आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Wednesday, December 31, 2008

आओ नए साल का स्वागत करें।

खट्टे मीठे अनुभवों के साथ

गुज़री हुयी साल को अलविदा।

आओ नए साल का स्वागत करें।

दिव्या रुद्र की कृपा सब पर बरसती रहे.

Tuesday, December 30, 2008

मरुस्थल को मेरे मधुवन बना दो।


शक्ति पराक्रम प्रतिमा हैं आप तो।

सद्गुणों की भावना हम में जगा दो॥

सद्गुणों की भावना हम में जगा दो।

दिशा.................................॥

शौर्य और साहस का संगम हैं आप तो।

मरुस्थल को मेरे मधुवन बना दो॥

मरुस्थल को मेरे मधुवन बना दो।

दिशा.....................................॥

Monday, December 29, 2008

वाणी का अमृत हमें भी पिला दो।


दिशा हीन है हम दिशा खोजते हैं।

दृष्टि लगाए हम, तुम्हें देखते हैं॥

दिशा......................॥

धरती पे देखा मानवता लुप्त है।

पोषण ज़रा तुम उसे तो करा दो॥

पोषण ज़रा तुम उसे तो करा दो।

दिशा........................॥

अमृत कलंश है आपकी वाणी।

वाणी का अमृत हमें भी पिला दो॥

वाणी का अमृत हमें भी पिला दो।

दिशा............................॥

प्रस्तुति : अंजलि शर्मा

Sunday, December 28, 2008

ऋषि मुनि ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए अपने आश्रम में स्कूल खोल लेते थे।

वैदिक काल में ऋषि मुनि ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए अपने आश्रम में स्कूल खोल लेते थे। वहाँ पर विद्यार्थी गुरु के परिजनों की तरह ही रहते थे। वो ज्ञान के बदले आश्रम के घरेलू काम भी किया करते थे। गुरु गृह में उन्हें च्चिक्षा के अलावा भोजन और रहने की सुविधा भी मिलती है तथा च्चिक्षा पूरी हो जाने के बाद च्चिष्य उन्हें गुरु दक्षिणा दिया करते थे। इस तरह परिवार पर आधारित च्चिक्षा साधारण तथा गुरुकुल कहलाती थी। समयान्तर यह च्चिक्षा संस्थानों में बदल गई। ऋषि मुनि समाज के साथ नदियों के किनारे रहा करते थे, बाद में ये ऋषि आश्रम विच्च्वविद्यालयों में बदल गये। आज हम यूरोप के कई विच्च्वविद्यालयों जैसे आक्सफोर्ड, केमब्रिज और सोरबोन जैसे पुराने शिक्ष्हा संस्थानों को जानते है। भारतीय विच्च्वविद्यालय जो इनसे भी ज्यादा प्राचीन थे विदेच्ची आक्रान्ता के विनाच्च के कारण जीवित न रह सकें। विध्वंस दो प्रकार का था। पहला था इन संस्थानों के मूल्यवान वस्तुओं, सोना, चाँदी की अविवेकतापूर्ण लूट। दूसरा था आक्रान्ताओं में असुरक्षा की भावना तथा उनकी यह सोच कि इन च्चिक्षा संस्थाओं का ज्ञान हमारे धर्म और विचारों को खतरा हो सकता है। इन्हीं दो कारणों से उन्होंने इन महान विच्च्वविद्यालयों को बर्बाद कर दिया।

Saturday, December 27, 2008

Sandesh

bachchon ke dil bade komal hote hain . badon ki kahi bahut si baaten vo utani  sahajata se grahan nahin kar pate jitni sahajta se unhin ki bhasha me kahi baton ko....
isi baat ko dhyan me rakh kar Rudra Sandesh me baal lekho ke liye 'lekhani sujjwal bhavishya ki marmik lekhani se  ' namak stambh shuru kiya gaya hai ...
isme rachnayen bhejne ke liye bachchon ko prerit karen taki unki rachnatmak kshamta ke saath unki aadhyatmik unnati bhi ho sake....
dhanyaad

Friday, December 26, 2008

इसरायलियों के जीवन में भजनों का विशेष महत्व था।

इसरायलियों के जीवन में भजनों का विशेष महत्व था। मंदिर में बलिदान चढ़ाते वक्त गाये जाने वाले भजनों का निर्माण किया गया तथा बाद में सभागृह में भी भजनों को गाया जाता है। 'मंदिर में कुछ वाद्य यंत्र बजाने वाले थे और कुछ गायक मंडल थे......। भजनों के कुछ अंश पुरोहित गाते थे.....।

नबियों ने इसरायिलयों को सैद्धान्तिक तथा नैतिक शिक्षा प्रदान की परन्तु भजनों के माध्यम से उन्हें पापों का पश्चात्ताप, परमेश्वर के समाने तथा सताव एवं समस्या में जीवन को जीना सिखाया। इसरायली समाज एवं दिन प्रतिदिन के जीवन में भजनों का इतना महत्व था कि यह न केवल मंदिर एवं सभागृह तथा द्वितीय मंदिर में गाये जाते थे परन्तु घरों में भी ताकि बच्चे प्रारम्भ से ही इनके पवित्र शब्दों से परिचित हो जायें तथा उन्हें समझें। यद्यपि भजनों की अपनी पृष्ठ भूमि तथा संदर्भ है, कुछ भजन राजाओं हेतु रचे थे राजा मंदिर का उपासक तथा प्रबंधक था, मंदिर उपासना हेतु रचे गये।

Thursday, December 25, 2008

ए लव्य तू मन को सँभाल जरा,


दल दल को थल समझ रहा

गहरे में ना धँस जाना,

जब 'रुद्र' तुम्हें पुकारें तो

तुम ढूड़े से ना मिलो वहाँ।

ए मन मौजी.............॥

'रुद्र' ने तुम्हें आगाह किया

ए लव्य तू मन को सँभाल जरा,

क्यों इसको इतना बिगाड़ लिया

ना इस पर तुमने विचार किया।

एै मन मौजी..........................॥

आगरा से कु. लव्यता द्वारा प्रेषित भजन

Wednesday, December 24, 2008

ऐ मन मौजी मनुआ मेरे मेरे साथ भी वक्त गुजार

ऐ मन मौजी मनुआ मेरे

अब मेरे साथ भी वक्त गुजार,

बहुत दिनों से तेरी मेरी

मिल जुल कर ना बात हुई।

भोगो की इस दुनियाँ में

तू तो इतना मस्त हुआ,

नेकी का जो काम मिला

वो भी तूने भुला दिया।

एै मन मौजी............॥

Tuesday, December 23, 2008

खून के प्यासे हैवानों ने दुनिया में आतंक मचाया।


खून के प्यासे हैवानों ने दुनिया में आतंक मचाया।

मजहब के ठेकेदारों ने मौत का खेल रचाया॥

अमरीका ने इन आतंकी पिल्लों को पाल बढ़ाया।

जिन्होंने बदले में पेंटागन पर ही जहाज चलाया।

इसमें जलता रहा है भारतवर्ष अनेको वर्षों से।

पश्चिमियों को चिन्ता हुई है केवल कल परसों से॥

खुदगर्जी वो चाह रहे हैं दुनिया की बरबादी।

दुनिया को इन हत्यारों से कब मिलेगी आजादी॥

प्रस्तुति : राजकुमार बघेल

Monday, December 22, 2008

सप्ताह का विचार

"श्रद्धा में दर्पण के समान दृढ़ता होनी चाहिए , वह चाहे टूट कर कितने ही टुकडों मे बिखर जाए, प्रतिबिम्ब बनाने के अपने गुण को नहीं छोड़ता।"

Sunday, December 21, 2008

सभी साथी एक जगह सप्ताह में एक बार अवश्य एकत्रित हों।

श्रवण के प्रथम चरण को हम घर पर पूरा कर लेते हैं और तृतीय चरण गुरु के साथ रहकर करना है। मध्य के चरण के लिए हमें किसी दूसरे की जरूरत होती है। हमारा सुझाव है कि इस निमित्त अपने ग्राम स्तर पर सभी साथी एक जगह सप्ताह में एक बार अवश्य एकत्रित हों। इस साप्ताहिक सत्संग को सुविधा के अनुसार किसी भी दिन का रख सकते हैं। वैसे रविवार को सभी का अवकाश रहता है। अतः प्रत्येक रविवार को एक दो घण्टे के लिए किसी एक स्थान पर एकत्रित हो जाऐं। गुरु ज्ञान की चर्चा करें। दूसरों की सुनें और अपनी सुनाऐं। आस पास के ग्रामों के लोगों के साथ प्रत्येक माह की ४ तारीख को किसी जगह एकत्रित हों। वहाँ पर एक केन्द्र बना लें, आपसी वार्तालाप करें। रुद्र संदेश को सुनें और दूसरों को सुनाऐं। इससे आपके अंदर चेतना का विकास होगा। इस मासिक कार्यक्रम की सूचना उपस्थित श्रावकों आदि के सम्बन्ध में पत्रिका में लेख भी भेजें तो और भी उत्तम रहेगा। इस स्तर तक विसित श्रावकों को गुरुदेव स्वतः ही अपने पास बुला लेंगे और उनको सत्यमार्ग साधना के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया सिखा देंगे।

Saturday, December 20, 2008

सत्य मार्ग साधना पद्यति अत्यंत ही सहज है।

श्री रुद्रगिरी जी महाराज द्वारा परिमार्जित की गयी सत्य मार्ग साधना पद्यति अत्यंत ही सहज है। यह कोई नयी पद्यति भी नहीं है। इस पद्यति के अंदर न तो कोई आडम्बर है और न किसी क्रिया का त्याग है। सहज रूप में इसके माध्यम से व्यक्ति अपने मानव जीवन के ध्येय को प्राप्त कर सकता है। गुरुदेव कहते हैं "सुनत, कहत रहत गति पावै'' अर्थात्‌ सुनने, कहने तथा रहने से सद्गति मिलती है। पिछले दो अंकों में गौतमगिरी जी एवं कविता जी ने इस पर काफी प्रकाश डाला है। शारांशतः यह इस प्रकार है- प्रथम चरण में कोई भी दीक्षित शिष्य महाराज जी द्वारा कही गई कथाओं को ध्यान से सुनता है। जब उसकी समझ में वह कथाऐं आ जाती हैं तो अपने साथियों को सुनता है। यह सुनाना वह आपसी सत्यंग के माध्यम से कर सकता है। सत्संग के लिये संख्या महत्वपूर्ण नहीं होती। छोटे और बड़े दोनों प्रकार के सत्संग लाभप्रद हैं। छोटे सत्संग में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का मौका मिलता है। बड़े सत्संग में बात ज्यादा लोगों तक पहुँचती है। जितने ज्यादा लोगों तक गुरु ज्ञान पहुँचे उतना ही अच्छा होता है। जब श्रावक गण इस अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं तो उन्हें सत्य के आत्यसाती करण के लिए गुरुदेव के पावन सानिध्य की आवश्यकता होती है। उस अवस्था में केवल गुरु ही हमें पार कर सकते हैं।

Friday, December 19, 2008

शाक्त तन्त्र ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ६४ तन्त्र ग्रन्थों की भी सूची मिलती ह

एक एक अङक में आठ आठ ग्रन्थ है। ६४ भैरवागमों की चर्चा के बाद ६४ शाक्तागमों की भी चर्चा यहाँ प्रासंगिक है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी आनन्दलहरी (सौन्दर्यलहरी) में इनका संकेत दिया है
इन ६४ शाक्त तन्त्रों के नाम महामाया तन्त्र, योगिनीकाल, तत्त्वसम्वर, सिद्धभैरव, वटुक भैरव, कंकाल भैरव आदि है। इनके विषय अन्यथा दर्शन (जैसे घट का कुत्ता के रूप में दिखलायी पड़ना), योगिनीसमूह का दर्शन, एक तत्त्व को दूसरे तत्त्व के रूप में देखना (जैसे पृथिवी तत्त्व को जलतत्त्व के रूप में देखना इसी तन्त्र का प्रभाव था कि युधिष्ठिर के यज्ञ में दुर्योधन को जल की जगह पृथिवी तथा पृथिवी की जगह जल दिखलायी दिया था) पादुकासिद्धि, सम्भोगयक्षिणी की सिद्धि, मारण आदि हैं। ६४ शाक्त तन्त्र ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ६४ तन्त्र ग्रन्थों की भी सूची मिलती है। वे हैं काली, तारा, मुण्डमाला, निर्वाण, शिवसार आदि। ये सभी शाक्त तन्त्र जागतिक सिद्धि अथवा ऐहिक ऐश्वर्य के लाभ के लिये हैं।
शाक्ततन्त्रों के अतिरिक्त शुभागम पत्र्चक की भी चर्चा मिलती है। वे हैं वशिष्ट संहिता, सनक संहिता, सनन्दन संहिता, सनत्कुमार संहिता और शुक संहिता। ये संहितायें समय मार्ग से सम्बद्ध हैं।

Thursday, December 18, 2008

तन्त्रसाहित्य का विशाल भण्डार था भारत में

प्रस्तुति :-आयुष्मान

शैव तन्त्र की तीन शाखायें हैं भेदवादी, भेदाभेदवादी और अभेदवादी। इनमें से प्रथम का प्रचलन शैव सिद्धान्त के नाम से तमिलनाडु में है। दूसरी शाखा वीर शैव के नाम से कर्णाटक में क्षीण दशा में है। तीसरी शाखा का प्रचलन काश्मीर में हुआ। यद्यपि कुछ लोग इसका मूल मध्य प्रदेश में मानते हैं। अभेदवादी शैव दर्शन को त्रिक दर्शन या प्रत्यभिज्ञा दर्शन के नामों से भी जाना जाता है।

आज तक की प्राप्त सूचनाओं के आधार पर लगभग २०० प्राचीन तन्त्र ग्रन्थों का नाम मिलता है। इनमें से भी बहुत से उपलब्ध नहीं हैं। वाराही तन्त्र के अनुसार यहां के तान्त्रिक ग्रन्थों में ९५७९५० श्लोक मिलते हैं। प्राचीन काल में भारत वसुन्धरा पर तन्त्रसाहित्य का विशाल भण्डार विद्यमान था। भेदप्रधान शैवागमों की संख्या १०, भेदाभेदप्रधान शैवागमों की १८ और अभेदवादी शैवागमों की संख्या ६४ है। इन ६४ आगमों का वर्गीकरण अष्टकों में हुआ है। आठ अष्टकों वाले इस भैरवागम के अष्टकों के नाम निम्नलिखित हैं१. भैरवाष्टक २. यामलाष्टक ३. मत्ताष्टक ४. मङ्गलाष्टक ५. चक्राष्टक ६. बहुरूपाष्टक ७. वागीशाष्टक ८. शिखाष्टक।

Wednesday, December 17, 2008

प्रभु की लीला अपरम्पार


प्रभु की लीला अपरम्पार,जिसका है नहीं कोई बखान।

उंच नीच का भेद नहीं कुछ,वो प्राणी मात्र में है एक समान।

कण कण में वो बसा हुआ,तिनके तिनके में है, उसकी जान।

दुनिया का जीवन दाता है,उसकी दया मेहर का है प्रमान।

उसकी मर्जी के बिना,चल नहीं सकता ये जहान।

उसे हर दिल हर पल की खबर,उसकी सत्ता है महान।

वो अपने अंतर में मिलता है,ग्रन्थ शास्त्रों में है पहिचान।

चौरासी के चक्कर से छूट जाएगा,गर सन्त वचन को लेगा मान॥

प्रस्तुति : राज कुमार बघेल

Tuesday, December 16, 2008

तंत्र में भी आडम्बर घर करता जा रहा है।


अत्रि मुनि के तीन पुत्र थे दुर्वाशा, दत्तात्रेय और चन्द्रमा। ये तीनों क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा के अंश थे। मुनि ने इन तीनों को तीन प्रकार के तन्त्रों की दीक्षा दी थी। दुर्वाशा को शैव तन्त्र, दत्तात्रेय को अघोर तन्त्र और चन्द्रमा को वैष्णव तन्त्र की दीक्षा दी गयी। इन में से चन्द्रमा की तन्त्र परम्परा आज विद्यमान नहीं है।

प्राचीन काल में शैव, शाक्त, पाशुपत, भागवत, लकुलीश, गाणपत्य, पांचरात्र आदि तन्त्रों का प्रचलन इस देश में था। इनके अतिरिक्त बौद्ध और जैन तन्त्र भी इस देश में प्रचलित थे। कालक्रम के प्रभाव से बौद्ध तन्त्र भारत के बाहर चला गया और शैव आदि में से अनेक तन्त्रों की परम्परा उच्छिन्ना हो गयी। सम्प्रति केवल शैव और शाक्त तन्त्र ही जीवित हैं। इनमें भी आडम्बर घर करता जा रहा है।

तंत्र में भी आडम्बर घर करता जा रहा है।


अत्रि मुनि के तीन पुत्र थे दुर्वाशा, दत्तात्रेय और चन्द्रमा। ये तीनों क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा के अंश थे। मुनि ने इन तीनों को तीन प्रकार के तन्त्रों की दीक्षा दी थी। दुर्वाशा को शैव तन्त्र, दत्तात्रेय को अघोर तन्त्र और चन्द्रमा को वैष्णव तन्त्र की दीक्षा दी गयी। इन में से चन्द्रमा की तन्त्र परम्परा आज विद्यमान नहीं है।

प्राचीन काल में शैव, शाक्त, पाशुपत, भागवत, लकुलीश, गाणपत्य, पांचरात्र आदि तन्त्रों का प्रचलन इस देश में था। इनके अतिरिक्त बौद्ध और जैन तन्त्र भी इस देश में प्रचलित थे। कालक्रम के प्रभाव से बौद्ध तन्त्र भारत के बाहर चला गया और शैव आदि में से अनेक तन्त्रों की परम्परा उच्छिन्ना हो गयी। सम्प्रति केवल शैव और शाक्त तन्त्र ही जीवित हैं। इनमें भी आडम्बर घर करता जा रहा है।

तन्त्र का आविर्भाव और उसकी विधायें

वेद अनादि और अपौरुषेय हैं। ये महात्मा विष्णु के निःश्वास हैं ÷यस्य निःश्वसितं वेदाः' प्रारम्भ में वेद एक ही था। कालान्तर में शिष्यों की सुविधा को ध्यान में रखकर इसके तीन भाग किये गये ऋग, यजुः और साम। इन तीनों के समूह को त्रयी कहा गया। अथर्व वेद का संकलन बाद में हुआ। वेदों की भाँति तन्त्र भी अपौरुषेय हैं। प्रारम्भ में ये ध्वनि रूप में प्रकट हुये। बाद में परमेश्वर ने अपने लीलास्वातन्त्र्य के कारण अपने को उमापतिनाथ एवं उमा के रूप में अवतारित कर इस शास्त्र को प्रश्न और उत्तर के रूप में विस्तारित किया। इस प्रकार यह शिवमुखोक्त शास्त्र कहलाने लगा। यह तन्त्र शास्त्र भी पहले एक ही था किन्तु आधारभेद के कारण इसकी अनेक विधायें हो गयीं। इस अवतार क्रम में यह शास्त्र ऋषियों को प्राप्त हुआ और वे ही इसके प्रयोक्ता हुए। शैव आदि रहस्यशास्त्र अर्थात्‌ तन्त्रशास्त्र सत्ययुग आदि में महात्मा ऋषियों के मुख में विद्यमान रहा करते थे। वे ही लोग अनुग्रह भी करते थे। कलियुग के प्रारम्भ में जब वे शास्त्र दुर्गम होने लगे और सिमट कर कलापि ग्राम में रह गये अन्यत्र उच्छिन्न हो गये तब कैलास पर्वत पर घूमते हुए भगवान्‌ श्रीकण्ठनाथ ने अनुग्रह के लिये अपने को पृथिवी पर अवतीर्ण किया और ऊर्ध्वरेता दुर्वाशा को आज्ञा दी कि यह शास्त्र उच्छिन्ना न हो इसलिये रहस्य शास्त्र का वैसा प्रचार करो। अत्रि मुनि के तीन पुत्र थे दुर्वाशा, दत्तात्रेय और चन्द्रमा। ये तीनों क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा के अंश थे। मुनि ने इन तीनों को तीन प्रकार के तन्त्रों की दीक्षा दी थी। दुर्वाशा को शैव तन्त्र, दत्तात्रेय को अघोर तन्त्र और चन्द्रमा को वैष्णव तन्त्र की दीक्षा दी गयी। इन में से चन्द्रमा की तन्त्र परम्परा आज विद्यमान नहीं है। प्राचीन काल में शैव, शाक्त, पाशुपत, भागवत, लकुलीश, गाणपत्य, पांचरात्र आदि तन्त्रों का प्रचलन इस देश में था। इनके अतिरिक्त बौद्ध और जैन तन्त्र भी इस देश में प्रचलित थे। कालक्रम के प्रभाव से बौद्ध तन्त्र भारत के बाहर चला गया और शैव आदि में से अनेक तन्त्रों की परम्परा उच्छिन्ना हो गयी। सम्प्रति केवल शैव और शाक्त तन्त्र ही जीवित हैं। इनमें भी आडम्बर घर करता जा रहा है।

Monday, December 15, 2008

ज्ञान की क्रियात्मक अवस्था का नाम तन्त्र है


ज्ञान की क्रियात्मक अवस्था का नाम तन्त्र है -सोनम

तन्त्र एक मध्यवर्ती बिन्दु है। इसके पहले मन्त्र है और बाद में यन्त्र। मनन के द्वारा पदार्थों को उनके मूल रूप में जानना मन्त्र है। उन पदार्थों के संयोग और मिश्रण के द्वारा सम्भावित स्थितियों को जानना तन्त्र है तथा उस संयोग और मिश्रण को अक्षरों अङ्कों रेखाओं के द्वारा चिकिृत करना यन्त्र है। दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि परमसत्ता का अपने ऐश्वर्य से ज्ञानमय रूप प्राप्त करना मन्त्र है। इस ज्ञान की क्रियात्मक अवस्था का नाम तन्त्र है और इस क्रिया को व्यक्त करने का माध्यम यन्त्र है।

Sunday, December 14, 2008

हम भारतीय कब बनेंगे?

जन्मेजय के पोस्ट पर बहुत से फ़ोन आए । वास्तव में इस बालक ने सपने के मध्यम से लिखी इस रचना के मध्यम से हम सब को नंगा कर दिया है। हम भारतीय कब बनेंगे? हम भारतीय से पहले किसी न किसी जाती या धर्म से अपनी पहचान क्यों बना लेते हैं जिसके कारण ही ये नेता लोग हम लोगों का शोषण कराने की सोचने लगते हैं। हमारी फ़ुट के कारण ही यह दहशत गर्द इतना कराने की जुर्रत कर पाते हैं। वास्तव में आज देश एक होकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ खडा है। ऐसे ही हमें सदैव एक रहना चाहिए। फ़िर किसी की मजाल नही, की मेरे वतन की और ऊँगली भी उठा सके।

राम मूर्ति सिंह मुरादाबाद

धन्यवाद आतंकवादी अंकल

जन्मेजय चौधरी क्लास ११ अ, मु, वि, अलीगढ

आप लोग चोंक रहे हैं ना कि मै आतंकवादी अंकल को धन्यवाद कर रहा हूं। क्या इसके लिए मुझ पर देश के साथ गद्दारी का इल्जाम लगना चाहिए? पिछले दिनों में आतंकवादियों ने बहुत बुरा किया। हमारी बम्बई पर उन्होंने जुल्म ढहाया। हमारे बहुत से सिपाही भी मार डाले। बहुत से लोग स्टेशन पर बेवजह मर गये। वाकई बहुत बुरा हुआ। मुझे भी बहुत दुख हुआ। मेरा मन हुआ कि मैं सुपरमैन बन कर पूरे पाकिस्तान को उड़ा दूं। सारे के सारे आतंकवादियों को सानी दयोल की तरह जोर जोर से चीख कर मार डालूं। मैंने गुरुजी से भी मन ही मन प्रार्थना की कि मुझे सुपरमैन बना दें।

इसी प्रार्थना के साथ, मैं पाकिस्तान और आतंकवादियों को कोसता कोसता सो गया। रात को सपने में मैंने देखा कि मेरे पास गुरुजी आ गए। उन्होंने मुझसे आंख बंद करने को कहा। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और आंख खोलने को कहा। अरे मैं तो बदल गया। मेरे सर पर सनी का सा कपड़ा बंधा था। अरे मैं तो सुपरमैन की तरह उड़ने लगा। मेरे शरीर के चारों ओर असले ही असले बंधे थे। अब मैं पूरा सुपरमैन बन गया था। मुझे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई थी। मैंने बिना एक मिनट की देर किए आतंकवादियों को ढूढना शुरू कर दिया। मैं उड़कर सीधे पाकिस्तान पहुंच गया। मैंने देखा वहां आतंकवादियों का कैम्प चल रहा था। एक दाड़ी वाला मौलाना कश्मीरी टोपी लगाकर वहां इकट्ठे हुए आतंकवादियों को बरगला रहा था। मैने गुस्से में भरकर वहां बमबारी शुरू कर दी। उनके बंकरों को नष्ट कर दिया। मैं जगह जगह उड़कर आतंकियों के ठिकानों को देख लेता था। फिर उन पर टूट पड़ता। और थोड़ी ही देर में वहां लाशों के ढेर लग जाते। इस तरह मैंने अनेक आतंकवादियों के कैम्पों को समाप्त कर दिया। आखिर में मैंने आतंकवादियों के बौस को पकड़ लिया और सनी की तरह उसकी तुड़ाई शुरु कर दी। आतंकवादियों के सरगना ने मुझसे कहा अल्लाह के लिए मुझे छोड़ दो नहीं तो तुम्हारा देश तबाह हो जाएगा। मैं ओर ज्यादा का्रेध में भरकर उसे मारने लगा। उसने कहा कि तुम मेरी बात को गम्भीरता से सुनो। हमारी वजह से ही तुम हिन्दुस्तानी एक रह पाते हो।

अगर हम हमला नहीं करते हो तो तुम आपस में लड़ना शुरू कर देते हो। कभी मराठी बिहारी के नाम पर तो कभी मीणा गूजर के नाम से तो तमिल सिंघली के नाम से या हिन्दू मुस्लिम के नाम से। यही सदा से होता आया है। तुम हिन्दुस्तानी तो केवल बाहर वालों से लड़ने के लिए एक होते हो अन्यथा सभी अलग अलग हो। तुम्ही देख लो हिन्दुस्तान या तो अंग्रजों से लड़ने को एक हुआ था या आतंकवाद से लड़ने को। अरे हम तो विदेशी हैं हमसे तो लड़कर जीत लोगे। लंकिन अगर हम न होंगे तो तुम आपस में लड़कर मर जाओगे। और हर मौत तुम्हारी ही हार होगी। उसकी बातें मुझे वाकई जंचने लगी थीं।

मैंने कहा थैंक यू अंकल तुम ठीक कह रहे हो। आज तुम्हारे हमले से कम से कम देश तो एक हो रहा है। वरना पिछले महीने तक तो मनसे के हमले में लोग भी मर रहे थे और देश भी टूट रहा था।

Saturday, December 13, 2008

वास्तविक स्वरूप की पहचान कराने की प्रक्रिया, है तन्त्र

विस्तारार्थक 'तनु' धातु से 'त्रल्‌' या 'ष्ट्रन्‌' प्रत्यय जोड़कर तन्त्र शब्द बनता है। इस प्रकार तन्त्र आत्मा के विस्तार की चर्चा का दूसरा नाम है। चरम सत्ता या परमशिव अपनी इच्छा से अपने ऊपर अज्ञान का आवरण डाल कर अपने को संकुचित कर पशु या जीव के रूप में प्रकट करते हैं। यह अज्ञान तन्त्र की भाषा में ÷मल' कहलाता है। सारा संसार इसी अज्ञान या मल का कार्य है और अज्ञान या मल इस संसार का कारण। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है, ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः अर्थात इस जीवलोक अर्थात्‌ देह में स्थित सनातन जीव मेरा ही अंश है। गोस्वामी जी ने मानस में लिखा है,

ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी॥

जीव के अन्दर वे ही सर्वज्ञता आदि गुण विद्यमान हैं जो ईश्वर के अन्दर कहे गये हैं किन्तु मल के कारण वह अपने को अल्पज्ञ, अतृप्त, परतन्त्र, अल्पशक्तिमान्‌ आदि समझता है। जो प्रक्रिया, जो पद्धति, जो नियम, जो रीति रिवाज इस आवरण को हटाकर आत्मा के वास्तविक स्वरूप की पहचान कराने या इस उद्देश्य की पूर्ति में साक्षात्‌ या परम्परया कारण बनते हैं वे सब के सब तन्त्र हैं।

प्रस्तुति : परितोष नारायण

तंत्र मंत्र को बाइबल में नकारा गया है

पवित्र बाइबल में इन तमाम बातों का वर्णन है तथा परिणाम भी स्पष्ट रूप से बताया गया है।

१। शकुन विद्या : परिचित आत्माओं की सहायता से भविष्य को पहले से देख लेना। इस प्रकार का कार्य करने वाले व्यक्ति को पत्थरवाह करके मार डालने का प्रावधान था।

२। भूत-सिद्धः यह एक मृतक व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित करना है। शाऊल मानक राजा ने शमूएल नबी से उसके मरणोपरांत एक स्त्री की सहायता से सम्पर्क स्थापित किया था - यह कार्य परमेश्वर की दृष्टि में अर्त्यत घृणित पाप है जिसे वैश्यावृत्ति समान बताया गया है।

३. पूर्वानुमान ;च्तवहतवेजपबंजपवदद्धः यह शकुन विचारना तथा पशु-पक्षियों की अंतड़ियों का निरीक्षण करना सम्मिलन हैः जिसका दण्ड बेबीलोन के राजा को परमेश्वर द्वारा दिया गया - यह मिस्त्र देश का महान विज्ञान था। इसमें विज्ञान ;खगोल एवं फलित ज्योतिषद्ध और परिचित आत्माओं का मिश्रण था वर्तमान काल में इसका प्रयोग सम्मोहन विद्या, मस्तिष्क के उपचार और भविष्य बताने में किया जाता है।

५। जादू टोना - इसमें तीन सूत्र हैं रसायन एवं खगोल विज्ञान तथा परिचित आत्माऐं। इनका वर्णन तथा प्रेरितों के कार्य में पाया जाता है।

६. ओझाई :- यह दुष्टात्माओं के साथ सचेत रूप में सहअपराध करना है। पौलुस प्रेरित अपने पत्रों में इसकी घोर भर्त्सना करते हैं। यह आवश्यक रूप से शैतान की आराधना है और इसे विद्रोह गिना गया है। ऐसा करने पर राजा शाउल का सर्वनाश हुआ तथा उसका राज्य छीन लिया गया।

उपरोक्त सारी विधियों तथा तंत्र मंत्र को बाइबल में नकारा गया है तथा घृणित पाप की संज्ञा दी गयी जैसा कि नीचे उल्लिखत हैः ÷÷तुझमें कोई ऐसा न हो जो...... भावी कहने वाला, व शुभ अशुभ मुहुर्तों का मानने वाला व टोना व तांत्रिक व बाजीगर, व ओझो से पूछने वाला, व भूत साधने वाला, व भूतों को जगाने वाला हो। क्योंकि जितने ऐसे ऐसे काम करते हैं वह सब यहोवा के सम्मुख घृणित हैं........'' । पवित्र धर्मशास्त्र बाइबल में उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट दृष्टिगोचर है कि जो भी विधि या क्रिया-कलाप सर्वज्ञानी, सर्वसामर्थी और सबसे प्रेम करने वाले परमेश्वर की महिमा को घटाती है तथा मनुष्यों के जीवन के प्रति उसके उद्वेश्यों को छिन्न-भिन्न करती है, हमें उनसे हमेशा दूर रहना चाहिए। प्रिय पाठकों! परमेश्वर और मनुष्य का शत्रु शैतान हमेशा यह चाहता है कि मनुष्य परमेश्वर की महिमा न करे या परमेश्वर की सामर्थ को कमतर करके आंके तथा स्वयं के प्रयास से परमेश्वर तक पहुँच सके। ऐसा नहीं हो सकता परमेश्वर को प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह स्वयं का १००ः समर्पण समर्पण, शून्य हो जाना तभी परमेश्वर हमें अपनी सारी शक्तियाँ प्रदान करता है जो मानव एवं प्रकृति के कल्याण हेतु है। उनसे किसी प्राणी का अहित नहीं हो सकता।

Friday, December 12, 2008

बारम्बार नमन [ विकल की कविता]


कवि विकल जी की लेखनी से रचित भारत भूमि को अभिनंदित एक कविता

हे ऋषियों की तपोभूमि तेरा शत्‌ शत्‌ वन्दन,

तेरे कण-कण को है मेरा बारम्बार नमन्‌।

गंगा यमुना सरस्वती मिलि, कल कल नाद करें,

धर्म अर्थ औ काम मोक्ष-श्रुति में संवाद भरें।

सत्यम्‌ शिवम्‌ सुन्दर करते तुझसे परिरम्भ्ण.....

हे ऋषियों की तपोभूमि....॥१॥

देवभूमि! हैं तुझे समर्पित ऋद्धि सिद्धि औ निद्धि,

करती निर्मल सदा ज्ञान से, सकल विश्व की बुद्धि।

मनसा वाचा और कर्मणा शिव संकल्पित मन.....

हे ऋषियों की तपोभूमि....॥२॥

परम पवित्र स्वर्ग सीढ़ी, पीढ़ी-पीढ़ी पावन,

तेरी रज ऋषियों-मुनियों के माथे का चन्दन।

करते प्रकृति विराट् अहर्निशि तेरा अभिनंदन.....

हे ऋषियों की तपोभूमि....॥३॥

बाइबिल और तंत्र

रेव संतोष Paandey (धर्म पुरोहित ) चर्च ऑफ़ अस्सेंसिओंस अलीगढ

वर्तमान संसार में प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी क्षेत्र में अपने से अत्यधिक शक्तिशाली या अदृश्य ताकत की खोज में लगे रहते हैं। यह मानव जीवन के प्रत्येक सोपान में पाया जाता है उदाहरण स्वरूपः युवा किशोर या लड़की का राशिफल देखना, ओझा या तांत्रिक द्वारा किसी अदृश्य शक्ति की खोज तंत्र साधना द्वारा करना। वैज्ञानिकों द्वारा आकाशमंडल में छुपे रहस्यों की खोज+ करना। इसके अलावा ऐसे कई उदाहरण हमारे चारों ओर हैं जिनमें नरबलि तथा पशु बलि इत्यादि का सहारा लेकर तंत्र साधना की जाती है। जितनी कठिन एवं बड़ी साधना होगी उतनी ही अदृश्य ताकत प्राप्त होगी। उपरोक्त साधनाओं में हित के साथ-साथ किसी न किसी का अहित ही होता है और वह मानव ही है। कभी-कभी यह तंत्र-मंत्र जादू-टोना का रूप ले लेता है जिसका अर्थ है लैटिन भाषा में ÷÷छुपा हुआ या ढ़का हुआ।''

Thursday, December 11, 2008

क्या आज जगत मे कोई ऐसा सदगुरु है जो एक कण की भी अंतिम सच्चाई को जानता हो ?


भाई himavant जी की आयी टिप्पणी के सन्दर्भ में निवेदन के साथ यह पोस्ट प्रकाशित है। सबसे पहले में उनके द्वारा प्रेषित टिप्पणी को लिख रहा हूँ

"सैद्धांतिक रुप से बुद्धि के स्तर पर इस थ्योरी को माना जा सकता है। लेकिन व्यवहारिक रुप से यह अतेन्द्रिय अनुभव कैसे हो सकता है? क्या आज जगत मे कोई ऐसा सदगुरु है जो एक कण की भी अंतिम सच्चाई को जानता हो ? कोई अगर इस अवस्थाको प्राप्त कर ले तो वह त्रिकालदर्शी हो जाएगा। परमात्मा से उसका भेद हीं मिट जाएगा। आपको कोई ऐसा सदगुरु मिले तो मुझे अवश्य अवगत कराइएगा ।"

हाँ यह बहुत आसान है। देवात्वा को प्राप्त करना कोई बड़ी बात नहीं। बात ब्रह्मत्वा को प्राप्त कराने की है। अपने अन्दर विल पॉवर को मज़बूत करो और प्रभु से प्रार्थना करो तो यह बहुत आसान है। जहाँ तक ऐसे सद्गुरु को पाने की बात है तो निश्चिंत रहिई आपको अवश्य मिलेंगे। हर काल में एक सद्गुरु अवश्य रहता है। बस उसे जानने के लिए हमें तड़प पैदा करनी है।

देवताओं को समझने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं।

देवताओं को समझने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं। पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना तात्विक दृष्टि से एक रूप है। शरीर ही सही अर्थों में श्री चक्र है, इसी में संसार लीन होता हैऋ और शरीर को ही साध करके, इस शरीर को ही चक्र बनाकर, इस शरीर को ही त्रिपुर सुन्दरी में समाहित करके संसार की समस्त चेतना, संसार का समस्त ज्ञान, संसार की सारी कार्य पद्यति को समझा जा सकता है।

मनुष्य जब चेतन्यता को प्राप्त होता है तो वह अनुभव कर सकता है कि वह हाड़ मांस का सामान्य पुतला नहीं। वह महज रक्त और नाड़ियों से उलझा कोई यंत्र नहीं। वरन्‌ उसके अंदर एक विराटता छिपी है- ठीक ऐसी ही विराटता जैसे अर्जुन ने भगवन श्री कृष्ण के अंदर देखी।

Wednesday, December 10, 2008

शरीर अपने आप में पूर्ण श्री यंत्र बनाया जा सकता है

सौन्दर्य लहरी में शंकराचार्य ने माँ पार्वती को माध्यम बनाकर उनके सौन्दर्य का वर्णन किया है। बहुत से ज्ञानी भी यहाँ पर भ्रमित हो जाते हैं। जबकि वास्तविकता तो दूसरी ही है। यह मात्र पार्वती का सौन्दर्य वर्णन नहीं है अपितु तंत्र की श्रेष्ठतम व्याख्या है, जिसके माध्यम से पूरे तंत्र को समाहित कर यह स्पष्ट किया गया है कि बिना तंत्र के जीवन की पूर्ण व्याख्या सम्भव नहीं है। इसके बिना श्री यंत्र और श्री चक्र को समझना सम्भव भी नहीं। शरीर के अंदर इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना जैसी नाड़ियों एवं षट्चक्र और देवता रूपी शक्तियों के केन्द्रों की व्याख्या एवं सहायता से ही योग प(ति के साधना क्रम को समझा जा सकता है। यह शरीर अपने आप में पूर्ण श्री यंत्र बनाया जा सकता है और समस्त शक्तियाँ बीज रूप में शरीर में समाहित हैं। उन्हें जानने की आवश्यकता है और गुरु के आदेशानुसार क्रिया करना है। यदि इनका जागरण कर लिया जाए तो शरीर में ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है।

Tuesday, December 9, 2008

तंत्र ज्ञान नित्य लीला विहारिणी दीक्षा है।

जगत्‌ गुरु शंकराचार्य ने अपने गुरु गोविंदापादाचार्य से तंत्र के ज्ञान हेतु याचना की। गुरुदेव ने कहा कि तंत्र ज्ञान नित्य लीला विहारिणी दीक्षा है। इसके लिए गुरु आदेश का प्रतिपल अक्षरशः पालन करना पड़ता है, क्योंकि यह क्रिया देह को साधने और मन को बांधने के लिए अत्यंत आवश्यक है। गुरु आदेश प्राप्त कर शंकारार्च ने नर्मदा पुलिन पर एक गुफा में प्रवेश किया तथा साधना प्रारम्भ की। यह प्रकृति निर्मित गुफा आज भी जीवित, जाग्रत और चेतन्य है जहाँ जाने पर पवित्रता का बोध होता है। यहाँ जाने पर चेतना स्वतः जागृत होती है। इसी स्थान पर शंकराचार्य को ज्ञान हुआ कि 'ब्रह्म का ही स्थूल रूप माया है''। ब्रह्म से ही माया का प्रादुर्भाव होता है और माया पुनः ब्रह्म में लीन हो जाती है। गोविन्द पादाचार्य ने एक वर्ष तक शंकर की घोर परीक्षा ली। जब गुरु को विश्वास हो गया कि शंकर तंत्र ज्ञान हेतु अर्ह हैं तो उन्हें त्रिपुर सुन्दरी और श्री चक्र उपासना की साधना प्रदान की। यहीं से शंकराचार्य ने शिव के निर्गुण परम तत्व की प्राप्ति का ज्ञान प्राप्त किया, और शु( तंत्र विद्या का ज्ञान प्राप्त करते हुए श्री चक्र की उपासना का अनुभव किया।

प्रेम और निर्दयता भला एक साथ कैसे रह सकते हैं ?

gat aalekh par bhaai ankitji kee prem se saraabor paatee milee use jyon kaa tuon yahan prakashit kar rahe hain. ankit ji ko hriday kee gaharaayiyon se saadhubaad.

बहुत सुन्दर लेख है । प्रेम और निर्दयता भला एक साथ कैसे रह सकते हैं ? परमेशवर अपने प्रति जीव से उसके मन की कुरबानी मांगता है । वो मन जो अन्यथा अपने अहम को और माया के संसार और सांसारिक सम्बन्धों को ही प्राथमिकता देता है, अपने आत्मा-राम को नही । अपने मन को इसकी सारे गर्व , सारे मोह और सारी ईच्छाओं के साथ दिये बिना किसी को परमेश्वर के प्रेम(भक्ति) की सच्ची खुशी मिल ही नही सकती । आज की ईद जीव को इसी समर्पण की शिक्षा है ।सच्चे स्वामी के प्रति की गई कुर्बानी धन्य है , पर उस परम आत्माराम के पति ऐसी समपूर्ण कुर्बानी के नाम पर अगर हम किसी जीव को कष्ट पहुँचाते हैं , तो वास्तविक भक्ति नही होती । दूसरा किसी की पीडा को ना देखकर ये मन और पक्का ही हो जाता है , साथ ही साथ जीव अपने सिर पर कर्मों का भार और लादता है । कठोर मन तो कामनाऐं करने वाले मन से भी ज्यादा कंजूस होता है , फिर प्रीतम को क्या अर्पित किया गया ? बस एक निरिह बकरे का सिर ।

ईद मुबारक, ऐ खुदा के बन्दों मन की कुर्बानी दो निरीह जानवरों की नही।

आज पूरा विश्व बकरीद मना रहा है । लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं की इस पवित्र त्यौहार का वास्तविक मतलब क्या है।
मान्यता के मुताबिक अल्ल्लाह टला ने हज़रत इब्राहिम को औलाद के रूप में बेटा अता फरमाया था जिसे वे बे इंतहा मुहब्बत करते थे। उस नूरे चश्म का नाम इस्माईल था।
एक रात उन्होंने सपने में देखा की इस्माईल को अल्लाह की राह कुर्बान करना है।
इस गरज से वह उसे लेकर जंगल में गए और आँख पर पट्टी बाँध कर तलवार उसके ऊपर चला दी । खुदा ने रहमत दिखाई और बालक की जगह टुम्बा आ गया ।
इस प्रकार हज़रत इब्राहीम ने ईद के दिन सारे मुसलमानों के लिए सदाकत और इश्वर पर मिटने का संदेश दिया और बताया की आज के दिन अपनी सबसे प्यारी चीज़ खुदा को अर्पित कर दो।
साथियो आप जानते हैं सबसे प्यारी चीज़ क्या है। इंसान हर चीज़ को मन के माफिक प्यार करता है। इस प्रकार आदमी को सबसे प्यारा मन है। इसी की वह हर समय मानकर प्यार और नफ़रत करता है। इसलिए इस त्यौहार के मध्यम से हज़तर इब्राहीम साहब बताते हैं की अपना मन अल्लाह को देदो। वहां तो बस प्यार ही प्यार है। नफ़रत का नामूनिशान नहीं। इसलिए ऐ खुदा के बन्दों मन की कुर्बानी दो निरीह जानवरों की नही।

Monday, December 8, 2008

तंत्र तो आगम्‌ विज्ञान है। यह ब्रह्म विद्या है।

तंत्र वेत्ताओं ने जब प्रकृति को मल कहा तो अघोरियों ने कम्पन को अनुभव करने के लिए सार्थक प्रयास करने की वजाय गंदे रहना ही उद्देश्य बना लिया। महाराज जी ने इस पर एक वार्ता में बड़ी सटीक टिप्पणी की कि अगर गंदा रहने और मल खाने से ही मुक्ति मिलती तो सूअर तो स्वतः मुक्त हो जाता। इस प्रकार के साधनों से उस परम रुद्र को अनुभूत करने की साधना करने वाला साधक तो सूअर ही है। विस्तार भय से बचने के लिए हम यहाँ ज्यादा उदाहरण देना उचित नहीं समझ रहे हैं।

दिव्य रुद्र कहते हैं कि तंत्र तो आगम्‌ विज्ञान है। यह ब्रह्म विद्या है। आगम के अंतर्गत ज्ञान आता है। आगम्‌ से व्यक्ति ढलता है। लक्ष्य की दृष्टि से इसका उद्देश्य भी ज्ञान ही है। लेकिन यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है ज्ञान, गीता के श्लोक याद कर लेना नहीं है। ज्ञान है उस कम्पन की विशुद्ध अनुभूति जो सर्वव्यापी है और जो स्वयं के अंदर भी है। तंत्र के बारे में विभिन्न विद्वानों के आलेख इस अंक में प्रकाशित हो रहे हैं और भविष्य में भी इस पर चिंतन चलता रहेगा। यहाँ तो हम केवल परिचमात्मक चर्चा ही कर रहे हैं।

तंत्र की विभिन्न शाखाऐं हैं। जैसे वैष्णव, गाणपत्य, शक्ति, शाक्त, सौर आदि वहीं इसमें दो विचारधाराऐं हैं। दक्षिणपंथी वेदानुसार और वामपंथी वेद से अलग। तंत्र की दस महाविद्याऐं हैं जिनमें सबसे पहली त्रिपुर सुंदरी है। ज्ञानी जन त्रिपुर सुन्दरी कम्पनयुक्त शरीर को मानते हैं। शरीर के तीन पुर हैं। मूलधार से आज्ञा चक्र होते हुए सहस्राधार तक। इनकी साधना करने वाला व्यक्ति त्रिपुर सुंदरी को सिद्ध कर लेता है। और जो इसे सिद्ध कर लेता है उसके लिए जगत के पदार्थ अत्यंत ही छोटी वस्तु हो जाते हैं। प्रकृति तो ऐसे जन की चेरी होती है। आवश्यकता है तो केवल रुद्र को प्रतिफल प्रतिक्षण महसूस करने की।

पोंगाबाद ने योनि के प्रति आकर्षण पैदा कर कामान्धता को प्रोत्साहन दे दिया।

बुद्ध और महावीर के बाद पैदा हुए अंधकार युग में पोंगाबाद के पनपने और अक्षम हाथों में सनातन परम्परा के आने के कारण ही कदाचित अर्थ का अनर्थ हो गया। योनि के द्वारा ब्लैक होल थ्योरी को समझने की जगह पोंगाबाद ने योनि के प्रति आकर्षण पैदा कर कामान्धता को प्रोत्साहन दे दिया। पश्चिमी देशों में तंत्र के नाम पर चल रही हजारों सैक्स की दुकानें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

तंत्र के तत्ववेत्ताओं ने शिव को रुद्र अर्थात्‌ कम्पन रूप में अनुभूत किया। इस कम्पन्न ने जगत को मलरूप में अपने ऊपर धारण किया। यह कम्पन्न या रुद्र या शिव ही हर जीव के अंदर है और वह मल, अस्थि, मज्जा के मध्य स्पंदन करता है। इस प्रकार वह सब गुण जो सृष्टि में हैं उसकी इकाई के रूप में हर जीव का शरीर है। सृष्टि के अंदर जो कम्पन्न है उससे ही गति है और शरीर के अंदर के कम्पन से शरीर की गति है। अर्थात्‌ जीव का शरीर अपने आप में सृष्टि की पूर्ण इकाई है। इसके अंदर का कम्पन स्वयं में पूर्ण कम्पन है।

Sunday, December 7, 2008

तंत्र अंदर छिपी हुई कल्पना को साकार करने का विज्ञान है।

तंत्र शब्द 'तन्‌' एवं 'त्र' से मिलकर बना है। तन्‌ अर्थात्‌ विस्तार। शूक्ष्म का विस्तार या शूक्ष्म को मूर्त रूप देना। परमात्मा अणुरूप है और वही विस्तार करता है। यह निराकार से साकार और शूक्ष्म से अनंत का ताना बाना है।

दिव्य रुद्र ने एक बार वार्ता में कहा कि तंत्र तो अंदर छिपी हुई कल्पना को साकार करने का विज्ञान है। किसी भी ज्ञान को समझाने के लिए उपलब्ध वस्तुओं का सहारा लेना पड़ता है। आज विज्ञान जिन रहस्योद्घाटनों की बात करता है उसे हमारे मनीषी हजारों हजार साल पहले उद्घाटित कर चुके हैं।

जिस ब्लैक होल थ्यौरी की आज विज्ञान चर्चा करता है उसे हमारी संहिताओं में हजारों हजार साल पहले वर्णित किया गया। उस वर्णन के लिए मनीषियों ने जिन प्रतीकों के माध्यम से समझाया, लोगों ने उन प्रतीकों को पकड़ लिया, जिस बात को वह समझाना चाहते थे उसे छोड़ दिया।

एक उदाहरण के माध्यम से क्षमा याचना के साथ यहाँ प्रकाश डालना चाहूँगा। अगर असहमति हो तो कृपा कर मुझे अवगत अवश्य कराये। उल्लेख मिलता है कि भगवती माहेश्वरी की योनि में सम्पूर्ण विश्व विराजमान होकर प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ता है और प्रलय काल में उसी योनि में तितोहित हो जाता है। क्या यह ब्लैक होल थ्यौरी नहीं है। जिसमें पाया गया है कि एक ब्लैक होल में यह पूरा जगत क्षण में विलुप्त हो जाता है। और उसी से निकल कर यह प्रकट होता है।

Saturday, December 6, 2008

तंत्र वेदों से भी पहले से हैं?

तंत्र शब्द आते ही सामान्य जन के अंदर डर का भाव पैदा हो जाता है। मैंने अपने एक प्रोफेसर मित्र से तंत्र विशेषांक छापने की इच्छा प्रकट की। मित्र ने कहा यह जादू टोना होता है। एक मित्र ने कहा कि तंत्र तो बुरी चीज हैं। एक अन्य मित्र ने कहा कि यह तो धर्म के नाम पर फरेबियों का कारोबार है। इन प्रतिक्रियाओं ने मेरे मन को दृढ़ किया कि तंत्र के बारे में सही जानकारी की जाए।

रुद्र संदेश पत्रिका का उद्देश्य ही सत्य की खोज है। साथ ही यह एक प्लेट फार्म है। इस प्लेट फार्म पर कुछ जिज्ञासु हैं और कुछ ज्ञानी। मंजिल सब की एक है। इंजन सभी का रुद्र है। रास्ता सभी का सत्य मार्ग है। हर अखबार का दूसरा पन्ना तांत्रिकों के विज्ञापनों से भरा है। ये विज्ञापन भी सामान्य जन को भ्रमित करते हैं। तंत्र का नाम आते ही कंकाल का चित्र दिमाग़ में बनने लगता है।

महाराज जी कहते हैं कि तंत्र तो वेदों से भी पहले से हैं। तंत्र विशुद्ध विज्ञान है। फिर उसकी छवि इतनी खराब क्यों है? इन समस्त बिन्दुओं ने मुझे प्रेरित किया कि तंत्र के विषय में विविध जानकारियाँ एकत्रित की जाऐं। इस पर सार्थक बहस हो। जन सामान्य के मानस पटल पर अंकित तंत्र की तथाकथित तस्वीर से धूल हटे, और सत्य मार्ग के समस्त दीक्षित, श्रावक, सत्संगी एवं साधक तंत्र का शोधन कर सत्य को आत्मसात करें।

मनुष्य उस परमात्मा का ही अंश है

मनुष्य उस परमात्मा का ही अंश है, जो कि सम्पूर्ण आनन्द को देने वाला है। उस परमात्मा का अंश होने के कारण उसका गुण भी हममें अवश्य ही विद्यमान है। परन्तु हम तो उस मृग के समान हैं जो स्वयं अंदर स्थित कस्तूरी की सुगंध से आकर्षित हो पूरे जंगल में भटकता फिरता है। फिर जब वो थक हार कर बैठता है तब उसे अहसास होता है कि यह सुगन्ध तो उसकी स्वयं की नाभि से आ रही है। हम भी अपने स्वरूप को बिसर कर सुख शांति आनन्द की तलाश में संसार में भटकते फिरते हैं, जबकि सच्चा शाश्वत आनन्द तो हमारे स्वरूप में ही स्थित है। बस हमें अपने उस प्रेममय, आनन्द, शान्ति, मौन से परिपूर्ण स्वरूप का ज्ञान हो जाए, जो कि "हम यह शरीर नहीं आत्मा हैं'' ऐसा मानने से होता है।

Friday, December 5, 2008

प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाना आवश्यक है।

मनुष्य को पूर्ण सुखी जीवन पाने के लिए प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाना आवश्यक है। परन्तु उसके मन के विकारों खासकर लोभ ने उसे अन्धा बना दिया तथा वह प्रकृति से खिलवाड़ करने लगा। आवश्यकता से अधिक खनन, प्रदूषण, प्राकृतिक स्रोतों के अनुचित दोहन के कारण ही आज ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, भूकम्प, सुनामी, सूखा, अकाल, महामारी जैसी प्राड्डतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। हमें इनसे उबरने के लिए सिर्फ अपने भीतर की प्रकृति को सुधारना है, बाह्य प्रकृति स्वयं सुधर जाएगी।

सुख का सदुपयोग कैसे हो

जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ और शेष नहीं रह जाता। दुःख तब प्राप्त होता है जब हम अनुकूलता की आशा, सुख की इच्छा रखते हैं। इस आशा और इच्छा का परित्याग करके पीड़ा को प्रसन्नता पूर्वक सहना ही प्रतिकूलता का सदुपयोग है। यह हमें उस दुःख से उबार लेता है। सुख का सदुपयोग कैसे हो? इससे पहले जानें कि सुख किनके कारण होता है? यदि कोई व्यक्ति लखपति हो तो उसे अपने लखपति होने का अभिमान या सुख तभी होगा यदि उसके सामने वाला लखपति न हो। परन्तु यदि वह जिस जिस से मिले वे सभी करोड़पति हों तो उसे लखपति होना भी सुख नहीं देगा। इससे सिद्ध होता है कि हमारा सुख हमें दीन-दुःखी, अभाव ग्रस्त लोगों के द्वारा दिया गया है, अतः इसे इन्हीं की सेवा में लगा देना ही सुख का सदुपयोग है। यही सुखी का कर्तव्य है कि वह सुख बाँटे। जो सुख दुःख का भोग करता है, उस भोगी का पतन हो जाता है और जो सुख-दुःख का सदुपयोग करता है, वह इनसे ऊपर उठकर अमरता का अनुभव करता है।

Thursday, December 4, 2008

हमारा वास्तविक स्वरूप नित्य तथा निर्विकार

आवश्यकता यह जानने की है कि पदार्थ, इन्द्रियाँ तथा मन सभी अनित्य तथा आने जाने वाले हैं। परन्तु हमारा वास्तविक स्वरूप नित्य तथा निर्विकार है। अतः सुख दुःख में धीरज रखकर उन्हें सह लेना चाहिए। संयोग तथा वियोग में अपना दृष्टा-साक्षी भाव बनाए रखें तथा निर्लिप्त, निर्विकार बने रहें। भगवान श्री Krishna ने गीता के दूसरे अध्याय के १४ वें श्लोक में कहा गया है-

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः।

आगमापायिनो अनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥''

यह मनुष्य योनि हमें सुख दुःख भोगने के लिए नहीं अपितु इनसे ऊपर उठकर उस परमानन्द की प्राप्ति के लिए मिली है।

Tuesday, December 2, 2008

जहाँ सुख है वहीं दुःख है।

जहाँ सुख है वहीं दुःख है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। सभी कुछ अनित्य, विनाशी तथा परिवर्तनशील है अतः जिस व्यक्ति या वस्तु का संयोग आज सुख दे रहा है, कल वही वियोग होने पर दुःख का कारण भी होगा। वास्तव में इन पदार्थों में सुख दुःख देने की सामर्थ्य नहीं है परन्तु हम ही इनसे सम्बन्ध मानकर इनमें अनुकूलता, प्रतिकूलता की भावना कर लेते हैऋ जिससे ये पदार्थ सुख दुःख देने वाले बन जाते हैं। यही नहीं मन इंद्रियाँ भी निरंतर परिवर्तनशील होते हैं। जो आज मन-इन्द्रियों को अच्छा लग रहा है कल नहीं लगता। सुख देने वाली वस्तु का सुख लेने के बाद धीरे धीरे इन्द्रियाँ थक जाती हैं और नींद की आवश्यकता पड़ जाती है। लगातार किसी वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ से निरंतर सुख नहीं लिया जा सकता। जफसे यदि कोई अपने मित्र को प्रेम से गले लगा ले तो सुख लगता है परन्तु यदि फिर छोड़े ही ना तो वही दुःख रूप हो जाएगा। सुख दुःख एक दूसरे से इतने गहरे जुड़े हैं कि यह पता नहीं चलता कि कब सुख दुःख बन गया और कब दुःख सुख बन गया।

Monday, December 1, 2008

जिन्हें मन पसंद नहीं करता है, उनके वियोग में सुख लगता है।

अक्सर हम देखते हैं कि लोग इस जीवन को दुःख रूप मानते हैं, तथा कहते हैं कि हमें यह जीवन मिला ही कष्ट भोगने के लिए है। सच है कि दुःख जीवन का तथ्य है पर यह अधूरा तथ्य है। सच यह भी है कि सुख भी जीवन का तथ्य है। इसे माने बिना सम्पूर्ण तथ्य तक नहीं पहुँचा जा सकता है। इस जीवन में सुख है इसीलिए दुःख भी है। संसार से मिलने पर वस्तुओं तथा व्यक्तियों से संयोग भी है फिर वियोग भी है। हमारा मन कुछ व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों को चाहता है तथा कुछ को नहीं। जिन्हें मन पसंद करता है उनके संयोग में सुख लगता है तथा जिन्हें मन पसंद नहीं करता है, उनके वियोग में सुख लगता है। इसके उलट जिन्हें मन पसंद करता है उनके वियोग से और जिन्हें पसंद नहीं करता, उनके संयोग से दुःख उपजता है। हमारी कमजोरी यह है कि हम विवेक, बु(ि से मन को मारना नहीं जानते। यदि इसकी पसंद मानकर मन मोटा न करें तो यह बस में रहे और फिर समता का भाव बना रहे। पर हम अनुकूल परिस्थिति को तो पकड़कर रखना चाहते हैं, परन्तु प्रतिकूल परिस्थिति से तुरन्त छुटकारा चाहते हैं। समता का दामन छोड़ने से ही ऐसा होता है। यदि हम सुख आने पर बाँटें तथा दुःख को प्रारब्ध का फल मानकर सहन करते चलें तो परेशानी न हो।