आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Sunday, November 16, 2008

खुद के अलावा कौन परम गुरु हो सकता है?

मैने आपके विचारो पर इस लिए प्रहार किया था की सत्य रुढी न बन जाए। शास्त्रो का महत्व बिल्कुल नही है, ऐसा मेरा कहना गलत था। लेकिन कुरान और बाईबल धर्म शास्त्र नही है – वह एक राजनैतिक साम्रज्यवादी उद्देश्य से गढी गई आचार संहिताए है। धर्मांतरीत कर अपने मतावलम्बियो की संख्या बढाने का प्रचारवादी उपक्रम मानवता के लिए त्रासदी हीं है। सभी ईतने जिज्ञासु कहां है ? सभी मे जिज्ञासा और प्यास तो होती है, लेकिन इतनी नही की वह उसे परम सत्य की तरफ तेजी से बढा दे। कम है ऐसे लोग जिन की प्यास और जिज्ञासा तीव्र हो। ज्ञानियो के दिखाए मार्ग पर चलने से समय आने पर आदमी की प्यास जगती ही है। गुरु कृपा, भगवत कृपा और श्रद्धा की आवश्यकता? खुद के अलावा कौन परम गुरु हो सकता है। क्षणीक काल के लिए ढेर सारे गुरु मिलते है, उनसे श्रद्धा पुर्वक ज्ञान प्राप्त करना ही चहिए। लेकिन उस गुरु पर ठहर गए तो खोज अधुरी ही रह जाएगी। जब पकोगे तो भगवत कृपा अवश्य होगी। यह पृकृति का नियम है। धार्मिक पुस्तको की विकसीत मानव के निर्माण मे कोई भुमिका नही हो सकती। जी मै ऐसा ही सोचता हुं। आप अगर पुस्तको पर श्रद्धा रखते है तो स्वयं कितनी बार वेद, पुराण, रामायण, माहाभारत, गीता, उपनिषद, बाईबिल और कुरान पढे है?

प्रस्तुति : हिमवंत

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