आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Friday, November 14, 2008

भगवद्दर्शन किसे होता है.

एक समय की बात है एक सन्त की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली कि उन्हें भगवान के दर्शन होते हैं। वह कहते थे कि वे भगवान से रोज साक्षात्कार करते हैं। उनकी इस प्रसिद्धि से प्रभावित होकर एक दिन दो जिज्ञासु उनके पास आए और उनसे याचना की कि उनका भी प्रभु से साक्षात्कार करवाऐं। सन्त ने उन्हें कुछ देर ठहरने को कहा। फिर अपने साथ एक छोटा सा डिब्बा लेकर, उन्हें लेकर वे चल पड़े। कुछ दूर पर एक झोंपड़ी के सामने जाकर रुके और उन जिज्ञासुओं को बाहर ही ठहरने का इशारा करके स्वयं भीतर चले गए। वहाँ एक कोढ़ी खाट पर पड़ा कराह रहा था। सन्त ने उसका हाल चाल पूछा फिर अपना डिब्बा खोलकर उसमें से कुछ ओषधियाँ का लेप निकालकर उसके घावों को साफ करके उन पर लगाया। पट्टी बाँधीं और जब कोढ़ी कुछ राहत महसूस करने लगा तब उससे कहा, चलो! अब ध्यान लगाते हैं। सन्त तथा कोढ़ी दोनों ध्यान लगाकर बैठ गए। कुछ देर ऐसे ही निश्चल बैठे रहे। दोनों जिज्ञासु वहाँ से देख रहे थे। फिर सन्त ने कोढ़ी से पूछा, 'क्या तुम्हें भगवद्दर्शन हुए?' उसने कहा, 'हाँ' हुए'। सन्त ने फिर पूछा कि भगवान कैसे दिख रहे थे? कोढ़ी ने उत्तर दिया, "बिल्कुल आप जैसे महाराज।'' फिर उसने सन्त से पूछा कि आपने भी तो भगवान के दर्शन किए होंगे। वह कैसे दिख रहे थे? सन्त ने कहा, "बिल्कुल तुम्हारे जैसे।'' बाहर खड़े जिज्ञासु अब रहस्य की बात समझ गए थे। सन्त और कोढ़ी दोनों एक दूसरे में परमात्मा को देख रहे थे। मर्म तो यही है कि सबमें परमात्मा का वास है। बस हम ही अपने अहंकार और अज्ञान में उसे देख नहीं पाते।