तंत्र वेत्ताओं ने जब प्रकृति को मल कहा तो अघोरियों ने कम्पन को अनुभव करने के लिए सार्थक प्रयास करने की वजाय गंदे रहना ही उद्देश्य बना लिया। महाराज जी ने इस पर एक वार्ता में बड़ी सटीक टिप्पणी की कि अगर गंदा रहने और मल खाने से ही मुक्ति मिलती तो सूअर तो स्वतः मुक्त हो जाता। इस प्रकार के साधनों से उस परम रुद्र को अनुभूत करने की साधना करने वाला साधक तो सूअर ही है। विस्तार भय से बचने के लिए हम यहाँ ज्यादा उदाहरण देना उचित नहीं समझ रहे हैं।
दिव्य रुद्र कहते हैं कि तंत्र तो आगम् विज्ञान है। यह ब्रह्म विद्या है। आगम के अंतर्गत ज्ञान आता है। आगम् से व्यक्ति ढलता है। लक्ष्य की दृष्टि से इसका उद्देश्य भी ज्ञान ही है। लेकिन यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है ज्ञान, गीता के श्लोक याद कर लेना नहीं है। ज्ञान है उस कम्पन की विशुद्ध अनुभूति जो सर्वव्यापी है और जो स्वयं के अंदर भी है। तंत्र के बारे में विभिन्न विद्वानों के आलेख इस अंक में प्रकाशित हो रहे हैं और भविष्य में भी इस पर चिंतन चलता रहेगा। यहाँ तो हम केवल परिचमात्मक चर्चा ही कर रहे हैं।
तंत्र की विभिन्न शाखाऐं हैं। जैसे वैष्णव, गाणपत्य, शक्ति, शाक्त, सौर आदि वहीं इसमें दो विचारधाराऐं हैं। दक्षिणपंथी वेदानुसार और वामपंथी वेद से अलग। तंत्र की दस महाविद्याऐं हैं जिनमें सबसे पहली त्रिपुर सुंदरी है। ज्ञानी जन त्रिपुर सुन्दरी कम्पनयुक्त शरीर को मानते हैं। शरीर के तीन पुर हैं। मूलधार से आज्ञा चक्र होते हुए सहस्राधार तक। इनकी साधना करने वाला व्यक्ति त्रिपुर सुंदरी को सिद्ध कर लेता है। और जो इसे सिद्ध कर लेता है उसके लिए जगत के पदार्थ अत्यंत ही छोटी वस्तु हो जाते हैं। प्रकृति तो ऐसे जन की चेरी होती है। आवश्यकता है तो केवल रुद्र को प्रतिफल प्रतिक्षण महसूस करने की।
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