आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Friday, March 26, 2010

बड़ों में दोष नहीं बल्कि अच्छाईयाँ देखनी चाहिए

महाराज जी कहते - छोटों को बड़ों में दोष नहीं बल्कि अच्छाईयाँ देखनी चाहिए और स्वयं बड़प्पन नहीं लेना नहीं देना चाहिए। हमें अपने पूज्यनीय व सभी बड़ों को सम्मान और बड़प्पन देना चाहिए यही हमारी सभ्यता और संस्कृति है, लेकिन हम क्या कहते हैं अभी इस पल हमारे अन्दर जो सेवा और सम्मान का भाव है। दूसरे ही पल बड़ो के कुछ कह देने मात्र से हो ;चाहे वह बात हमारे भले की ही क्यों ना हो। इस पर ध्यान न करद्ध वही सेवा और सम्मान का भाव कुभाव बदलने लगता है। और हम भूलने लगते हैं कि यह हमसे बड़ा है और इस दुर्भाव के चलते गालियाँ देने से भी नहीं हिचकिचाते हैं।

सद्भाव तो वही होते हैं, जो किसी भी स्थिती में बदले नहीं, क्योंकि भगवान प्रतिकूल परस्थिती बनाकर ही परीक्षा लेते हैं। और जो व्यक्ति उस परीक्षा को पास कर लेता है, वही प्रभु और गुरु चरणों के परम पद का अधिकारी होता है। अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को विरासत में सभ्यता और संस्कार भी दे सके, इसलिए सबसे पहले हम बड़ों को संस्कारी होगा। गुरुदेव कहते हैं, "संस्कार जिसके शुभ हैं ;आचार-विचार को दृढ़ करने वाली धारणाद्ध वह भले ही संस्कृत भाषा, व्याकरण, अरबी, नहीं पढ़ा है वह सुसंस्कृत है- दूसरी भले ही वह संस्कृत, व्याकरण या अरबी का विद्वान है लेकिन जिस में अशुभ संस्कार अशुभ धारणा है वह न हिन्दू है, न मुसलमान है, न सिख है, न ईसाई है, न पारसी है, न बौद्ध है, न जैन कोई भी? शुभ संस्कारों की दृढ़ धारणा से ही मनुष्य में मनुष्यता आती है।''

महाराज जी तो यहाँ तक कहते हैं कि, "मनुष्य का शरीर प्राप्त करने से ही मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता वरन्‌ मनुष्य जैसी प्रज्ञा एवं संवेदनाओं से बनता है। इसलिए मनुष्य जाती विवेकशील होनी चाहिए और उसे संस्कारित करके ही मनुष्य बनाया जा सकता है।'' "मनुष्य को ये संस्कार वंश, कुल, गोत्र से नहीं संगति और मन को लगाकर किये हुए कर्मों से प्राप्त होते हैं।''

Tuesday, March 23, 2010

पशु और मानव में केवल भेद संयम से ही पहिचाना जाता है।

पशु और मानव में केवल भेद संयम से ही पहिचाना जाता है। नहीं तो छल, कपट, मक्कारी धूर्तता, लालच, दम्म, अभिमान, अकड़, भोग की पकड़, जिद्दीपना, चालाकी, विश्वास घात, घात, घँूसा, लात, लड़ाई, झगड़ा, चोरी, डकैती, बदमाशी, खाना, पीना, सोना, उठना, बैठना, जागना, सन्तान पैदा करना, मैथुन, भय, खेलना, कूदना, चढ़ना, उतरना, तैरना, फिसलना, दांत पीसना, चुंबन लेना, चाटना, नाचना, गाना, सुनना, गुटबन्दी करना, राजनीति करना धूर्तता से रहना, सिद्दड़ी करना, स्वाद में गड़वड़ी देखकर मतलव के लिए गिड़गिड़ाना, सजना संवरना चमड़े का अपनापन परायापन रखना, अहंता, ममता का स्वाभाविक होना, अपना और अपनों का ख्याल रखकर कमाई करना और खर्च करना, स्वाद के लिए सड़सड़कर बर्वाद होते हुए भी जाते जी मरजाना, लत का आदि होना, साम, दाय दण्ड भेद ये सभी तो जानवर आदमी से अधिक अच्छी तरह कौन से कार्य में आदमी को मात्र नहीं दे रहा अर्थात्‌ सभी इन कार्यों में आदमी से ही अग्रणी ही है। वरन्‌ मनुष्य ने ये बातें पाशविकता से ही ग्रहण करी हैं। इसलिए ऐसे आदमी को पाशविक ही कहा जाता है। इन्सान नहीं।

Saturday, March 20, 2010

असंयमी तो निरा ढोर ही है इन्सान नहीं।

संसार में सबसे बड़ा कर्म संयम ही है- वरना एक कूकर, सूकर गर्दभ और मनुष्य जीवन में फिर भेद ही क्या है। क्योंकि कर्म तो पशु, पक्षी सभी करते हैं फिर भी उनको कर्मयोनि नहीं वरन्‌ केवल भोग योनि ही कहते हैं। इनमें कर्म के साथ संयम नहीं है। अगर इनमें कर्म के साथ मन, वचन और कर्मयुक्त संयम हो तो वे विचारशील हो सकते हैं। विचार केवल संयम से ही आता है। विवेक, ज्ञान प्रज्ञा ऋतम्भरा, बुद्धिधृति, धम्र, कर्म सभी संयम की धरती पर ही फलित सुवासित प्रसूनों की बगिया लहलहाती है। मन, वचन और कर्म में गुरू शास्त्र परिस्थितियों द्वारा उपलक्षित रास्ते पर चलने से ही पूर्ण बुद्धित्व,जैनत्व, आर्यत्व की प्राप्ति संभव है। यहाँ किसी भी मत, पंथ, सम्प्रदाय का कोई भी भेद नहीं है। संयमियों ने ही कुरान-शरीफ, जेन्दावस्ता, गुरुग्रन्थ साहिव, बाईविल, त्रिपिटक आदि की रचना की है असंयमी तो निरा ढोर ही है इन्सान नहीं। इसीलिए कहते हैं-

हिन्दू चाहिए न मुसलमान चाहिए

धरती के अम्नो चैन को इन्सान चाहिए।'

Thursday, March 18, 2010

स्वयं का जीवन परमेश्वर को पूर्ण समर्पित कर दें

हमारा परमेश्वर के प्रति समर्पण किसी भय के कारण नहीं है वरन्‌ अपनी सम्पूर्ण इच्छा से है जिसमें कोई दबाव नहीं वरन्‌ अपनी अपनी स्वेच्छा है जिसमें परमेश्वर का दण्ड या न्याय, क्रोध नहीं वरन्‌ करूणा तथा दयामय प्रेम सम्मिलित हैं जो हमारे अपने चालचलन, व्यवहार या कर्मों से नहीं वरन्‌ परमेश्वर के अनुग्रह से है। अब प्रश्न उठता है कि हमारा समर्पण परमेश्वर के प्रति किस रूप में हो तथा इसमें क्या-क्या सम्मिलित होना चाहिये।१। यह स्वेच्छापूर्वक हो बिना किसी बाध्यता या दबाव के।२। यह व्यक्तिगत होः जो कुछ हमारे पास है, जिसे हम अपना कहते हैं उसमें धन-सम्पत्ति, बैर-भाव, क्रोध, पे्रम, अभिलाषाऐं इत्यादि भी शामिल हैं। अतः इन सबका अधिकार केवल परमेश्वर के हाथ में हो। इनका यह मतलब नहीं हम उसके हाथों में कठपुतली है। याद रखें कठपुतली प्राणविहीन होती है उसमें इच्छाभाव नहीं पाया जाता। हम विपरीत है क्योंकि हममें इच्छाभाव तथा प्राण ;जीवनद्ध दोनों पाया जाता है, परंतु यहाँ हम परमेश्वर को अपने प्राण तथा इच्छा का स्वामी बना लें समर्पण द्वारा।३. यह बलिदान हैः बालक जब अपनी अनिच्छा से पिता से दूर हो जाता है तो पार्थिव पिता दुखित होता है, क्योंकि यदि बालक अपने पिता से सुरक्षा, भोजन एवं वस्त्रों की अपेक्षा रखता है तो पिता भी अपने बालक से घनिष्ठ प्रेम और संगति की अपेक्षा रखता है। वर्तमान समय में समर्पण का अर्थ केवल लेन-देन या उपरी वस्तुओं से है। समर्पण है परंतु वह पूर्णतः नहीं है। कभी जीवन का एक क्षेत्र या इससे अधिक परंतु परमेश्वर चाहते हैं कि हम अपना सब कुछ परमेश्वर को समर्पित करें यद्यपि यह गहन त्याग तथा तपस्या है परंतु इसके बाद महान्‌ आनंद है जो परमेश्वर के साथ घनिष्ठ संगति है जिसमें हमें पूर्ण सुरक्षा तथा करुणा एवं दया के साथ -साथ निर्मल प्रेम प्राप्त होता है जो केवल और केवल परमेश्वर ही दे सकता है क्योंकि उपरोक्त सब कुछ उसके पास भरपूरी से है अतः आइये स्वयं का जीवन परमेश्वर को पूर्ण समर्पित कर दें।

प्रस्तुति : संतोष पाण्डेय धर्म पुरोहित चर्च आफ असेन्सन्स अलीगढ़

Monday, March 15, 2010

समर्पण का अर्थ है-अर्पित करना

संतोष पाण्डेय धर्म पुरोहित चर्च आफ असेन्सन्स अलीगढ़

यह शब्द पुरातन नियम का है, जिसका अर्थ है-अर्पित करना या पृथक करना। अपने आपको परमेश्वर की सेवा हेतु अलग कर देना है। नये नियम दो बार यह शब्द प्रयुक्त किया गया है। प्रथमः नियुक्ति से संबंधित है। दूसराः बलिदान से संबंधित है। पौलुस प्रेरित कहते हैं कि "मैं अर्घ की नाई उण्डेला जाता हूँ।'' प्रथमतः जब मनुष्य सूर्य को जल अर्पित करता है और वह जलपात्र से जल उण्डेलता है इसमें केवल जल उण्डेलने का भाव देह, आत्मा और प्राण को सौंपना है। समर्पण से तात्पर्य मानव का स्वयं को पूर्णतः किसी के हाथों में सौंपना है, यदि परमेश्वर को तो इसमें परमेश्वर की इच्छा तथा कार्य सर्वोपरि है इसके अलावा कुछ भी नहीं हैं। संभवतः इस समर्पण में हमारी अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन शामिल है जो असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। एक उदाहरण द्वारा इसे समझ सकते है। ÷÷मादा बांदरी अपने अबोध शिशु को अपने पेट से चिपकाकर वृक्षों में ऊँची छलांग लगाती है।'' यहाँ पर शिशु का अपनी माता के प्रति पूर्ण सौंपना या समर्पण है। यद्यपि माता के हाथ और पैर स्वतंत्र हैं, परन्तु माता को यह अहसास है कि उसका शिशु उससे चिपका हुआ है। यहां पर विश्वास एवं भरोसे की मजबूत दीवार है जहां पर सुरक्षा शामिल है। समर्पण हमारे जीवन में अपने प्रभुत्व या स्वामित्व का त्याग करके परमेश्वर प्रभु यीशु को प्रभु या राजा के रूप में सिंहसनारूढ़ करना है, जो स्वयं का प्रभु यीशु के प्रति आत्म समर्पण है। बाइबिल धर्मग्रंथ में रोमियो की पत्री के द्वादश सोपान में प्रथम पद में इसका सम्पूर्ण वर्णन है कि हम मानव आखिर अपने आपको परमेश्वर की इच्छा पर क्यों छोड़ दे क्या हमारी अपनी इच्छा काफी नहीं है?

क्रमशः

Friday, March 12, 2010

गुरु के प्रति प्रेम, श्रृद्धा, विश्वास तथा आत्मसमर्पण ही आध्यात्मिक जीवन के मुख्य घटक हैं

जब तक हम अपने मन-इन्द्रियों के दास बने रहेंगे तब-तब गुरु-आज्ञा तथा प्रभु-इच्छा का विरोध उठेगा, शिकवा- शिकायत होगा। मेरे ही साथ ऐसा क्यूँ होता है? मैं ही क्यूँ सहूँ? मेरा लाभ, मेरा हित तो इसमें है नहीं आदि विचार उठ कर साधक को विचलित करते रहेंगे। कई बार सुनते हैं कि फलाँ व्यक्ति ने तो कोई विपरीत परिस्थिति आने के बाद पूजा-अर्चना करनी ही बन्द कर दी। ये कैसा विश्वास है, ये कैसी श्रृद्धा जिसमें समर्पण ही नहीं? समर्पण की स्थिति वह है जब गुरु-भगवान से हेतुरहित प्रेम हो। सांसारिक सुख, वैभव, यश, मान की इच्छा से गुरु-भगवान की शरण में जाना तो मनमत शिष्य का काम है। गुरुमत शिष्य तो बस आध्यात्मिक उन्नति और मुक्ति का ही लक्ष्य रखता है। ऐसे ही लक्ष्य रखता है। ऐसे शिष्य हर मामले में गुरु आज्ञा को ही ऊपर रखते हैं। समर्पण की शुरूआत आज्ञा पालन से ही होती है। जब हम गुरु की गुरुता में विश्वास करते हैं तो श्र(ा उत्पन्न हो जाती है और गुरु वचनों के पालन की इच्छा अन्तर में जाग्रत हो जाती है। परन्तु अक्सर गुरु के समक्ष तो उनके वचनों को आचरण में उतार पाते हैं बाद में विस्मरण हो जाता है। इसके लिए बार-बार अधिक से अधिक गुरु का सान्निध्य लेना आवश्यक है। इसी से धीरे-धीरे जीवन में सतोगुण बढ़ता जाता है। हम गुरु को प्रसन्न रखने हेतु सद्गुणों को धारण करते हैं। समर्पण के उच्च स्तर पर शिष्य सही-गलत सोचता नहीं, वह पूरी तरह मान लेता है कि गुरु वचनों का पालन ही केवल एक कर्त्तव्य है फिर वह सही ही करता है, गलत तो होता ही नहीं। गुरु शिष्य सम्बन्ध वैसे तो सांसारिकता से ऊपर है परन्तु फिर भी शुरु में शिष्य गुरु को पिता, भाई, मित्र या माता कुछ भी मान लेता है जो कि उसे सम्बन्ध को दृढ़ करने में सहायता करता है। इस सम्बन्ध का आकर्षण उसे भक्ति तथा समर्पण की स्थिति में ले जाता है। गुरु को ÷माँ' मानना बहुत ही प्रासंगिक तथा लाभदायक होता है। केवल माँ ही हर पल अपने बच्चे के हित की सोचकर स्वयं कष्ट झेल सकती है। उसी के सान्निध्य में बच्चे की सबसे अधिक सुरक्षा की भावना मिलती है। गुरु भी सदा ही शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का ख्याल रखते है। गुरु से प्रेम ही परमात्मा से भी योग करा देता है क्योंकि गुरु का सम्बन्ध परमात्मा से अति निकट का है। माँ बच्चे का सम्बंध पिता से होता है। माँ बच्चे को नौ माह तक गर्भ में रख कर उसे पोषित करते है। उसी प्रकार गुरु भी कुछ समय तक शिष्य को अपनी कृपा के घेरे में रखते हुए अपनी मानसिक शक्तियों के घेरे में रखते हुए अपनी मानसिक शक्तियों तथा आध्यात्मिक ऊर्जा से उसका पोषण करते हैं फिर उसका ज्ञान के लोक में पुनर्जन्म हो जाता है तथा उसका आध्यात्मिक जीवन प्रारम्भ हो जाता है। गुरु के मानसिक घेरे में स्थान मिल जाने से समर्पण आसान है परन्तु शिष्य को भी अपने विचारों तथा भावों को सत्ता नहीं देने का प्रयास करना होता है। गुरु के प्रति प्रेम, श्रृद्धा, विश्वास तथा आत्मसमर्पण ही आध्यात्मिक जीवन के मुख्य घटक हैं जिनसे हमारी उन्नति की अवस्था निर्धारित होती है।

Thursday, March 11, 2010

किसी भी परिस्थिति में कोई विरोध-प्रतिरोध, शिकवा-शिकायत नहीं रह जाता।

जब मनुष्य की इच्छा गुरु भगवान की इच्छा से ही मिल जाती है फिर किसी भी परिस्थिति में कोई विरोध-प्रतिरोध, शिकवा-शिकायत नहीं रह जाता। इसका उदाहरण दिव्य गुरु श्री रामचन्द्र जी महाराज इस प्रकार देते हैं- कि भरत अयोध्या वासियों के साथ वन में श्री रामचन्द्र जी के पास उन्हें अयोध्या वापस लौटने के लिए मनाने हेतु गए थे, परन्तु प्रभु श्री राम ने गम्भीरता से अयोध्या वासियों को ही उत्तर दिया कि यदि भरत उनसे कहें तो वे सहर्ष अयोध्या चलने को तैयार हो जाऐंगे। सभी की आँखें भरत पर जा टिकीं जो कि वहाँ आए ही रामजी को मनाने के लिए थे परन्तु उस समय उनके मन के मौन से यही उत्तर निकला "मैं आदेश नहीं दे सकता केवल आपकी आज्ञा का पालन कर सकता हूँ।'' परन्तु यह अवस्था पाना भी आसान नहीं।

Thursday, March 4, 2010

समर्पित भक्त-साधक इस दुनियाँ में कुछ भी अपना नहीं मानता

समर्पित भक्त-साधक इस दुनियाँ में कुछ भी अपना नहीं मानता उसके लिए सब कुछ उस दिव्य शक्ति की सत्ता से ही होता है वह तो मात्र ट्रस्टी बनकर ही रहता है और जो कुछ भी वह कर रहा है उसे गुरु इच्छा मानकर करता है।

राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रजा है।

यहाँ यूँ भी वाह-वाह है, यहाँ त्यों भी वाह-वाह है॥''

Wednesday, March 3, 2010

निष्काम प्रेम जिसमें मैं-मेरा का भाव गल जाता है

जब भक्त को भगवान में और साधक को गुरु में पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास हो जाता है तब वह उनकी सर्वसमर्थ शक्ति के समक्ष तन, मन, धन, प्राण सर्वस्व समर्पित कर देता है। समर्पव वह अवस्था है जब साधक या भक्त अपनी तरफ से सोचना छोड़ पूरी तरह गुरु-भगवान की इच्छा के समक्ष नतमस्तक हो जाता है, अहंकार पूरी तरह निरोहित हो जाता है और रह जाता है सिर्फ दिव्य निष्काम प्रेम जिसमें मैं-मेरा का भाव गल जाता है। कविवर श्री ओमप्रकाश विकल जी कहते हैं- प्रेम के तरु अधिक ऊँचे और लम्बे हैं न होते। मार से वे प्यार के, नीचे झुके अति नम्र होते॥