आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, October 28, 2010

जो हम अपने लिए चाहते हैं, वो दूसरे के लिए भी करें.......

लेकिन तुम ये नहीं सोचते कि ये फूल भी एक जिन्दगी है। इसकी भी कोई अहमियत है। जितना मैं अपने लिए फूल को चाहता हूँ, कि मेरी जिन्दगी के लिए जरूरी है। अपनी जिन्दगी के लिए किसी दूसरे की जिन्दगी को खराब करना, गुलाम करना, और किसी भी तरह उसको खराब करना, नुकसान पहुँचाना.............................
सोचना पडेगा कि अगर मेरे साथ ऐसा हो तो कैसा हो? मन यहाँ भी खतम नहीं होता, यहाँ भी कपड़े नहीं उतारता। हमें मर जाने दो, हमें तो बस यह फूल चाहिए। फिर क्या करोगे? लोग कहते हैं कि हमें वो चाहते हैं जो हम अपने लिए चाहते हैं, वो दूसरे के लिए भी करें। ये तो समझदार आदमी की बात है। हम अपने लिए बुरा नहीं चाहते तो दूसरे के लिए बुरा नहीं सोचते। कॉमनसैन्स की बात होती है।
अब कॉमन सैन्स रहा कहाँ? आदमी कहता है कि मैं चाहे मर जाऊँ, लेकिन ये चाहिए। मन दूसरे को मार सकता है, और मर जाने के लिए तैयार है, दूसरों को मारने के लिए तैयार है। उन लोगों के लिए गुरू का कोई मतलब नहीं। और जब मन मर जाने को तैयार है, दूसरों को मारने के लिए तैयार हो, खुद को मारने के लिए तैयार हो, उन लोगों के लिए जिन्दगी का मक्सद ही खतम हो गया। मन में फूल को लेकर एक कवर आया, कपड़ा आया, एक दीवार बनी। उसके पहले विचार कहां थे? उससे पहले मन कहां था? वहाँ जाने के लिए बहुत बड़ी बुद्धि चाहिए, बहुत बड़ा तप चाहिए, बहुत बड़ी तैयारी चाहिए।
इसीलिए तो गुरू के पास जाते हैं, लेकिन तप ने के लिए नहीं जाते हैं। इसीलिए इन महापुरुषों ने गुरूपूर्णिमा अषाढ़ की रखी कि पहले तप चाहिए, पहले आग चाहिए। कैसी आग? ऐसी आग नहीं जो तुम्हें जलाऐ या किसी का घर जलाऐ। ऐसी आग, जिससे पानी बरसे। ऐसी आग जिससे ठण्डी हवाएं चलें। ऐसी आग जिससे प्रकृति पूरे शवाब पर और सुन्दर दिखाई दे। ऐसी आग, ऐसी चिन्गारी। उसको तप कहते हैं। वो महापुरूष धन्य हैं, वो धन्य है, जिसके अन्दर इतनी आग होती है। जिसके अन्दर इतनी तपिस होती है, जिसके अन्दर इतनी हीट होती है, ओजस होती है, ऊर्जा होती है, शक्ति होती है, पावर होती है, वो इस संसार में धरती के लिए वरदान होते हैं। और सच कहा जाऐ तो भगवान से भी बडे+ होते हैं, ऐसे महापुरूषों की जीवनियाँ पढ़ोगे तो तुम्हें सुधरने की जरूरत नहीं है।
क्या करोगे? कैसे सुधर सकते हो? तुम न सुधरने को जानते हो और न बिगड़ने को जानते हो। अगर तुम सुधरने को जानते हो तो बिगड़ते ही नहीं। अगर तुम बिगड़ते ही रहे हो तो न तुम बिगाड़ को जानते हो और न सुधार को ही जानते हो।

Sunday, October 17, 2010

दर्द दिमांग में कपड़ा बन कर बैठ गया है.......

इस में बहुत बड़ी जानकारी और बहुत बड़ा हमारा आग्रह है और हमें लगता है कि हमने ये चीज छोड़ दी तो पूरी जिन्दगी का मकसद ही बदल जाऐगा। इतने उसमें इन्वॉलव हो गए हैं। मुझे कोई फूल प्यारा लगता है, वो फूल दिखा, फूल मन को इतना भा गया कि वोही फूल होना चाहिए। लेकिन वो फूल ऐसा है कि जो मेरे बस की बात नहीं है, जो मेरे रैन्ज में नहीं है, जो मेरे अधिकार में नहीं है, जो मेरे पावर के वश की बात नहीं है। जो उस फूल का दर्द है, वो मेरे दिमांग में कपड़ा बन कर बैठ जाएेगा। वो कपड़ा, फूल की चाहत, उसकी सुन्दरता, उसका सुकून, उसका सुख, फूल का महत्व, फूल का रंग रूप, और फूल का जो फल है, जिसको में ले लू तो मेरा ऐसा हो जाऐगा, वैसा हो जाऐगा। ये सारी चीजों को लेकर के रात की नींद, दिन का चैन खत्म, ये ऐसा कपड़ा है। और ये जो सारी चीजें हैं, खटकने की चीजें हैं। ये भी खतरनाक कपड़ा है।

Wednesday, October 13, 2010

मुंह में नमक का डेल है तो मिठास नहीं आ सकती.....

मेरा मन कहीं अटका हुआ है, मेरे मुंह में कोई नमक का डेल है तो उस से मिठास नहीं आ सकती, लेकिन नमक की डली को फैंक दोगे तो मिठाई की मिठास लेने के लिए कोशिश थोड़े ही करनी है। मिठाई तो मुँह में जाऐगी, अपने आप पता चलेगा। कितनी टेस्टी है, कितनी बड़िया है, कितनी आनन्ददायक है, कितनी स्वादिष्ट है, अपने आप पता चल जाऐगा। दिक्कत नमक की डेली को फैंकने की है, दिक्कतें दिमांग के कपड़ों को उतारने की हैं। जिसे पतंजली कहते हैं - योगश्चित्तश्यवृत्ति निरोधः। आम बोलचाल में सुख देव जी ने परीक्षित को समझाया कि ये कपडे+ उतारना।

पतंजली कहते हैं कि ये कपड़े क्या उतारना है? ये दिमांग में जो वृत्तियां हैं, वृत्तियां क्या हैं- जो चीज हमारे दिमाग को आवृत्त कर लेती है, ढक लेती है। हमारे दिमाग के ऊपर कोई चीज आ जाती है, तो दिमाग उसी चीज को देखता है और दिमांग उसी में फँस जाता है। सफेद कपड़े को तुम किसी रंग में डालो तो कपड़ा रंग में ढ़ल जाऐगा, रंग कपड़े में ढ़ल जाएगा। वो क्या था? उसको कौन बताएगा? ऐसे ही हमारा दिमांग होता है। दो तरह के रंग होते हैं दिमांग में eक , जिस को हम चाहते हैं, हमारा मन चाहता है। dउसरे जिस को हम नहीं चाहते। २ तरह के ही रंग हैं, दो तरह के कपड़े। एक जो हमारे मन को अच्छी लगती हैं, उसको चिपकना कहते हैं। और दूसरी वो जो हम को अच्छी नहीं लगती हैं, उसके जो विरोध की चीजें हैं उसको द्वेष कहते हैं। तो हमारा जो जीवन है, हमारा जो मन है, हमने जो कपड़े पहन रखे हैं। हमने चिपकने के लिए पहन रखे हैं, या खटकने के लिए पहन रखे हैं। चिपकने और खटकने के कपड़े हैं तो फिर जिन्दगी में चैन की चीज कहाँ से आई? और शान्ती की चीज कहाँ से आ जाऐगी? वास्तविक चीज कहां से आएगी। जिन्दगी का उद्देश्य किस के लिए है? कहाँ से आ जाऐगा? नहीं आयेगा। चिपकने को भी उतार दें और खटकने को भी उतार दें। और उतारना ऐसे ही नहीं। इन कपड़ों को उतारना कोई ऐसी बात नहीं है, लेकिन मन में जो कपड़े पहन रखे हैं, उनको उतारना। मन में जो कपड़े पहन रखे हैं चिपकने और खटकने के वही जो राग है।

Wednesday, October 6, 2010

गुरू एक मिठास की तरह से है........

तुम अपने मुँह में नमक की डली दबाओ और मिठाई खाओ तो मिठास मिल जाऐगी? नहीं मिलेगी। गुरू एक मिठास की तरह से है। गुरू की जो वाणी है, अमृत की तरह से होती है। संतों की जो वाणी है अमृत है। उस मिठास के लिए जो तुम्हारे मुँह में नमक है, उसे थूकना पडेगा। क्या तुम इसके लिए तैयार हो। अगर तुम ऐसा कर सकते हो तो गुरू के पास जाने के लिए न धन की जरूरत है और न किसी सिफारिश की जरूरत है, न किसी सुन्दरता की जरूरत है।

दक्षिण में एक संत हुए थे पीपा महाराज। उन के तो बाजू ही नहीं थे, घुटने से नीचे पाँव नहीं थे। शक्ल बहुत खराब थी, जैसे किसी खाली डिब्बे को उठा कर रख दो वहीं रखा रहेगा। उसे उठा कर रख दिया, वो वहीं है। क्योंकि हाथ नहीं सरक नहीं सकते, पाँव नहीं हैं खिसक नहीं सकते। तो उनका नाम रख दिया पीपा महाराज। लेकिन उनके पास वो चीज थी जो है असाढ़ की गर्मी। वो कपड़े उतारना जानते थे। कपड़े उतार के नंगे रहते थे। दिमांग में न अंश था न कुल था, न कुटुम्ब था, कुछ नहीं था। ये भी नहीं था कि मैं आदमी की सन्तान हूं। कुछ नहीं। और हम, चीजों को पकड़ते हैं जब हम मैं को लेकर के शरीर और संसार को जोड़ देते हैं, तभी आप देख रहे होंगे कि मैं किसी को देख सकता हूँ और मेरी आँखें किसी को देखती हैं। पहले कहुँगा कि मेरा मन किसी को पकड़े। तो मैं कुछ पहने हुआ हूं, फंसा हुआ हूं।

Tuesday, October 5, 2010

गुरू पूर्णिमा के लिए असाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों चुना?

देखिये गुरू पूर्णिमा के लिए असाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों चुना, कोई और पूर्णिमा क्यों नहीं चुनी गई। शरद पूर्णमा को भी तो मना सकते थे। फर्स्ट क्लास मौसम होता है। न सर्दी होती है, ना गर्मी होती है और उसमें न कीचड़ होती है। साफ रास्ते होते हैं, हरियाली होती है, बढ़िया मौसम होता है। शरद को नहीं चुना। और किसी मौसम की पूर्णिमा को नहीं चुना इसी को क्यों चुना? इसमें खास बात है। इसको चुना है तो इसके पीछे भी एक मकसद है। इस पूर्णिमा को गर्मी होती है, बादल भी होते हैं, भीषण गर्मी, भीषण बरसात, दोनों साथ-साथ। ये जो गर्मी है, वो ज्ञान का और त्याग का सिंम्बल है, प्रतीक है। ये जो अभी कपड़े उतारने की बात कही थी, वही बात है। गर्मी आते ही आदमी कपड़े उतार देता है, कम से कम कपड़े पहनता है और सोचता है कि नंगे बदन रहूँ, और पानी में उतर जाऊँ। गर्मी का, पानी का बहुत ही अच्छा ताल मेल है। असाढ़ का महीना है, इस समय इतनी गर्मी है कपड़े उतारने के लिए, दिमांग की सारी बातों को खत्म करने के लिए। अगर हम दिमांग में कुछ पकड़ करके लाते हैं, कुछ आग्रह करके जाते हैं, तो कहेंगे कुछ नहीं मिला। तुम कहोगे कि हम गुरू के पास जाते हैं, तो क्यों नहीं मिलेगा? तर्क दोगे कि आग के पास कैसे भी जाऐं, गर्मी लगती ही है। सही है। रोशनी के पास जाओ तो रोशनी मिलती ही है। बिल्कुल सही बात है।

Sunday, October 3, 2010

दिमांग के कपड़े उतारना सीख जाओ..........

वहां के लिए तुम्हें अपने कपड़े उतारने होंगे। सारे कपड़े उतार दो सारे। जो शरीर पर कपड़े पहने हो ये भी उतार दो, दिमांग के कपड़े भी उतार दो। दिमांग के कपड़े उतारना सीख जाओगे, तो उनकी शरण में पहुँचकर अपनी जिन्दगी का जो उद्देश्य है उसको पा लोगे। लेकिन हम कपड़े उतारने के लिए तैयार नहीं होते, क्योंकि जब से ये हमारी जिन्दगीयाँ शुरू हुई हैं, तब से हम २१ वीं शदी में आये तब तक हमने कपड़े को पहनना, कपड़े को पकड़ना, कपड़े का कपड़े का फैशन, यही हमारी जिन्दगी की एक नियति बन गयी है। दिमांग में सारे के सारे कपड़ों के दलदल को भर लिया है। ये नहीं चलेगा। जब तक ये दिमाग के कपड़े नहीं उतरेंगे, अपने जीवन के लक्ष्य को नहीं पा सकोगे। तुमने सुना था कथा में, भगवान के ध्यान के लिए गोपियाँ जाया करती थीं, स्नान करने के लिए। तो उसमें चीरहरण का प्रसंग आता है कि गोपियों ने कपड़े उतार दिये और भगवान श्री उनके कपड़े ले गए। उन्होंने श्री कृष्ण से कपड़े मांगे तो श्री कृष्ण ने कहा, ÷÷मेरे पास में आओ।'' वो बात ऐसी नहीं है, जो उन्होंने शरीर के कपड़े उतारे थे, बात समझने की है। उन्होंने दिमांग के कपड़े उतारे थे। और दिमांग के कपड़े उतारना, यही जिन्दगी का एक सबसे फर्स्ट स्टैप पहला कदम होता है।