हमारे तथा सत्य के बीच सिर्फ एक अज्ञान का ही आवरण है। इस बात को दर्शाने के लिए एक कथा गुरु कहते हैं जो इस प्रकार हैं- एक राजा था। उसका एक राजकुमार था जो बाल्यावस्था में ही यात्रा के दौरान राजा-रानी से बिछुड़ गया। भटकते-भटकते वह एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ एक कबीला रहता था। कबीले के सरदार की दृष्टि उस पर पड़ी तो उसने उसे पालने की ठानी। उधर राजा ने उसको बहुत खोजा पर असफल रहा। अब तो राजकुमार वहीं पलने लगा और खुद को कबीले का ही सदस्य समझने लगा। राजा बूढ़ा हो चला था। उसे अपने राज्य के उत्तराधिकारी को एक बार पुनः खोजने की इच्छा जाग्रत हुई और एक अन्तिम प्रयास के लिए उसने अपने मन्त्रियों को आदेश दिए। अब राजा के आदमी पूरे राज्य में चप्पे-चप्पे पर पूछताछ करने लगे। एक आदमी उस कबीले तक भी पहुँचा वहाँ उसकी दृष्टि उस राजकुमार पर ही पड़ी जो कबीले की वेशभूषा में भी अन्य कबीले के सदस्यों से भिन्न दिख रहा था तो उत्सुकतावश राज्य के उस आदमी ने कबीले के सरदार से उसके बारे में पूछा तो सरदार ने सच-सच बता दिया कि वह किन परिस्थितियों में कब उसे मिला था। राजकुमार उस समय जो कपड़े पहने हुए था, वह भी दिखा दिया। अब तो राजा को भी वहाँ बुला लिया गया। राजा के संदेह करने पर उस सरदार ने राजकुमार जब उसे मिला था तो जिन वस्त्राभूषणों को धारण किए था, वह सब उसे दिखा दिए। अब राजा को और राजकुमार को भी उस पर भरोसा हो गया। राजकुमार जो अब तक कबीले के संस्कारों के कारण स्वयं को कबीले का सदस्य मानता था, वह अब समझ गया था कि वह तो असल में राजकुमार है। पढ़ने सुनने में यह किसी हिन्दी फिल्म की कहानी की तरह ही लगेगी परंतु यह ÷कथा' है। अपने स्वरूप के ज्ञान की जो कि बस अज्ञान के आवरण के हटने से स्वतः प्राप्त हो जाता है। हमारी आत्मा जब इस संसार में शरीर धारण करके आती है तो समझो कि कबीले में आ गया-राजकुमार। अब संसार में नाम, रूप, कुल, गोत्र, संस्कार ये सब ही हमें हमारी पहचान लगने लगते हैं दूसरों की भी यही पहिचान हम जानते हैं। पर हम तो हैं ही 'राजकुमार' वह सत्चित् आनन्द स्वरूप आत्मा जो अजर अमर अविनाशी है। बस उस राजकुमार के समान इस 'सत्य' का विस्मरण हो गया है पर जब गुरु के ज्ञान का प्रकाश फैलता है तो हमें हमारे पुराने कपड़े दिखाए गए मानें। वह हमें यह निश्चय पक्का करा देते हैं कि हम हैं ही आत्मा और हर तरफ, हर जगह है ही 'राजा' परमात्मा की सत्ता। सत्य तो स्वतः सिद्ध है, सदा है, अक्षर है, बस उसका विस्मरण हो गया है।
आइए गुरु की शरण में चलें जो अज्ञान के आवरण को हटाकर हमें हमारे स्वरूप का स्मरण करा दें, तो हम भी अर्जुन की तरह कह सकें- स्मृतिर्लब्धा नष्टों मोहः अर्थात् मुझे अपने स्वरूप का स्मरण हो गया है और मेरा मोह, अज्ञान नष्ट हो गया है।
1 comment:
satya ka darshan keval guru ke dwara hi sambhav hai.
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