वेद अनादि और अपौरुषेय हैं। ये महात्मा विष्णु के निःश्वास हैं ÷यस्य निःश्वसितं वेदाः' प्रारम्भ में वेद एक ही था। कालान्तर में शिष्यों की सुविधा को ध्यान में रखकर इसके तीन भाग किये गये ऋग, यजुः और साम। इन तीनों के समूह को त्रयी कहा गया। अथर्व वेद का संकलन बाद में हुआ। वेदों की भाँति तन्त्र भी अपौरुषेय हैं। प्रारम्भ में ये ध्वनि रूप में प्रकट हुये। बाद में परमेश्वर ने अपने लीलास्वातन्त्र्य के कारण अपने को उमापतिनाथ एवं उमा के रूप में अवतारित कर इस शास्त्र को प्रश्न और उत्तर के रूप में विस्तारित किया। इस प्रकार यह शिवमुखोक्त शास्त्र कहलाने लगा। यह तन्त्र शास्त्र भी पहले एक ही था किन्तु आधारभेद के कारण इसकी अनेक विधायें हो गयीं। इस अवतार क्रम में यह शास्त्र ऋषियों को प्राप्त हुआ और वे ही इसके प्रयोक्ता हुए। शैव आदि रहस्यशास्त्र अर्थात् तन्त्रशास्त्र सत्ययुग आदि में महात्मा ऋषियों के मुख में विद्यमान रहा करते थे। वे ही लोग अनुग्रह भी करते थे। कलियुग के प्रारम्भ में जब वे शास्त्र दुर्गम होने लगे और सिमट कर कलापि ग्राम में रह गये अन्यत्र उच्छिन्न हो गये तब कैलास पर्वत पर घूमते हुए भगवान् श्रीकण्ठनाथ ने अनुग्रह के लिये अपने को पृथिवी पर अवतीर्ण किया और ऊर्ध्वरेता दुर्वाशा को आज्ञा दी कि यह शास्त्र उच्छिन्ना न हो इसलिये रहस्य शास्त्र का वैसा प्रचार करो। अत्रि मुनि के तीन पुत्र थे दुर्वाशा, दत्तात्रेय और चन्द्रमा। ये तीनों क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा के अंश थे। मुनि ने इन तीनों को तीन प्रकार के तन्त्रों की दीक्षा दी थी। दुर्वाशा को शैव तन्त्र, दत्तात्रेय को अघोर तन्त्र और चन्द्रमा को वैष्णव तन्त्र की दीक्षा दी गयी। इन में से चन्द्रमा की तन्त्र परम्परा आज विद्यमान नहीं है। प्राचीन काल में शैव, शाक्त, पाशुपत, भागवत, लकुलीश, गाणपत्य, पांचरात्र आदि तन्त्रों का प्रचलन इस देश में था। इनके अतिरिक्त बौद्ध और जैन तन्त्र भी इस देश में प्रचलित थे। कालक्रम के प्रभाव से बौद्ध तन्त्र भारत के बाहर चला गया और शैव आदि में से अनेक तन्त्रों की परम्परा उच्छिन्ना हो गयी। सम्प्रति केवल शैव और शाक्त तन्त्र ही जीवित हैं। इनमें भी आडम्बर घर करता जा रहा है।
Tuesday, December 16, 2008
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