आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Saturday, August 30, 2008

सप्ताह का विचार

गुरु कहते हैं -
सौ बार कोई गाली दे फिर भी तुम्हारा निष्काम भाव वैसा ही बना रहे ,और उसके दर पर निष्काम सेवा जारी रहे ,तब समझना कि तुम पूंर्ण निष्कामी हो ।

Friday, August 29, 2008

कड़वी हकीक़त

एक अमीर लड़की को School में गरीब परिवार pe Essay लिखने को कहा गया

ESSAY :एक गरीब परिवार था, पिता गरीब,माँ गरीब, बच्चे गरीब।

परिवार में 4 नौकर थे, वोह भी गरीब।

Car भी टूटती हुई SCORPIO थी।

उनका गरीब ड्राईवर बच्चों को उसी टूटती Car में School छोड़ के आता था।

बच्चों के पास पुराने N95 Mobile थे।

बच्चे हफ्ते में सिर्फ 3 बार ही HOTEL में खाते थे।

घर में केवल 4 2nd Hand A।C. थे.सारा परिवार बड़ी मुश्किल

से ऐश कर रहा था।!!

प्रस्तुति : Er.Sachin Sharma: विसित .rudragiriji.net

Thursday, August 28, 2008

इतनी कृपा कर


दाता दयाल तू इतनी कृपा कर

------ कि जब मुझ पर तेरी अनुकम्पा बरसे

***** तो मैं इतराऊँ नहीं।

-------और जब मेरे गुनाहों का फल मुझे मिले

****** तो मैं घबराऊँ नहीं.

Thursday, August 14, 2008

ज्ञान का महत्त्व शिक्षा से बहुत ऊंचा है

ज्ञान शब्द अपने आप में परिपूर्ण है। संसार में अगर चारों ओर गहरी दृष्टि से देखा जाए तो यह संसार ज्ञान का समुद्र है। मानव चाहे तो इसमें गोता (डुबकी ) लगाए और ज्ञान प्राप्त कर ले। जो जितनी गहरी डुबकी लगाता है, वह उतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है और गहरी डुबकी लगाने के लिए लम्बी साँस रोकने की आवश्यकता होती है। बस यही रहस्य जीवन में इस संसार में रहकर ज्ञान प्राप्त करने का है, कि जो जितनी मेहनत करेगा वह उतना ही सफल होगा। पर यह ज्ञान चीज क्या है और हमें प्राप्त कहाँ से होता है? ज्ञान कितने प्रकार का होता है अथवा ज्ञान का प्रयोग किस तरह होता है, यह अपने आपमें महत्वपूर्ण है। ज्ञान अगर न होता तो मानव, मानव न होकर क्या होता?.................शायद जानवर भी ना होता क्योंकि जानवर भी अपने मतलब का ज्ञान रखते हैं। जब से खुदा ने संसार की रचना की साथ-साथ ज्ञान भी दिया। मानव की इच्छाओं के साथ-साथ ज्ञान का महत्व बढ़ता गया। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और ना ही ज्ञान प्राप्त करने की कोई आयु आँकी गई है। ज्ञान हर व्यक्ति को प्राप्त भी नहीं होता, केवल किताबें पढ़ लेना या डिग्रियाँ प्राप्त कर लेना ज्ञान नहीं है।

ज्ञान का महत्व शिक्षा के स्तर से बहुत ऊँचा है। ज्ञान मानव की पूरी ज़िन्दगी को ही बदल कर रख देता है, उसके सोचने समझने का ढंग ही बदल जाता है, ज्ञान वह शक्ति है जिसके द्वारा मानव सात परदों के पीछे छिपे रहस्य को भी पा लेता है, ज्ञान के द्वारा ही मानव ने अपने असतित्व की क्रिया को समझा। मानव जिस तरह वजूद (अस्तित्व) में आता है, वह एक बहुत ही बदतरीन (कलुषित) हालत होती है। क़ुरआन में अल्लाह ने ज्ञान और मानव के अस्तित्व के बारे में जगह-जगह बात की है और बताया है कि मैंने ही तुमको पैदा किया और मैं ही तुम्हें ज्ञान देता हूँ। सूरह अल अलक़ ० (ब्ींचजमत ९६ फनतंद) "पढ़ो अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया, जमे हुए लोथड़े से मानव की संरचना, पढ़ो और तुम्हारा रब बड़ा करीम (करम ÷मेहरबानी' करने वाला) है, जिसने कलम के जरिए (द्वारा) से इल्म (ज्ञान) सिखाया, इंसान (मानव) को वह ज्ञान दिया जिसे वह नहीं जानता था''................................. यह अल्लाह का बड़ा करम है कि उस हक़ीर तरीन (निम्नतम) हालत से इब्तदा (प्रारंभ) करके उसने मानव को ज्ञानी बनाया जो मखलूक़ात की बुलन्द तरीन सिफ़त (जीवीयों का सर्वश्रेष्ठ गुण) है, और केवल ज्ञानी ही नहीं बनाया बल्कि उसको क़लम के प्रयोग से लिखने की कला बताई जो बड़े पैमाने पर ज्ञान की अशाअत (प्रसार) तरक्क़ी और पीढ़ियों द्वारा उसकी सुरक्षा एवं उन्नति का जरिया बना। अगर वह (अल्लाह) निवीन द्वारा मानव को क़लम और किताबत (लिपि) की कला का यह ज्ञान न देता तो मानव की इलमी क़ाबलियत (ज्ञानपरक योग्यता) ठिठुर कर रह जाती और उसके फलने, फूलने, फैलने और एक पीढ़ी का ज्ञान दूसरी पीढ़ी तक पहुँचने और आगे ज्+यादा तरक्की करते चले जाने का अवसर ही न मिलता। वास्तव में मानव बेइलम (अज्ञानी) था उसे जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त हुआ। अल्लाह के देने से प्राप्त हुआ, उसी ने जिस मरहले (चरण) पर मानव के लिए ज्ञान के जो द्वार खोलने चाहे वह उस पर खुलते चले गए। जिन-जिन वस्तुओं को भी मानव अपनी इलमी दर्याफ़त (ज्ञानी खोज) समझता है वास्तव में वह पहले उसके ज्ञान में न थी। अल्लाहताला ने जब चाहा उनका ज्ञान उसे दिया, बिना इसके कि मानव यह महसूस (प्रतीत) करता कि यह ज्ञान उसे कौन दे रहा है। ज्ञान के द्वारा ही मानव ने बड़ी-बड़ी खोज की, वह ज+मीन के नीचे, आकाश के ऊपर और समुद्र की तह तक पहुँच सका। ज्ञान ही हमें आत्मा, परमात्मा पर विश्वास करना सिखाता है, मरना (मौत) और फ़िर जीना, हमारे अच्छे बुरे कर्मों का फ़ल मिलना, यह सब हमें शिक्षा से प्राप्त होता है। परंतु इन पर विश्वास ज्ञान द्वारा ही होता है। ज्ञान के द्वारा ही मानव चाँद पर पहुँचा, और ज्ञान द्वारा ही मानव भगवान, ईश्वर या ख़ुदा तक पहुँचता है, शर्त यही है कि ज्ञान किस प्रकार का है और उसका प्रयोग किस तरह किया जाता है। यूँ तो आज के संसार में हर व्यक्ति ज्ञानी है पर जो ज्ञान मानवता के काम आए और ईश्वर, ख़ुदा या भगवान जो ज्ञान देता है वही शुद्ध ज्ञान है।

हजरत अली (क।) का वक्तव्य है कि जिस व्यक्ति ने मुझे एक शब्द भी पढ़ा दिया मैं उसका दास हूँ। वह चाहे तो मुझे आज+ाद कर दे या बेच दे।

इमाम शाफ़ई (रह।) का प्रवचन है कि जो व्यक्ति उदासीनता और संतोष के साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहे वह कदापि सफल नहीं हो सकता। केवल वह व्यक्ति सफल हो सकता है जो विनम्रता और विपन्नता के साथ ज्ञान प्राप्त करे।

बुखारी शरीफ़ में मुजाहिद (रह।) द्वारा उल्लिखित है कि जो व्यक्ति पढ़ने में लज्जा अथवा दंभ करे वह कदापि ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।

प्रस्तुतकर्त्ता : इज़हार उल हक अलीगढ

बाइबल के अनुसार ज्ञान

मानवीय शरीर में पाँच इन्द्रियाँ पायी जाती हैं जिसके द्वारा मनुष्य इस संसार में अपने ज्ञान को अर्जित करता है जिसका प्रयोग वह इस संसार में करता है। ज्ञान से ही समस्त मानव जगत का तथा स्वयं का कल्याण हो सकता है अन्यथा इसका गलत प्रयोग भी हो सकता है। पवित्र शास्त्र बाइबल में ज्ञान का उद्गम स्वयं परमेश्वर हैं। भजन संहिता ९२ः१० "परमेश्वर मनुष्य को ज्ञान सिखाता है। भजन १९ः१-२ में पाते हैं कि परमेश्वर प्रदत्त सृष्टि (सम्पूर्ण ब्रह्मांड) परमेश्वर के ज्ञान को बताती है। परमेश्वर का वचन
बाइबल भी ज्ञान का अभूतपूर्व उद्गम है। ज्ञान भिन्न-भिन्न प्रकारों में सम्पूर्ण जगत्‌ में पाया जाता है, जिसकी दो प्रमुख धाराऐं हैं: भौतिक ज्ञान एवं अलौकिक या आध्यात्मिक ज्ञान। भौतिक ज्ञान मनुष्य स्वयं अर्जित करता है, जिसमें यह आवश्यक नहीं है कि वह श्रेष्ठ एवं सत्य तथा वास्तविक मानव कल्याण हेतु हो क्योंकि इसमें स्वार्थ एवम्‌ घमंड पाया जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान का स्त्रोत स्वयं परमेश्वर है जिसका अर्जन मानव अपनी भौतिक सामर्थ्य एवं स्वकर्मों से नहीं कर सकता अर्थात्‌ यह ज्ञान परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा प्राप्त होता है जिसमें ईश्वरीय सत्य पाया जाता है और ईश्वरीय ज्ञान में स्वतंत्र करने एवं छुटकारे की क्षमता पायी जाती है। परमेश्वर का सत्य ज्ञान इस संसार में पँचमहाभूतों
में दृष्टिगोचर होता है, जिन्हें हम मानवीय आँखों तथा पंच इंद्रियों द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। आकाश, जल, वायु, अग्नि तथा पृथ्वी हमारे वातावरण का अभिन्न अंग है जो परमेश्वर के अनुग्रहकारी ज्ञान को विस्तृत आधार पर प्रगट करते हैं। परमेश्वर अदृश्य हैं वहीं समस्त ब्रह्मांड का कर्त्ता है तथा समस्त वस्तुएँ उसमें निहित हैं। परमेश्वर का अनंत उद्धार एवं छुटकारा जो सम्पूर्ण मानव जाति एवं सृष्टि हेतु है, स्वयं प्रभु यीशु मसीह के देहधारण ;प्दबंतदंजपवदद्ध में प्रगट है। संतयूहन्ना का सुसमाचार का प्रथम अध्याय इस बात को प्रमाणित करता है।'' आदि में वचन (शब्द) था........................................... उसमें ज्योति थी..................... उसने हमारे बीच में निवास किया अर्थात्‌ ठहर गया और मानव जाति का उद्धारकर्त्ता बन गया (यूहन्ना१ः१-१४, बाइबल)। ज्ञान का मूल्य सोने से श्रेष्ठ है (नीति वचन ८ः१०) यह हमारी शक्ति को बढ़ाता है। महर्षि यशायाह कहते हैं कि "ज्ञान मनुष्य को नाश होने से बचाता है तथा स्थिरता प्रदान करता है।'' सत्य ज्ञान जो स्वतंत्र करता है, वह परमेश्वर की ओर से है परंतु जब उसमें मिलावट कर दी जाती है तब वह पतन का कारण बन जाता है। मनुष्य का पापी स्वभाव ज्ञान को मिटा तथा दबा देता है। मनुष्य का अधर्म सत्य को ढाँकने की कोशिश करता है और सृष्टि को देखकर भी परमेश्वर के अनंत छुटकारे को समझ नहीं पाता। उदाहरणस्वरूप सृष्टि की घटना में प्रथम मानव (आदम-हव्वा) ने अपने ज्ञान का गलत उपयोग कर परमेश्वर की आज्ञा की अवहेलना द्वारा "भले एवं बुरे के ज्ञान'' नामक वृक्ष के फल को चख लिया जो उनके जीवन में विनाश एवं श्राप लेकर आया। प्रिय मित्रों हमें हमेशा ऐसे ज्ञान की खोज में रहना चाहिये जो सत्य एवं छुटकारा प्रदान करता है। अधिक ज्ञान कभी-कभी पतन एवं विनाश की ओर ले जाता है यदि उसका समुचित प्रयोग न किया जाये।

प्रस्तुति : रहव् संतोष पाण्डेय क्रिस्ट चर्च अलीगढ

वास्तविक ज्ञान .........

यह विषय जितना सरल है उतना ही गूढ है। संसार में ज्ञान का अर्थ है- 'जानना'। लोग विद्यालयों में दी जाने वाली विद्या को ही ज्ञान मानने की भूल कर बैठते हैं। 'रुद्र संदेश' जैसी आध्यात्मिक मूल्यों को समर्पित पत्रिका में स्थान पाने वाला विषय विद्यार्जन नहीं बल्कि इससे कहीं गूढ़ आत्म-ज्ञान से सम्बन्धित है। विद्या हमें व्यवहार जगत में तो मदद दे सकती है पर अपने मन, बुद्धि, अंहकार को समझने तथा उनसे पार जाने, उनका उल्लंघन कर जाने की क्षमता 'ज्ञान' से ही प्राप्त हो सकती है। शास्त्रों में ज्ञान प्राप्ति के आठ अंतरंग साधन बताए गए हैं- विवेक, वैराग्य, शमादि षट्सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्ष्य तथा समाधान ), मुमुक्षुता, श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा तत्तपदार्थ संशोधन। संसार में हर मनुष्य दुःखी है क्योंकि 'ज्ञान' नहीं है। अज्ञान ही हमें हमारे सत्‌-चित्‌ आनन्द स्वरूप से दूर ढकेल देता है। यह नहीं कि यह आनन्द ज्ञान होने से मिलता है वरन्‌ हम तो है हीं आनन्द रूप, बस अज्ञान का आवरण हमें उसे देखने नहीं देता।
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन, अमर, सहज सुखदासी।''
जिस प्रकार अंधकार को दूर करने के लिए प्रकाश करना पड़ता है। उसी प्रकार अज्ञान को दूर करने के लिए गुरु के चरणों में बैठ कर ज्ञानार्जन करना पड़ता है। उस समय वह कर्मों और पदार्थ से ऊँचा उठ जाता है। उसका लक्ष्य कर्म तथा पदार्थ न रह कर, चिन्मय तत्व ही उसका लक्ष्य हो जाता है। जब अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश फैलता है तो साधक बरबस ही कह उठता है।
"भीतर है सखा, तेरा सखा, मन लगा के देख, अन्तःकरण में ज्ञान की ज्योति जला के देख।''
ज्ञान हमें इस जगत्‌ का दृष्टा, साक्षी बना देता है। हम यह जान जाते हैं कि हम इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं। ज्ञानी जन सदा अपनी विवेक बुद्धि को जाग्रत रखते हैं तथा संसार की बातों की उनमें कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। वह जानता है कि जो कुछ भी हो रहा है उसी परमात्मा की लीला है, उसी की सत्ता से, शक्ति से है। स्वामी रामसुख दास जी ने एक स्थान पर कहा है, कि "वास्तव में ज्ञान स्वरूप का नहीं होता, अपितु संसार का होता हैं। संसार का ज्ञान होते ही संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।'' मन बुद्धि को एकाग्र करने के उपरान्त वह उनसे उपराम हो जाता है तथा शेष रह जाती है असीम शान्ति तथा परमानन्द। आत्मज्ञान कितना गूढ़ विषय है और कितना महत्वपूर्ण यह कठोपनिषद में वर्णित नचिकेता तथा यमराज के संवाद से पता चलता है। नचिकेता के द्वारा आत्मज्ञान का वरदान मांगे जाने पर यमराज ने उन्हें यूँ ही तत्वज्ञान नहीं दिया वरन्‌ पहले उनकी परीक्षा लेकर यह सुनिश्चित किया कि वे इस ज्ञान के अधिकारी हैं भी या नहीं। पहले उन्हें इस ज्ञान के बड़े दुरूह होने की बात कह कर डराया फिर उन्हें संसार का साम्राज्य देने तथा स्वर्ग के सुखों को मनचाहे काल तक भोगने का प्रलोभन भी दिया। परन्तु नचिकेता भी आत्मज्ञान के महत्व को भली भाँति जानते थे। वह कुशाग्र बुद्धि वाले, चतुर, दृढ़निश्चयी, श्रद्धावान तथा वैराग्यवान थे। उन्होंने स्वयं को सुपात्र सिद्ध करके तत्व ज्ञान को प्राप्त किया जो कि अमृत तत्व को देने वाला है तथा जिसको जानने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। श्रीमद्भगवद् गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने तीन प्रकार के योगों का वर्णन किया है- कर्म योग, ज्ञान योग तथा भक्ति योग। परन्तु उन्होंने हर जगह एक योग के फल रूप में अन्य दो योग बताए। अतः हम कह सकते हैं कि ज्ञानी के कर्मयोग तथा भक्तियोग स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। कहा भी है भक्ति तथा ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं
"भक्ति सूनी ज्ञान बिना और ज्ञान है रूखा भक्ति बिना।''
भगवान को भी ज्ञानी भक्त प्रिय है। वो कहते हैं कि ज्ञानी भक्त स्वयं भगवद्स्वरूप है। कारण कि ज्ञानी होने के कारण उस भक्त का संसार से मोह सर्वथा नष्ट हो जाता है और वह स्वयं को ब्रह्म जानने लगता है। वह ब्रह्म जिससे शोक, मोह-चिन्ता, आसक्ति, राग-द्वेष, मान-अपमान, जीवन-मरण, सुख-दुःख, क्लेष आदि है ही नहीं। इन सबसे ऊपर उठा हुआ ज्ञानी भक्त परमपद को प्राप्त होता है। वह जीवन में ही मुक्त है। इन तथ्यों को व्यापक रूप में समझने के उद्देश्य से हमने विभिन्न धर्मों के विचारकों के विचार भी इस अंक में प्रस्तुत किए हैं.............

Thursday, August 7, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 13

गतांक से आगे....

...........जो ज्ञानी होता है, वह अपने से बड़ी आयु और बड़ी जाति वालों में भी पूज्यनीय होता है। ज्ञानी चाहे किसी भी जाति का हो पूज्य है। क्योंकि बिरादरी चमड़ी की होती है और ज्ञान बुद्धि का। बुद्धि किसी जाति विशेष की नहीं होती ज्ञान से होती है।

जाति न पूछो सन्त की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥

ज्ञान के लिए बुद्धि देखनी चाहिए और भोग के लिए जाति देखनी चाहिए। लड़के लड़की का रिश्ता करना है, तो जाति कुल, अंश-वंश इनको देखो। परन्तुु यदि ज्ञान प्राप्त करना है तो जाति कुल नहीं सिर्फ बुद्धि को देखो। ...... विस्त्रत के लिए इस लिंक पर क्लिक करें ................ http://www.bhagawat-katha.blogspot.com/

जिज्ञासा और समाधान

इस माह में पाठकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर

जिज्ञासाः- महाराजश्री, हमारे अंदर सुनने की इच्छा क्यों नहीं होती है? -रमेश सिंह, नई दिल्ली

समाधानः- बहुत सुन्दर प्रश्न किया है। रमेश जी! होता यह है, कि मनुष्य मन के चलाने से चलता है। मन टूटने को तैयार नहीं होता है। मन अपने स्वाद, इच्छा और अनुकूलता के अनुरूप चलना चाहता है। मन सत्य की ओर न चलकर असत्य की ओर दौड़कर जीवित और बलिष्ठ रहने की मिथ्या आकांक्षा (तृष्णा) पालते रहने का आदी हो गया है। मन की इसी आकांक्षा के वशीभूत मनुष्य सुनने को तैयार नहीं होता है।

जिज्ञासाः- महाराज जी भाई संजयजी ने बताया कि आप अपने दीक्षित शिष्यों को श्रावक शब्द से सम्बोधन करते हैं। श्रावक तो जैनियों में होते हैं। आध्यात्मिकता में श्रावक शब्द का क्या महत्व है? -शालिनी अरोरा, नॉएडा

समाधान- कोई शब्द कहीं प्रयोग होता है, इसका अर्थ यह तो नहीं कि वह शब्द अपनी प्रासंगिकता खो देगा। असल में हमारे ही कुछ तथाकथित गुरुओं ने अधकचरे ज्ञान के आधार पर दुकानें सजा ली हैं। ऐसा ही सनातन धर्म के अंधकार युग में हुआ था। वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में भी हमें कुछ तथाकथित लोग उस अंधी सुरंग में अनजाने ही धकेल रहे हैं। इस बात से क्या अंतर पड़ता है कि किसने किसके लिए किस शब्द का प्रयोग किया? हमें तो सत्य की ओर चलना है। प्रश्न यह उठता है कि सत्य क्या है? क्या गारंटी है, कि सामने वाला जिसे सत्य बता रहा है, वही सत्य है? याकि वह भी आपको अपने मन के अनुकूल ले जाने का प्रयास कर रहा है। आपने सुना तो होगा कि पानी पीयो छानकर, गुरु बनाओ जानकर। यह जानने का जो शब्द यहाँ प्रयोग हुआ है, उसकी पहली कड़ी श्रवण करना है। और श्रवण करना कोई आसान चीज नहीं है। साधक बनना आसान है लेकिन श्रावक बनना कठिन है। स्वभावतः मनुष्य का मन तृष्णा पालने का आदी हो गया है। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि मनुष्य, गुरु भी मन के मानने से ही बनाने लगा है।

जिज्ञासाः- महाराज जी आप जिसे मन कह रहे हैं वह अंतरात्मा की आवाज भी तो हो सकती है।

-खुशबू चौधरी, अलीगढ

समाधान :- हो सकती है। लेकिन हमेशा हो ऐसा सम्भव नहीं है। जानने के चरण होते हैं। अक्सर हम जानना उसको कह देते हैं जो हमारे मन के अनुकूल होता है। हमारे बहुत से पूर्वाग्रह भी इसमें सहयोग करते हैं। जानने के चरणों को समझें- पहले हम किसी बात को सुनने की इच्छा विकसित करें। इसके लिए समस्त पूर्वाग्रहों का निषेध करना होता है। -फिर उन बातों को सुनें - फिर सुनी बातों पर मनन करें - फिर विवेक विकसित करें- क्या इस बात को सभी शास्त्रों ने स्वीकार किया है? क्या संत इन बातों को स्वीकार करते है? क्या हमारे माता पिता तथा गुरु भी इनको स्वीकार करते हैं। अगर उत्तर हाँ में मिले तो पकड़ लें और अगर कहीं से भी प्रतिकूल मिले तो छोड़ दो। http://www.rudragiriji.net/