आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, October 30, 2008

महाराज जी द्वारा विरचित भागवत रुद्र संदेश

जैसे पानी से लहर पैदा होती है, पर अलग दिखती है। ऐसे ही जगत परमात्मा से उत्पन्न होकर दिखता है।...............विस्तृत देखें http://bhagawat-katha.blogspot.com/

'मैं' कौन हूँ, इसको जानने के लिए, पहले जानो कि मुझे क्या करना है? ...............विस्तृत देखें http://bhagawat-katha.blogspot.com/

अपने-अपने कर्त्तव्य को पकड़ लें तो भगवान तो दूर हैं ही नहीं।...............विस्तृत देखें http://bhagawat-katha.blogspot.com/

Tuesday, October 28, 2008

काण्ट ने भी माना था कि जगत सत्य नहीं

काण्ट ने वास्तविक स्वरूप और दृश्य भाग में अंतर माना है। काण्ट ने बुद्धि के तार्किक विश्लेषण द्वारा अपने समय के आदेशवाद तथा संशयवाद का खंडन करके स्वतंत्र परिणाम निकाला था कि संसार जो काल, कारण तथा दिक्‌ से विशिष्ट है, कोई तात्विक सत्यता नहीं रखता, वहाँ यह भी माना है कि इस संसार की कम से कम दृश्य रूप में एक सत्ता है जो व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है। जगत्‌ न तो मायारूप ही कहा जा सकता है और न यह वास्तव में ब्रह्म से भिन्न है। कार्य कारण का संबंध एकत्व प्रमाणित करता है। विश्व सत्यतः ब्रह्म है।

ब्रह्म संसार और व्यक्तिगत आत्मा की भाँति स्वयं अपनी इच्छा से प्रकट होता है और उसके सहज गुण में कोई विकार नहीं होता। वही जगत्‌ का समवायि (वास्तु'' तथा निमित्त दोनों ही कारण है। पक्षपात तथा अत्याचार का दोष ब्रह्म पर आरोपित नहीं किया जा सकता क्योंकि बल्लभाचार्य ने जीव को ब्रह्म से भिन्न माना है। उनका कथन है कि जीव जब माया के बंधन से मुक्त हो जाता है तो ब्रह्म के साथ एक हो जाता है।

Monday, October 27, 2008

दिवाली की शुभ कामनाएं




हो तिमिर का शमन।
सत्य का आलोक हो।
ना रहे नफ़रत कहीं .
बस प्रेम ही प्रेम हो।
आओ मिल आवली बनाएं .
हर दिल में एक दीप जलाएं ॥

Sunday, October 26, 2008

आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि

भक्ति अंजलि में भरने, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि।
समय की तपशिला पर बैठ कर, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि॥
स्वर्ग न जानू, मुक्ति न माँगू, जानू नाम तिहारा ॥
इसी नाम के सहारे, आई तेरे द्वारे भगवान्‌ अंजलि॥
हाँ, इसी नाम के सहारे, आई तेरे द्वारे भगवान्‌ अंजलि ।
भक्ति अंजलि...............॥
इच्छा और आकांक्षाओं को, इष्ट के साथ मिलाया।
इसी साथ के सहारे, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि॥
हाँ। इसी साथ के सहारे, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि।
भक्ति अंजलि................॥
मीरा के संग नृत्य करा, और सूर की लकुटी पकड़ी।
मेरी भी ले लो खबरिया, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि॥
हाँ। मेरी ले लो खबरिया, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि।
भक्ति अंजलि..................॥
अर्जुन और सुदामा की राखी, चेतन्य और सुमान की राखी।
मेरी भी सुध लो सँवरिया, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि॥
हाँ इसी आस के सहारे, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि।
भक्ति अंजलि.................॥
ऊँच न जानूँ, नीच न जानँू, जानूँ समता नारा।
इस समता के कारण, माँगने सहारा आई अंजलि॥
हाँ इस समता के कारण, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि।
अंजलि................॥
रीती है अरमानों की झोली, दूर कहीं से कोयल बोली।
जीवन की इस क्षण भंगुरता से, क्यों उदास होती है अंजलि॥
आजा शरण में प्रभु की, मिलेगी ये मुक्ति तुझे 'प्रेम' में।
हाँ, भक्ति अंजलि में भरने, आई तेरे द्वारे भगवन्‌ अंजलि॥
प्रस्तुति : अंजलि शर्माप्रवक्ता, महेश्वर कन्या इण्टर कालेज अलीगढ़

Saturday, October 25, 2008

फकीरी पाक मुहब्बत सार

कहिवे सुनवे में भली रे है खाँडे की धार।

करिबे सोचे होय ना रे, ना कोई रहे विचार॥

सोचे बोलें बाँनियाँ जीवन का व्यापार।

यहाँ न जीवन मरण है, नहीं जीत और हार॥

जामें ये वाँसा करें रे, सोई सबकौ हार।

अमर जीत यह उर बसै, साज बाज बिन तार॥

पीर फकीरी एक है रे, वसय हीये के द्वार।

रुद्र खजाना प्रेम का, छोड़ि जगत व्यवहार॥

Thursday, October 23, 2008

जो निराकार है वह सत्य है।

सत्य एक है। भिन्नता और अनेकता केवल भ्रममात्र हैं। पृथ्वी पर भिन्नता, अनेकता नहीं है। जो यहाँ झूठी भिन्नता अर्थात अनेकता देखता है वह मृत्यु के बाद मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात बार-बार मरता है। इस अप्रमेय और ध्रुव सत्‌ को केवल एकत्व के रूप में देखना चाहिए। वास्तव में देखने वाला केवल 'सर्व' को देखता है और सर्वशः सर्व को प्राप्त करता है।''

वही एक सत्य ब्रह्म है जो अभिन्न और एक है। जब मनुष्य इस ज्ञान को भूल जाता है कि सब कुछ निश्चय ही एक ब्रह्म है तब यह रूपात्मक जगत्‌ या निकृष्ट ब्रह्म सत्य प्रतीत होने लगता है, जहाँ प्रत्येक वस्तु भिन्न और पूर्ण सत्तात्मक प्रतीत होने लगती है-तात्पर्य यह है कि यह माया या भ्रम है।

इसीलिए मैत्रेयी उपनिषद् दोनों ब्रह्म के विषय में साफ़ साफ़ कहती हैं, "ब्रह्म के निश्चय दो रूप हैं- एक साकार और दूसरा निराकार। जो साकार है वह असत्य है और जो निराकार है वह सत्य है।

प्रस्तुति : सुमित्रा सिंह

Tuesday, October 21, 2008

आत्मा के अलावा और कुछ सत्य नहीं

जनक के साथ वार्तालाप करते हुए याज्ञवल्क्य कहते हैं, "जब यह कहा जाता है कि ऐसा व्यक्ति देखता नहीं है, तो वास्तव में सत्य है कि वह देखता है और फिर भी नहीं देखता, क्योंकि देखने वाले की दृष्टि कभी नष्ट नहीं होती क्योंकि वह अनाशवान्‌ है, परंतु उसके अतिरिक्त और उससे बाहर कोई वस्तु है ही नहीं जिसके लिए कहा जा सके कि वह उसको देखता है। इसी प्रकार जब यह कहा जाता है कि वह न सूँघता है, न स्वाद लेता है, न बोलता है, न सुनता है, न स्पर्श करता, जानता या विचार करता है, तब उसका अर्थ यह है कि वह यह सब काम करता है और फिर भी नहीं करता, क्योंकि उसके गंध, रस, स्पर्श, वाक्‌, श्रवण, कल्पना और ज्ञान इत्यादि की शक्तियों का कभी विनाश नहीं होता, क्योंकि वे अनाशवान्‌ हैं परंतु आत्मा के बाहर और उससे भिन्न कुछ है ही नहीं जिसे वह सूँघे, जिसका स्वाद ले या जिससे बोले, जो सुनी जा सके या जिसकी कल्पना, विचार या स्पर्श हो सके। इस प्रकार याज्ञवल्क्य अपने को क्षणिक विज्ञानवाद से बचा लेते हैं जहाँ अपने अखण्ड अद्वैतवाद के कारण वे पहुँच गए थे। उल्लिखित वाक्यों का निष्कर्ष यह है कि अद्वैतवादी के लिए आत्मा के अतिरिक्त उससे भिन्न या बाहर कोई अन्य वस्तु नहीं है, उसके किसी अंश का ज्ञान प्राप्त करना पूर्ण का ज्ञान प्राप्त करना है, वही आदि कारण हैऋ उसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु केवल भ्रममात्र है, वही एक नित्य ज्ञानवान्‌ है और जब वह आत्मा व्यक्त जगत्‌ के देखने या जानने के कार्य में उलझ जाता है। फिर भी सत्य यह है कि वह न देखता है और ना जानता है। आत्मा ही केवल एक सत्ता है और उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

प्रस्तुति : जन्मेजय

Sunday, October 19, 2008

सत्यः जिसको जानने से जो मालूम नहीं है वह भी मालूम हो जाता है

जब श्वेतकेतु अपने गुरु के यहाँ से अभिमान और आत्म-संतोष से भरा तथा अपने को विद्वान्‌ समझता हुआ घर लौटा तब उसके पिता ने पूछा कि क्या तुम्हारे गुरु ने तुम्हें उस अंतिम सत्‌ का ज्ञान कराया "जिसको सुनने से जो सुनाई नहीं पड़ता, वह भी सुनाई दे जाता है, जिसके ऊपर विचार करने से जिसका विचार नहीं किया था, वह भी विचार में आ जाता है जिसको जानने से जो मालूम नहीं है वह भी मालूम हो जाता है''

श्वेतकेतु ने अपना अज्ञान साफ़-साफ़ स्वीकार कर लिया और पिता से प्रार्थना की कि बताइए वह परम ज्ञान क्या है। तब उसके पिता आरुणि ने कहा कि "जिस प्रकार एक मिट्टी के ढेले का ज्ञान प्राप्त करने से मिट्टी की बनी हुई सब वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि अन्य सब केवल विकार मात्र हैं उनमें केवल नाम और रूप का अंतर है, आधार सबका मिट्टी ही हैं जिस प्रकार एक लोहे के टुकड़े के ज्ञान से लोहे की बनी हुई सब वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि अन्य सब विकारमात्र हैं उनमें केवल नाम और रूप का अन्तर है, आधार सबका केवल लोहा है जिस प्रकार एक कैंची का ज्ञान प्राप्त कर लेने से पक्के लोहे की बनी हुई सब चीजों का ज्ञान हो जाता है- क्योंकि अन्य सब विकारमात्र हैं उनमें केवल नाम और रूप का भेद है और सबका आधार पक्का लोहा है तो उसका पूर्ण ज्ञान हो जाता है, क्योंकि सबका आधार केवल ब्रह्म है जो स्वानुरूप, आत्मस्थ और आत्म-ज्ञात है।'' उपर्युक्त वाक्य का भाव यह है कि प्रत्येक वस्तु जिसका अस्तित्व है, ब्रह्म है और satya है।।

प्रस्तुति : खुशबू choudhary

Friday, October 17, 2008

निरपेक्ष ही केवल सत्य है


भारतीय विचार-धारा का मूल आधार यह है कि विश्व एक हैऋ इसके भीतर या बाहर किसी प्रकार की विभिन्नता नहीं है। कठोपनिषद् में कहा है कि "जो इस संसार में विभिन्नता अथवा अनेकत्व देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को जाता है। अभिन्नता अथवा एकत्व केवल उच्च स्तर की बुद्धि द्वारा ही देखा जा सकता है।'' ब्रह्म की संपूर्ण सत्ता सर्वत्र एक समान है और इसके किसी एक अंग का ज्ञान प्राप्त करना संपूर्ण के ज्ञान प्राप्त करने के समान है। इस प्रकार निरपेक्ष ही सत्य है।


प्रस्तुति : आशीष

Thursday, October 16, 2008

मुंडकोपनिषद् के अनुसार सत्य





मुंडकोपनिषद् में बृहद्रथ पूछता है, "इस दुर्गन्धपूर्ण और जो मल-मूत्र, वायु, पित्त, कफ का एक ढेर मात्र है, और जो अपने ही अस्थि, चर्म, स्नायु, मज्जा, मांस, वीर्य, रक्त, श्लेष्म और अश्रु से नष्ट हो जाता है, उस सारहीन शरीर को अभिलाषाओं की पूर्ति से क्या लाभ है? यह शरीर काम, क्रोध, लोभ, भय, नैराश्य, द्वेष, प्रिय से पार्थक्य, अप्रिय से मेल, भूख, प्यास, जरा, मृत्यु, रोग और दुःख से ग्रस्त है। इसकी अभिलाषाएं पूरी करने से क्या लाभ? निश्चय ही यह समस्त ब्रह्म जगत्‌ नाशवान्‌ है। कीड़े और पंतगों तथा घास और वृक्षों को देखो, वे केवल नष्ट होने के लिए पैदा होते हैं। इनकी तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े समुद्र सूख जाते हैं, पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं, ध्रुव अपने स्थान से डिग जाता है, पर्वत-मालाएँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं, पृथ्वी जल-मग्न हो जाती है और स्वयं देवतागण भी अपने स्थान से हट जाते हैं।''


प्रस्तुति : राम मूर्ती सिंह मुरादाबाद

Monday, October 13, 2008

कठोपनिषद के अनुसार शास्वत ही सत्य है।

कठोपनिषद् (१. १. २८) विचारपूर्ण ढंग से पूछता है- "कभी जराग्रस्त न होने वाले अमीरों के समीप पहुँचकर और उनके जीवन का उपभोग करके इस लोक में रहने वाला कौन जराग्रस्त मनुष्य होगा (जो केवल शारीरिक वर्ण के राग से प्राप्त होने वाले) सौन्दर्य और प्रेम के सुखों की चिंता से पूर्ण जीवन में सुख मानेगा?'' उसी भाव से कठोपनिषद् एक क्षण भर की अमर जीवन की चिंता के सामने इन्द्रिय सुख से पूर्ण एक दीर्घजीवन की निंदा करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि शास्वत ही सत्य है।

प्रस्तुति : जन्मेजय

Sunday, October 12, 2008

सत्य तो विकार रहित और अविनाशी है।

यह बिल्कुल सच है कि संसार की असत्यता की धारणा यदि निरंतर मन में रखी जाए तो वह एक मनुष्य को निस्पृह और निश्चिन्त बनाने में सहायता पहुँचाती है। निस्पृहता से बढ़कर दूसरा गुण नहीं है। स्पृहता या लोभ पाप की जड़ है जो आगे चलकर दुःख और कष्ट की जननी बन जाती है। जिसने निस्पृहता का अभ्यास कर लिया है वह किसी भी उच्च उद्देश्य में अपने को लगा सकता है क्योंकि एक निश्चिन्त व्यक्ति ही नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में महान कार्य कर सकता है।

जिसने अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि प्रत्येक सांसारिक वस्तु परिवर्तन, विनाश और मृत्यु के अधीन है, वह अपने को किसी सांसारिक सुख में लिप्त नहीं होने देता। वह जानता है कि यह क्षणिक है, अतः उसके ध्यान देने योग्य नहीं है। इस प्रकार इस गतिशील संसार का उचित मूल्य निर्धारित कर लेने से हमारे जीवन का दृष्टिकोण "अंधकारमय और विषादपूर्ण'' नहीं कहा जा सकता, जैसा कि पाश्चात्य विद्वान्‌ कहते हैं, वरन्‌ इससे हमारा हृदय आशा और आनंद से पूर्ण हो जाता है और हम प्रसन्न तथा संतुष्ट रहते हैं।

बाह्य जगत्‌ के अंदर रहने वाली वस्तुओं का विश्लेषण करते हुए उसको परिवर्तन होते देख और फलतः उसे असत्य जानकर प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने निभ्रान्त रूप से उस आधारभूत सत्य का निर्देश किया है जो विकार रहित और अविनाशी है।

प्रस्तुति : कविता

Saturday, October 11, 2008

गुरु ने बताया...


सब पूछते हैं.........

भगवान आएंगे..... ..........?

गुरु ने बताया भगवान नहीं आएंगे।

तुम्हारी मैं जाएगी।

भगवान तो तू ही है॥

Friday, October 10, 2008

जो शास्वत है वह सत्य और परिवर्तनशील असत्य

यह सत्य किसी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह बाह्य जगत्‌ जिसमें तमाम आकर्षण भरे पड़े हैं और जो देखने में अनेक दृढ़ रूपों में प्रकट होता है प्रत्येक क्षण बदलता रहता है और इसलिए असत्य है। यह इतना प्रत्यक्ष है कि इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं। एक विचारवान्‌ निरीक्षक तथा सूक्ष्म चिन्तनशील व्यक्ति को संसार की परिवर्तनशीलता पर विश्वास दिलाने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है। आम को आम, फावड़े को फावड़ा कहना अनुचित नहीं है। किसी अप्रिय सत्य का यथा तथ्य वर्णन कर देना जीवन को दुःखमय या नैराश्यपूर्ण दृष्टि से देखना नहीं है।

संसार की असत्यता पर विचार करना व्यर्थ नहीं है। इस विचार का नैतिक और उपयोगिता की दृष्टि से भी मूल्य है। ऐसा प्रायः देखने में आता है कि एक आदमी अस्वस्थता, धन-हानि, असफलता, बेचैनी इत्यादि अनेक प्रकार के घोर संकटों और दुःखों से घिर जाता है और स्वभावतः वह दुःखी, उदासीन और निराश हो जाता है और उसके लिए अपनी दुःखमय सत्ता का शांतिपूर्वक निर्वाह करना कठिन हो जाता है। परंतु वह व्यक्ति जो इस भौतिक संसार की परिवर्तनशीलता पर विश्वास रखने का आदी है, वह वीर है और धैर्यपूर्वक दुर्भाग्य का सामना करता है। जब कभी उसे कठिन अभाव का सामना करना पड़ता है और कोई सहारा दिखाई नहीं देता, तब वह निराश होने की अपेक्षा उस दुर्भाग्य में विचाशीलता से काम लेता है और अपने को इसी विचार से धैर्य देता है कि सुख हो या दुःख- इनमें से कोई स्थायी नहीं है, आखिर उसके कष्ट के दिन भी उतने ही छोटे और क्षणिक होंगे जितने सुख और सम्पन्नता के दिन थे।

प्रस्तुति :- पूनम सिकरवार दिल्ली

इस्लाम में सत्य नेकी का रास्ता

नेकियाँ साधक को सिदक़ (सत्य) मार्ग पर डालकर उसे सत्यवादी बनाती हैं। सत्यता के मार्ग पर अग्रसर रहने वाला साधक ही सादिक़ (सत्यवादी) कहलाए जाने का अधिकारी है। शेख अबु सईद उल कुरेशी का कथन है कि सादिक वह है जो जाहिर (बाह्‌य) ठीक हो और बातिन (अन्तर) कभी कभी मनोकामनाओं की ओर आकृष्ट हो। सत्य की राह पर चलने वाला इबादत और इताअत (उपासना और साधना) में रस प्राप्त करता है और प्रभु के जिक्र से उसकी आत्मा जगमगा उठती है। हुज्वेरी का कहना है कि सत्यवादी व्यक्ति वह है जिसका बाह्‌य और आंतरिक दोनों ठीक हों, और वह अल्लाह की इस प्रकार इबादत करे कि उस अल्लाह के जिक्र से खाना, पीना, सोना और कोई दूसरी चीज उसे न रोक सके। सूफियों ने सत्य की राह पर चलने वालों को नबियों के बाद सबसे बड़ा दर्जा दिया है। इमाम गजाली ने एक हदीस में कहा है कि "सत्य नेकी का मार्ग दिखाता है, नेकी जन्नत का मार्ग दिखाती है। उन्होंने सत्य की पहचान छः निम्नलिखित रूपों में बतायी है :-
१। सत्य (सिदक़) बोल और बात में होना चाहिए।
२। सत्य (सिदक़) इरादों में होना चाहिए।
३. सत्य (सिदक़) निश्चय और संकल्पों में होना
4। सत्य (सिदक़) वायदों को पूरा करने में होना चाहिए।
५। सत्य (सिदक़) ज्ञान में होना चाहिए।
६। सत्य (सिदक़) धार्मिक स्थानों में होना चाहिए।
इन सब अवसरों पर सत्य को अपनाने वाला ही सादिक़ (सत्यवादी) है। अबू अली दक़काक सिदक्‌ को मन की माँगों से पाक रहना बताते हैं। जुनून मिजी सिदक़ (सत्य) को उसी समय पूर्ण मानते हैं जबकि साधक अपनी सच्चाई में एकनिष्ठ हो। अशरफ अली थानवी के अनुसार साधक जिस स्थिति में भी हो, वह चरम उत्कर्ष को पहुँची हुई हो, उसमें कमी न हो। यही सिदक्‌ (सत्य) है। इसी से जो चरम उत्कर्ष को पहुँचा हुआ साधक होता है, उसको सिद्दीक (सत्यवादी) कहते हैं।
प्रस्तुतिः- डॉ. शगुफ्ता नियाज प्राध्यापिका,वीमेन्स कालिज, ए.एम.यू. अलीगढ़

Tuesday, October 7, 2008

जिज्ञासा और समाधान

जिज्ञासाः- महाराजश्री, रामचरित मानस में एक चौपाई "संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अतिप्रिय लागे॥'' में शिव के १५ नेत्रों का वर्णन किस आधार पर महाकवि तुलसी दास ने लिखा है -योगेन्द्र सिंह, नगला संतोषी।

समाधानः- भगवान शिव के पांच मुख हैं तथा प्रत्येक मुख पर तीन नेत्र इस प्रकार पांच गुणा तीन अर्थात शिव के पंद्रह नेत्रों का वर्णन महाकवि तुलसीदास ने किया है, जो अत्यंत प्रिय लग रहे हैं।

जिज्ञासाः- महाराजश्री स्वास्तिक चिह्‌न का विश्लेषण तथा अर्थ बताने की अनुकम्पा करें। साथ ही यह भी बताने की अनुकम्पा करें कि आप अब तक कितनी कथाओं को विरचित कर चुके हैं? -रघुराज सिंह बैनीवाल, हिन्दौन

समाधानः-स्वास्तिक शब्द दो शब्दों का मेल है। स्व एवं अस्ति। यह स्वयं के अस्तित्व का प्रतीक है। यह मंगल चिह्‌न माना जाता है। इसमें चारों ओर निकलने वाली रेखाएं चारों दिशाओं की द्योतक हैं, जो प्रत्येक दिशा में बढ़ती हुई उर्ध्व की ओर प्रयासरत होती प्रतीती होती हैं। इसके केन्द्र में आत्मा का स्थान है। इस प्रकार यह सत्य का प्रतीक भी है। जहां तक कथाओं की गिनती का प्रश्न है उसके बारे में बस इतना कह सकते हैं कि संख्या बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है कि कितने लोगों ने उस पर अमल किया। फिर भी आपकी जिज्ञासा के लिए लगभग ६५० कथाएं अब तक हो चुकी हैं।

http://rudragiriji.net/

Saturday, October 4, 2008

हमारे जीवन का स्पष्ट सत्य मृत्यु है


हमारे जीवन का अत्यंत स्पष्ट और घोर सत्य मृत्यु है जो हमारे सम्मुख खड़ी घूर रही है और प्रति दिन हम लोगों में से कितना ही काम तमाम करती रहती है, फिर भी हमें उसका ध्यान भी नहीं रहता कि एक दिन हमें भी मरना है और हम अपने रोज+ के साधारण काम-धंधों में लगे रहते हैं। हमारी इस मनोवृत्ति से हमारी उपेक्षा तथा विचारशून्यता अच्छी तरह प्रकट होता है। मनुष्य इतना पाप करते हैं, इतना दुःख भोगते हैंऋ क्योंकि वे केवल इस भौतिक जीवन को ही सत्य मानकर चलते हैं जो वास्तव में सत्य नहीं है, वरन्‌ एक बाह्य जीवन की इस परिवर्तनशीलता पर ध्यान देना सीख लेते तो निश्चय ही अपने स्वार्थ के लिए अन्याय करना या दूसरों को हानि पहुँचाना छोड़ देते। हमें बहुधा इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि किस प्रकार करोड़ों मनुष्य प्रतिदिन भौतिक शरीर धारण करके पैदा होते और मरते हैं तथा कितने असंख्य मनुष्य इस परिवर्तनशील संसार में आये और चले गये होंगे। अपनी भौतिक सत्ता के समाप्त होने पर हम देखते हैं कि जो Vअस्तुएँ दुनिया में बड़ी मूल्यवान्‌ और महान्‌ कही जाती थीं उनका कोई वास्वविक मूल्य नहीं है और न उनमें कोई सार है। बु(मिान्‌ और विचारवान्‌ मनुष्य छाया या सारहीन वस्तु के पीछे नहीं दौड़ते। अपने जीवन की बाह्य घटनाओं पर इस प्रकार गंभीर विचार करने से हम संसार के क्षणिक आकर्षणों से बहुत कुछ दूर रह सकेंगे और हमारे मस्तिष्क में एक प्रकार की गंभीरता तथा समता की भावना पैदा होगी जो उच्चतर जीवन की प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है।

प्रस्तुति : पूजा चौधरी

Wednesday, October 1, 2008

बाहबिल के अनुसार : सत्य स्वतंत्र करता है।

परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और यह शाश्वत्‌ सत्य है। भिन्न-भिन्न धर्मों में सत्य को कई रूपों में परिभाषित किया गया है। प्रत्येक धर्म एवं विश्वास अपने धर्मवलम्बियों एवं विश्वासियों से यही कामना करता है कि वह 'सत्य' पर चलते हुये अपने नैतिक कार्यों/जीवन को व्यतीत करें। वर्तमान संसार में शाश्वत्‌ सत्य को अधर्म, बुराई अमानुविक कार्यों तथा सामाजिक कुरोतियों द्वारा पूर्णतः दबा दिया गया है तथा आसुरी शक्तियों को बढ़ावा मिला है। समझौतावादी संस्कृति ने 'अर्धसत्य' नामक शब्द का प्रादुर्भाव किया है जो निश्चय ही "शाश्वत्‌ सत्य'' को समाप्त करने का प्रयास है परंतु मनुष्य सांसारिक मायाजाल में यह भूल जाता है कि "शाश्वत्‌ सत्य'' का स्त्रोत स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर है और इसे कोई भी सांसारिक शक्ति मिटा/दबा नहीं सकती है। यह ठीक वैसा है जैसे हम सूर्य को अपनी मुठी में बंद नहीं कर सकते।

प्रश्न उठता है कि यह "शाश्वत्‌ सत्य'' क्या है जिसका मनुष्य को सामाजिक, धार्मिक, आत्मिक अर्थात्‌ पूर्ण छुटकारा प्रदान करता है। बाइबिल धर्मशास्त्र में सत्य के लिये मूल इबानी भाषा में मउमजी (येमेथ) शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका मूल अर्थ स्थामित्व है ;निर्गमन १७ः१२ वहीं यूनानी भाषा में नव विधान में एलेथेसिया एवं पिस्तिस किया गया है जिसका अर्थ विश्वास योग्यता है। (रोमियो की पत्री ३: ३,७)।

प्रभु यीशु ने "शाश्वत्‌ सत्य'' को अपने शब्दों में कहा कि "तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा (यूहन्ना ८ः३२)।'' यह उद्बोधन स्वयं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ज्ञान के इस संसार में प्रगट होने का पूर्ण प्रमाण है। यह एक गहन संबंध है सत्य और जीवन का। प्रभु यीशु ने कहा "मार्ग सत्य और जीवन मैं ही हूँ, बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता।'' इन शब्दों में "शाश्वत्‌ सत्य'' जो परमेश्वर का ज्ञान है स्पष्ट रूप से प्रगट है। यूहन्ना रचित सुसमाचार के प्रथम अध्याय में 'सत्य' का विस्तृत वर्णन है। परमेश्वर का सत्य ज्ञान प्रभु यीशु मसीह के देहधारण में देखा जा सकता है। जहाँ यीशु के जन्म से मृत्यु, तत्पश्चात्‌ तीसरे दिन जी उठना (पुनरूत्थान) देखने को मिलता है।

प्रभु यीशु ने स्वयं को सत्य कहा और यह सत्य इस संसार में पार्थिव रूप में मनुष्यों के बीच चला और फिरा तथा सत्य की गवाही दी जिसका स्पष्ट प्रमाण प्रभु यीशु के जीवन और कार्यों में परिलक्षित है। पापों की क्षमता, भूखों को खिलाना, मुर्दों को जलाना, बुराई एवं असत्य की घोर निंदा, प्रेम, सहनशीलता एवं शैतान पर विजय तथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर नियंत्रण। यद्यपि संसार ने इस "शाश्वत्‌ सत्य'' जिसमें छुटकारा निहित है, को अधर्म एवं असत्य से दबाना चाहा परंतु दबा नहीं सका। सत्य हमेशा जीवित रहता है और जीवित रहेगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर सत्य के रूप में इस संसार में विद्यमान है, यदि न होता तो संसार कब का नष्अ हो चुका होता। प्रिय पाठको! संसार और असत्य, सत्य से कभी भी आगे नहीं हो सकता। जब तक सर्वशक्तिमान परमेश्वर है तब तक सत्य हमेशा रहेगा। अतः हमें हमेशा "शाश्वत्‌ सत्य'' जो स्वयं परमेश्वर है, की खोज में रहना चाहिए तथा सत्य के ज्ञान से स्व-निरीक्षण कर संपूर्ण अंधकार को मिटा डालना चाहिए तभी हमारी देह, आत्मा, प्राण का कल्याण होगा और हमारा जीवन परमेश्वर को ग्रहण योग्य होगा। जिससे पृथ्वी भी सुरक्षित रहेगी तथा चारों ओर का वातावरण प्रदूषित होने से बच जायेगा।

प्रस्तुति : रेव्ह. संतोष पाण्डेय (धर्म पुरोहित)

चर्च ऑफ असेंसन, घंटाघर एवं क्राइस्ट चर्च, नकवी पार्क, अलीगढ़

सत्य का ज्ञान शांति के लिए आवश्यक

ऐसे कितने मनुष्य हैं जो उन वस्तुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए ठहरते हैं जो उनके चारों ओर बिखरी पड़ी हैं। प्राचीन भारतीय विचारकों ने भी उचित रूप से विचार करने की इस आवश्यक प्रवृत्ति पर काफ़ी जोर दिया था। वे कहते हैं कि बिना इस विचारशक्ति के मनुष्य उस सत्यासत्य का निर्णय नहीं कर सकता जो उसको वैराग्य, शांति ( मानसिक) और अनिच्छा की ओर ले जाता है जिनके बिना आध्यात्मिक जीवन संभव ही नहीं है। प्लेटो ने भी कहा था कि "दर्शन (ज्ञान) की उत्पत्ति आश्चर्य से होती है'' और इसी आश्चर्य से मनुष्य विचार की ओर उन्मुख होता है अथवा आश्चर्य से प्रभावित होकर मनुष्य विचार करता है।

प्रस्तुति : अदिति उपाध्याय

सत्य क्या है ?

उमा कहहु मैं अनुभव अपना। बिन हरि भजन जगत सब सपना॥

जब सब सपना है तो सत्य क्या है? गोस्वामी जी ने तो भगवान शंकर के श्रीमुख से उपरोक्त पंक्तियां कहलवाकर यह सि कर दिया। हरि नाम ही सत्य है। इसके बिना तो अन्य सभी कुछ सपने के समान है। अधिकांश लोग अपने जीवन-धंधे में इतने डूबे रहते हैं कि वे इस वस्तु को जानने की चिंता ही नहीं करते कि जीवन है क्या? और इसीलिए जीवन की बड़ी-बड़ी घटनाएँ, जो एक विचारशील व्यक्ति के लिए गंभीर विचार की सामग्री एकत्र कर देती हैं, सामान्य जनों के हृदय में न कोई आश्चर्य पैदा करती हैं और न उन्हें विस्मय-विमुग्ध ही कर पाती हैं। वे बड़ी से बड़ी घटना को भी साधारण रूप में देखते हैं और अपने जीवन की छोटी छोटी बातों में ही व्यस्त रहते हैं।

भगवान श्री कृष्ण गीता के दूसरे अध्याय के सोलहवें श्लोक में अर्जुन से कहते हैं "असत्य की कोई सत्ता नहीं है और सत्य की सत्ता का कभी विनाश नहीं होता। तत्बदर्शियों द्वारा इन दोनों सत्यों का निरीक्षण हो चुका है।'' हमारे मनीषियों ने स्वीकार किया है कि मिथ्या या माया जगत्‌ की सत्यता से स्वप्न-जगत्‌ की सत्यता अधिकतर है। स्वप्न-जगत्‌ की अपेक्षा जीवन-जगत्‌ की सत्यता अधिक है और जीवन-जगत्‌ की अपेक्षा आत्मा, ईश्वर या अद्वैत के जगत्‌ की सत्यता अधिक है, जो अन्ततोगत्वा परस्पर एक समान हैं। रुद्र संदेश जैसी स्तरीय आध्यात्मिक पत्रिका को व्यक्त एवं अव्यक्त जगत्‌ के प्रत्येक रूप का विचार करना ही पड़ेगा। तभी सत्य मार्ग का निर्धारण होगा।

अधिकांश प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञानियों ने माना है कि ब्रह्म अद्वैत की सत्ता ही केवल सत्य है। ब्रह्म और आत्मा एक है। विश्व माया हैऋ माया का अस्तित्व केवल दिखावटी और सापेक्ष है। लेकिन आगे चलकर कुछ तत्त्वज्ञानियों ने भिन्न मत का प्रतिपादन किया है। उदाहरणार्थ बल्लभाचार्य जी ने यहाँ तक कहा है कि समस्त जगत्‌ सत्य और ब्रह्म का सूक्ष्म रूप है। वैयक्तिक आत्माएँ और जड़ जगत्‌ तत्वतः ब्रह्म के साथ एक हैं। अतः यह जगत्‌ ब्रह्म की ही भाँति नित्य और सत्य है और इसकी उत्पत्ति और विनाश का कारण ब्रह्म की शक्ति है। इसी सत्य का प्रतिपादन विश्व के सात हजार वैज्ञानिक मिलकर करने जा रहे हैं। तब इसे प्रायोगिक भी माना जाएगा। कुछ विद्वानों द्वारा माया-जगत्‌ को असत्य नहीं माना जाता, क्योंकि माया और कुछ नहीं ईश्वर की ही शक्ति है जिसे वह अपनी इच्छा से उत्पन्न करता है। उनके अनुसार जगत्‌ सत्य है यद्यपि हमारे जगत्‌-संबंधी अनुभव सत्य नहीं हैं। वे इस बात को नहीं जानते कि जगत्‌ ब्रह्म का ही एक रूप है।

भारतीय ही नहीं अनेकानेक पश्चिमी दार्शनिकों ने भी वेदों, उपनिषदों में वर्णित सत्य को स्वीकार किया है। प्रोफेसर एफ. एच. ब्रैडले ने लिखा है कि "प्रत्येक बाह्य वस्तु केवल रूपात्मक दृश्य है और सत्य केवल ब्रह्म में है। उन्होंने लिखा है, "ब्रह्म से अलग कुछ भी सत्य नहीं है और न हो सकता है और जो वस्तु जितनी ही अधिक ब्रह्ममय है उतनी ही अधिक वह सत्य है।'' हेगेल का मुख्य उपदेश भी इसी प्रकार का था। फ़ीक्टे कहता है कि "सच्चा जीवन नित्य में निवास करता है। यह प्रत्येक क्षण में पूर्ण रहता है और यही जहाँ तक संभव हो सकता है सर्वश्रेष्ठ जीवन है। छाया भूत जीवन बदलता रहता है। इसीलिए यह छाया-जीवन निरंतर मृत्यु का जीवन है। सच तो यह है कि उसका जीवन मृत्यु है।'' उपरोक्त परिचय में हम सत्य की प्रस्तावना का परिचय पाते हैं। यह एक अत्यंत महतवपूर्ण विषय है जिसे एक अंक में सहेज पाना सम्भव नहीं। अतः सम्पादक मण्डल ने इस विषय को अगले अंकों में चलाते रखने का निर्णय लिया है। जितने धर्माचार्यों एवं विद्वान विचारकों के विचार हमें प्राप्त हुए हैं उनमें से कुछ को इस अंक में तथा शेष को अगले अंक में प्रकाशित कर निर्णय का प्रतिपादन किया जाएगा।