने जाकर रुके और उन जिज्ञासुओं को बाहर ही ठहरने का इशारा करके स्वयं भीतर चले गए। वहाँ एक कोढ़ी खाट पर पड़ा कराह रहा था। सन्त ने उसका हाल चाल पूछा फिर अपना डिब्बा खोलकर उसमें से कुछ ओषधियाँ का लेप निकालकर उसके घावों को साफ करके उन पर लगाया। पट्टी बाँधीं और जब कोढ़ी कुछ राहत महसूस करने लगा तब उससे कहा, चलो! अब ध्यान लगाते हैं। सन्त तथा कोढ़ी दोनों ध्यान लगाकर बैठ गए। कुछ देर ऐसे ही निश्चल बैठे रहे। दोनों जिज्ञासु वहाँ से देख रहे थे। फिर सन्त ने कोढ़ी से पूछा, 'क्या तुम्हें भगवद्दर्शन हुए?' उसने कहा, 'हाँ' हुए'। सन्त ने फिर पूछा कि भगवान कैसे दिख रहे थे? कोढ़ी ने उत्तर दिया, "बिल्कुल आप जैसे महाराज।'' फिर उसने सन्त से पूछा कि आपने भी तो भगवान के दर्शन किए होंगे। वह कैसे दिख रहे थे? सन्त ने कहा, "बिल्कुल तुम्हारे जैसे।'' बाहर खड़े जिज्ञासु अब रहस्य की बात समझ गए थे। सन्त और कोढ़ी दोनों एक दूसरे में परमात्मा को देख रहे थे। मर्म तो यही है कि सबमें परमात्मा का वास है। बस हम ही अपने अहंकार और अज्ञान में उसे देख नहीं पाते।
१। दो शिवलिंग, दो शालीग्राम, दो शंख, तीन दुर्गा और तीन गणेश भगवान की पूजा निषि( है।
२। मंदिर के लिए पिरामिडनुमा छत सर्वोत्तम होती है। मंदिर के ऊपर कलश व ध्वजा नकारात्मक ऊर्जा का शोषण करती है।
३। पितरों को मंदिर में स्थान न दें।
४। दीया या धूप दक्षिण में रखें। सवेरे घी व शाम को तेल का दीया जलाएं।
५। पूजा के पश्चात् उसी स्थान पर खड़े होकर तीन बार परिक्रमा करें।
६। आरती के समय थाली ७ बार घुमानी चाहिए। ३ बार घुटनों के सामने, २ बार नाभि, १ बार हृदय, १ मस्तक और अंत में पूर्ण प्रतिमा के आगे आरती की थाली घुमाएं।
७। पूजा में अक्षत खंडित न हो तथा उनमें सिंदूर, हल्दी, कुमकुम लगा थोड़ा-सा घी लगा दें। इससे लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।
८. भगवान को फूलों की पंखुड़ियां तोड़ कर न चढ़ाएं।
अपने दुख से जो दुखी, मनुष्य वो पशु समान।
औरों का दुख झेलता, उसे देवता मान।
उसे देवता मान, जो धरती स्वर्ग बनाये।
तप और परहित के बल महामानव बन जाये।
कह साधक कवि,कभी न डरना अपने दुख से।
जग के दुख को बङा मान ले अपने दुख से।
1। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य और कार्तिकेय की मूर्तियों का मुंह पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए। गणेश, कुबेर, दुर्गा और भैरव का मुंह दक्षिण की तरफ़ हो एवं हनुमान का मुंह नैरित्य दिशा की तरफ़ होना चाहिए।
2। उग्र देवता जैसे काली की स्थापना घर में न करें। इसके अलावा घर में संगमरमर की मूर्ति न रखें।
३. पूजा स्थल में भगवान या मूर्ति का मुख पूर्व, पश्चिम या दक्षिण की तरफ़ होना चाहिए। मूर्ति का मुख उत्तर दिशा की ओर नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में उपासक दक्षिणामुख होकर पूजा करेगा, जोकि उचित नहीं है।
४. पूजाघर के आस पास, ऊपर या नीचे शौचालय वर्जित है, पूजाघर में और इसके आस पास पूर्णतः स्वच्छता तथा शुद्धता होना अनिवार्य है।
५. रसोईघर, शौचालय, पूजाघर एक दूसरे के पास न बनाएं। घर में सीढ़ियों के नीचे पूजा घर नहीं होना चाहिए।
6। मूर्ति के आमने-सामने पूजा के दौरान कभी नहीं बैठना चाहिए। बल्कि सदैव दाएं कोण में बैठना उत्तम होता है।
७. पूजन कक्ष में मृतात्माओं का चित्र वर्जित है। किसी भी श्रीदेवता की टूटी-फूटी तस्वीर व सौंदर्य प्रसाधन का सामान, झाडू व अनावश्यक सामान पूजाघर में न रखें।
8. पूजाघर के द्वार पर दहलीज ज+रूर बनवानी चाहिए। द्वार पर दरबाजा लकड़ी से बने दो पल्लों वाला हो तो उत्तम होता है।
१। पूजा स्थल के लिए भवन का उत्तर-पूर्व कोना सबसे उत्तम होता है, पूजा स्थल की भूमि उत्तर-पूर्व की ओर झुकी हुई और दक्षिण-पश्चिम से ऊंची हो, आकार में चौकोर या गोल हो तो सर्वोत्तम होती है।
२। मंदिर के चारों तरफ़ द्वार शुभ हैं।
३। मंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा उस देवता के प्रमुख दिन ही करें या जब चंद्र पूर्ण हो अर्थात् पंचमी, दशमी एवं पूर्णिमा तिथि को मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करें।
४. शयनकक्ष में पूजा स्थल नहीं होना चाहिए। अगर जगह की कमी के कारण मंदिर शयनकक्ष में बना हो तो मंदिर के चारों ओर पर्दे लगा दें। इसके अलावा शयनकक्ष के उत्तर-पूर्व दिशा में पूजा स्थल होना चाहिए।
आत्मसातीकरण :- एक श्रावक को साधना के पथ पर आगे बढ़ने के लिए तथा सत्य को आत्मसात करने के लिए गुरुदेव के पावन सानिध्य में कम से कम तीन दिन रहकर अनुशासित जीवन व्यतीत करते हुए साधना करने की प्रक्रिया को सीखना होता है जिसको सीखकर निरंतर करते रहने से वह सत्य को आत्मसात करने योग्य साधक बन जाता है। यह अत्यंत ही सरल एवं सहज पद्धति है। जो श्री गुरुदेव के दीक्षित शिष्य बनना चाहें वे श्रावक बनकर साधना करते हुए सत्य को आत्मसात कर सकते हैं। आओ बढ़कर इस अवसर का लाभ उठाएं। सत्य के सागर में गोते लगाने हेतु उद्यत हों। कृपया उक्त के संदर्भ में अपने विचार संप्रेषित करें।
हमारा पता है- रुद्र संदेश १ शारदापुरम, क्वार्सी थाने के सामने, रामघाट रोड, अलीगढ़-२०२००१
२. मनन :- साधना के प्रथम चरण में इस पद्यति में प्रवेश लेकर एक माह तक गुरुदेव द्वारा विरचित ज्ञानयोग चर्चा का श्रवण करता है तथा अपना जीवन अनुशासित रखना सीखता है जिसके अंतर्गत प्रातः एवं संध्याकाल में दीप प्रज्वलित कर उसके सम्मुख बैठकर आधा घण्टा प्रातः व आधा घण्टा सायंकाल कैसेट, ब्ण्क्ण् का श्रवण या पुस्तकों का ध्यानपूर्वक पढ़ता है। रात्रि को सोने से पूर्व दस मिनट के लिए शवासन की मुद्रा में आज के दिन श्रवण किए गए ज्ञान वाक्यों का मनन करता है। एक माह के निरंतर श्रवण एवं मनन करने पर वह श्रावक बन जाता है।
पिछले पोस्ट पर हिम्मत जी की टिपण्णी बहुत सुंदर आई । उसे उसी रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।
शब्द "सत्य" नही हो सकते। शब्दो के अर्थ बदलते रहते है। शब्द बुद्धी का विषय है। भाव ज्यादा सक्षम है सत्य को अपने अंदर समाहित रखने में। ये पुस्तके जिनका नाम आपने लिखा है वे मृत पुस्तकें हैं। विकसित मानव के निर्माण मे उनकी कोई भुमिका नही हो सकती है - बल्कि वे बाधक हैं। परम सत्य का दर्षण सिर्फ और सिर्फ आत्मानुभुति से हो सकता है। आज इस दुनिया मे कोई ऐसा नही जो मुझे पार लगा सकता है, सिवाय मेरे खुद के। मेरा ईश्वर, मेरा सत्य मेरे अन्दर है। मेरी प्यास ही सबसे महत्वपुर्ण है। तुम्हारे शब्द बेकार है किसी और के लिए। जब तुम खुद प्रकाशित नही हुए तो औरो को प्रकाश दिखाने ढोंग क्यो करते हो ?
१. श्रवण :- सर्वप्रथम पूज्य गुरुदेव सत्य का प्रकटीकरण वेदों, उपनिषदों, पुराणों, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब आदि ओल्ड टेस्टामेण्ट, न्यूटेस्टामेण्ट के आधार पर अपने प्रवचनों के माध्यम से करते हैं। गुरुदेव स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सत्य वह है जो किसी से कटे नहीं। जिसे सभी ग्रंथ अकाट्य रूप से स्वीकार करें, वही सत्य है।
भारतीय सनातन परम्परा एक ऐसी गार्मेन्ट शॉप है जहाँ हर किसी के लिए उपयुक्त वस्त्र उपलब्ध हैं। यहाँ कोई बाध्यता नहीं कि आपको एक निश्चित साइज का कपड़ा ही पहनना पड़े। यदि आपके अंदर समर्पण का भाव है तो श्रीमद् भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताया गया भक्ति योग आपके लिए उपलब्ध है। जी हाँ! अगर आप समर्पण को अंधविश्वास मानते हैं। आपके अंदर जानने की प्रवृत्ति है तो आइए ज्ञान योग में आपका स्वागत है और अगर आप ज्ञान और भक्ति को फिजूल मानते हें और कर्म पर विश्वास करते हैं तो सहजरूप से आप कर्मयोग को अपनाएं।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि उक्त तीनों में से किसी एक योग को धारण करने वाला व्यक्ति शेष दो को स्वतः प्राप्त कर लेता है और यही सत्य मार्ग है जो हमारे पूज्य गुरुदेव ने आदि गुरु से प्राप्त किया। उसे आज के परिवेश में परिमार्जित कर जन सामान्य के लिए, अपने गुरुदेव की आज्ञा से प्रकटीकरण कर दिया है। सत्यमार्ग साधना तीन चरणों में होती है-
१। श्रवण २. मनन ३. आत्मसातीकरण
हमारे तथा सत्य के बीच सिर्फ एक अज्ञान का ही आवरण है। इस बात को दर्शाने के लिए एक कथा गुरु कहते हैं जो इस प्रकार हैं- एक राजा था। उसका एक राजकुमार था जो बाल्यावस्था में ही यात्रा के दौरान राजा-रानी से बिछुड़ गया। भटकते-भटकते वह एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ एक कबीला रहता था। कबीले के सरदार की दृष्टि उस पर पड़ी तो उसने उसे पालने की ठानी। उधर राजा ने उसको बहुत खोजा पर असफल रहा। अब तो राजकुमार वहीं पलने लगा और खुद को कबीले का ही सदस्य समझने लगा। राजा बूढ़ा हो चला था। उसे अपने राज्य के उत्तराधिकारी को एक बार पुनः खोजने की इच्छा जाग्रत हुई और एक अन्तिम प्रयास के लिए उसने अपने मन्त्रियों को आदेश दिए। अब राजा के आदमी पूरे राज्य में चप्पे-चप्पे पर पूछताछ करने लगे। एक आदमी उस कबीले तक भी पहुँचा वहाँ उसकी दृष्टि उस राजकुमार पर ही पड़ी जो कबीले की वेशभूषा में भी अन्य कबीले के सदस्यों से भिन्न दिख रहा था तो उत्सुकतावश राज्य के उस आदमी ने कबीले के सरदार से उसके बारे में पूछा तो सरदार ने सच-सच बता दिया कि वह किन परिस्थितियों में कब उसे मिला था। राजकुमार उस समय जो कपड़े पहने हुए था, वह भी दिखा दिया। अब तो राजा को भी वहाँ बुला लिया गया। राजा के संदेह करने पर उस सरदार ने राजकुमार जब उसे मिला था तो जिन वस्त्राभूषणों को धारण किए था, वह सब उसे दिखा दिए। अब राजा को और राजकुमार को भी उस पर भरोसा हो गया। राजकुमार जो अब तक कबीले के संस्कारों के कारण स्वयं को कबीले का सदस्य मानता था, वह अब समझ गया था कि वह तो असल में राजकुमार है। पढ़ने सुनने में यह किसी हिन्दी फिल्म की कहानी की तरह ही लगेगी परंतु यह ÷कथा' है। अपने स्वरूप के ज्ञान की जो कि बस अज्ञान के आवरण के हटने से स्वतः प्राप्त हो जाता है। हमारी आत्मा जब इस संसार में शरीर धारण करके आती है तो समझो कि कबीले में आ गया-राजकुमार। अब संसार में नाम, रूप, कुल, गोत्र, संस्कार ये सब ही हमें हमारी पहचान लगने लगते हैं दूसरों की भी यही पहिचान हम जानते हैं। पर हम तो हैं ही 'राजकुमार' वह सत्चित् आनन्द स्वरूप आत्मा जो अजर अमर अविनाशी है। बस उस राजकुमार के समान इस 'सत्य' का विस्मरण हो गया है पर जब गुरु के ज्ञान का प्रकाश फैलता है तो हमें हमारे पुराने कपड़े दिखाए गए मानें। वह हमें यह निश्चय पक्का करा देते हैं कि हम हैं ही आत्मा और हर तरफ, हर जगह है ही 'राजा' परमात्मा की सत्ता। सत्य तो स्वतः सिद्ध है, सदा है, अक्षर है, बस उसका विस्मरण हो गया है।
आइए गुरु की शरण में चलें जो अज्ञान के आवरण को हटाकर हमें हमारे स्वरूप का स्मरण करा दें, तो हम भी अर्जुन की तरह कह सकें- स्मृतिर्लब्धा नष्टों मोहः अर्थात् मुझे अपने स्वरूप का स्मरण हो गया है और मेरा मोह, अज्ञान नष्ट हो गया है।