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Saturday, December 13, 2008

वास्तविक स्वरूप की पहचान कराने की प्रक्रिया, है तन्त्र

विस्तारार्थक 'तनु' धातु से 'त्रल्‌' या 'ष्ट्रन्‌' प्रत्यय जोड़कर तन्त्र शब्द बनता है। इस प्रकार तन्त्र आत्मा के विस्तार की चर्चा का दूसरा नाम है। चरम सत्ता या परमशिव अपनी इच्छा से अपने ऊपर अज्ञान का आवरण डाल कर अपने को संकुचित कर पशु या जीव के रूप में प्रकट करते हैं। यह अज्ञान तन्त्र की भाषा में ÷मल' कहलाता है। सारा संसार इसी अज्ञान या मल का कार्य है और अज्ञान या मल इस संसार का कारण। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है, ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः अर्थात इस जीवलोक अर्थात्‌ देह में स्थित सनातन जीव मेरा ही अंश है। गोस्वामी जी ने मानस में लिखा है,

ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी॥

जीव के अन्दर वे ही सर्वज्ञता आदि गुण विद्यमान हैं जो ईश्वर के अन्दर कहे गये हैं किन्तु मल के कारण वह अपने को अल्पज्ञ, अतृप्त, परतन्त्र, अल्पशक्तिमान्‌ आदि समझता है। जो प्रक्रिया, जो पद्धति, जो नियम, जो रीति रिवाज इस आवरण को हटाकर आत्मा के वास्तविक स्वरूप की पहचान कराने या इस उद्देश्य की पूर्ति में साक्षात्‌ या परम्परया कारण बनते हैं वे सब के सब तन्त्र हैं।

प्रस्तुति : परितोष नारायण

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