आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Sunday, November 30, 2008

प्रार्थना कैसे, क्या तथा क्यों करें?

देवेश :- हम सभी के भीतर एक दिव्यता विद्यमान है, जिसे प्रार्थना के द्वारा जागृत किया जा सकता है।

अतुल :- उपरोक्त मतों से दो विचारधाराएं देखी जा सकती हैं- द्वैत तथा अद्वैत। द्वैतवादी मानते हैं कि हमें एक व्यक्ति के रूप में भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। प्रार्थना कैसे, क्या तथा क्यों करें? इस पर उनके अपने-अपने मत हैं। जबकि अद्वैतवादी स्वयं तथा भगवान में भेद नहीं समझते। तत्वदृष्टि से देखें तो हमारी आत्मा भी परमात्मा का ही अंश है, ऐसा वे मानते हैं। इस प्रकार प्रार्थना का उनके लिए कोई महत्व नहीं। प्रश्न यह उठता है कि अद्वैतवादी को यह ज्ञान कैसे होता है कि द्विव्य या परमात्मा तथा उसकी आत्मा एक ही है तथा ऐसा पूर्ण बोध होने से पूर्व वह क्या करता है? उत्तर- कहा जाता है कि या तो तुम कर सकते हो...... या जान सकते हो.... जब आप जानते हैं तो यह सिर्फ जानना ही होता है जो शेष रहता है तथा जिसे जाना जाए, वह खो जाता है।............... तो आप कुछ न करें................. बस रहें। यह मेरी व्यक्तिगत राय है।

Saturday, November 29, 2008

मुझको मेरी पहचान पाने में क्या बाधा है?

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥

अनुवादः- प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं कि जो आत्मा इस संसार में जीव रूप में है वह मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन तथा पाँचों इन्द्रियों को अपना मान लेता है।

गूढ़ार्थः- यह श्लोक अति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रत्येक जिज्ञासु की इस जिज्ञासा को शान्त करता है कि मैं कौन हूँ? मेरा क्या है? मैं कहाँ से आया हूँ? और मुझको मेरी पहचान पाने में क्या बाधा है? यहाँ भगवान कहते हैं कि जीव परमात्मा का शाश्वत अंश है "ईश्वर अंश जीव अविनाशी" उसकी इस संसार से कोई एकता नहीं क्योंकि यह तो प्रकृति है, उसी का कार्य है। जीवात्मा इस संसार में जब शरीर धारण करता है तभी से उसे संसार के बंधनों में जकड़ा जाने लगता है। उस पर अपने माता-पिता के नाम, जाति, कुल, गोत्र, देश, रिश्ते आदि के लेबल लग जाते हैं। यह सब इतनी सहजता से होता है कि जीवात्मा भ्रमित हो जाता है और अज्ञानवश इस शरीर की इन पहचानों को ही अपनी पहचान मानने लगता है। वह शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि से एकता मान कर परमात्मा के अंशी आत्मा से जीव बन जाता है। यहाँ जब श्री हरि स्वयं यह कहें कि प्रत्येक जीवात्मा मेरा ही अंश है तो यह हम सबके लिए कितने हर्ष का विषय है! परमात्मा हमें कितना प्रेम करते हैं। हमसे कितनी आत्मीयता रखते हैं। परन्तु हमारी निष्ठुरता तो देखिए। हम परमात्मा से विमुख होकर संसार की ओर आकर्षित हो जाते हैं व मन-इन्द्रियों के दास बन जाते हैं। मन व इन्द्रियाँ हमारी कभी सगी नहीं होतीं। हम चाहें कितना भी प्रयास करें वे संतुष्ट नहीं होतीं हमारी सारी ऊर्जा, समय व धन हम इन्हीं को सन्तुष्ट करने पर लुटा देते हैं, जबकि इन सब पर असल अधिकार परमात्मा का है, जिसकी कृपा से हमें यह सब प्राप्त हुआ है। परन्तु स्वरूप के विस्मरण के कारण ही हम संसार में भ्रमित होते फिरते हैं। सच यह है कि संसार सत्य है ही नहीं क्योंकि सत्य तो शाश्वत होता है जबकि संसार में सब कुछ चलायमान व क्षणभंगुर है। अपने पद, मान, सामान, मकान, जमीन, सौंदर्य, शक्ति, कुल आदि का अभिमान मिथ्या है ये हमारी असली पहचान नहीं बन सकते क्योंकि ये हमारे विजातीय है इनसे हमारा सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। हम परमात्मा का अंश है तो हममें भी उसी के गुण व्याप्त हैं- परमात्मा अजर, अमर, अविनाशी, अकर्त्ता, अभोक्ता है जबकि इन सभी उपरिलिखित वस्तुओं में जरा, मृत्यु, विनाश, कर्तापन व भोक्तापन है। अतः हमारी पहचान कुछ और ही है जो इस संसार में पहचानी जाने वाली हमारी पहचान से परे हैं। वह है हमारी आत्मा-शुद्ध चैतन्य, सत्‌चित्‌ आनन्द स्वरूप, अजर-अमर अविनाशी

मुझे मेरे स्वरूप के ज्ञान में क्या बाधा है? इस प्रश्न का उत्तर भी इस श्लोक में है- यहाँ यह जान लें कि हम हैं ही आत्मा, बस हमें अपने स्वरूप का विस्मरण हो गया है। अर्जुन ने कहा है-"स्मृतिर्लाब्धा नष्येमोहः।'' अर्थात्‌ अब मुझे स्मृति हो गई है ;अपने स्वरूप की और मेरा मोह रूपी अज्ञान नष्ट हो गया है। स्मरण हो जाने से विस्मरण स्वतः ही चला जाता है बस बाधा है मोह की, अज्ञान की। यह अज्ञान भी क्या है? जीव संसार के सम्मुख हो गया इसमें संसार कारण नहीं, और परमात्मा से विमुख हो गया इसमें परमात्मा कारण नहीं दोनों ही दशाओं में जीव स्वयं ही कारण है। परमात्मा का अंश होने के कारण स्वतंत्रता उस जीव का गुण है। उसे मानने न मानने का अधिकार है। और इसी का दुरुपयोग उसने किया अब उसका सदुपयोग भी उसे ही करना होगा। इसके लिए साधक को श्री भगवान द्वारा तीन मार्ग बताए गए हैं- पहला जो संसार से मिला है उसे संसार की सेवा में लगा दे, निष्काम व निरहंकार होकर। यह मार्ग है कर्मयोग। दूसरा- स्वयं को शरीर और संसार से बिलकुल अलग कर ले अर्थात्‌ ज्ञान योग। तीसरा- स्वयं को ही भगवान के अर्पण कर दे जो है भक्ति योग। तीनों में से कोई भी मार्ग अपना ले फल एक ही-मुक्ति।

hindrance between me and my real identity?


Mamaivansho jeevaloke jeevabhootah sanatanah
manah shashthani-indriyani prakritisthaani karshati.
Translation : -
The supreme Lord says that the soul which is in the from of living entity in this world is my eternal fragment but due to being situated in material nature he accepts the six senses, including mind as his own.
Purport:- This verse is very important as it satisfies some curiosity of all seekers- who am I? What is mine? whence have I come? and What is the hindrance between me and my real identity?
Here the supreme Lord says that the living entity is eternal fragmental part of Him. This world being the work of material nature, the living entity can never be one with it. But as soon as the living entity is 'born' in this world he is bound in various bonds of parental identity, heraldry, caste, gotra, nationality relations etc. All these labels are clung onto him and all this is done so spontaneously that the living entity becomes confused and due to his own ignorance he begins to recognize this body and all the aforesaid bonds as his identity. He considers himself one with body, mind, and senses and thus the soul become conditioned and becomes a Jeeva.
Here the good news for all is that the Supreme Lord himself is saying that all living entities are His fragmental part. How much God loves us! How much affection he has for us! but look at our own callousness! We leave God and are attracted towards this world and become the servants of mind and senses. Mind and senses can never be truly our own. No matter how much we try to satisfy them they are never contented. They suck away all our time, money and energy though the real claimant of all these is the Lord, by whose grace we get all these things. But due to being forgetful of our real identity we all are illusioned in this world.
The truth is that world is not true as the Truth is always Eternal. Where as nothing is permanent in this world, everything is transient and temporary. We are falsely proud of our anthority, honour, property, beauty, power, hevaldry etc. but these can never be our true identity- these are not compatible with our real self. we are the fragmental parts of God and possess His attributes. So we are ever-existent, never growing old, and imperishable, non-performing, non-consuming. while all the aforesaid things behave against these divine attributes. Our real identity is beyond the identity given to us by this world. Our true identity is our soul-Pure, consciousness-the true eternal blissful self.
What is the hindrance between me and my true identity? to answer this curiosity the supreme Lord asks us to know that we are souls. The only thing is that we are forgetful of this fact. Arjuna says-"Smritirlabdha Nashtomohah" ie now I have gained the remembrance of my real self and my ignorance is destroyed. As the remembrance comes forgetfulness is dispelled of its own. The only hindrance is our own ignorance- our affection. What is this ignorance- Living entity is attracted towards the world (the world is not its cause). He turns away from God (but God is not the cause of it). In both the cases the jeeva (conditioned soul) himself is the cause. Being the fragmental part of the supreme Lord, freedom is the attribute of conditional soul. He has the rights to accept or not to accept. He misused this freedom not to accept his true identity and now he has to utilize this very freedom for his welfare.
For this the supreme Lord has told three ways:- first- Whatever he has got from this world, he should engage in serving the world. egolessy and selflessly. This path is called Karma yoga. Second is to detach oneself completely from one's body and the world. This is the path of Gyan yoga. And the third path is to surrender oneself completely to God. This path is called Bhakti yoga. No matter which path one chooses the result is the same- Salvation (Mukti)

Friday, November 28, 2008

प्रार्थना की आवश्यकता ही कहाँ रह जाएगी?

उस्मान :- आध्यात्मा हमें प्रार्थना करना नहीं सिखाता बल्कि हमें अद्वैत की ओर ले जाता है। जब आप अपने तथा भगवान में कोई भेद नहीं जानेंगे तो प्रार्थना की आवश्यकता ही कहाँ रह जाएगी?
पूजा चौधरी :- व्यक्ति को प्रार्थना ऐसे करनी चाहिए जैसे सब कुछ भगवान पर निर्भर है तथा काम ऐसे करना चाहिए जैसे सब कुछ उसी पर निर्भर है। जिस प्रकार दिन भर शरीर पर जमी धूल, मिट्टी, पसीना तथा गन्दगी को हम साबुन, पानी आदि से धो डालते हैं उसी प्रकार मन के विकारों तथा ashuddhiyon से मुक्त करने हेतु सौभाग्य से प्रार्थना नामक कीटाणुनाशक vishanaashaka उपलब्ध है।

शब्द जो देते हैं मंथन को आमंत्रण

पिछले पोस्ट पर एक संवेदनशील ब्लॉगर भाई की टिपण्णी जस की तस् साभार प्रेषित है
यह शोक का दिन नहीं,
यह आक्रोश का दिन भी नहीं है।
यह युद्ध का आरंभ है,
भारत और भारत-वासियों के विरुद्धहमला हुआ है।
समूचा भारत और भारत-
वासीहमलावरों के विरुद्धयुद्ध पर हैं।
तब तक युद्ध पर हैं,
जब तक आतंकवाद के विरुद्धहासिल नहीं कर ली जातीअंतिम विजय ।
जब युद्ध होता हैतब ड्यूटी पर होता हैपूरा देश ।
ड्यूटी में होता हैन कोई शोक औरन ही कोई हर्ष।
बस होता है अहसासअपने कर्तव्य का।
यह कोई भावनात्मक बात नहीं है,वास्तविकता है।
देश का एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री,एक कवि, एक चित्रकार,
एक संवेदनशील व्यक्तित्वविश्वनाथ प्रताप सिंह चला गया
लेकिन कहीं कोई शोक नही,हम नहीं मना
सकते शोककोई भी शोकहम युद्ध पर हैं,हम ड्यूटी पर हैं।
युद्ध में कोई हिन्दू नहीं है,कोई मुसलमान नहीं है,
कोई मराठी, राजस्थानी,बिहारी, तमिल या तेलुगू नहीं है।
हमारे अंदर बसे इन
सभीसज्जनों/दुर्जनों कोकत्ल कर दिया गया है।
हमें वक्त नहीं हैशोक का।
हम सिर्फ भारतीय हैं, औरयुद्ध के मोर्चे पर हैंतब तक
हैं जब तकविजय प्राप्त नहीं कर लेतेआतंकवाद पर।
एक बार जीत लें, युद्धविजय प्राप्त कर लेंशत्रु पर।
फिर देखेंगेकौन बचा है? औरखेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीचकभी न आने के
लिए चला गयाजीवन यात्रा छोड़ कर।
हम तभी याद करेंगेहमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगेअपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,एक साथविजय की खुशी के साथ।
याद रहे एक भी आंसूछलके नहीं आँख से,
तब तकजब तक जारी है युद्ध।
आंसू जो गिरा एक भी, तोशत्रु समझेगा, कमजोर हैं हम।
इसे कविता न समझेंयह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा कायुद्ध में कविता नहीं होती।
चिपकाया जाए इसेहर चौराहा, नुक्कड़ परमोहल्ला और हर खंबे परहर ब्लाग परहर एक ब्लाग पर।- कविता वाचक्नवी साभार इस कविता को इस निवेदन के साथ कि मान्धाता सिंह के इन विचारों को आप भी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचकर ब्लॉग की एकता को देश की एकता बना दे।

किसकी मुंबई ?

आज मुंबई के ओबेरॉय और ताज होटल तथा नरीमन हाउस में की गई कमांडो कार्रवाही को देखने के बाद यह सवाल जेहन में आए :
१। क्या यही मुंबई है कुछ दिन पहले ही जिससे राज ठाकरे और उनके गुंडे अन्य हीन्दुस्तानियों को खादेरने की बात कर रहे थे ?
2 मुंबई को आमची मुंबई कहने वाले ये लोग आज कहाँ हैं ? क्यों नहीं आगे आ कर इन अन्य प्रान्तों से आये कमांडो को खदेड़ देते ?
३ क्या जज्बा है इन कमांडो में जो जान की parwaah किए बिना ये 'मुंबई ' को आतंक से mukta कराने को joojh रहे हैं ?
आज हमारे jawaanon ने aatankwaad को to haraaya ही hai इससे भी mahtvapoorN बात यह है की उन्होंने राज ठाकरे जैसे tuchchha लोगों की alagaavvaadi सोच को haraya है ...sochiye ...क्या भारत जैसे देश जिसने विश्व को "vasudhaiv kutumbakam " और "अतिथि devo bhav " के aadarsh दिए , यहाँ राज ठाकरे jaison की sankuchit , स्वार्थ parak सोच kahin ज़रा भी thahar सकती है bhala !
यदि कोई मुंबई को sankuchit दायरे में baandhna chahata हो to जान ले की वो अपने iradon में safal नहीं हो paayega ....क्योंकि मुंबई पर hamala एक शहर पर नहीं भारत माँ पर hamala है ...भारत माँ का हर sapoot चाहे किसी भी प्रांत ,जाती , धर्म sampradaay का क्यों न हो अपनी जान nisaar कराने को tatpar है ....भारत माँ ने आज पुकार कर मुंबई को बता दिया है की वो उसके जिगर का tukda है ...और उस पर घाव माँ के सीने पर घाव है
.....

Thursday, November 27, 2008

प्रार्थना हमें हमारे अहंकार से मुक्त करेगी

हमें अपना तन, मन व धन सर्वस्व प्रभु के श्री चरणों में अर्पित कर देना चाहिए तथा उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि ''हे प्रभु! हम सेवकों का सब कुछ आपकी सेवा में समर्पित है, आप खुशी से जो भी चाहें, वह सेवा हमसे ले सकते हैं। हमें न तो सांसारिक सुख चाहिए और न ही हमें अधिकार या पद की इच्छा है। हम सिर्फ आपको प्रसन्न करना चाहते हैं। हम अपना जीवन कायरों की भाँति नहीं जीना चाहते, ना ही हम जंगली पशुओं की भाँति मरना चाहते हैं। आप हमें अपनी सेवा तथा शरण में ले लें। ताकि हम आपकी सेवा करते हुए मुक्ति पा सकें।'' यह प्रार्थना हमें हमारे अहंकार तथा सांसारिक सुख भोग की इच्छा से मुक्त करेगी तथा उस प्रभु की दया तथा कृपा का पात्र बना देगी।
प्रस्तुति : डा. रतन सैनी

Wednesday, November 26, 2008

कृतज्ञ हृदय की भावाभिव्यक्ति ही सच्ची प्रार्थना है।

:- प्रार्थना भगवान से तुरंत सम्बन्ध स्थापित करवाती है। यह भगवान से वार्ता करने तथा उनके आशीषों के लिए उनको धन्यवाद देने का एक माध्यम है। यह न मांगने के और न ही उनसे अपने कष्टों को हरने के उद्देश्य से की जाए। परन्तु कलियुग में प्रार्थना की यही अधोगति हो गई है। एक कृतज्ञ हृदय की भावाभिव्यक्ति ही सच्ची प्रार्थना है। यह उस भावना से तुलनीय है, जब आपके हृदय में मौन भावातिरेक हो, आँखें नम, हाथों में कम्पन, काँपते होंठ हों जैसे- जब आप किसी परम प्रिय से लम्बे अन्तराल के बाद मिलते हैं। इस क्षण सब कुछ निशब्द ही, स्वतः ही कह दिया जाता है तथा आप उसे करीब पाकर स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। ''प्रार्थना सदा हमारी कृतज्ञता की भावना का स्वतः प्रवाह हो... हमारे अस्तित्व से.... न कि मन से।''

प्रस्तुति : अतुल

Tuesday, November 25, 2008

भाग्य परिश्रम तथा क्रियाओं से निर्धारित होता है।

मनुष्य का प्रारब्ध उसके कर्मों से तथा भाग्य उसके परिश्रम तथा क्रियाओं से निर्धारित होता है। जब हम प्रार्थना करते हैं तो ऊर्जा तथा ज्ञान के अनन्त स्रोत से हमारा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तथा हमें उनसे आशीष तथा मार्गदर्शन प्राप्त होता है। पूर्व कर्मों पर बहुत अधिक आश्रित होने पर हम उन्नति नहीं कर सकते। अतः स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए प्रार्थना करो।

प्रस्तुति : सुभाष

Monday, November 24, 2008

हिमवंत जी की टिप्पणी

पिछले चिठ्हे पर आई भाई हिमवंत जी की टिप्पणी मे उन्होने एक सुंदर सुझाव दिया है कि :
1। सकाम तथा निष्काम भाव से प्रार्थना करने में क्या अंतर है।?....
2। तथा क्या मन्नत मनौती माँगना उचित है ?
इन बिंदुओं पर चर्चा की जाए... उनके सुझाव पर उनको साधुवाद देते हुए में आप सभी से इस विषय पर आपके विचार आमंत्रित करता हूं ...

प्रार्थना बुरे कर्मों को निष्क्रिय कर देती है।

प्रार्थना न तो भगवान को प्रभावित करती है और न ही इससे उनका निर्णय बदलता है। प्रार्थना तो भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण की अभिव्यक्ति है। यदि लगा- तार प्रार्थना की जाए तो यह हृदय परिवर्तन करती है। फिर जो कुछ भी हो, व्यक्ति शान्तिपूर्वक सह लेता है। इस प्रकार यह व्यक्ति को कर्म के चक्र से मुक्त कर देती है। कर्म का नियम जैसे को तैसा का नियम नहीं है। प्रार्थना आपके कर्म को बदल सकती है क्योंकि यह स्वयं में एक अच्छा कर्म है। वह बुरे कर्मों को निष्क्रिय कर देती है।

प्रस्तुति : जयदेव

प्रार्थना का उद्देश्य स्वयं की सहायता करने को उद्यत होना


कर्म का नियम कदाचित यह सुनिश्चित करता है कि आप अपने कर्मों का फल पाएं। यह कहता है कि कुछ भी पूर्व निर्धारित नहीं है। आपका भविष्य आपके अभी के तथा पूर्व के कर्मों पर आधारित होगा। जहाँ तक प्रार्थना का प्रश्न है मेरे विचार में प्रार्थना का उद्देश्य सिर्फ यही है कि हम स्वयं अपनी सहायता करने को उद्यत हों तथा कुछ सकारात्मक वचनों को बोलकर हम बेहतर तथा आशान्वित महसूस करते हैं तथा अधिक कुशलता से कर्म करने लगते हैं।

प्रस्तुति : प्रीतम

Sunday, November 23, 2008

Praarthnaa

Pichhle chitthe par aayi bhai himwant ki tippNi me unhone ek sundar sujhaav diya hai ki
1. sakaam tatha nishkaam bhaav se prarthna karne mein kya antar hai.?....
2. tatha kyaa mannat manauti mangna uchit hai ?
in binduon par charcha ki jaaye...
unke sujhaav par unko sadhuvaad dete hue mein aap sabhi se is vishay par apke vichaar
aamantrit karta hoon ...

Saturday, November 22, 2008

प्रार्थना का महत्व

प्रार्थना शब्द दो शब्दों के योग से बना है प्रार तथा धना। प्रार का अभिप्राय प्राप्त करने से है तो धना का धन से। धन क्या है? सामान्य व्यवहार में हम रुपये, पैसे, सम्पत्ति को धन समझते हैं लेकिन क्या यह वास्तविक धन है? धन वह है जो सदैव आबश्यकता पड़ने पर काम आवे। क्या रुपया या सम्पत्ति सदैव काम आ सकती है? शायद नहीं। तो फिर ऐसा कौन सा धन है जो सदैव काम आ सके।

वह केवल ज्ञान है जो सदैव साथ रहता है और कभी भी काम में आ सकता है। ज्ञानीजन सर्वदा और सर्वत्र पूज्यनीय होते हैं। विश्व के समस्त धर्मों, मतों एवं सम्प्रदायों में प्रार्थना का विधान है। उसके रूप अलग-अलग हैं। देश काल परिस्थिति के अनुसार प्रार्थना का स्वरूप बदलता है। भाषा और लिपि के अनुसार शब्द बदलते हैं लेकिन प्रार्थना तो सभी करते हैं। गोस्वामी जी ने मानस में कर्म की प्रधानता कही तो श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित किया, बुद्ध व्यक्तित्व के उन्नयन के लिए कर्म पर बल देते हैं तो मुहम्मद साहब, मूसा, ईसा भी विश्व को कर्म प्रधान मानते हैं। धर्मग्रंथों में लिखा है कि ईश्वर ने सर्वप्रथम मानव को कर्म करने के लिए धरा पर भेजा। चाहे कहीं वह सजा के रूप में ही क्यों न हो। गीता में भगवान ने भक्तों के चार प्रकार बताए हैं। भक्तों की यह चार श्रेणियां उनके द्वारा भगवान के सम्मुख की जाने वाली प्रार्थना, याचना या विनती के आधार पर की हैं।

आर्त भक्त दैहिक, दैविक या भौतिक कष्टों से आर्त होकर भगवान की शरण हो कष्टों के निवारण हेतु प्रार्थना करते हैं, वहीं अर्थार्थी परिवार की सुख समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं। जिज्ञासु भक्त उनके स्वरूप के ज्ञान हेतु सन्मार्ग पर लगाने की प्रार्थना करते हैं जबकि इन सबमें श्रेष्ठ ज्ञानी भक्त भगवान को सर्वाधिक प्रिय हैं जो आत्मज्ञानी होने के कारण स्वयं भगवत स्वरूप होते हैं, उन पर तो भगवत्‌ कृपा की वर्षा स्वयं ही होती है।

सभी धर्मों में प्रार्थना पर विशेष बल दिया जाता है। प्रार्थना में लोगों के विश्वास का अंदाज विभिन्न धर्मों के प्रार्थना स्थलों पर आने वाले लोगों की संख्या से लगाया जा सकता है। यह स्थापित सत्य है कि उद्देश्य कुछ भी हो, उसकी प्राप्ति के लिए हमें भगवान के अलावा किसी का आधार नहीं है। उसकी कृपा से क्या सम्भव नहीं - गूंगा वाचाल हो जाए, लंगड़ा भी पर्वत को लांघ जाए। लोगों का विश्वास है कि प्रभु के प्रति श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करने पर वह सुनते हैं और इच्छित फल प्रदान करते हैं।

रुद्र सत्संगम सम्पन्न

इगलास स्थित प्रस्तावित रुद्रेश्वर महादेव मंदिर पर सत्य पर विराट चर्चा का आयोजन किया गया। सत्य के मंथन एवं मानवता के कल्याण हेतु आयोजित इस आयोजन में अनेकानेक विद्वानों ने भाग लिया। आयोजन की अध्यक्षता नानकदास महाराज ने की तथा संचालन महावीर स्वामी ने किया। कार्यक्रम की शुरुआत श्री हरवीर सिंह ने भजन के माध्यम से की। साहब सिंह जी ने मानवता की भलाई हेतु वक्तव्य दिया। नाहर सिंह जी ने कहा कि मानव जीवन एक नाटक के समान है जिसमे हर कोई अपना अपना किरदार निभाता है। श्री प्रभू दयाल शर्मा,श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय, श्री हनुमान जी महाराज, श्री कानूनगो जी, श्री दीपचन्द वर्मा जी एवं श्री ओम प्रकाश शर्मा, संजय सिंह सहित अनेक विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए।

Friday, November 21, 2008

कल्याण का मार्ग सत्य का अनुसरण ही है।

ईशोपनिषद् में भक्त समस्त प्राणिमात्र का पोषण करने वाले सत्य स्वरूप सर्वेश्वर, जगदाधार परमेश्वर से कहता है कि हे सत्य स्वरूप! आपका श्रीमुख स्वर्णिम, ज्योतिर्मय सूर्य मण्डल रूप पात्र से ढका हुआ है। अपने सत्यनिष्ठ भक्त की मनोकामना पूर्ति हेतु आप अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को निरावरण कर प्रत्यक्ष प्रकट करें:

'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌। तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥'

सत्ता मात्र 'सत्‌' है। इसके अतिरिक्त प्रकृति और प्रकृति का कार्य क्रिया और पदार्थ है, वह 'असत्‌' न कभी था, न है और न कभी रहेगा और 'सत्‌' का कभी भी अभाव नहीं होता। 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।' अतः मानव को विवेकपूर्वक अपने तन, मन एवं बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। स्वेच्छाचार पतन की ओर ले जाता है, सदाचार नैतिकता का आधार है। कल्याण का मार्ग सत्य का अनुसरण ही है।

प्रस्तुति : -परमजीत

Thursday, November 20, 2008

आनंद प्रतिगामी है सत्य का

उपनिषद इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं: 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' अर्थात्‌ ब्रह्म सत्य स्वरूप, ज्ञान-स्वरूप एवं अनन्त है और जब ब्रह्म 'रसो वै सः' है, परिपूर्ण आनन्द है तब सत्य का आश्रय परिपूर्ण आनन्द ही प्रदान करेगा अन्यथा कुछ भी नहीं, जो हमारी खोती जा रही शांति वापस ला सकता है। सत्य परमात्मा तत्व है।

तत्व के संबंध में कहा गया हैः 'अनारोपिता कारं तत्वम्‌' उसका कोई रूप नहीं होता। स्वर्ण आभूषणों का तत्व नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह आभूषणों से पूर्व टुकड़े के रूप में होता है। तत्व एक देशीय पदार्थ न होकर सर्वव्यापी तथा दृष्टि से परे होता है तथा अनुभवजन्य होता है। वैसे ही सत्य भी अनुभवजन्य है। जैसे आत्मा की सत्ता सदैव एवं सर्वथा अनुभव की जाती है किंतु उसका दर्शन संभव नहीं है, वैसे ही सत्य एक सुनिश्चित शक्ति सम्पन्न सिद्धान्त है जो सम्पूर्ण सृष्टि रूपी विराट शरीर का संचालक हृदय है। समय पर रितुओं का आना, वृक्षों का पुष्पित और फलित होना, सूर्य चन्द्रादि सहित सभी ग्रहों और आकाश गंगाओं का अपनी अपनी कक्षाओं में रहना आदि परम सत्य का ही प्रत्यक्ष दर्शन है। जन्म और मृत्यु दोनों ही शाश्वत सत्य पर ही आधारित हैं।

मंत्र द्रष्टा आचार्य अपने शिष्यों से संवाद के मध्य 'रितं वदिस्यामि, सत्यं वदिस्यामि' कह कर सत्य की परम सत्ता को ही पुष्ट करते हैं। 'रितं तपः, सत्यं तपः, स्वाध्यायां तपः' परम तप का द्योतक है। मुण्डकोपनिषद में 'सत्यमेव जयते नानृतं', सत्य के समक्ष असत्य को धराशायी करता है। यही तो देश का आस्था वाक्य है।

प्रस्तुति : -संगीता जोशी

Wednesday, November 19, 2008

सत्य की सत्ता सार्वभौमिक व सर्वोपयोगी है

सत्य की सत्ता सर्वोपरि है। आस्तिक या नास्तिक सभी इसे स्वीकारते हैं। सत्य की खोज, मानव की चिर पिपासा बनी हुई है। सभी धर्म, सभी विचारक सत्य के अन्वेषण हो ही अभीष्ट मानते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् की श्रुति 'असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतमगमय' २०वीं सदी में मार्गदर्शन का अद्भुत कारण बनी। तीनों ही महावाक्य सत्य की ओर ही इंगित करने वाले हैं। ज्योति और अमृत भी सत्य का ही स्वरूप है। महात्मा गांधी ने 'असतो मा सद्गमय' से प्रकाश पाकर 'सत्य एवं अहिंसा को अपनाया। इसी के बल पर उन्होंने महाशक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को पूर्णतः छिन्न-भिन्न कर डाला था। न केवल भारतवर्ष अपितु अनेक राष्ट्र सत्य और अहिंसा के आश्रय से योरोपीय देशों की सैंकड़ों वर्षों की पराधीनता से मुक्त हो गए। यह सत्य की महिमा है।

प्रस्तुति : -आशीष

शांति एवं आनन्द निहित है सत्य के आश्रय में

श्रुतियां मुक्त कंठ से सत्य की प्रतिष्ठा करती हैं, उनका गुण-गान करती हैं। परमात्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है। आनन्द स्वरूप परमात्मा ही एक मात्र सत्य हैः ÷एकं सद् विप्रा वहुधा वदन्ति,' विद्वान उस एक सत्य को अनेक प्रकार से परिभाषित करते हैं, उसे अनेक नामों से जानते हैं। उस एक सत्य का दर्शन, मनन एवं निदिध्यासन ही उनका प्राप्तव्य होता है। श्री मद्भागवत महापुराण के महात्म्य के प्रारम्भ में ही उसे ÷सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे' कह कर सम्बोधित किया गया है। इस महापुराण के प्रथम स्कन्ध में मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में ही उस विराट् परम पुरूष, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के उद्भव- स्थिति- संहार का कारण है, का 'सत्यं परं धीमहि' कह कर स्तवन किया गया है। वह एक ही परम सत्य है जो अपनी स्वयं प्रभा ज्योति से माया को सदैव एवं सर्वदा बाधित रखता है। आज के युग में भौतिक जीवन की चकाचौंध में वास्तविक सुख एवं शांति विलीन होती जा रही है। भौतिक दृष्टि से जो सर्वाधिक सम्पन्न राष्ट्र हैं, वहां आत्महत्याएं एवं मानसिक रोग बढ़ रहे हैं। पाश्चात्यता का अंधानुकरण कर बहुत कुछ हमारा देश भी इसी और बढ़ रहा है। ऐसे में अपने पुरातन ग्रन्थों का आश्रय एवं मान्यताओं की पुनर्स्थापना ही हमें शांति प्रदान कर सकते हैं और शांति एवं आनन्द निहित है सत्य के आश्रय में, सदाचरण में।

प्रस्तुति : -शील सारस्वत

Tuesday, November 18, 2008

जो बोले सो निहाल सत्‌ श्री अकाल

एक फिल्म देखी थी 'जो बोले सो निहाल सत्‌ श्री अकाल''। सत्य पर विगत दो माह से चर्चा करते हुए यकायक उस फिल्म का स्मृति में आ जाना दिव्य रुद्र की कृपा मानकर मैंने उस पर चिंतन शुरू किया। मैंने गौर किया पिछले कुछ अंकों से सिख धर्म के विद्वान साथियों के लेख पत्रिका में नहीं आ रहे हैं। शायद इसी ओर दिव्य रुद्र ने ध्यान आकर्षित किया है। इस फिल्म ने अंतिम चरण में फिल्म का नायक, खलनायक को इसी आधार पर पहचानता है कि वह उसके जो 'बोले सो निहाल' कहने पर प्रत्युत्तर में ÷सत्‌ श्री अकाल' नहीं कहता। यह स्थापित मान्यता है कि चलचित्र समाज का आइना होते हैं। इस वक्तव्य को फिल्म के क्लाइमेक्स में लाकर फिल्म के निर्देशक ने बताने का प्रयास किया है कि वह सच्चा सिख नहीं जो ' सत्‌ श्री अकाल' कहकर वाक्य पूरा नहीं करता। इसका अर्थ यह हुआ कि 'जो बोले सो निहाल' पूर्ण नहीं है। पूर्णता के लिए 'सत्‌ श्री अकाल' बोलना होगा। न केवल बोलना होगा बल्कि उसे स्वीकारना होगा। प्रश्न यह उठता है कि इन तीन अक्षरों के बोलने से ही क्यों यह सिद्ध हो जाता है कि वह सच्चा सिख है, अर्थात्‌ सच्चा गुरू का शिष्य है। गुरूग्रंथ साहिब को सिख धर्म के अनुयायी सम्पूर्ण ज्ञान या सम्पूर्ण गुरू मानते हैं। अर्थात्‌ उसके लिए यही वह तत्व हैं जो उनकी अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। निहाल वही है जो यह जान जाता है कि ÷सत्‌ श्री अकाल' अर्थात्‌ सत्य वह है जिसे काल नहीं खा सकता अर्थात्‌ जो समाप्त नहीं हो सकता। जो कट नहीं सकता, जो शास्वत है, जो सदा से था और सदैव रहेगा। "सत्‌ श्री अकाल'' अर्थात्‌ सत्य अविनाशी है। हम जानते हैं कि भौतिक जगत में जो कुछ दिखता है वह नाशवान है। हर किसी को काल का ग्रास बनना है। चाहे वह राम हो, कृष्ण हो, ईसा हो, मूसा हो, मुहम्मद साहिब हों, गौतम हों, महावीर हों, चाहें गुरू नानक देव। अर्थात्‌ जिस पर ये नाम के लेबिल लगे वे सभी नाशवान थे। और जिन पर आज लेबिल लगे हैं वे भी नाशवान हैं। अगर कोई अविनाशी है, काल से परे है तो वही सत्य है और वह अविनाशी 'अकाल' क्या है। क्या वह आत्मा नहीं जो सदैव सर्वदा वस्त्रों की भाँति शरीर को बदलता रहता है और शास्वत बना रहता है। जिसको काल नहीं खा सकता है। अर्थात्‌ सिख धर्म भी कहता है कि सत्य का नाश नहीं होता। तभी तो यह कहने पर पूर्णता होती है कि 'सत्‌ श्री अकाल'। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सत्य काल से परे हैं। वही शास्वत है, हमारे अंदर का आत्मा ही सत्य है। जो सत्‌ पुरख का अंश है। इस प्रकार एक सत्‌ पुरख सत्य है, जो शास्वत है। वही अविनाशी सत्य है चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारें।

Monday, November 17, 2008

अहिंसा व्रत की रक्षा करना ही सत्य का लक्ष्य

जो वस्तु जैसी देखी हो या सुनी हो, उसको वैसा ही न कहना लोक में असत्य कहलाता है, परन्तु जैन धर्म में सत्य कोई स्वतन्त्र व्रत नहीं है, बल्कि अहिंसा व्रत की रक्षा करना ही उसका लक्ष्य है। इसलिए, जो वचन दूसरों को कष्ट पहुँचाने के उद्देश्य से बोला जाता है वह सत्य होने पर भी जैन धर्म में असत्य कहलाता है। जैसे, काने पुरुषों को काना कहना यद्यपि सत्य है,किन्तु उससे उस मनुष्य के दिल को चोट पहुँचती है, या यदि चोट पहुँचाने के विचार से उसे काना कहा जाता है तो वह असत्य गिना जाएगा। इसी दृष्टि से, यदि सत्य बोलने से किसी के प्राणों पर संकट बन आता हो तो उस अवस्था में सत्य बोलना भी बुरा कहा जाएगा। किन्तु ऐसे समय असत्य बोल कर किसी के प्राणों की रक्षा करने से यदि उसके जुल्म और अत्याचारों से दूसरों के प्राणों पर संकट आने की संभावना हो तो उक्त नियम में अपवाद भी हो सकता हैऋ क्योंकि यद्यपि व्यक्ति के जीवन की रक्षा इष्ट है, किन्तु व्यक्ति के जुल्म और अत्याचारों की रक्षा किसी भी अवस्था में इष्ट नहीं है। और अत्याचारों के परिशोध के लिए व्यक्ति या व्यक्तियों की जान ले लेने की अपेक्षा उनका सुधार कर देना अति उत्तम है। यदि यह शक्य न हो तो अन्याय और अत्याचारों को सहायता देना तो कभी भी उचित नहीं है। मगर व्यक्ति सुधर सकता है, इसलिए उसे अवसर अवश्य देना चाहिए। प्राण-रक्षा के लिए असत्य बोलने के मूल में यही भाव है।
असत्य वचन के अनेक भेद हैं, जैसे
१ मनुष्य के विषय में झूठ बोलना, शादी-विवाह के अवसरों पर विरोधियों के द्वारा इस तरह से झूठ बोलने का प्रायः चलन है। विरोधी लोग विवाह न होने देने के लिए किसी की कन्या को दूषण लगा देते हैं, किसी के लड़के में बुराइयाँ बता देते हैं।
२ चौपायों के विषय में झूठ बोलना। जैसे, थोड़ा दूध देने वाली गाय को बहुत दूध देने वाली बताना, या बहुत दूध देने वाली गाय को थोड़ा दूध देने वाली गाय बताना।
३ अचेतन वस्तुओं के विषय में झूठ बोलना। जैसे दूसरे की जमीन को अपनी बताना या टेक्स वगैरह से बचने के लिए अपनी जमीन को दूसरे की बताना।
४ घूस के लोभ से या ईर्ष्या होने से किसी सच्ची घटना के विरुद्ध गवाही देना।
५ अपने पास रखी हुई किसी की धरोहर के संबन्ध में असत्य बोलना।
ये और इस तरह के अन्य झूठ वचन गृहस्थ को नहीं बोलना चाहिए। इससे मनुष्य का विश्वास जाता रहता है और अनाचार को भी प्रोत्साहन मिलता है, तथा जिनके विषय में झूठ बोला गया है उन्हें दुःख पहुँचता है और वे जीवन के वैरी बन जाते हैं। जो लोग कारबार-रोजगार में अधिक झूठ बोलते हैं और सच्चा व्यवहार नहीं रखते, बाजार में भी उनकी साख जाती रहती है। लोग उन्हें झूठा समझने लगते हैं और उनसे लेनदेन तक बन्द कर देते हैं।
बहुत से लोग झूठ बोलने की आदत न होने पर कभी-कभी क्रोध में आकर झूठ बोल जाते हैं, कुछ लोग लोभ में फँसकर झूठ बोले जाते हैं, कुछ लोग हँसी-मजाक में झूठ बोल जाते हैं। अतः सत्यवादी को क्रोध, लालच और भय से भी बचना चाहिए और हँसी-मजाक के समय तो एकदम सावधान रहना चाहिए क्योंकि हँसी-मजाक में झूठ बोलने से लाभ तो कुछ भी नहीं होता, उल्टे झगड़ा बढ़ जाने का ही भय रहता है और आदत भी बिगड़ती है।
प्रस्तुति : पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री जैन सिद्धांताचार्य

Sunday, November 16, 2008

खुद के अलावा कौन परम गुरु हो सकता है?

मैने आपके विचारो पर इस लिए प्रहार किया था की सत्य रुढी न बन जाए। शास्त्रो का महत्व बिल्कुल नही है, ऐसा मेरा कहना गलत था। लेकिन कुरान और बाईबल धर्म शास्त्र नही है – वह एक राजनैतिक साम्रज्यवादी उद्देश्य से गढी गई आचार संहिताए है। धर्मांतरीत कर अपने मतावलम्बियो की संख्या बढाने का प्रचारवादी उपक्रम मानवता के लिए त्रासदी हीं है। सभी ईतने जिज्ञासु कहां है ? सभी मे जिज्ञासा और प्यास तो होती है, लेकिन इतनी नही की वह उसे परम सत्य की तरफ तेजी से बढा दे। कम है ऐसे लोग जिन की प्यास और जिज्ञासा तीव्र हो। ज्ञानियो के दिखाए मार्ग पर चलने से समय आने पर आदमी की प्यास जगती ही है। गुरु कृपा, भगवत कृपा और श्रद्धा की आवश्यकता? खुद के अलावा कौन परम गुरु हो सकता है। क्षणीक काल के लिए ढेर सारे गुरु मिलते है, उनसे श्रद्धा पुर्वक ज्ञान प्राप्त करना ही चहिए। लेकिन उस गुरु पर ठहर गए तो खोज अधुरी ही रह जाएगी। जब पकोगे तो भगवत कृपा अवश्य होगी। यह पृकृति का नियम है। धार्मिक पुस्तको की विकसीत मानव के निर्माण मे कोई भुमिका नही हो सकती। जी मै ऐसा ही सोचता हुं। आप अगर पुस्तको पर श्रद्धा रखते है तो स्वयं कितनी बार वेद, पुराण, रामायण, माहाभारत, गीता, उपनिषद, बाईबिल और कुरान पढे है?

प्रस्तुति : हिमवंत

Saturday, November 15, 2008

Rudra Sandesh: भाव ज्यादा सक्षम है सत्य को अपने अंदर समाहित रखने में।#comment-c3694658012404859381

Rudra Sandesh: भाव ज्यादा सक्षम है सत्य को अपने अंदर समाहित रखने में।#comment-c3694658012404859381

सत्य सौ जन्म के बाद भी प्रभाव पूर्ण

बात प्राचीन महाभारत काल की है। महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान में हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहणी सेना मारी गई, इस युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस हुए तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया? इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले पितामह आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे, लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गयेऋ क्योंकि पीठ के बल ही जाकर गिरा था? करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म! तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया। लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया। अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।

प्रस्तुति : सुनीलदत्त शर्मा "शैलेश'' हि. इ. कॉलेज अलीगढ़

Friday, November 14, 2008

भगवद्दर्शन किसे होता है.

एक समय की बात है एक सन्त की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली कि उन्हें भगवान के दर्शन होते हैं। वह कहते थे कि वे भगवान से रोज साक्षात्कार करते हैं। उनकी इस प्रसिद्धि से प्रभावित होकर एक दिन दो जिज्ञासु उनके पास आए और उनसे याचना की कि उनका भी प्रभु से साक्षात्कार करवाऐं। सन्त ने उन्हें कुछ देर ठहरने को कहा। फिर अपने साथ एक छोटा सा डिब्बा लेकर, उन्हें लेकर वे चल पड़े। कुछ दूर पर एक झोंपड़ी के सामने जाकर रुके और उन जिज्ञासुओं को बाहर ही ठहरने का इशारा करके स्वयं भीतर चले गए। वहाँ एक कोढ़ी खाट पर पड़ा कराह रहा था। सन्त ने उसका हाल चाल पूछा फिर अपना डिब्बा खोलकर उसमें से कुछ ओषधियाँ का लेप निकालकर उसके घावों को साफ करके उन पर लगाया। पट्टी बाँधीं और जब कोढ़ी कुछ राहत महसूस करने लगा तब उससे कहा, चलो! अब ध्यान लगाते हैं। सन्त तथा कोढ़ी दोनों ध्यान लगाकर बैठ गए। कुछ देर ऐसे ही निश्चल बैठे रहे। दोनों जिज्ञासु वहाँ से देख रहे थे। फिर सन्त ने कोढ़ी से पूछा, 'क्या तुम्हें भगवद्दर्शन हुए?' उसने कहा, 'हाँ' हुए'। सन्त ने फिर पूछा कि भगवान कैसे दिख रहे थे? कोढ़ी ने उत्तर दिया, "बिल्कुल आप जैसे महाराज।'' फिर उसने सन्त से पूछा कि आपने भी तो भगवान के दर्शन किए होंगे। वह कैसे दिख रहे थे? सन्त ने कहा, "बिल्कुल तुम्हारे जैसे।'' बाहर खड़े जिज्ञासु अब रहस्य की बात समझ गए थे। सन्त और कोढ़ी दोनों एक दूसरे में परमात्मा को देख रहे थे। मर्म तो यही है कि सबमें परमात्मा का वास है। बस हम ही अपने अहंकार और अज्ञान में उसे देख नहीं पाते।

Thursday, November 13, 2008

ध्यान रखने योग्य पहलू

१। दो शिवलिंग, दो शालीग्राम, दो शंख, तीन दुर्गा और तीन गणेश भगवान की पूजा निषि( है।

२। मंदिर के लिए पिरामिडनुमा छत सर्वोत्तम होती है। मंदिर के ऊपर कलश व ध्वजा नकारात्मक ऊर्जा का शोषण करती है।

३। पितरों को मंदिर में स्थान न दें।

४। दीया या धूप दक्षिण में रखें। सवेरे घी व शाम को तेल का दीया जलाएं।

५। पूजा के पश्चात्‌ उसी स्थान पर खड़े होकर तीन बार परिक्रमा करें।

६। आरती के समय थाली ७ बार घुमानी चाहिए। ३ बार घुटनों के सामने, २ बार नाभि, १ बार हृदय, १ मस्तक और अंत में पूर्ण प्रतिमा के आगे आरती की थाली घुमाएं।

७। पूजा में अक्षत खंडित न हो तथा उनमें सिंदूर, हल्दी, कुमकुम लगा थोड़ा-सा घी लगा दें। इससे लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।

८. भगवान को फूलों की पंखुड़ियां तोड़ कर न चढ़ाएं।

Wednesday, November 12, 2008

अपने दुःख से दुखी मनुष्य पशु समान


अपने दुख से जो दुखी, मनुष्य वो पशु समान।

औरों का दुख झेलता, उसे देवता मान।

उसे देवता मान, जो धरती स्वर्ग बनाये।

तप और परहित के बल महामानव बन जाये।

कह साधक कवि,कभी न डरना अपने दुख से।

जग के दुख को बङा मान ले अपने दुख से।

Tuesday, November 11, 2008

घर में इस प्रकार बनाएँ पूजा स्थल

1। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य और कार्तिकेय की मूर्तियों का मुंह पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए। गणेश, कुबेर, दुर्गा और भैरव का मुंह दक्षिण की तरफ़ हो एवं हनुमान का मुंह नैरित्य दिशा की तरफ़ होना चाहिए।

2। उग्र देवता जैसे काली की स्थापना घर में न करें। इसके अलावा घर में संगमरमर की मूर्ति न रखें।

३. पूजा स्थल में भगवान या मूर्ति का मुख पूर्व, पश्चिम या दक्षिण की तरफ़ होना चाहिए। मूर्ति का मुख उत्तर दिशा की ओर नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में उपासक दक्षिणामुख होकर पूजा करेगा, जोकि उचित नहीं है।

४. पूजाघर के आस पास, ऊपर या नीचे शौचालय वर्जित है, पूजाघर में और इसके आस पास पूर्णतः स्वच्छता तथा शुद्धता होना अनिवार्य है।

५. रसोईघर, शौचालय, पूजाघर एक दूसरे के पास न बनाएं। घर में सीढ़ियों के नीचे पूजा घर नहीं होना चाहिए।

6। मूर्ति के आमने-सामने पूजा के दौरान कभी नहीं बैठना चाहिए। बल्कि सदैव दाएं कोण में बैठना उत्तम होता है।

७. पूजन कक्ष में मृतात्माओं का चित्र वर्जित है। किसी भी श्रीदेवता की टूटी-फूटी तस्वीर व सौंदर्य प्रसाधन का सामान, झाडू व अनावश्यक सामान पूजाघर में न रखें।

8. पूजाघर के द्वार पर दहलीज ज+रूर बनवानी चाहिए। द्वार पर दरबाजा लकड़ी से बने दो पल्लों वाला हो तो उत्तम होता है।

वास्तु के अनुसार पूजा स्थल

१। पूजा स्थल के लिए भवन का उत्तर-पूर्व कोना सबसे उत्तम होता है, पूजा स्थल की भूमि उत्तर-पूर्व की ओर झुकी हुई और दक्षिण-पश्चिम से ऊंची हो, आकार में चौकोर या गोल हो तो सर्वोत्तम होती है।

२। मंदिर के चारों तरफ़ द्वार शुभ हैं।

३। मंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा उस देवता के प्रमुख दिन ही करें या जब चंद्र पूर्ण हो अर्थात्‌ पंचमी, दशमी एवं पूर्णिमा तिथि को मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करें।

४. शयनकक्ष में पूजा स्थल नहीं होना चाहिए। अगर जगह की कमी के कारण मंदिर शयनकक्ष में बना हो तो मंदिर के चारों ओर पर्दे लगा दें। इसके अलावा शयनकक्ष के उत्तर-पूर्व दिशा में पूजा स्थल होना चाहिए।

Sunday, November 9, 2008

तंत्र क्या है


सत्य पर चिंतन की सीरीज को जारी रखने के साथ साथ अब तंत्र पर भी एक सीरीज प्रारंभ कर रहे है, कृपया विचार इसी प्रकार देते रहें। इससे ज्ञान और हिन्दी दोनों का उनयन हो.

सत्य मार्ग में आत्मसातीकरण आवश्यक

आत्मसातीकरण :- एक श्रावक को साधना के पथ पर आगे बढ़ने के लिए तथा सत्य को आत्मसात करने के लिए गुरुदेव के पावन सानिध्य में कम से कम तीन दिन रहकर अनुशासित जीवन व्यतीत करते हुए साधना करने की प्रक्रिया को सीखना होता है जिसको सीखकर निरंतर करते रहने से वह सत्य को आत्मसात करने योग्य साधक बन जाता है। यह अत्यंत ही सरल एवं सहज पद्धति है। जो श्री गुरुदेव के दीक्षित शिष्य बनना चाहें वे श्रावक बनकर साधना करते हुए सत्य को आत्मसात कर सकते हैं। आओ बढ़कर इस अवसर का लाभ उठाएं। सत्य के सागर में गोते लगाने हेतु उद्यत हों। कृपया उक्त के संदर्भ में अपने विचार संप्रेषित करें।

हमारा पता है- रुद्र संदेश १ शारदापुरम, क्वार्सी थाने के सामने, रामघाट रोड, अलीगढ़-२०२००१

Saturday, November 8, 2008

सत्य मार्ग में मनन का महत्व

२. मनन :- साधना के प्रथम चरण में इस पद्यति में प्रवेश लेकर एक माह तक गुरुदेव द्वारा विरचित ज्ञानयोग चर्चा का श्रवण करता है तथा अपना जीवन अनुशासित रखना सीखता है जिसके अंतर्गत प्रातः एवं संध्याकाल में दीप प्रज्वलित कर उसके सम्मुख बैठकर आधा घण्टा प्रातः व आधा घण्टा सायंकाल कैसेट, ब्ण्क्ण् का श्रवण या पुस्तकों का ध्यानपूर्वक पढ़ता है। रात्रि को सोने से पूर्व दस मिनट के लिए शवासन की मुद्रा में आज के दिन श्रवण किए गए ज्ञान वाक्यों का मनन करता है। एक माह के निरंतर श्रवण एवं मनन करने पर वह श्रावक बन जाता है।

भाव ज्यादा सक्षम है सत्य को अपने अंदर समाहित रखने में।

पिछले पोस्ट पर हिम्मत जी की टिपण्णी बहुत सुंदर आई । उसे उसी रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।

शब्द "सत्य" नही हो सकते। शब्दो के अर्थ बदलते रहते है। शब्द बुद्धी का विषय है। भाव ज्यादा सक्षम है सत्य को अपने अंदर समाहित रखने में। ये पुस्तके जिनका नाम आपने लिखा है वे मृत पुस्तकें हैं। विकसित मानव के निर्माण मे उनकी कोई भुमिका नही हो सकती है - बल्कि वे बाधक हैं। परम सत्य का दर्षण सिर्फ और सिर्फ आत्मानुभुति से हो सकता है। आज इस दुनिया मे कोई ऐसा नही जो मुझे पार लगा सकता है, सिवाय मेरे खुद के। मेरा ईश्वर, मेरा सत्य मेरे अन्दर है। मेरी प्यास ही सबसे महत्वपुर्ण है। तुम्हारे शब्द बेकार है किसी और के लिए। जब तुम खुद प्रकाशित नही हुए तो औरो को प्रकाश दिखाने ढोंग क्यो करते हो ?

Friday, November 7, 2008

सत्य मार्ग में श्रवण महत्वपूर्ण

१. श्रवण :- सर्वप्रथम पूज्य गुरुदेव सत्य का प्रकटीकरण वेदों, उपनिषदों, पुराणों, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब आदि ओल्ड टेस्टामेण्ट, न्यूटेस्टामेण्ट के आधार पर अपने प्रवचनों के माध्यम से करते हैं। गुरुदेव स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सत्य वह है जो किसी से कटे नहीं। जिसे सभी ग्रंथ अकाट्य रूप से स्वीकार करें, वही सत्य है।

Thursday, November 6, 2008

सत्य मार्ग साधना का परिचय

भारतीय सनातन परम्परा एक ऐसी गार्मेन्ट शॉप है जहाँ हर किसी के लिए उपयुक्त वस्त्र उपलब्ध हैं। यहाँ कोई बाध्यता नहीं कि आपको एक निश्चित साइज का कपड़ा ही पहनना पड़े। यदि आपके अंदर समर्पण का भाव है तो श्रीमद् भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताया गया भक्ति योग आपके लिए उपलब्ध है। जी हाँ! अगर आप समर्पण को अंधविश्वास मानते हैं। आपके अंदर जानने की प्रवृत्ति है तो आइए ज्ञान योग में आपका स्वागत है और अगर आप ज्ञान और भक्ति को फिजूल मानते हें और कर्म पर विश्वास करते हैं तो सहजरूप से आप कर्मयोग को अपनाएं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि उक्त तीनों में से किसी एक योग को धारण करने वाला व्यक्ति शेष दो को स्वतः प्राप्त कर लेता है और यही सत्य मार्ग है जो हमारे पूज्य गुरुदेव ने आदि गुरु से प्राप्त किया। उसे आज के परिवेश में परिमार्जित कर जन सामान्य के लिए, अपने गुरुदेव की आज्ञा से प्रकटीकरण कर दिया है। सत्यमार्ग साधना तीन चरणों में होती है-

१। श्रवण २. मनन ३. आत्मसातीकरण

Wednesday, November 5, 2008

Shrimad Bhagawat Gita Chapter 17 Verse 15

Anudwegakar vakyam satyam priyahitam ch yat.
Swadhyayabhyasanam chaiv vangmayam tap uchyate
.

Translation : -
The speech that is truthful, pleasing, beneficial and does not agitate anyone and also reading and reciting sacred text from scriptures are called Austerity of speech.

Purport :-
In this verse describing the austerity of speech the supreme Lord says that one's speech should be such that it does not arouse in anyone at any time any agitation or disturbance; which is true and is told without vanity or selfishness to others to make them understand; which is loving, sweet, simple and peaceful; which displays the qualities of love, kindness, forbearance and benevolence and which is not meant to harm any one at any time.
As is said Man should speak truth and pleasing words. He should utter words which are true but not unpleasant; and which are pleasant but not untrue. This is Sanatan Dharma (Eternal Religion).
The Guru tells story in this connection. Once a sage saw a cow rushing madly near his Ashram. A man also came running after the cow. seeing the sage he asked him if he had seen the cow. The sage understood in one glance that he was a butcher and if he told him in which direction the cow had gone he would surely kill her. But he could not utter a lie. so he said "One who saw (the eye saw) can not speak, and the one who can speak (the tongne can speak), did not see. Thus in spite of telling the truth he saved the cow.
Now, on examining we shall find that it is possible to speak such words only if man's heart is free from violence, jealousy, hatred or enmity and he is averse to talking ill about others or insulting other. such a person is always full of divine love for all.
Besides, studying and teaching scriptures, Vedas, Upnishadan, Bhagwat, Mahabharat etc. for spiritnal development of self and others is called svadhyaya or self-study.
Reciting and repeating such text over and over again, to memorise it, chanting the holy name and praying to god again and again is called abhyas or 'practise'.
practising all these and exercising restrain in speech (ie neither speaking nor reading anything nonsense) is called penance (Tapah) of speech.

Monday, November 3, 2008

सत्य का ज्ञान क्या है- जैसा गुरुदेव ने बताया

हमारे तथा सत्य के बीच सिर्फ एक अज्ञान का ही आवरण है। इस बात को दर्शाने के लिए एक कथा गुरु कहते हैं जो इस प्रकार हैं- एक राजा था। उसका एक राजकुमार था जो बाल्यावस्था में ही यात्रा के दौरान राजा-रानी से बिछुड़ गया। भटकते-भटकते वह एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ एक कबीला रहता था। कबीले के सरदार की दृष्टि उस पर पड़ी तो उसने उसे पालने की ठानी। उधर राजा ने उसको बहुत खोजा पर असफल रहा। अब तो राजकुमार वहीं पलने लगा और खुद को कबीले का ही सदस्य समझने लगा। राजा बूढ़ा हो चला था। उसे अपने राज्य के उत्तराधिकारी को एक बार पुनः खोजने की इच्छा जाग्रत हुई और एक अन्तिम प्रयास के लिए उसने अपने मन्त्रियों को आदेश दिए। अब राजा के आदमी पूरे राज्य में चप्पे-चप्पे पर पूछताछ करने लगे। एक आदमी उस कबीले तक भी पहुँचा वहाँ उसकी दृष्टि उस राजकुमार पर ही पड़ी जो कबीले की वेशभूषा में भी अन्य कबीले के सदस्यों से भिन्न दिख रहा था तो उत्सुकतावश राज्य के उस आदमी ने कबीले के सरदार से उसके बारे में पूछा तो सरदार ने सच-सच बता दिया कि वह किन परिस्थितियों में कब उसे मिला था। राजकुमार उस समय जो कपड़े पहने हुए था, वह भी दिखा दिया। अब तो राजा को भी वहाँ बुला लिया गया। राजा के संदेह करने पर उस सरदार ने राजकुमार जब उसे मिला था तो जिन वस्त्राभूषणों को धारण किए था, वह सब उसे दिखा दिए। अब राजा को और राजकुमार को भी उस पर भरोसा हो गया। राजकुमार जो अब तक कबीले के संस्कारों के कारण स्वयं को कबीले का सदस्य मानता था, वह अब समझ गया था कि वह तो असल में राजकुमार है। पढ़ने सुनने में यह किसी हिन्दी फिल्म की कहानी की तरह ही लगेगी परंतु यह ÷कथा' है। अपने स्वरूप के ज्ञान की जो कि बस अज्ञान के आवरण के हटने से स्वतः प्राप्त हो जाता है। हमारी आत्मा जब इस संसार में शरीर धारण करके आती है तो समझो कि कबीले में आ गया-राजकुमार। अब संसार में नाम, रूप, कुल, गोत्र, संस्कार ये सब ही हमें हमारी पहचान लगने लगते हैं दूसरों की भी यही पहिचान हम जानते हैं। पर हम तो हैं ही 'राजकुमार' वह सत्‌चित्‌ आनन्द स्वरूप आत्मा जो अजर अमर अविनाशी है। बस उस राजकुमार के समान इस 'सत्य' का विस्मरण हो गया है पर जब गुरु के ज्ञान का प्रकाश फैलता है तो हमें हमारे पुराने कपड़े दिखाए गए मानें। वह हमें यह निश्चय पक्का करा देते हैं कि हम हैं ही आत्मा और हर तरफ, हर जगह है ही 'राजा' परमात्मा की सत्ता। सत्य तो स्वतः सिद्ध है, सदा है, अक्षर है, बस उसका विस्मरण हो गया है।

आइए गुरु की शरण में चलें जो अज्ञान के आवरण को हटाकर हमें हमारे स्वरूप का स्मरण करा दें, तो हम भी अर्जुन की तरह कह सकें- स्मृतिर्लब्धा नष्टों मोहः अर्थात्‌ मुझे अपने स्वरूप का स्मरण हो गया है और मेरा मोह, अज्ञान नष्ट हो गया है।

Saturday, November 1, 2008

बापू के जीवन की सत्य की पहली जीत

सत्य की ताकत को महात्मा गांधीजी ने अपने बचपन में ही अनुभव कर लिया था। सत्य के प्रयेग नामक पुस्तक में अपने संस्मरणों में उन्होंने स्वीकार किया कि बचपन में उन्होंने एक बार चोरी की। उन्होंने अपने भाई का सोना चुरा लिया था। कोमल हृदय पर इस पाप का इतना बोझ पड़ा कि वे विचलित रहने लगे।

उन्होंने एक पत्र लिखकर इस सत्य को अपने पिता को लिखकर दे दिया। प्रारम्भ में उने पिता कुछ नाराज अवश्य हुए लेकिन पुत्र के सत्य को स्वीकारने के इस साहस को देखकर उन्होंने गांधीजी को क्षमा कर दिया और सत्य को साथ रखने के कारण ही बापूजी राष्ट्रपिता बने। http://rudracomputereducation.blogspot.com/