आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Friday, December 25, 2009

जो जिन्दगी भर कुकर्म करे वह कैसे मुक्त हो?

प्र्रकृति का दर्शन है प्रवृत्ति व्यवहार का स्वरूप। और निवृत्ति आत्मा का पुरुष का। महाराज, ये आपने वर्णन तो कर दिया कथा का। हकीकत में क्या है? कथा तो बहुत अच्छी है। बहुत बारीक चीजें हैं जो सत्संग करते हैं-गहराई से, वे इनकी बारीकियों को समझते हैं। और तो अधूरे लोग हैं वह तो कुतर्क करके आँखें निकाल कर लड़ने को तैयार हो जायेंगे। बच्चों की किताब नहीं है, न्दपअमतेपजल के बवनतेम की बात नहीं है। ये तो अपनी हकीकत है और हकीकत के लिए, वही हकीकत चाहिए। साढ़े छः अरब आदमी हैं, दुनियां में, एक भी पूरा प्रवृत्ति मार्ग वाला है? और साढ़े छः अरब आदमियों में एक भी पूर्ण निवृत्त है? नहीं है। तो महाराज, मुझे तो ये बताओ जो जिन्दगी भर कुकर्म करे वह कैसे मुक्त हो? क्योंकि गल्तियाँ तो सबसे होती हैं। राम से, कृष्ण से, राधा से, सीता से, रुक्मिणी से जितने भी महापुरुष हुए गल्तियाँ सबसे हुई हैं। नर और नारायण निवृत्त हैं, वह भी प्रवृत्त हो जाते हैं। सनकादि प्रवृत्त हैं, वह भी निवृत्त हो जाते हैं। प्रवृत्ति में निवृत्ति है, निवृत्ति में प्रवृत्ति है, न प्रवृत्ति है, न निवृत्ति है, प्रवृत्ति भी है और निवृत्ति भी है। ये जो ज्ञान का रास्ता है-निवृत्ति और प्रवृत्ति ये तो अप्राप्य है, मैं तो वह हकीकत पूछ रहा हूँ आपसे।

हर-हर महादेव शम्भो। काशी-विश्वनाथ शम्भो।

Monday, December 14, 2009

सौ प्रतिशत प्रवृत्त कोई है तो प्रकृति है

बैठ कर भोजन करें, खड़े होकर कभी भी नहीं करें। इस तरह से मैंने तुम्हें बैकुण्ठ बताए, स्वर्ग बताए, नर्क बताए और मुक्ति भी बताई। प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग दोनों मार्ग बताए। ये शास्त्रों की कथा है तो बहुत सुन्दर है महाराज। लेकिन आप खुद जानते हैं कितने लोग हैं जो प्रवृत्ति को जानते हैं और प्रवृत्ति पर चले हैं? है कोई एकाध? शास्त्र में जो प्रवृत्ति बतलाई हैं, कोई एक भी आदमी दुनियाँ में हैं जो उस प्रवृत्ति मार्ग पर चला है। नहीं है। हो ही नहीं सकता। और जो निवृत्ति बताई है कोई एक भी है, जो पूरी तरह निवृत्त हो। सत्य यह है कि सौ प्रतिशत प्रवृत्त कोई है तो प्रकृति है, सौ प्रतिशत निवृत्त कोई है तो-पुरुष है तीसरा तो कोई न हुआ, न है, न होगा। हरे रामा.........................................

Sunday, December 13, 2009

जैसा खाते हैं वैसी बुद्धि बनती है .

भगवान को स्मरण करे अपने भोजन में से पाँच आहुतियाँ अग्नि देव को अर्पित करें। फिर भोजन देवताओं को निवेदन करें

'त्वदीयमस्तु गोविन्दम्‌ तुभ्यमेव समर्पये''।

ऐसे भोजन करने से हृदय के रोग, ब्लड़ के रोग और दिमागी परेशानी कम होती है। ये डायबिटीज+, सुगर, ब्लड प्रेशर, हृदय रोग, ये क्यों हो रही हैं? बिना नहाए-धोए, बैठे-उठे, लोग भोजन करते हैं। खड़े होकर पानी पियोगे तो डायबिटीज+, सुगर और ल्यूकोरिया बनेगा। आज-कल ज्यादातर आदमी खड़े होकर ही खाते हैं। बाजार में खड़े-खड़े बोतल पियेंगे तो बीमार शरीर बनेगा ही। डायबिटीज+ बनेगा, ल्यूकोरिया बनेगा, किड़नी और लीवर खराब होंगे। क्योंकि जो तुमने खड़े होकर खाया और पिया है वह सीधा जाकर आँतों पर बोझ बन जाता है, आँतें कमजोर होती हैं तथा ेमगनंस नाड़ियों पर वजन पड़ता है ये खराब होती हैं। इसीलिए जो आदमी ज्यादा मौडर्न है वह ज्यादा खतरनाक है, खराब है। बैठे करके भोजन करने से पेट की आँतें पूरा काम करती हैं। बैठकर भोजन करें, लेकिन अपने घुटने और पंजे को पेट से चिपका के नहीं दूर रख के। खड़े होकर भोजन करने से गधे जैसी बुद्धि बनती है। आज-कल आदमी जल्दी बूढ़ा हो जाता है जैसे गधा जल्दी बूढ़ा हो जाता है। पहले सत्तर साल का आदमी भी जवान है और आज का सत्रह साल का लड़का भी बूढ़ा हो गया।

हरे रामा.........................................

Thursday, November 26, 2009

चित्त क्या है ?

अंतः चतुष्टय का प्रमुख अंग है चित्त। महाराजजी कहते हैं, चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। चित्त पर अंकित छाप ही जीव को विभिन्न योनियों में भटकाती है। अलग अलग सम्प्रदाय अलग अलग तरीके से पूजा के तरीके अपनाते हैं। अगर गम्भीरता से चिंतन करें तो पाते हैं कि विभिन्न नामकरण होते के बाद भी सभी यह अवश्य स्वीकारते हैं कि चित्त पर अंकित छाप के अनुसार ही जीव के कर्मों के लेखे जोखे का फल मिलता है। कयामत के दिन नेकी और बदी के फरिश्ते जिस बही को लेकर बैठेंगे क्या वह हमारा चित्त ही है? पतांजलि ने भी चित्त वृत्ति निरोध को ही योग कहा है।

Tuesday, November 24, 2009

पलकों का परदा नहीं है तो मन्दिर नहीं जाऐं।

प्रातः काल उठि के रघुनाथा।

मात, पिता, गुरू नावहिं माथा॥

इस प्रकार शौच व स्नान करके शुद्ध पवित्र रहना चाहिए। फिर पंचमहायज्ञ किए बिना भोजन करे तो कृमि भोजन नामक निकृष्ट नर्क में कीड़ा बनना पड़ता है, परीक्षित। इसलिए माता, पिता, गुरू की सेवा करने के पश्चात जहाँ भोजन करे वहाँ नहा धोकर शुद्ध होकर या फिर घुटने तक पाँव धोए, कुहनी तक हाथ धोकर, कुल्ला करें, मुँह धोकर पोंछ कर पालती मारकर पूरव या उत्तर की ओर मुँह करके बैठना चाहिए। मुसलमान भाई हो तो काबे की तरफ मुँह करके बैठना चाहिए। भोजन करें सिर बांध करके नहीं करें, भजन करे तो सिर खुला नहीं रख कर करें। भजन करें मंदिर में जाए तो सिर बाँधकर जाए। आँखों को पलकों से ढक कर जाऐं। आँखों पर पलकों का परदा नहीं है तो मन्दिर नहीं जाऐं। सिर को ढक कर जाए नहीं तो मन्दिर नहीं जाए। बेशर्मों के लिए बेपर्दाओं के लिए मन्दिर नहीं बने।

हरे रामा/ हरे रामा/ रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा/ हरे कृष्णा/ कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥

Monday, November 16, 2009

किसको कौन सा नरक?

, लड़के की बलि चढ़ाते हैं, लड़की की बलि चढ़ाते हैं, उनको प्राणरोध नर्क में यम के दूत कठिन कष्ट देते हैं। जो कोई किसी के घर में आग लगाए, जहर दे दे या चोरी करे उसको सारमेयादन नर्क में सात सौ बीस यम के दूत कुत्ते बन कर काटते हैं। परीक्षित, जो पुरूष किसी की गवाही देने में, व्यापार में या दान के समय झूठ बोले वो मरने के बाद अवीचिमान नर्क में पड़ता है, ऊँचे पहाड़ से नीचे गिराया जाता है। परीक्षित, जो मनुष्य ऊँचे वर्ण का हो बा्रह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो- कुत्ता पाले, गधा पाले, मछली पाले, सूअर, मुर्गा पाले प्राणरोध नर्क में यम के दूत उसको बाणों से बींधते हैं। जो शौच, आचार के नियमों का पालन नहीं करता उसको पुयोद नर्क में जो पीब, विष्टा, कफ और मल से भरा समुद्र है, उसमें डाल दिया जाता है। इसलिए मनुष्य को शौच के नियम का विशेष पालन करना चाहिए। शु(ि को शौच करे, हाथ ढंग से धोए, दातून करे, आठ बार हलक तक उंगली डाल कर कुल्ला करे, नहाए। नहाए लेकिन धुले हुए कपड़े नहीं पहने ये भैंस का स्नान है, हाथी का स्नान है। क्योंकि हाथी और भैंस नहाकर के कीच और धूल लपेटते हैं। इसलिए रोज खाना खाने से पहले नहाए। नहाए और धुले हुए कपड़े पहने लेकिन भजन नहीं करे ये वैश्या और भांड़ का स्नान है। वैश्या बौर भांड़ नहाते हैं, धोते हैं लेकिन भजन के लिए नहीं भोग के लिए। मलूक लगने के लिए। इसलिए नहाए, धोए, भजन करे और भजन करने के बाद में-

Sunday, November 15, 2009

सात लोक नीचे हैं, सात लोक ऊपर।

सात लोक नीचे हैं, सात लोक ऊपर। - १. तल, २. अतल, ३. वितल, ४. तलातल, ५. रसातल, ६. महितल, ७. पाताल, नीचे के। ये भी तीन प्रकार के नास्तिक लोगों को सुख सम्पत्ति से भरे हुए मिलते हैं'' गीता जी में ऐसा कहा गया है। और भू, भुवः, स्व, मह, जन, तप, सत्य से सात ऊर्ध्व लोक हैं। ये शास्त्र के अनुसार चलने वाले सात प्रकार के तीन प्रकार की श्र(ा वाले लोगों को मिलते हैं। परन्तु जिनमें न श्र(ा है, न धर्म है, शास्त्र विरु( जो चलते हैं वो नर्क लोक को जाते हैं। और यह नर्क लोक पृथ्वी से नीचे, जल के ऊपर दक्षिण दिशा में हैं। अग्निश्वातादि पितृगण रहा करते हैं, उल्टे लटके हुए ;वहाँ सूर्य पुत्र यमराज उनको दण्ड़ की व्यवस्था करते हैं।द्ध ये नर्क अट्ठाईस हैं। परीक्षित! देख, जो पुरूष दूसरे के धन, सन्तान, स्त्री का हरण करे, उसको तामिस्र अंधेरा नर्क जिसमें डण्डे मिलते हैं। जो पुरुष संसार में धन कमाए और दान न करे उसको रौरव नर्क मिलता है। और जो मनुष्य गृहस्थ होकर के धन कमाए, दान भी नहीं करे और अपने माँ बाप की सेवा भी नहीं करे उसको महारौरव नर्क मिलता है। इसलिए गृहस्थी चाहे अमीर हो चाहे गरीब हो सभी को दान अवश्य करना चाहिए। कुरान शरीफ में भी आता है, गरीब हो तो भी दान करना चाहिए, अमीर हो, तो भी दान करना चाहिए, अपने सामर्थ्य के हिसाब से। ज्यादा गरीब है तो एक रोटी का टुकड़ा ही चींटियों को डाल दे। कुछ न कुछ दान ज+रूर करें, रोज करें, नहीं तो यही नर्क मिलेगा। जो पशु पक्षियों का मांस खाते हैं उनको कुम्भीपाक,नर्क मिलता है। इसमें उसे गर्म तेल के कढ़ाहे में डाल दिया जाता है। और जो माता-पिता, गुरुजन, ब्राह्मण, संत, वेद, शास्त्र, यज्ञ, कथा, सत्संग से विरोध करते हैं उनको तपी हुई तांबे की जमीन पर लिटा दिया जाता है। जो आदमी वेद के मार्ग को छोड़कर पाखण्ड करता है उसको असिपत्रवन नर्क में ले जाकर कोड़ों से पीटा जाता है। परीक्षित! जो लोग पशु की या मुर्गे की बलि चढ़ाते हैं, भैंसे की बलि चढ़ाते हैं

Monday, November 9, 2009

चित्त में से ही अविद्या उत्पन्न होती है और चित्त को ही आवृत्त कर देती है।

बोले महाराज, बात तो आप बड़े गजब की कह रहे हैं। महाराज, कल्याण का रास्ता बताऐं। भरत जी बोले कि कल्याण का रास्ता न भीतर है, न बाहर ही, ये तो मन से होकर जाता है। मन से ही बंधन है, जब यह बाहर भटकता है और मन से ही कल्याण है, जब वो आत्मा में लय होता है। ये संसार एक भवाटवी है। 'भव' माने 'तृष्णा' और 'अटवी' माने 'जंगल'। वासना-तृष्णा का जंगल है, राजन, जिसमें दिल और चित्त भटक गया है। आत्मा बंधन और मुक्ति दोनों से परे है। मन से ही बंधन है, मन से ही मुक्ति है। विषयों में फंसा हुआ चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। देख, इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। जैसे-मकड़ी में से जाल पैदा होता है, और मकड़ी को ही लटका लेता है। जैसे पानी में से काई पैदा होती है और पानी को ही ढक लेती है। सूरज से कोहरा पैदा होता है और सूरज को ही ढक लेता है। ऐसे ही चित्त में से ही अविद्या उत्पन्न होती है और चित्त को ही आवृत्त कर देती है। समझना ढंग से, अच्छा। फिर यही संसार के बंधन में डालने वाली अवक्षिप्त कर्मों में प्रवृत्ति रहती है। इसकी ये वृत्तियाँ प्रवाह रूप से नित्य ही रहती हैं- जागृत स्वप्न में प्रकट होती हैं, सुषुप्ति में छिप जाती है, रहती तो हैं। यानि तीनों अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ जो विशु( चिन्मात्र है न, वो इनको साक्षी भाव से देखता रहता है। इसलिए साक्षी चेतन केवलो निर्मलश्च। इस भाव में अपने चित्त को लय करने का प्रयास कर।

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। वेद पुराण सन्त सम्मत वद॥

Saturday, November 7, 2009

आत्मा अपरिणामी है?

नहिं जानत ताहि देउ जनायी।
जानत तुमहिं तुमहिं होइ जायी।
तो जड़ भरत जी ने राजा से कहा कि भैया बता मैं तेरी किस प्रकार सेवा करूं। लेकिन इतनी बात जरूर है कि, जो तू कह रहा है वह शरीर के लिए है और शरीर के अभिमानी के लिए है, आत्मा के लिए नहीं है। इतना सुनते ही उस राजा ने सोचा कि ये तो कोई शूद्र नहीं है, सेवक नहीं है। ये तो काई ज्ञानी पुरुष है और ज्ञानी पुरुष इस कदर दुःखी हो गया तो नाश हो जाएगा।
राम विमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवन हारा॥
डोली से उतरा और झुक गया भरत जी के चरणों में। भरत जी ने अपना परिचय दिया, कि हे राजन मैं भी एक समय तेरे जैसा ही राजा था और किस प्रकार इस स्थिति को प्राप्त हुआ हूं। तब उसने भरत जी के चरण पकड़ लिए। कहा कि महाराज आत्मा अपरिणामी है? चार्वाक कहता है कि आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है। भौतिकवादी लोग कहते हैं कि जब भौतिक चीजें मिल जाती हैं तो अपने आप उनमें reaction शुरू हो जाता है। चार्वाक कहते हैं कि ये भौतिक शक्तियां पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु जब मिलती हैं तो अपने आप प्राण शक्ति बन जाती है और क्रिया हो जाती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि इलैक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूट्रोन संयुक्त शक्तियां होती हैं। जब तक ये संयुक्त शक्तियां रहती हैं प्रकृति का क्रम चलता रहता है। चलो ये चार शक्तियां हैं, ये अपने आप में हैं या किसी खाली स्थान में हैं। ये जो space है, वो क्या है? अगर space नहीं होगा तो कोइ क्रिया हो जाएगी? इसलिए वेदांत कहता है आकाश। आकाश से भी शूक्ष्म है यह आत्मा। तो जिसमें ये संयुक्त शक्तियां हैं, वह आकाश है और जिससे इनमें गति है वह चेतन। भरत जी कह रहे हैं- यही बात है बेटा। तुम कहते हो कि नदपजमक वितबमे हैं, ये संयुक्त होने पर अपने आप क्रियाशील होते हैं। पर अगर ये अपने आप क्रियाशील होते हैं, तो ये जड़ हैं कि चेतन हैं? जड़ हैं तो मर क्यूं जाते हैं? चेतन हैं तो इनमें ह्रास क्यों होता है। ये जड़ हैं, लेकिन इनमें चेतन का संग है, चेतन की प्रेरणा है। अभिन्न निमित्त उपादान कारण हैं वह परमात्मा, यह वेदान्त कहता है, डंके की चोट।

Monday, October 19, 2009

From the hymn "A Cudgle For Delusion"

Boast not of your youth or friends or wealth;Swifter than eyes can wink, by Time Each one of these is stolen away.Abjure the illusion of the worldAnd join yourself to timeless Truth.Give up the curse of lust and wrath,Give up delusion, Give up greed;Remember who can really arefools are they that are blind to self;Cast into hell , they suffer there.

Quoted By AdiGuru Shankaracharya

Monday, October 5, 2009

मन का दास, सदा उदास

मनुष्य को 'मन' के रूप में एक उपकरण मिला। इसे लगाकर हर काम एकाग्रता से भली प्रकार किया जा सकता है। पर इस मन ( उपकरण )में इतने अन्य बल जोड़ दिए कि उसमें अज+ब सा, बेकाबू कर देने वाला, हिला कर रख देने वाला कम्पन होता। ये बल हैं- पाँच विकार ;काम, क्रोध, मद, लोभ, मोहद्ध तरह-तरह के भय और वासनाऐं। यह सब और हमारे संस्कार सही-गलत का निर्णय करने के व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक मापदण्ड सब मिल कर द्वन्द्व या खींचतान की स्थिति को जन्म देते हैं। जो उपकरण हमें दिया गया था इस्तेमाल करने के लिए वही हमें चलाने लगता है, हमारा प्रयोग करने लगता है, द्वन्द्व में डाल देता है। यदि हम मन को एक उपकरण मान कर आवश्यकतानुसार उसे कर्मों में या विचार करने हेतु इस्तेमाल करें फिर छोड़ दें अर्थात्‌ उसमें उठने वाली इच्छा, कामना व वासना की तरंगों में न बहें तो ही हम मन के पार जा सकते हैं। पर यह मन बड़ा दुष्ट है- दोस्त बन कर ठगता है जो भूप था उसे भिक्षुक बना देता है। ऐसा खेल दिखाता है कि सच पर परदा पड़ जाता है आदमी बिलकुल भ्रमित हो जाता है और मृगतृष्णा के जल की भाँति संसार में सुख तलाशने चलता है जहाँ रेत के सिवा कुछ नहीं, सब मिथ्या है। ऐसे प्यासे की प्यास कैसे बुझेगी। "मन का दास, सदा उदास।'' कहते हैं "मन की ही सृष्टि है।'' एकदम सत्य है- 'मन' से ही 'माना' जाता है। संसार में देखें तो सब कुछ माना हुआ है जैसे क-ख। सिर्फ शरीर को जन्म देने से स्वयं को उसके ÷माता-पिता' मान लिया, उसे 'बेटा-बेटी' मान लिया, विवाह किया तो 'पति-पत्नी' मान लिया। सारे नाते रिश्ते माने हुए हैं, नहीं तो जिन सन्तों ने कई जन्म देखे, वे बताते हैं कि आज जो पत्नी है पूर्वजन्म में माँ थी, आज तो पुत्र हैं पहले दादा था आदि। तब वो सच 'मान' लिया था, आज यह सच ÷मान' लिया। और तो और किस परिस्थिति में सुखी होना है, किस में दुःखी ये भी 'मान' लिया। जन्म पर खुशी और मृत्यु पर दुःख 'मनाने' लगे। लाभ को सुख का हानि को दुःख का विषय 'मान' लिया। प्रारब्ध का फल है-हर परिस्थिति पर सुख व दुःख तो मन के माने हैं। पर संसार की कोई परिस्थिति ऐसी नहीं जिसमें मनुष्य का कल्याण न हो सके क्योंकि हर परिस्थिति में हैं ही "प्रियतम परमात्मा''। ऐसा जानकर जो सुख दुःख में सम रहे वही सच्चा योगी है। भगवान कहते हैं "समत्वं योग उच्यते।'' (गीता २/४८)

Monday, September 28, 2009

मन ही मित्र है और मन ही शत्रु।

कहते हैं परमात्मा इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि के स्तर से ऊपर है। पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इन्द्रियों का, मन का और बुद्धि का परमात्मा प्राप्ति में कोई रोल ही नहीं है। जैसे कि किसी इमारत की छत पर जाने के लिए उसकी हर मन्जिल को पार करके छत पर जाऐंगे इसी प्रकार परमात्मा की प्राप्ति के लिए भी हर स्तर से होकर गुजरना होता है चाहे एक जन्म में, चाहे अनेक जन्मों में। इन्द्रियाँ पूरी तरह परमात्मा में लग जाऐं, कान-हरि नाम का श्रवण करें, जिव्हा हरि का ही भजन करें, आँखें प्रभु का नित दर्शन करें, नाक हरि श्रृंगार व पूजन हेतु सुगन्धि व पुष्पों को चुने, पैर सत्संग व मन्दिर को ले जाऐं, हाथ प्रभु सेवा में जुटे रहें। फिर मन संसार से विलुप्त हो, भगवान के सम्मुख हो जाए। सदा भगवान का स्वरूप का ध्यान रहे। मन में से संसार की कामनाऐं निकल जाऐं। निरन्तर आत्म दर्शन का आनन्द ले। बुद्धि विवेकवती होकर सत्य व असत्य को अलग-अलग जाने। ये सभी स्तर हैं जिन्हें साधक पार करता है और फिर शान्त स्वरूप को प्राप्त होता है। मन को कहीं तो इन्द्रियों का स्वामी कहा गया है और कहीं इसे एक इन्द्रिय ही माना गया है। मन क्योंकि इन्द्रियों का स्वामी है इसलिए इसीमें सामर्थ्य है, कि यह इन्द्रियों को परमात्मा में लगने को प्रवृत्त करे। माने कि हम सत्संग में बैठे गुरुवाणी का श्रवण कर रहे हैं पर मन शेयर के भावों में लगा है तो क्या श्रवण का कोई लाभ है? इसके विपरीत यदि हम बैठे हैं, शेयर मार्केट में पर मार्केट के आदान प्रदान को करते समय भी मन में भगवद्चिन्तन चल रहा है, हर तरफ, हर, जगह उसी एक नूर का नजारा हो रहा है तो हाथ भले ही काम में हैं पर मन 'राम' में ही है। ऐसे साधक का कर्मयोग सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही बुद्धि से ज्ञान बहुत सुन लिया, समझ लिया पर मन का निरोध नहीं कर पाए तो साधना खराब हो सकती है। भगवान कहते हैं- कि मन ही मित्र है और मन ही शत्रु।

Saturday, September 26, 2009

परमेश्वर से मिलने का निश्चित स्थानः

२. परमेश्वर से मिलने का निश्चित स्थानः- मानव को एक ऐसे स्थान की आवश्यकता है जहाँ वह एकांत अनुभव करें और किसी की दखलंदाजी न हो। अपनी बात (प्रार्थना) कर सकें तथा परमेश्वर की बात सुन सकें। बाइबल में एकांत विषयक कई उदाहरण हैं, जहाँ परमेश्वर से मिलाप हेतु मनुष्य बार जाता है। पु. नि. में दानिरमेल नबी ने अपने घर की उपरौठी कोठरी में एक स्थान बनाया था जहाँ वह येरुशलेम की ओर मुख करके दिन में तीन बार प्रातः, दोपहर एवं संध्या को ध्यान-मनन करते थे। स्वयं प्रभु यीशु मसीह एकांत, स्थान में पहाड़ी पर कोलाहल से दूर जाकर ध्यान-मनन (प्रार्थना) किया करते थे।३। इब्राहिम प्रतिदिन ऐसा करते थेः- ध्यान-मनन का अभिन्न अंग है उसकी निरंतरता। परमेश्वर से निरंतर वार्तालाप एवं परमेश्वर की बातों को सुनना, जिसमें " मौन'' का एक महत्वपूर्ण स्थान है। निरंतर सुनना अत्यंत आवश्यक है, और यह शांत रहकर ही जहाँ परमेश्वर की इच्छा। संम्भव है जानने का अवसर प्राप्त होता है।४. वह परमेश्वर के सम्मुख खड़ा रहता और प्रभु के बोलने की प्रतीक्षा करताः- ध्यान-मनन में खड़े रहना, घुटने टेकना या एक विशेष स्थिति में आसन करना अत्यंत आवश्यक है। भौतिक रूप से सुस्ती दूर होती है, साथ आत्मिक बल भी प्राप्त होता है। दूसरा पहलू यह है कि इसमें धीरज एवं संयम का होना दर्शाता है जो ध्यान-मनन का अभिन्न एवं आवश्यक अंग है।मसीही ध्यान-मनन हेतु आवश्यक औज+ारः- भौतिक एवं नश्वर संसार में प्रत्येक कार्य हेतु संबंधित औज+ारों का होना अत्यंत आवश्यक है उसी प्रकार परमेश्वर से संबंध हेतु आत्मिक औज+ारों का होना भी आवश्यक है। पवित्र धर्म ग्रंथ में नये नियम कि इफिसियों की पत्री के सोपान छः में यह पाये जाते हैं: सत्य, धार्मिकता, मेलमिलाप, विश्वास, उ(ार ;मुक्तिद्ध एवं परमेश्वर का वचन ;बाइबलद्ध। ध्यान-मनन के समय पवित्र बाइबिल के साथ साथ पेन, नोटबुक, एक गद्दी, फर्श या चटाई का होना अत्यंत आवश्यक है। मसीही ध्यान-मनन मशीनी न हो जाये अतः भौतिक रूप से खान-पान, सोना इत्यादि तथा आत्मिक रूप से पवित्र जीवन, स्वस्थ्य आचार-व्यवहार एवं कठोर अनुशासन का होना अत्यंत आवश्यक है, तभी वास्तविक मसीही ध्यान-मनन हो सकता है।

Thursday, September 10, 2009

ध्यान और मनन एक दूसरे के पूरक

ध्यान और मनन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। वर्तमान २१ वीं सदी में जब एकल परिवार तथा आजीविका कमाने की होड़ में मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान को दौड़ता रहता है, ऐसे में ईश्वर के प्रति अपनी sहृद्धा दर्शाने हेतु ध्यान-मनन की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है। जब हम वर्तमान संसार की ओर अपनी दृष्टि करते हैं तो पाते हैं मनुष्य कमजोर, असहाय, बीमारियों, तथा अव्यवस्था एवं मानसिक तनाव तथा अवसाद का शिकार है। यद्यपि उसका समाधान जो पूर्णतः अस्थाई है भिन्न-भिन्न क्रियाओं में जैसे योग इत्यादि में देखने में आता है। मानव स्वस्थ्य एवं चैतन्य तो दिखता है, फिर भी परमेश्वर के साथ गहन संबंध नहीं बन पाता और एक समय आता है जब वह निराशा, हताशा एवं कुंठा का शिकार हो जाता है। प्रश्न उठता है कि मानव को कौन सा ध्यान-मनन करना चाहिये जिससे न केवल उसकी काया ;शरीरद्ध निरोगी हो वरन्‌ उसकी आत्मा का गहन संबंध भी परमेश्वर के साथ हो। पवित्र धर्म ग्रंथ बाइबल में ध्यान-मनन हेतु कुछ ऐसे घरेलू पाये जाते हैं, जो शरीर और आत्मा दोनों का मेल परमेश्वर के साथ करवाने का प्रयत्न करते हैं। पवित्र बाइबल की प्रथम पुस्तक उत्पत्ति प्रंथ में पितामह इब्राहिम प्रातः उठकर उस स्थान को गये जहाँ वह परमेश्वर के सम्मुख खड़े रहते थे। [उत्पत्ति १९ह२७ ] उपरोक्त घटना में चार महत्वपूर्ण बातें पाते हैं-

१. इब्राहिम प्रातः काल जल्दी उठेः- प्रातः काल जल्दी उठना एक कठोर अनुशासन है। महानगरों में कॉल सेंटर में कार्य करना, शिफ्ट में नौकरी करना इत्यादि के कारण प्रातः काल उठना बहुत कठिन है, परंतु यही वह उत्तम समय है जहाँ हम शांत एवं बेदखल रह सकते हैं। ध्यान-मनन में प्रतः उठना अत्यंत आवश्यक हैं। क्रमशः

Monday, August 31, 2009

सिद्धियों का दुरुपयोग करने व व्यर्थ प्रदर्शन करने पर साधन भ्रष्ट होने का भय रहता है।

तिब्बत में भी बौद्ध भिक्षुक तथा लामाओं के जीवन में ध्यान-साधना का महत्वपूर्ण स्थान है। इस रहस्यमयी विज्ञान को वहाँ बहुत मान्यता दी जाती है। वहाँ के साधुगण स्वेच्छा से एकान्त की अभिलाषा के कारण एक ऐसे कक्ष में प्रविष्ट हो जाते है, जहाँ की दीवारें छः फीट चौड़ी, पत्थर से बनी होती हैं जिससे उसके भीतर कोई आवाज न पहुँच सके। सन्यासी के भीतर जाने के बाद कक्ष का मुंह भारी पत्थर से बंद कर दिया जाता है, जहां भीतर घुप्प अंधेरा और शान्ति होती है। यह ऐसा स्थान हो जाता है, जहाँ सन्यासी ध्यान व चिन्तन-मनन में लीन हो जाता है। दिन में एक बार भोजन भीतर सरका दिया जाता है। यहाँ से कोई भी सन्यासी ३ वर्ष, ३ माह व ३ दिन के समय से पूर्व इस भौतिक स्थूल शरीर में बाहर नहीं निकल सकता। जब उसके निकलने में सिर्फ एक माह का समय शेष रहता है तो कक्ष की छत में एक छोटा सा छेद किया जाता है, जिसे प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा बड़ा किया जाता है, जिससे कि थोड़ा-थोड़ा प्रकाश भीतर जाने लगे और धीरे-धीरे सन्यासी की आँखे रोशनी की अभ्यस्त होने लगें अन्यथा वह बाहर निकलते ही तेज+ रोशनी के अचानक आँखों पर पहुँचने से अन्धा हो सकता है। सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि वह सन्यासी अधिकांशतः कुछ समय पश्चात ही पुनः उसी कक्ष में प्रवेश कर जाते हैं और शेष जीवन एकान्त में ध्यानस्थ रह कर व्यतीत करते हैं। दरअसल उन्हें अंदर ध्यानस्थ रहने के दौरान इस प्रकार का अभ्यास हो जाता है कि इस भौतिक शरीर को इधर-उधर घुमाने और इन्द्रियों का प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। वे वहाँ बैठे-बैठे ही बाहर के जगत को सूक्ष्म शरीर के माध्यम से जान सकते हैं तथा विचार प्रक्षेपण करके किसी तक भी पहुँचकर उससे कुछ भी करवा सकते हैं। ध्यान में ऐसी अनेकों रहस्यमय चीजें हैं जो रोमांचित और चमत्कृत कर देने वाली हैं। परन्तु सन्त जन व मुनि इनमें न फँस कर अपने अन्तिम लक्ष्य आत्मानुभूति व ब्रह्मानिष्ठा की ओर अग्रसर रहता है। ये सब तो सिर्फ प्रलोभन व भटकाने वाली चीजें हैं। इनसे साधक की ब्रह्मजिज्ञासा व दृढ़ता की परीक्षा होती है। साथ ही इन सिद्धियों का दुरुपयोग करने व व्यर्थ प्रदर्शन करने पर साधन भ्रष्ट होने का भय रहता है। अतः अत्यधिक सावधान रहकर साधना करें। ये साधक है इसमें ही फंस गए, अटक गए तो लक्ष्य तक पहुंचना असंम्भव हो जाएगा। सबको गुरु की कृपा व आशीष प्राप्त हो। इसी आशा व विश्वास के साथ- ।

Thursday, August 27, 2009

सूक्ष्म शरीर के लिए कुछ भी दुर्गम नहीं कुछ भी अभेद्य नहीं।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि "समाधि में मन वायुरहित स्थान पर स्थित हुई दीपक की लौ के समान स्थिर व शान्त हो जाता है।'' आज के इस अशान्त तथा भौतिकतावादी वातावरण में जो भी साधक ध्यान करते हैं वे विश्व का कल्याण करते हैं क्योंकि "जो पिंडे सो ब्रह्माण्डे''। जब-जब एक भी चित्त शान्त होता है, तो शान्ति से पूर्ण तरंगे ब्रह्माण्ड में भी शान्ति का संचार करती हैं। ऐसे ही यदि अधिक से अधिक लोग ध्यान करें तो जगत में शान्ति स्थापित करने में ये बहुत बड़ा योगदान होगा, क्यूँकि हमारे भीतर की प्रकृति ही बाहर की प्रकृति को निर्धारित करती है। आज के युग में सबसे अधिक जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है-शान्ति। तो क्यूँ न हम सब प्रभु के दिए जीवन में से थोड़ा-थोड़ा समय ध्यान के लिए लगाकर स्वयं को तथा विश्व को शान्ति देने का महान कार्य करें? ध्यान करते समय व्यक्ति को कोई विशिष्ट अनुभूतियाँ होती हैं, कुछ सिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं, जिनमें से सबसे अधिक चमत्कृत करने वाली सिद्धि है सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से बाहर निकलकर विचरण करना। सूक्ष्म शरीर के लिए कुछ भी दुर्गम नहीं कुछ भी अभेद्य नहीं। वहाँ देशकाल की सीमाऐं पिघल जाती हैं। सूक्ष्म शरीर भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में किसी भी स्थान तक यात्रा कर सकता है। ऐसे में सूक्ष्म शरीर स्थूल के साथ एक चाँदी की तरह चमकती डोर से जुड़ा रहता है। प्राचीनकाल में ऋषि मुनि इसी के माध्यम से बैठे-बैठे ही सभी स्थानों पर घटित होने वाली घटनाओं को जान लेते थे तथा त्रिकालदर्शी हो जाते थे। साथ ही वे विचारों के आदान-प्रदान को भी ध्यान के द्वारा ही बैठे-बैठे कर लेते थे।

Monday, August 24, 2009

उपराम हो जाने का नाम ध्यान है?

अनंत श्री दिव्य रुद्र कहते हैं कि, ध्यान शब्द का अर्थ भौतिक जगत में है-एकाग्रता और इसी एकाग्रता का जब आध्यात्मिक धरातल पर विस्तार किया जाता है, तो इसकी परिणति ध्यान, फिर शनैः शनैः समाधि में होती है। "ध्यानं निर्विषयं मनः'' जब मन में कोई विषय न हो कोई चिन्तन न हो ऐसी अवस्था को ध्यान कहते हैं। मन को किसी एक विषय में एकाग्र करके फिर उससे भी उपराम हो जाने का नाम ध्यान है। ध्यान शून्य से शुरू होता है। ध्यान शरीर के उन चक्रों पर करना चाहिए जहाँ शून्य है- खाली शून्य स्थान है। शरीर में स्थित ३ चक्रों पर शून्य है- अनहद चक्र, सहस्रार चक्र तथा ब्रह्मरंध। जो साधक इन चक्रों पर ध्यान लगाते हैं उन्हें उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। आज्ञाचक्र पर ध्यान करने से परिणाम भले ही तुरंत दिखाई दे, परन्तु वे दूरगामी नहीं होते तथा ऐसे साधक को काम वासना परेशान कर सकती है, अंधकार मिलता है और माया के प्रपंच में फँसने का डर रहता है।

क्रमशः

Saturday, August 15, 2009

राधा उपासना है तो श्रीकृष्ण उपास्य

शशिमुख मुखरय मणिरश्न गुणमनुगुण कंठ निनादम्‌,

मामश्रुति युगले पिकरुत विकले शमय चिरा दव सादम्‌॥६॥

मामति विफलरुषा विकलीकृत मवलोकित मधुनेदम्‌।

मीलित लज्जित मिवनयन मतव विरम विसृज रतिखेदम्‌॥७॥

अर्थात्‌:- हे शशिवदनी! दीर्घसमय से विरह व्यथित तथा कोयल के शब्द सुनकर मेरे विरह व्याकुल कानों में कंठ गीत तरह, मणि जटित स्वर्ण कर्धनी का शब्द करो तो मेरा दुख समाप्त हो जायेगा। हे प्रिये! तेरे युगल नेत्र, अकारण क्रोध से व्याकुल हुये, मुझे देखने को लज्जित की भांति मिचते हैं। अतः इस क्रोध को छोड़कर रतिखेद को त्याग दो अर्थात्‌ प्रीति पूर्वक मेरे साथ रमण करो।

उपरोक्त श्लोकों में, अतिसूक्ष्म भगवान श्रीकृष्ण जी एवं श्री राधा जी को प्रेम प्रसंग की झलक मात्र प्रस्तुत की गयी है। श्री राधा जी आराधना हैं तो भगवान श्री कृष्ण आराध्य।"यः आराधयते सा राधा।'' राधा जी प्रकृति हैं तो श्री कृष्ण जी ब्रह्म। श्री राधा जी प्रेरणा हैं, जगजननीवत हैं तो भगवान कृष्णा संसार के पिता हैं। प्रकृति, सृष्टि (निर्माण) करती है, क्षेत्र है यह, तो कृष्ण क्षेत्रज्ञ हैं। लोक कल्याणार्थ उनकी यह प्रणय लीला अत्यन्त हितकारी है। महा कवि श्री पं। जयदेव जी सृजित यह गीत महाकाव्य संसार के लिए अत्यंत शान्ति प्रदान करने वाला है। इसमें पद पद पर श्री कृष्ण चन्द्र भगवान के आनन्द का वर्णन है। आनन्दकन्द भगवान की महाशक्ति, महाभक्ति राधा का अनन्य समपर्ण प्रभु हिताय एवं जगत हिताय ही है। यह महागीत श्रृंगार रसालिप्त रसिक भक्त जनों को परम शान्ति, विनोद एवं इच्छित प्राप्त कराने वाला है।

Wednesday, August 12, 2009

शीतल जल से पूरित घड़े को रखने से विरहताप अवश्य दूर होता है।

बदन सुधानिधि गलितममृतमिव रचय वचन मनुकूलम्‌,

विरह मिवापन यामि पयोधर रोधक मुरसि दुकूलम॥३॥

प्रिय परिरंभण रमसवलि तमिव पुलकित मन्य दुरापम्‌।

मृदुरस कुच कलशं विनिवेशय शोषयमन सिज तापम्‌॥४॥

अर्थात : हे राधिके! अपने चन्द्रमुख से अमृत वचनों को कहकर, मेरे कानों को तृप्त करो, और मैं विरही उद्वेग से आकुल तुम्हारे अंग वस्त्र (आंगिया) को तुम्हारे वक्षस्थल से हटाऊंगा। हे भामिनी! हे राधे! तुम अब मेरे वक्ष पर अपने युगल स्थूल एवं कड़े स्तनों को रख मेरे साथ कामभोग में आसक्त हो जाओ और मेरी छाती को शीतल कर दो क्योंकि शीतल जल से पूरित घड़े को रखने से विरहताप अवश्य दूर होता है।

Thursday, August 6, 2009

राधा कृष्ण का संवाद

कर कमलेन करोमि चरण महमा गमितासि विदूरम्‌।

क्षणमुप कुरु शयनोपरि मामिवनू पुरमनुगति शूरम्‌॥

अर्थात्‌:- हे सुन्दरी! अनेक प्रकार की विनती करके मैंने तुम्हें इस जगह बुलाया है, इसलिए थोड़े क्षणों के लिए मैं तुम्हारे चरणों को सेवा करूंगा अर्थात्‌ दवाऊंगा। हे राधे! मैं तुम्हारा सेवक, तुमसे विनती करता हूँ कि मुझे नूपुरों की भांति स्वीकारते हुए, इस अत्यन्त कोमल, पुष्प पल्लवों युक्त शैया पर ग्रहण करो और मुझे अपने नूपुरों की भांति अपने पीछे चलने दो।

Monday, August 3, 2009

मुझे अपने नूपुरों की भांति अपने पीछे चलने दो,

हे राधिके!

मदन महीपति कनकदंड रुचि केशर कुसुम विकासे,

मिलित शिली मुख पाटलि पटलकृत स्मर तूण विलासे॥

कुंजवन में नागकेशर फूल रही है, प्रतीत होता है कि मनोभव ने स्वर्ण मुकुट धारण किया है। पाटलिक के पुष्पों पर भ्रमर गुंजन कर रहे हैं तथा कामदेव का तूण शब्द हो रहा है। ऐसे वासंती वातावरण में इस निकुंज वन में श्री राधा जी श्री कृष्ण जी विनोद करते हुए मुस्कराकर बोलेः-

Sunday, July 26, 2009

गीत गोविन्द का हिन्दी रूपांतरण

और हे सखी!

उन्मद मदन मनोरथ पथिक वधूजन जनित विलापे,

अलिकुल संकुल कुसुम समूह निराकुल वकुल कलापे॥३॥

मृगमद सौरभ रमसवंशवद नवदल माल तमाले,

युवजन हृदय विदारण मनसिज लख रुचि किंशुक जाले॥४॥

अर्थात्‌- इस बसंत ऋतू से समस्त संसार आनन्दित होता है। श्री कृष्ण नारायण स्वरूप जगत के कर्ता- बसंत में दुर्जनादि उदालम्मों से आलिप्त कहे जाते हैं। नारायण प्रोषिताओं की पीड़ा जानते हुए भी इनके विरह जनित विलाप की बसंत के रूप में अनदेखी करते हैं। ये पथिक वधुऐं कामदेव से पीड़ित हुयी जब वकुल पुष्प पर भ्रमर को बैठे देखती है, तो और भी पीड़ित हो जाती हैं। तमाल वृक्षों की कस्तूरी सुगन्ध निकुंज वन में व्याप्त है, जो पलाश पुष्पों से वेष्टित स्वर्ण आभायुक्त हो रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कामाग्नि से दहन हृदयों को और विदीर्ण करने के लिए निज नखों को और भी तीव्र एवं विस्तृत कर रहा है।

Wednesday, July 22, 2009

गीत गोविन्दम


ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे,

मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे।

विहरन्ति हरि रिह सरस वँसते।

नृत्यति युवति जनेन- संगसखि विरहि जनस्य दुरन्ते॥

(गीत गोविन्द तृतीय प्रबंध श्लोक ३)

अभिप्राय यह कि- हे सखी। यह मलयपवन लवंग पल्लवों से निकुंज वन को आलिंगित कर रहा है, यमुना के शीतल जल को ऊर्मित कर रहा है। मधुमक्खियाँ, कोकिला, पपीहादि पक्षीगण, अपनी-अपनी मधुर ध्वनियों से इस वन को आनन्दमय बना रहे हैं। स्वयं नारायण श्री कृष्ण, नारियों के समूह के साथ नृत्य कर रहे हैं। यह बसंत )तु विरही जनों को अत्यन्त दुखदायी है अतः चलो अपने इष्टदेव से चलकर मिलो ताकि विरहानल शान्त हो- यह अभिप्राय।

गीत गोविन्दम


ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे,

मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे।

विहरन्ति हरि रिह सरस वँसते।

नृत्यति युवति जनेन- संगसखि विरहि जनस्य दुरन्ते॥

(गीत गोविन्द तृतीय प्रबंध श्लोक ३)

अभिप्राय यह कि- हे सखी। यह मलयपवन लवंग पल्लवों से निकुंज वन को आलिंगित कर रहा है, यमुना के शीतल जल को ऊर्मित कर रहा है। मधुमक्खियाँ, कोकिला, पपीहादि पक्षीगण, अपनी-अपनी मधुर ध्वनियों से इस वन को आनन्दमय बना रहे हैं। स्वयं नारायण श्री कृष्ण, नारियों के समूह के साथ नृत्य कर रहे हैं। यह बसंत )तु विरही जनों को अत्यन्त दुखदायी है अतः चलो अपने इष्टदेव से चलकर मिलो ताकि विरहानल शान्त हो- यह अभिप्राय।

Wednesday, July 15, 2009

गीत गोविन्द का हिन्दी रूपांतरण

संस्कृत के महाकवि पं। जयदेव कृत "गीत गोविन्द'' महाकाव्य में बसन्त ritu का विभिन्न रूपों में अनुभवित प्रसंग अत्यंत ही मार्मिक शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्रणय क्षणों की प्रतीक्षा, विरहानल को उसी प्रकार क्षण-क्षण उद्दीप्त करती है, जैसे यज्ञानल को घृताहुतियाँ। ग्रीष्म ऋतू आयी, चली गयी, वर्षा (पावसा) ऋतू भी आयी और चली गयी। इन्हीं की भांति शरद ऋतू भी आकर प्रस्थान कर गई- कोई विशेष अनुभूति प्रोषिताओं को उतनी कष्टकारी नहीं हुयी, जितनी बसन्त ऋतू । बसन्त ऋतू का आगमन ही मानो सहस्त कन्दर्पों का दल लेकर विरहानियों के आंगन में आ एक क्रूर यु( की सृष्टि करने लगता है। सब कुछ दुखदायी होने लगता है। सारे दृश्य-परिदृश्य मानो उन्हें काटने दौड़ पड़े हों। इसी मनोअनुभूति का प्राकट्य श्री राधा के हृदयांगन में होता है।

आइये हम भी लीलाधारी श्री कृष्ण चन्द्र जी की लीलावती श्री राधा जी की हृदयानुभूतियों जो बसन्तागमन के कारण हो रही है- का आनन्द लें और जीवन सफल करें:- "

बसंते वासंती कुसुम सुकुमारैरवयवै, भ्रमन्ती कान्तारे बहु विहित कृष्णानुसरणम्‌।

अमन्दकन्दर्प ज्वर जनित चिंताकुल तया, चलब्दाधां राधा सरस मिदमूचे सहचरी॥''

(गीत गोविन्द त्रतीय प्रबन्ध श्लोक २)

अर्थात्‌ बसन्त ऋतू में कामदेव के उग्र वाणों से विधी पीड़ित श्री राधा जी श्री कृष्णचन्द्र जी से मिलने के लिए, धूप से पीड़ित पुष्पों से परिपूर्ण शोभायमान वन में भ्रमण करने लगीं। उसी समय श्री राधा जी की कोई अत्यन्त प्रिय सखी, उदासीन राधा का देखकर कहने लगीः-

Sunday, July 12, 2009

प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा?

एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था, जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता तो संख्या को खड़िया से दीवार पर लिखता जाता। किसी दिन वह लाख तक की संख्या छू लेता किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता। उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते और मुस्कुरा देते। एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये। जब वे थक गये तो लौटते में एक बरगद की छांह में बैठे, उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी, जो आता उसे बर्तन में नाप कर देती और गिनकर पैसे रखवाती। वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे। तभी एक आकर्षक युवक आया और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया, दूधवाली मुस्कुराई और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया, पैसे भी नहीं लिये। गुरु मुस्कुरा दिये, शिष्य हतप्रभ! उन दोनों के जाने के बाद, वे दोनों भी उठे और अपनी राह चल पड़े। चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरु ने उत्तर दिया,''प्रेम वत्स, प्रेम! यह प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा? उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है, जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो, उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा?'' और गुरु वैसे ही मुस्कुराये व्यंग्य से।'' समझ गया गुरुवर। मैं समझ गया प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को।

प्रस्तुति : सुधा रानी

Friday, July 10, 2009

मंत्र विज्ञान विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है।

मंत्र एक वैज्ञानिक विचारधारा है, एक सत्य है, जिसमे कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है तथा न ही यह रूढ़िवादिता है। अपितु मंत्र विज्ञान विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। यह धन दे कर खरीदी जा सकने वाली वस्तु नहीं है। क्यों कि यह तो एक सिद्धि है, सूक्ष्म वैज्ञानिक विचारधारा है, सचेतन शास्त्र है। इसमें न तो आधुनिक मशीनरी सी जटिलता है और न ही अधिभौतिकता, अपितु यह तो एक गहन तकनीक है जिसको समझने के लिए आस्था और संयम बनाए रखकर आध्यात्मिक सागर में उतरना होता है। आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार मंत्र शक्ति मुख्यतः शब्दों की ध्वनि और लय पर आधारित है। मंत्रों में ध्वनि और लय का विशेष महत्व है। जो व्यक्ति एक निश्चित लय के साथ मंत्र का उच्चारण करता है, वह उस मंत्र की शक्ति से अवश्य लाभान्वित होता है। लेकिन एक सीधे रूप में उस मंत्र का मात्र पठन कर लिया जाए तो उसका प्रभाव नहीं होगा, क्यों कि उस शब्द और वाक्य के साथ लय का संयोग नहीं है। किसी शब्द की मूल ध्वनि वह है जिससे उसका निश्चित प्रभाव पड़ सके। मंत्रों में शब्द अथवा उसका अर्थ अपने आप में अधिक महत्व नहीं रखते, अपितु उसकी ध्वनि विशेष महत्वपूर्ण है। आंतरिक विद्युत धारा विज्ञान के अनुसार जिस भी शब्द का उच्चारण हम लोग करते हैं, वह इस ब्रह्मांड में तैरने लगता है। उदाहरण के लिए एक रेडियो स्टेशन पर किसी भी गीत की पंक्ति का अंश बोला जाता है तो वह उसी समय वायुमंडल में फैल जाता है तथा विश्व के किसी भी देश, किसी भी कोने में श्रोता यदि चाहे तो उसके रेडियो के माध्यम से उस गीत की पंक्ति का अंश सुन सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि रेडियो में सूई उसी फ्रीक्वैंसी पर लगाने की जानकारी हो। इस प्रकार ग्राहक और ग्राह्य का आपस में पूर्ण संपर्क आवश्यक है, उसी प्रकार मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तो मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विद्युत भी तरंगों में निहित रहती है। यह आंतरिक विद्युत, जो शब्द उच्चारण से उत्पन्ना तरंगों में निहित रहती है, शब्द की लहरों को व्यक्ति विशेष या संबंधित देवता, ग्रह की दिशा विशेष की ओर भेजती है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह आन्तरिक विद्युत किस प्रकार उत्पन्ना होती है? यह बात वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा मान ली गई है कि ध्यान,मनन,चिन्तन आदि करते समय जब व्यक्ति एकाग्र चित्त होता है, उस अवस्था में रसायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विद्युत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है (आंतरिक विद्युत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्ना होता है। इसे आप मानसिक विद्युत कह सकते हैं। यही मानसिक विद्युत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर, दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। यह मानसिक विद्युत (उर्जा) भूयोजित न हो जाए, इसीलिए मंत्र जाप करते समय भूमि पर कंबल, चटाई, कुशा इत्यादि के आसन का उपयोग किया जाता है। मानव की भौतिक इच्छाओं की लालसा से प्रेरित होकर हमारे आर्य ऋषियों नें, ध्वनि समायोजन कर के, भाषा को मंत्रों का स्वरूप प्रदान किया था, जिसे कि आज हम रूढ़िवादिता मान बैठे हैं।

प्रस्तुतु : दीके शर्मा

Wednesday, July 8, 2009

गुरु पूर्णिमा पर्व बड़े धूम धाम से मनाया गया

गुरु पूर्णिमा पर्व बड़े धूम धाम से मनाया गया। इस अवसर पर दिव्या रुद्रगिरिजी ने कहा की गुरु वह नहीं जो जगत में दीखता है वरन वह तो उससे परे है। इस अवसर पर लाखों शिष्यों ने गुरु पूजन कर आर्शीवाद प्राप्त किया। आव्हान अखाडे के श्री महंत दिग्विजयी बाल योगेश्वर अनंत श्री विभूषित श्री रुद्र ने अनेकों प्रकार के आख्यानों के माध्यम से मनुष्य की नैतिकता के उन्नयन का आव्हान किया।

Sunday, July 5, 2009

रुद्रवानी

तेरौ अचला चल चल डौले, कहा करि लेगी लगोंटिया रे।
बाहिर ओढ़ै भीतर छोड़ै। बाहिर जोड़ै भीतर तोड़ै॥
अन्तर पट नां खोलै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ १॥
बाहिर साधू, भीतर स्वादू। बाहिर ब्रह्म, ज्ञान मन व्यादू॥
काम क्रोध झक झोरै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ २॥
बाहिर कौ कछु काम न आवै। राम के नाम हराम कमावै॥
ये तराजू न तौले, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ ३॥
अन्त समय जो भरियौ सो आबै। चतुराई छूटै फिरि पछि तावे॥
काल करम जब घोलै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ ४॥
मन कौ संयम अचला होवै। प्रज्ञा बुद्धि लंगोंटी होबै॥
'रुद्र' प्रमाणित बोलै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे।
तेरौ अचला..............................................

Sunday, June 28, 2009

भगवान भी करते हैं भक्त की आराधना ?

एक बार नारद जी श्रीकृष्ण से मिलने पहुंचे। वह बड़ी आतुरता से उनके कक्ष में प्रवेश करने लगे कि तभी द्वार पालों ने रास्ता रोक दिया। नारद जी ने कारण पूछा तो उत्तर मिला, प्रभु अभी आराधना में व्यस्त हैं । नारद ने कहा, रास्ता छोड़ो, मैं तुम्हारे इस बहकावे में नहीं आने वाला। पर यह सुनकर भी संतरी डटे रहे। मन मसोस कर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। कुछ देर बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने कपाट खोले। नारद जी ने प्रणाम करके तुरंत शिकायत की, देखिए न, आपके द्वारपालों ने एक बेतुका बहाना बनाकर मुझे भीतर जाने से रोक दिया। ये कह रहे थे कि आप पूजा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण बोले, यह सत्यवचन है नारद। हम आराधना में ही मग्न थे। नारद ने कहा, भगवन्‌ आप और आराधना? श्रीकृष्ण बोले, देखना चाहोगे, हम किसकी आराधना में लीन थे? आओ भीतर आओ। भीतर एक पुष्पमंडित पालने पर अनेक छोटी छोटी प्रतिमाएं झूल रही थीं। नारद जी ने एकाग्र दृष्टि से देखा। कुछ प्रतिमाएं गोकुल की गोप मंडली की थीं, तो कुछ स्वयं उनकी। तब नारद जी ने बौराई आंखों से प्रभु को निहारा। फिर पूछा, भला आराध्य आराधकों की आराधना कब से करने लगा? भक्त गुहार करे और भगवान कृपा, यह सीधी रीत तो समझ में आती है। पर यह दूसरी अटपटी परंपरा आपने क्यों चलाई? श्रीकृष्ण ने कहा, मुझे बताओ नारद, भक्त मेरी आराधना क्यों करते हैं? किस प्रयोजन से मेरी उपासना करते हैं? नारद बोले, प्रभु वे आपसे आपका प्रेम चाहते है। श्रीकृष्ण ने कहा नारद, ठीक इसी प्रयोजन से मैं भी अपने भक्तों की आराधना करता हूं। मैं भी भक्त से प्रेम की आकांक्षा रखता हूं। भक्त से उसका प्रेम मांगता हूं। प्रेम का यही महादान पाने के लिए मैं निराकार से साकार होकर आता हूं। पर मानव इसी बात को नहीं समझ पाता। वह तो हमसे केवल धन दौलत ही मांगता है जबकि मैं भक्त का प्रेम पाने के लिए उसकी ओर देखता रहता हूं।

भगवान भी करते हैं भक्त की आराधना ?

एक बार नारद जी श्रीकृष्ण से मिलने पहुंचे। वह बड़ी आतुरता से उनके कक्ष में प्रवेश करने लगे कि तभी द्वार पालों ने रास्ता रोक दिया। नारद जी ने कारण पूछा तो उत्तर मिला, प्रभु अभी आराधना में व्यस्त हैं । नारद ने कहा, रास्ता छोड़ो, मैं तुम्हारे इस बहकावे में नहीं आने वाला। पर यह सुनकर भी संतरी डटे रहे। मन मसोस कर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। कुछ देर बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने कपाट खोले। नारद जी ने प्रणाम करके तुरंत शिकायत की, देखिए न, आपके द्वारपालों ने एक बेतुका बहाना बनाकर मुझे भीतर जाने से रोक दिया। ये कह रहे थे कि आप पूजा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण बोले, यह सत्यवचन है नारद। हम आराधना में ही मग्न थे। नारद ने कहा, भगवन्‌ आप और आराधना? श्रीकृष्ण बोले, देखना चाहोगे, हम किसकी आराधना में लीन थे? आओ भीतर आओ। भीतर एक पुष्पमंडित पालने पर अनेक छोटी छोटी प्रतिमाएं झूल रही थीं। नारद जी ने एकाग्र दृष्टि से देखा। कुछ प्रतिमाएं गोकुल की गोप मंडली की थीं, तो कुछ स्वयं उनकी। तब नारद जी ने बौराई आंखों से प्रभु को निहारा। फिर पूछा, भला आराध्य आराधकों की आराधना कब से करने लगा? भक्त गुहार करे और भगवान कृपा, यह सीधी रीत तो समझ में आती है। पर यह दूसरी अटपटी परंपरा आपने क्यों चलाई? श्रीकृष्ण ने कहा, मुझे बताओ नारद, भक्त मेरी आराधना क्यों करते हैं? किस प्रयोजन से मेरी उपासना करते हैं? नारद बोले, प्रभु वे आपसे आपका प्रेम चाहते है। श्रीकृष्ण ने कहा नारद, ठीक इसी प्रयोजन से मैं भी अपने भक्तों की आराधना करता हूं। मैं भी भक्त से प्रेम की आकांक्षा रखता हूं। भक्त से उसका प्रेम मांगता हूं। प्रेम का यही महादान पाने के लिए मैं निराकार से साकार होकर आता हूं। पर मानव इसी बात को नहीं समझ पाता। वह तो हमसे केवल धन दौलत ही मांगता है जबकि मैं भक्त का प्रेम पाने के लिए उसकी ओर देखता रहता हूं।

Friday, June 26, 2009

कौन प्रेमी है और प्रियतम?

भगवान श्रीकृष्ण की एक प्रेमिका थी - राधा। वह उन सोलह हजार गोपियों में एक थीं, जो उन्हें पागलों की तरह प्यार करती थी। उनकी दो पत्नियाँ भी थीं - रुक्मिणी और सत्यभामा। आज इसकी अनुमति नहीं है कि आदमी दो पत्नियाँ हों और सोलह हजार प्रेमिकाऐं। यह एक दैवीक नाटक है, जिसमें हिन्दू परम्परा और सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार हर जीवात्मा उस परम पुरुष की प्रेमिका है। वहाँ ऐसी मान्यता है कि वही अकेला पुरुष है और अन्य सभी नारी हैं। यहाँ शारीरिक रूप से लिंग भेद का प्रश्न नहीं है, ईश्वर के मामले में स्त्री और पुरुष सभी उसकी प्रेमिका ही हैं। वह प्रियतम है और हम प्रेमी हैं। वह स्वाभाविक भी है के ईश्वर के द्वारा निर्मित उसकी सृष्टि उसका प्रेमी हो। उसमें से सोलह हजार ऐसे थे, जो उनहें विशिष्ट रूप से प्रेम करते थे और उसमें से भी विशिष्ट थी- वह लड़की राधा। उसके अनन्य प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण को राधाकृष्ण के नाम से जाना जाता है- राधा का नाम पहले आता है। भारतीय सामाजिक जीवन में पुरुष का नाम पहले आता है, लेकिन हिन्दू परम्परा में स्त्री पहले आती है, उसे हम गृहलक्ष्मी, परिवार की समृ(,ि अन्नपूर्णा, कल्याणी कहते हैं। कल्याणी अर्थात्‌ आनन्द, प्रसन्नता, सुख, प्रकाश, प्रफुल्लता लाने वाली। इसीलिए कृष्णराधा न कहकर राधाकृष्ण कहा जाता है। यह दैवीय प्रेम कथा है। जब श्रीकृष्ण दूसरा काम करने वृन्दावन छोड़कर द्वारिका जाने लगते हैं, तो अपनी बाँसुरी राधा को दे जाते हैं। भारत में यह बाँस से बनी होती है। राधा को एकमात्र यही भौतिक वस्तु श्रीकृष्ण से मिली थी। वह उनके प्रेम और याद में खो गयी। रात और दिन अहर्निश कृष्ण, कृष्ण रटती रही। और ऐसा कहा जाता है कि ईश्वर की इस सतत याद से वह ईवश्र ही हो गयी। वह श्रीकृष्ण वन गयी। फिर उसके मुख से राधा, राधा निकलने लगा। वह अपना ही नाम जपने लगी। जिसने भी उसे देखा, मूर्ख समझा। यह क्या है? वह कहती है कि मैं श्रीकृष्ण को प्यार करती हूँ और अपना ही नाम जप रही है। लेकिन यह उसका रूपान्तरण था, जिसकी प्राप्ति उसने चमत्कारिक रूप से सतत स्मरण और संपूर्ण प्रेम द्वारा की थी। कृष्ण, कृष्ण कहते हुए वह कृष्ण हो गयी थी और अब कृष्ण बनकर राधा, राधा कह रही थी।वस्तुतः कौन किसे प्रेम कर रहा है? कौन प्रेमी है और प्रियतम? यह भी पता नहीं चलता। यह प्रेम का चमत्कार है। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे हम जानें, खोजें, पाएँ और बिगाड़ दें। यह तो पशुता है, मूर्खता है, इन्द्रिय-प्रेम है, वासना का खेल है। वास्तविक प्रेम में न प्रेमी का पता होता है न प्रियतम का और जब प्र्रेम चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है, तो दोनों परस्पर लय होकर एक हो जाते हैं, पे्रमी भी समाप्त हो जाता है, प्रियतम भी, प्रेम भी समाप्त हो जाता है। फिर तो एक संयुक्त एकतताब( अस्तित्व बचता है, जो कुछ नहीं जानता, उसे न तो अपने अस्तित्व का पता होता है, न ही पहचान का। यहाँ हम अपने लक्ष्य पर पहुँचते हैं।

पार्थ सारथी राज गोपालाचारी के प्रवचन से

Monday, June 22, 2009

यहाँ न किसी का जन्म होता है न किसी की मृत्यु होती है

हमारे ब्रह्मांड का मुख्य घटक द्रव्य है, इसे हम दो भागों में बांट सकते हैं, 1 सूक्ष्म 2 स्थूल द्रव्य सूक्ष्म रूप में रहता है, जबकि पृथ्वी सहित अन्य ग्रहों एवं उपग्रहों पर सारा द्रव्य स्थूल रूप में रहता है। हमारा सारा ब्रह्मांड गतिशील एवं परिवर्तनशील है हम देखते हैं कि यहां प्रत्येक जीव एवं वनस्पति का जन्म होता है एवं उसका जीवन काल पूरा होने पर मृत्यु होती है, इसी प्रकार निर्जीव पदार्थ बनते एवं नष्ट होते रहते हैं, परंतु वास्तविकता यह नहीं है यहां न किसी का जन्म होता है न किसी की मृत्यु होती है यहां सिर्फ द्रव्य का रूप परिवर्तन होता है। इसी को हम जन्म मृत्यु का नाम दे देते हैं, इसलिए इस संसार को मायावी जगत या नश्वर जगत भी कहते हैं। यह द्रव्य ईश्वर से लेकर स्थूल पदार्थों तक अपना रूप परिवर्तन करने में सक्षम होता है, सूक्ष्म द्रव्य जैसे प्रकाश तरंग शब्द विचार मन आदि स्थूल पदार्थ जैसे सजीव निर्जीव ग्रह उपग्रह आदि, सब इसी द्रव्य से उत्पन्न होते हैं एवं इसी द्रव्य में लीन होते हैं। स्वयं ब्रह्मांड भी इससे अछूता नहीं है इसका भी जन्म एवं मृत्यु होती है हमारा सूर्य अपने अंतिम समय में फैलने लगता है एवं अपने सभी ग्रहों को भस्म कर अपने में लीन कर लेता है इसके बाद इसका ठंडा होना एवं सिकुडना शुरू होता है अंत में यह ब्लेक होल एक कृष्ण विवर में बदल जाता है जिसमें कि असीमित गुरूत्वाकर्षण होता है इतना कि यहां से कोई तरंग या प्रकाश भी परावर्तित नहीं हो सकता अत: इन्हें किसी प्रकार देखा नहीं जा सकता । वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड में इनकी उपस्थिति का पता लगा लिया है, इसी प्रकार जब ब्रह्मांड के सभी सूर्य एवं तारे कृष्ण विवर में परिवर्तित हो जाते हैं तब ये अपने असीमित गुरूत्वाकर्षण के कारण एक दूसरे में समा जाते हैं एवं एक पिंड का रूप ले लेते हैं इस पिंड में ब्रह्मांड का सारा द्रव्य ईश्वर रूप में होता है। इतने अधिक दबाव पर द्रव्य परमाणु या अन्य किसी रूप में नहीं रह सकता इसी को जगत का ईश्वर में लीन होना कहते हैं। जब इस पिंड का संपीडन अपने चरम बिंदु पर पहुंचता है तब इसमें महाविस्फोट होता है इस महा विस्फोट के कारण ब्रह्मांड असंख्य वर्षों तक फैलता रहता है।

Sunday, June 21, 2009

पानी के संग्रहण की समस्या ही सबसे प्रमुख साबित होने वाली है।


विशेषज्ञों का मानना है कि अभी संसार में मानव जितना पानी इस्तेमाल कर रहा है अगले दो दशकों में यह और अधिक बढ़ेगा। यह इस्तेमाल वर्तमान के मुकाबले ४० प्रतिशत अधिक तक जा सकता है। विषय विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इन बातों से अत्याधिक चिंतित हैं और मानते हैं कि यह शताब्दी मानव सभ्यता के लिए पिछली शताब्दियों जितनी आसान साबित होने वाली नहीं है। वैज्ञानिक मीठे पानी के सबसे प्रमुख श्रोत बारिश के पानी को संचित करने पर जोर दे रहे हैं। जिन जगहों से नदियाँ बह रही हैं, वैज्ञानिक उन जगहों के लोगों से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि वो इस अथाह जल राशि को अपनी आँखों के सामने से यूँ ही बह नहीं जाने दें और उसे संचित करने के यत्न करें। वैज्ञानिकों के अनुसार इस शताब्दी में ग्लोबल वार्मिंग के बाद पानी के संग्रहण की समस्या ही सबसे प्रमुख साबित होने वाली है। खेती कहाँ से होगी : मीठे पानी का सबसे अधिक उपयोग खेती में होता है। मानव द्वारा उपयोग में लिए जाने वाले पानी का ७० प्रतिशत सिर्फ खेती के लिए होता है। वर्ल्ड वाटर काउंसिल के अनुसार २०२० तक खेती के लिए उपयोग होने वाली पानी में १७ प्रतिशत का इजाफा होगा। अगर यह नहीं हुआ तो विश्व का पेट भरने में मुश्किल आ जाएगी। इस बात को सोचकर ही रूह काँप जाती है कि अगर खेती के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिला तो विश्व की एक बड़ी आबादी को रोजाना भूखे पेट सोना पड़ेगा। और इनमें से भी कई प्यासे रह जाएँगे। अफ्रीका में तो प्रतिदिन ५० हजार बच्चे पाँच साल का होने से पूर्व ही काल के गाल में समा जाते हैं और इसकी वजह सिर्फ भूख होती है। एशिया पर सबसे अधिक संकट : दुनिया की ६० प्रतिशत आबादी को अपने में समाहित करने वाला एशिया महाद्वीप जल संकट का सबसे अधिक सामना कर रहा है। इस महाद्वीप में भी दक्षिण एशिया की हालत सबसे अधिक खराब है, जहाँ की ९० प्रतिशत आबादी जल संकट का सामना कर रही है। लेकिन सिर्फ ऐसा नहीं है कि विकसित देश और योरप तथा अमेरिका जैसे महाद्वीप जल संकट से अछूते हैं। यहाँ भी हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं। ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक (जीयो-३) की रिपोर्ट के अनुसार २०३२ तक संसार की आधी से अधिक आबादी भीषण जल संकट की चपेट में आ जाएगी। भू-जल का उपयोग सौम्य चोरी : वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के गर्भ में सुरक्षित भू-जल को रिर्जव वॉटर कहा है। लेकिन भारत में जहाँ-तहाँ बोरिंग करवाकर इसका उपयोग शुरू कर लिया जाता है। ऐसा विश्व के कई अन्य देशों में भी किया जाता है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को प्रकृति के बैंक से की जा रही चोरी की संज्ञा देते हैं क्योंकि इस अमूल्य पानी के उपयोग के बदले कुछ भी चुकाया नहीं जाता। वहीं भारत के जल प्रबंधन विशेषज्ञ अनुपम मिश्र इसे पानी की सौम्य चोरी की संज्ञा देते हैं।

Saturday, June 20, 2009

पीने योग्य मीठा पानी बहुत ही सीमित है

प्रस्तुति : सचिन शर्मा

दुनिया में पानी की मात्रा सीमित है। हालाँकि हमें हमेशा से यही सुनने को मिलता रहा है कि पानी असीमित है। संसार में पानी की बहुतायत है और इसलिए मानव जाति ने पानी का हमेशा दुरुपयोग ही किया। लेकिन यह बात गलत साबित हो गई और २०वीं शताब्दी के अंत तक हमें पता चल गया कि पीने योग्य मीठा पानी बहुत ही सीमित है और इसी सीमित पानी से संसार में रहने वाली सभी प्रजातियों (मानव समेत) को गुजारा करना होगा। वैज्ञानिकों के अनुसार अगले दो दशकों में पानी की कमी के कारण हमें जो कुछ भुगतना पड़ सकता है, उसकी फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी का नक्शा देखने पर हमें लगता है कि वह सब तरफ से नीली ही नीली है। संसार का ७५ प्रतिशत भाग पानी है। यहाँ सागर हैं। महासागर हैं। बड़ी-बड़ी खाड़ियाँ हैं, लेकिन यह हमारे किसी काम के नहीं हैं। यह सब नमकीन है। हम इन्हें पीने के उपयोग में नहीं ले सकते, इनसे खेती नहीं कर सकते। हाँ, यह अलग बात है कि ये पानी के अथाह भंडार विश्व के वायुमंडल, तापमान और मौसम को नियंत्रित करने में महती भूमिका निभाते हैं लेकिन हमारे जिंदा रहने के लिए जरूरी पीने का पानी इन श्राोतों से नहीं मिल सकता। बात सिर्फ पीने योग्य पानी की करें तो विश्व के कुल भू-भाग में हिलोरे ले रहा ७५ प्रतिशत भाग यानी पानी का सिर्फ २.५ प्रतिशत ही मीठा पानी है। इस ढाई प्रतिशत मीठे पानी का भी ७५ प्रतिशत भाग ग्लेशियर और आइसकैप्स के रूप में संरक्षित है। ये ग्लेशियर और आइसकैप्स दुनिया में दुर्गम जगहों पर स्थित हैं और हर किसी की वहाँ तक पहुँच संभव नहीं। इतना ही नहीं ग्लोबल वार्मिंग के चलते इन बर्फीले पानी के श्रोतों पर भी नजर लग रही है और ये पिघल रहे हैं। इनके पिघलने से मीठा पानी कई जगह नमकीन समुद्री पानी से मिलकर बेकार हो जाता है। आर्कटिक और अंटार्कटिक से पिघलकर बह रहा मीठा पानी इसका उदाहरण है। सिर्फ उस पानी की बात करें जो मनुष्य के लिए उपलब्ध है तो वो धरती के कुल पानी का मात्र ०.०८ प्रतिशत ही है। मीठे पानी का सिर्फ ०.३ प्रतिशत ही नदियों और तालाबों जैसे श्रोतों में मिलता है। बाकी जमीन के अंदर भू-जल के रूप में संरक्षित है। लेकिन अब भूजल पर भी लोग डाका डालने लगे हैं और इसका बेतरतीब उपयोग सब जगह हो रहा है।

Thursday, June 18, 2009

जल के गुण तथा शक्तिः- मनुष्य जीवन हेतु जल अनिवार्य है, यह भूमि की उपज को सुरक्षित रखने हेतु उसे पोषित करता है। यह पोषण से कहीं अधिक पोषण का स्त्रोत है अतः इसकी तुलना न केवल दूध से की गयी है वरन्‌ "गाय'' से भी यह अत्यंत उपयोगी है। यह प्राणाधार है। मृत्यु तथा रोग से यह मनुष्यों को दूर रखता है यह इसका मूल सि(ान्त है। अथर्ववेद के एक सूक्त में इसे इस प्रकार कहा गया है कि "जिस प्रकार माता के दूध से पुत्र को पोषण प्राप्त होता है उसी प्रकार जल के भीतर विद्यमान उत्तम सुखदायक रसों से हमारे शरीर, मन और आत्मा की शक्तियों की वृ(ि हो।'' इसी प्रकार कुछ सूक्तों में जल को कूओं तालाब, तथा घड़ों में एकत्रित करने के संदर्भ में बताया गया है। जो यह बताता है कि तत्कालीन रिग्वैदिक आर्य जल का महत्व समझते थे। जल को आरोग्य वर्धक तथा रोगनिवासक कहा गया है।
रिग्वैदिक नदियाँ:- रिग्वेद के अनेक स्थलों पर नदियों का जल उल्लेख हुआ है वर्तमान में भी अस्तित्व में है परन्तु कुछ विलीन हो चुकी है या अपना अस्तित्व खो चुकी है। वर्तमान में भी नदियां तो किसी भी राष्ट्र की प्राणदायिनी शक्तियां होती हैं। रिग्वेद के लगभग तीन स्थलों पर २० नदियों का उल्लेख हुआ है। नदी सूक्त ;१०/७५द्ध में नदियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख है तथा यह बताया गया है कि नदियों को इन्द्र लाया। यह भी उल्लेख किया गया है नदियां व्यक्ति को पापों से मुक्त करके जीवन को पवित्र करती हैं। अर्थवेद में इन्हें देवी स्वरूप बताकर कहा गया है कि ममतामयी मां होकर इन्होंने मनुष्य की भौतिक आकांक्षाओं को पूरा किया .

उपलब्ध नदियाँ:- रिग्वैदिक नदियाँ जो आज से हजारों वर्ष पूर्व थी तथा इनका उल्लेख रिग्वेद एवं वेदों तथा उपनिषद, एवं ब्राम्हण ग्रंथों में आया है वर्तमान में भी अस्तित्व में है तथा ईश्वर की सृष्टि का वर्णन करती हैं। जो मानव हेतु रची गयी।

गंगा - तीन बार इसका उल्लेख रिग्वेद में आया है। नही सूक्त में सर्वप्रथम गंगा का वर्णन आया है। जिससे उसकी श्रेष्ठता सि( होती है। यह नदी वर्तमान में सम्पूर्ण उत्तर भारत में बहती है। तथा भारतीय विख्यात तीर्थ स्थल इसके किनारे पाये जाते हैं।

यमुनाः- रिग्वेद में तीन बार इस नदी का उल्लेख मिलता है।सरस्वतीः- लगभग ४० बार इस नदी का उल्लेख आया है। इसे माता के रूप में बताया है इसका उदगम स्थल मीरापुर पर्वत तथा बीकानेर में विलुप्त होता बताते हैं। प्रयाग में गंगा यमुना में मिल गयी हैं तथा रिग्वेदिया सप्त सरिताओं में एक है। "इस नदी को सबसे अधिक वेग वाली तथा जलाशय में सब नदियों से बढ़कर बताया गया है। अन्य नदियां तो उसमें जाकर इस प्रकार मिलती है जैसे रंभाती गौवें अपनी बछड़ों के पास दौड़कर जाती हैं।'' उपरोक्त नदियों के अलावा गोमती, सरयू, वितस्ता, झेलम, इत्यादि नदियों का भी उल्लेख आता है। परन्तु नर्मदा जो विशेषतः मध्य प्रदेश में बहती है जो वर्णन कहीं भी नहीं पाया जाता है।

Monday, June 15, 2009

जल के विषय में प्रचलित मिथक

जल के विषय में कइZ मिथक प्रचलित हैं। यद्यपि यह मिथक है जिन्हें हम प्रभाविक नहीं मान सकते हैं परन्तु इनसे हमें यह अवश्य पता चलता है कि जल कितना पवित्र तथा बहुमूल्य है।वैदिक मिथ: एक चमत्कारिक घटना पायी जाती है, जिसमें अधिकार ब्रम्हाण्डीय देवता जल में विचरण करते हैं, वरूण देवता जो प्रकृति पर आधिकार रखते हैं, उनका पानी से बड़ा गहरा संबंध बताया गया है। मित्र के साथ मिलकर वह वषाZ का कारण होते हैं तथा इन्द्र के साथ मिलकर वह यह घोषणा करते हैं कि ‘‘वह मैं हूँ जो सम्पूणZ जल में फैला हुआ ;दौड़ताद्ध हूँ।’’ वरूण को पानी का अभिन्न भाग बताया गया है। जिसे इस प्रकार वणिZत किया गया है ‘‘वह ;वरूणद्ध जल में विश्राम करता है तथा उसका स्वणZमय घर उस पर बना हुआ है दो समुद्र उसकी अंतड़ियां हैं पानी की प्रत्येक बूंद में वह छुपा हुआ है।’’ यद्यपि यह मिथ है परन्तु यह स्पष्ट है कि पानी की बूंद में यदि देवता हैं तो अवश्य ही जल को अपवित्र नहीं करना है।साइबेरियन मिथ:- इस प्रकार पाया जाता है कि प्रारम्भ में जल सब ओर था, इसी समय डोह जो प्रथम शामनी और समुद्र के जल में पक्षयिों के साथ उड़ रहा था तथा कहीं भी विश्राम न पा सका तब उसने रक्तमय छाती युक्त दुष्ट से कहा कि समुद्र में गोता लगा कर कुछ पृथ्वी लाओ। तीसरे प्रयास में वह गोता लेकर अपने साथ कीचड़ लाया जिसे डोह ने बफाZच्छादित किया तथा यह जल बन गया। इसी प्रकार आस्टेªलियाइZ परंपरा में भी पृथ्वी को जलमग्न बताया गया है तथा कइZ आत्माओं के विचरण करना भी बताया गया है। उपरोक्त तथ्यों के अध्ययन से हम यह कह सकते हैं कि जल का स्थान सृष्टि में है तथा शुद्ध एवं पवित्र जल मनुष्य के जीवन हेतु अत्यंत महत्वपूणZ है वेद संहिता में जल को अत्यंत सम्मान दिया गया है तथा सम्पूणZ सृष्टि से इनका संबंध बताया गया है।

Sunday, June 14, 2009

वेदों ने भी बताया जल का महत्व भाग 1

जलः- संस्कृत शब्द आपः है। वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत हिन्दी कोश में इसका गुण बताया गया है। स्फूर्तिहीन ठंडा, शीतल तथा जड़। हिन्दु धर्मकोश में इसकी उत्पत्ति इस प्रकार बतायी गयी है ÷÷पृथ्वी के परमाणुकरण स्वरूप से विराट पुरूष ने स्थूल पृथ्वी उत्पन्न की तथा जल को भी उसी कारण से उत्पन्न किया।'' इसी प्रकार पुरूष सूक्त के सत्तरहवें मंत्र में कहा गया है कि परमेश्वर ने अग्नि के परमाणुओं के साथ जल के परामाणुओं को मिलाकर जल की रचना की। जल वायु के बाद पृथ्वी सम्पूर्ण रूप से वितरित तत्व है। तथा ७५ः भाग पृथ्वी को घेरे हुये हैं। न केवल भारत वरन्‌ विश्व के अनेक प्राचीन देशों में तथा प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यताओं में जल का विस्तृत विवरण है। तथा इसे सर्वोच्च महत्ता दी गयी है जल न केवल मनुष्य के जीवन का महत्वपूर्ण भाग है वरन्‌ उसके धार्मिक जीवन को भी प्रभावित करता है। प्रजनन शक्ति से भरपूर होता है तथा रोगों को नाश करने में भी यह अत्यंत लाभदायक है। बशर्ते वह शु( जल होना चाहिए। )ग्वेद का एक सूक्त जल की महत्वता को इस प्रकार बताता है। अत्स्वन्तरमृतंमप्सु भेंषजमपामुव प्रशंस्तये। देवा्‌ भक्त वाजिनः॥हे विद्वान पुरूषो, जलों के भीतर जो भार डालने वाले रोगों के निवारण करने वाला अमृत रूप रस है तथा जल में ही सब रोगों को दूर करने वाला बल भी है, उसको जानकर जल की क्षमता का ज्ञान प्राप्त कर बलवान हो जाओ। रिग्वैदिक काल में जल को आपः देवता कहा गया है तथा ऐसा माना जाता है कि यह हिंद ईरानी देवता है। जल का संबंध इंद्र देवता से भी है तथा रिग्वेद के लगभग एक चौथाई मंत्रों में यह संबंध प्रगट है। इंद्र को ÷÷मनुष्य रूप से यह वर्षा का देवता है जो कि अजावृष्टि अथवा अंधकार रूपी दैत्य से यु( करता तथा अवरु( जल को विनिर्मुक्त बना देता है। आपः जो जल का देवता है जिनसे यह प्रार्थना की गयी है कि वह सभी प्रकार के जलों से हमारी रक्षा करें समुद्र का जल नदी का जल, कूप तथा तालाब के जल से भी हमारी रक्षा करें। उपरोक्त मंत्र से यह प्रतीत होता है कि रिग्वेद काल में भी जल को तालाबों तथा कूपों में एकत्रित किया जाता था।जल का सेवनः- रिग्वेद के एक मंत्र में जल के देवता आपः को इस प्रकार बताया गया है ÷÷आपः देवता औषधियों से युक्त है, इसीलिये पुरोहितों को इनकी स्तुती हेतु तत्पर रहना चाहिये।'' एक मंत्र में इस प्रकार बताया गया है कि ÷÷इनकी स्तुती मात्र से मानव रोग तथा पाप से मुक्त हो जाता है।'' तत्कालीन रिषियों तथा मुनियों ने तथा आर्यों ने जल की महत्वता तथा उसके गुणों को पहचाना था अतः उपरोक्त मंत्रों की रचना उन्होंने की तथा यह बताया कि "हे जल, इस जीवन में तुम्हें हम अनुकूलता से सेवन करते हैं, तुम्हारे रस स्पर्श तथा तुम्हारे स्वादगुण से हम सम्पन्न होते हैं।.......... हमें तेजस्वी कीजिये।'' जल का संबंध न केवल अग्नि से है वरन्‌ कई पौधों से भी इसका संबंध है। जानवरों विशेषतः सर्प सबसे महत्वपूर्ण है जिससे इसका संबंध है उनमें चीटियां तथा मेंढक भी सम्मिलित हैं। इन संबंधों से हम यह जानते हैं कि पर्यावरण की सुरक्षा यह प्राणी किस प्रकार से करते हैं। जल की तुलना मधु से की गयी है "तथा कहा है कि जल की लहरों में मधु के समान धनाड्यता है।''

Friday, June 5, 2009

रहिमन पानी राखिए.....

ग्लोबल वार्मिंग, पिघलते ग्लेशियर, नीचे जाता जल स्तर और इंसान द्वारा धड़ाधड़ किया जा रहा जल दोहन भयावह भविष्य की ओर इशारा कर रहा है। समूची मानव जाति पर पानी की कमी के बादल मंडराने लगे हैं। दुनिया भर के विद्वान और वैज्ञानिक चीख चीख कर कह रहे हैं कि अगर इंसान ने इस दिशा में ध्यान न दिया तो पानी के लिए दुनिया में जंग हो सकती है। आज जिस बात को वैज्ञानिक कह रहे हैं उसे हमारे मनीषी हजारों हजार साल पहले से जानते थे। केवल वैदिक ही नहीं समस्त सभ्यताओं और धर्मों ने पानी के महत्व को स्वीकार कर इसे स्तुतियोज्ञ माना था। वैदिक संहिताओं में पंचमहाभूतों का वर्णन किया गया है तथा उनके महत्व को बताया गया है। अवश्य ही यह पर्यावरण संतुलन में अत्यंत सहायक है तथा एक दूसरे पर निर्भर है। प्रकृति में पांच आकारो में उपस्थित है, आकाश, वायु, अग्नि ;तेजद्ध, जल ;आपःद्ध तथा पृथ्वी है। दर्शनशास्त्र में इनका विशेष महत्व है। तत्कालीन वैदिक संस्कृति तथा संदर्भ में उपरोक्त तत्वों का क्या महत्व था हम वैदिक संहिताओं में स्पष्ट रूप से पाते हैं। वेदों के कई सूक्त इनकी प्रशंसा में रचे गये हैं जिनका वर्तमान मानवीय जीवन से गहरा संबंध है। प्राचीन काल में ही नहीं रहीम और कबीर ने भी पानी की बहुमूल्यता को समझा तभी तो कहा था कि रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। लेकिन आज हम इसे बेकार कर रहे हैं। इसे संरक्षित करने की आवश्यकता है। इस विषय पर विस्त्रत आलेख इस श्रंखला में प्रकाशित हैं।

Sunday, May 31, 2009

खुदा भी प्यार करने वालो के साथ रहते हैं

एक चिडिया को एक सफ़ेद गुलाब से प्यार हो गया , उसने गुलाब को प्रपोस किया , गुलाब ने जवाब दिया की जिसदिन मै लाल हो जाऊंगा उस दिन मै तुमसे प्यार करूँगा , जवाब सुनके चिडिया गुलाब के आस पास काँटों में लोटनेलगी और उसके खून से गुलाब लाल हो गया, ये देखके गुलाब ने भी उससे कहा की वो उससे प्यार करता है पर तब तकचिडिया मर चुकी थी इसीलिए कहा गया है की सच्चे प्यार का कभी भी इम्तहान नहीं लेना चाहिए, क्यूंकि सच्चा प्यारकभी इम्तहान का मोहताज नहीं होता है , ये वो फलसफा; है जो आँखों से बया होता है , ये जरूरी नहीं की तुम जिसेप्यार करो वो तुम्हे प्यार दे , बल्कि जरूरी ये है की जो तुम्हे प्यार करे तुम उसे जी भर कर प्यार दो, फिर देखो येदुनिया जन्नत सी लगेगी प्यार खुदा की ही बन्दगी है ,खुदा भी प्यार करने वालो के साथ रहते हैं

Saturday, May 30, 2009

'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है

सब इंद्रियों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर कर, प्राणों को सहस्रार में पहुंचाकर ऊंकार का उच्चारण ही ध्यान की सम्यक विधि है। प्रणव शब्द का अनवरत उच्चारण व मन का उस शब्द में तादात्म्यीकरण मनुष्य को अद्भुत शांति व सुख के साम्राज्य में ले जा सकता है। आज यह तो सर्वविदित ही है कि 'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है, उसकी क्षमताओं का पुनर्नवीनीकरण होता है और कार्यक्षमता का वर्धन होता है। गीता हमें मानवता का पाइ भी पढ़ाती है। आल समूचे विश्व में जाति व सम्प्रदायगत वैमनस्य का जहर व्याप्त है। सर्वत्र घृणा, अहंकार, नफरत, स्वार्थपरता का तांडव है ऐसे में 'गीता' का यह उद्धोष मानव-मन को सचेत कर देता है -

Friday, May 15, 2009

मानव का सर्वोच्च रखवाला, चिंता करने वाला स्वयं परमेश्वर है।

जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि इस पृथ्वी पर हिंसा एवं आतंकवाद का कारण मनुष्य का पाप है। इस सन्दर्भ में बाइबिल धर्मग्रंथ के उत्पत्ति ;प्रथम पुस्तकद्ध के चौथे सोपान में कैन एवं हाबिल नामक दो भाइयों की कहानी है जिसमें क्रोध, स्वार्थ, ईर्ष्या स्वरूप कैन अपने छोटे भाई की हत्या कर देता है और परमेश्वर जब उससे कहते हैं कि - तेरा भाई कहां है? तो वह कहता है कि "क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूं।'' इस घटना में मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार, सम्बन्ध एवं ईश्वर का मनुष्य के साथ व्यवहार की सुन्दर झलक मिलती है। वास्तव में मानव की यही मनोवृत्ति कि "क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूं'' आज संसार में हिंसा एवं आतंकवाद का कारण है। स्वार्थ, ईर्ष्या को जन्म देता है और ईर्ष्या मनुष्य को यह सीख देती है कि वह अपने भाई, पड़ौसी, सहधर्मी का रखवाला नहीं है। महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हम इस संसार में एक दूसरे के रखवाले हैं। परमेश्वर ने हमें यह दायित्व सोंपा है और यही परमेश्वर की श्रेष्ठ आज्ञा है। मानव का सर्वोच्च रखवाला, चिंता करने वाला स्वयं परमेश्वर है। इसका प्रमाण हिंसा और आतंकवादी गतिविधियों के मध्य स्वयं प्रभु यीशु में देहधारी होकर कलवरी क्रूस से उन्होंने दिया, जो सम्पूर्ण मानव को पाप से छुटकारा है। प्रिय मित्रो, पवित्र ग्रंथ बाइबिल में हिंसा एवं आतंकवाद का कोई स्थान नहीं है। इसके स्थान पर क्षमा, ईश्वरीय प्रेम तथा आपसी सम्बन्धों की मधुरता/मिठास को सराहा गया है, जो हिंसा एवं आतंकवाद के लिए उचित एवं न्यायोचित जवाब है। प्रार्थना एवं आशीर्वाद के साथ.......................

Tuesday, May 12, 2009

आतंकवाद, हिंसा और युद्ध किसी भी रूप में हो नुकसान हमेशा मानव जीवन का ही हुआ है।

सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद एवं हिंसा तथा युद्ध की विभीषिका से रूबरू है। इस महाराक्षस ने मानव अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। हिंसक हथियार इतने प्रभावकारी बन चुके हैं कि उनका उपयोग इस पृथ्वी की सतह से जीवन को हमेशा के लिए समाप्त कर सकता है। हिंसा और आतंकवाद का अपना इतिहास रहा है और विश्व के प्रमुख धर्मों में इनको किसी न किसी रूप में स्थान दिया गया है तथा उचित एवं अनुचित युद्ध की संज्ञा दी गई है। आतंकवाद, हिंसा और युद्ध किसी भी रूप में हो नुकसान हमेशा मानव जीवन का ही हुआ है। इनके कारण परमेश्वर की सर्वोत्तम रचना को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है। मसाही कलीसिया का इतिहास भी युद्ध एवं आतंकवाद से अछूता नहीं रहा जिसका प्रमाण रहे हैं जो दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम दशक में हुए और सम्पूर्ण यूरोप इसमें झुलस गया। निर्दोषों के खून से सम्पूर्ण यूरोप लाल हो गया। यहां पर एक प्रश्न मानवीय दृष्टिकोण से उठता है कि, क्या मसीही कलीसिया का निर्माण निर्दोषों के रक्त पर हुआ है? मसीही दृष्टिकोण से हिंसा, आतंकवाद का कारण मनुष्य का पाप है। अर्थात ईश्वर की आज्ञाओं के विरुद्ध मानव का विद्रोह तथा परमेश्वर की इच्छा की अवहेलना कर जब मनुष्य अपनी इच्छा का दास बन जाता है तो वह स्वार्थ एवं अहं के मार्ग पर चलने लगता है। जो भी उसके इस मार्ग में बाधा डालता है उसको मार्ग से हटाने हेतु मनुष्य हिंसा और आतंकवाद का सहारा लेता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि जब प्रभु यीशु ने लोगों को यह शिक्षा दी कि वे पाप का मार्ग त्याग कर ईश्वर की क्षमा को स्वीकार करें और ईश्वर के राज्य में प्रवेश करें तो मानव पाप ने, जो उसके स्वार्थ का परिणाम था, इसे स्वीकार न किया और प्रभु यीशु मसीह को क्रूस पर लटका दिया।यह विश्व के इतिहास की सबसे क्रूरतम एवं प्रायोजित आतंकवाद की घटना है। मसीह का क्रूूस पर लटकाया जाना हिंसा और आतंकवाद का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता। इसके विपरीत प्रभु यीशु का क्रूस पर से यह संबोधन कि "हे पिता इन्हें माफ कर क्योंकि यह नहीं जानते कि क्या करते हैं।'' ईश्वरीय दया, क्षमा एवं प्रेम का सवोत्कृष्ट उदाहरण है। शेष कल ......

Thursday, May 7, 2009

शैतान की पुष्टि के लिए किया गया युद्ध धर्मयुद्ध नहीं वरन अधर्म का साथ होता है।

एक बड़ा रोचक और मार्मिक मामला इस दौरान हमारे समक्ष आया। हमने अपने एक मुस्लिम विद्वान साथी से इस विषय पर कुछ लिखने को कहा तो वह बोले, संजय जी बड़ा सेंसिटिव इश्यू है। अगर हम कठमुल्लों की भाषा बोलते हैं तो हमारे अंदर जेहाद होने लगता है और अंदर की बात लिखते हैं तो बाहर से जेहादी हमले का खतरा है। उपरोक्त दो पंक्तियां इतना कुछ कह देती हैं कि पूरी थीसिस लिख जाती है। यही सच भी है। धर्म के ठेकेदारों नं अपनी दुकान चलाने की गरज से इस शब्द का बेजा इस्तेमाल करने में कोई कोताही नहीं की है। धार्मिक संगठन चाहे किसी भी धर्म का हो वहां तक ठीक है जहां तक वह अपने अपने को सुधारने के लिए अपने से युद्ध करता है लेकिन जब वह अवनी स्वार्थपूर्ति के लिए दूसरे के नुकसान को अमादा हो तो वह धर्म कहां? वह तो अधर्म है। अर्जुन को कृष्ण ने किसी का राज छीनने के लिए युद्ध करने को नहीं कहा। राम ने रावण का वैभव या राज छीनने की गरज से युद्ध नहीं किया। बुद्ध ने हिंसा करने के लिए युद्ध कला नहीं सिखाई, सिख गुरुओं ने किसी की सत्ता छीनने के लिए युद्ध की आज्ञा नहीं दी और मुहम्मद साहब ने भी मानवता को नष्ट करने के लिए या उसे नुकसान पहुंचाने की गरज से युद्ध को फर्ज करार नहीं दिया था। यह तो हमारा स्वार्थ है, इंसान पर छाई शैतानियत है जो धर्मयुद्ध के नाम पर बेगुनाहों के कत्लेआम करा रही है। महाराजजी कहते हैं कि हर व्यक्ति वैराग्य से पूर्व धर्मयुद्ध करता रहता है। यह युद्ध कहीं बाहर नहीं, किसी दूसरे से नहीं, स्वयं के अंदर छिपे शैतान से है। वही अर्जुन है जो इस आंतरिक युद्ध में अंदर बैठे शैतान को पराजित कर देता है। सदगुरु सारथी के रूप में सदैव उसके साथ है। जो बिना सारथी के धर्मयुद्ध के नाम पर दूसरों की हत्या करे या नुकसान पहुंचाए वह जाने अनजाने अंदर के शैतान द्वारा संचालित होता है। और शैतान की पुष्टि के लिए किया गया युद्ध धर्मयुद्ध नहीं वरन अधर्म का साथ होता है। आज पूरा विश्व आतंकवाद की चपेट में है। देश के देश बर्बाद हो रहे हैं। मानवता सिसक रही है और शैतान मानवता का लहू पीकर मस्त होकर अट्टहास कर रहा है। इसी संवेदनशील बिन्दु पर हमने कुछ चुने हुए विद्वानों के विचारों को ठीक उसी रूप में प्रकाशित करने का प्रयास किया है जैसे हमें मिले हैं।...

Wednesday, May 6, 2009

धर्म युद्ध के मायने ......

भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को युद्ध करने के लिए न केवल प्रेरित किया वरन तब तक उसका पीछा न छोड़ा तब तक कि उसने अपने गांडीव की प्रतंचा न चढ़ा ली। भगवान श्री राम ने भी रावण को युद्ध में परास्त कर विभीषण का राजतिलक किया और सीता को वापस प्राप्त किया। इससे पूर्व भी भगवान शिव द्वारा अनेकानेक युद्धों में अपने गणों को भेजने के प्रमाण मिलते हैं। भारत में ही बुद्ध और जैन मतों के प्रवर्तकों ने किसी भी प्रकार की हिंसा का निषेध किया। बुद्ध ने चीन और जापान में वहां के निवासियों को समुराई और कुंगफू जैसी युद्धोपयोगी कलाओं को सिखाया। सिंख धर्म के अंतिम गुरु ने भी सिखों को युद्ध कौशल में न केवल पारंगत किया वरन युद्ध के लिए प्रेरित किया और उनको यु(ोपयोगी परिधान धारण कराए। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने तो स्वयं ही अनेक युद्धों में भाग लिया और जेहाद करने की आज्ञा दी। जेहाद को खुदा का पैगाम बताया और फर्ज में शुमार किया। आज इन्हीं आधारों को लेकर दुनिया में हिंसा का बोलबाला हो रहा है। धर्मयुद्ध के नाम पर स्वार्थी लोग अपने हैवानी मंसूबों को पूरा करने के लिए आतंकवाद फैला रहे हैं। स्थिति इतनी बदतर हो चुकी है कि समझदार लोग यह जानते हुए भी कि यह सब गलत हो रहा है चुप्पी साधे बैठे हैं। क्रमशः कल भी ......

Sunday, May 3, 2009

सारे जग का गुरू आधार, निराकार हो या साकार


वाणी जब कठोर हो जाए, दम्भ-द्वेष-पाखण्ड छुड़ाए॥

शिष्य पे गुरू की करुणा भारी, भक्त सदा रहे आभारी॥

जापर कृपा रुद्र की होई, सो उसको भय नाहिं कोई॥

मोह माया के फंद काट दें, मन के पंच विकार छाँट दें।

सारे जग का गुरू आधार, निराकार हो या साकार ॥

Saturday, May 2, 2009

गुरु ज्ञान जो हृदय में आए, ...............

गुरु ज्ञान जो हृदय में आए, मन के सारे भरम नसाए॥
गुरु चरणन में प्रीत घनेरी, समझो माया उसकी चेरी॥
रुद्राज्ञा में जो जन चलते, कलियुग उनके पास न फटके॥
दिव्य रुद्र का ध्यान जो धरते, चमत्कार नित देखा करते॥
चरणन में जो शीश नवाए, परम पद का मारग पाए॥

Friday, May 1, 2009

भवसागर में गुरु ही नैया


भवसागर में गुरु ही नैया, भ्राता, पिता, मित्र और भैया॥

अन्धकार में दीप रुद्र हैं, जग के नाते सभी क्षुद्र हैं॥

मन का दीपक, प्रेम की बाती, भाव है तेल करें आराती॥

सो साधक हो दीन पुकारे, धाय रुद्र जी कण्ठ लगावें॥

ज्ञान, ध्यान, औ योग बतायें, भक्ति बिराग मर्म समझायें।

भागवत ज्ञान की गंग बहाऐं, हर-हर कर श्रावक नहाऐं॥

Monday, April 27, 2009

गीता आज भी उपयुक्त व अनुकरणीय है।

गीता एक सद्गृहस्थ अर्जुन को दिया उपदेश है जहां मृत्यु की भयावहता से कर्म क्षेत्र से पलायन करने की संतुति नहीं है। वहां तो नि:संग भाव से पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण मनोयोग, पूर्ण शक्ति से उत्कृष्ट कर्म करने की शिक्षा दी गयी है। गीता में सर्वत्र उल्लास है, उत्साह है, कर्तव्यनिष्ठा है, जीवन का मधुर संगीत है। यह एक योग्य शिक्षक द्वारा योग्य शिष्य को प्रदत्त जीवन जीने की अनूठी शैली है जो आज भी उतनी ही उपयुक्त व अनुकरणीय है।

गीता आज भी उपयुक्त व अनुकरणीय है।

गीता एक सद्गृहस्थ अर्जुन को दिया उपदेश है जहां मृत्यु की भयावहता से कर्म क्षेत्र से पलायन करने की संतुति नहीं है। वहां तो नि:संग भाव से पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण मनोयोग, पूर्ण शक्ति से उत्कृष्ट कर्म करने की शिक्षा दी गयी है। गीता में सर्वत्र उल्लास है, उत्साह है, कर्तव्यनिष्ठा है, जीवन का मधुर संगीत है। यह एक योग्य शिक्षक द्वारा योग्य शिष्य को प्रदत्त जीवन जीने की अनूठी शैली है जो आज भी उतनी ही उपयुक्त व अनुकरणीय है।

Saturday, April 25, 2009

गुरु का मान बखानते, वेद-पुराण अनन्त।


दिव्य, ज्ञानधन, तेजमय कृपा सिन्धु महाराज।

श्री श्री गुरुतर रुद्र जी पूरण करिए काज॥

रुद्र शरण, सेवा-चरण ज+ाके मन का ध्येय।

उसकी रक्षा सर्वविधि करते आप सनेह॥

गुरु का मान बखानते, वेद-पुराण अनन्त।

ऐसे सच्चे गुरु मिले, जैसे रुद्र भगवन्त॥

Friday, April 24, 2009

तुम्हारे प्रेम का सागर, उमड़ता है हृदय में अब।


अंधेरा छोड़ कर मैंने, उजाला पा लिया देखो।

जो विष के घूँट चिर पीऐ, वही अमृत बना देखो॥

अंधेरा..........................

अंधेरा जब भी घिर आए, पुकारो नाम तुम उनका।

तुम्हें अपना बनाने को, जमीं पर आऐंगे देखो॥

अंधेरा.........................

तेरी रहमत से हे! भगवन्‌, तुम्हारी मैं पुजारिन हूँ।

शरण में आ गई देखो, प्रभु अजमा के तुम देखो॥

अंधेरा..........................

यहीं श्र(ा की गाड़ी में, किनारा पा लिया मैंने।

द्वेष सब मिट गए मन से, सहारा पा लिया मैंने॥

अंधेरा............................

तुम्हारे प्रेम का सागर, उमड़ता है हृदय में अब।

मनुजता की मलाई का, करम करके तो तुम देखो॥

अंधेरा..............................

लिखी है कृष्ण ने गीता, और तुलसी ने भी रामायण।

महाभारत लिखी जिसने, उसे पढ़ कर तो तुम देखो॥

Wednesday, April 22, 2009

अंधेरा छोड़ कर मैंने, उजाला पा लिया देखो।

अंधेरा छोड़ कर मैंने,

उजाला पा लिया देखो।

जो विष के घूँट चिर पीऐ,

वही अमृत बना देखो॥

अंधेरा..........................

अंधेरा जब भी घिर आए,

पुकारो नाम तुम उनका।

तुम्हें अपना बनाने को,

जमीं पर आऐंगे देखो॥

अंधेरा.........................

तेरी रहमत से हे! भगवन्‌,

तुम्हारी मैं पुजारिन हूँ।

शरण में आ गई देखो,

प्रभु अजमा के तुम देखो॥

अंधेरा..........................

प्रस्तुति : श्रीमती अंजलि शर्मा

Sunday, April 19, 2009

ब्रह्मा की पूजा क्यों नहीं करते

पुराणों में कहा गया है कि ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया है। लेकिन फिर भी हम सृष्टि निर्माता की पूजा-अर्चना नहीं करते। क्यों? दरअसल, यह एक रहस्य है। भारत में केवल दो स्थानों पर ही ब्रह्मा का मंदिर है। एक दक्षिण भारत के कुंभ कणिम और दूसरा, उत्तर भारत के पुष्कर में। सच तो यह है कि भारत में ब्रह्मा पर आधारित कोई उत्सव या त्यौहार भी नहीं है।
हमारे मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि पूर्वजों ने सृष्टि के रचयिता की पूजा क्यों नहीं शुरू की? दरअसल, यह जानने के लिए हमें गहन विचार करना होगा। सभी धर्मों में यह बात कही गयी है कि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया है। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, ब्रह्मा ने स्वयं को समझने के लिए सृष्टि का निर्माण किया था। इस सृष्टि ने स्त्री का रूप लिया। उसका नाम पड़ा सतरूपा, जिसका अर्थ है- जिसके कई रूप हों। सच तो यह है कि सतरूपा के अनवरत बदलते रूप को देखकर ब्रह्मा उस पर मोहित हो गए। वे इतने आसक्त हो गए कि उसके पीछे भागने लगे। उसे अपने नियंत्रण और वश में करना चाहा। इसी वजह से हम ब्रह्मा की पूजा नहीं करते हैं। यहाँ तक कि उन्होंने चार सिर धारण कर लिए, ताकि वे सतरूपा को लगातार देख सकें। हालांकि सतरूपा के रूप बदलने के साथ ब्रह्मा ने भी कई रूप धारण किए। उनकी यही कोशिश आज भी जारी है।
मजे की बात यह है कि इस कोशिश में उनका पांचवाँ सिर भी निकल आया। ब्रह्मा की यह अवस्था देवताओं को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने ब्रह्मा को खूब धिक्कारा। क्योंकि एक पिता अपनी पुत्री (सृष्टि) के पीछे भाग रहा था। यह एक रूपक है, लेकिन लोग इसे सीधे अर्थ में समझने की भूल करते हैं। इसका वास्तविक अर्थ यह है कि हम दुनिया का निर्माण करते हैं और फिर उसी पर मोहित हो जाते हैं। इसमें जो सुख-दुख हैं, वे हमारे मन से पैदा होते हैं। इस तरह हम माया, भ्रम और पाश में जकड़ जाते हैं और इसीलिए हम पूजनीय नहीं रह पाते हैं अर्थात्‌ ब्रह्म भी पूजनीय नहीं हैं। कुछ समय बाद देवताओं ने ब्रह्मा की अवस्था की ओर शिवजी का ध्यान आकृष्ट कराया। उन्होंने अपना खड्ग उठाया और ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया। यह पांचवां सिर अहंकार है। यही अहंकार कहता है कि दुनिया मैंने रची है। शिवजी को इसी वजह से 'कपालिन' भी कहते हैं।
यह कहानी हमें यह संदेश देती है कि हम अपनी दुनिया का निर्माण करते हैं और उसके साथ ही हमारे अंदर अहंकार पैदा होता है। लेकिन शिव की उपासना से हम इस अहंकार को खत्म कर सकते हैं। हम सभी ऐसा मानते हैं कि शिव और ब्रह्मा के बीच में विष्णु रहते हैं। भगवान विष्णु ब्रह्मा की तरह मोहासक्त नहीं हैं। वे संसार से खुद को अलग रखते हैं। उनमें वैराग्य है, फिर भी भौतिक जगत से जुड़े हुए हैं। उनका यह जुड़ाव कर्मयोग है। वे काम करते हैं, लेकिन फल की चिंता नहीं करते। यह अवधारणा समझ में आ जाए, तो हम पाएंगे कि हमारे चारों ओर ब्रह्म ही ब्रह्म हैं। अहंकारी भाव से हम अपनी दुनिया में रमे रहते हैं और दूसरों की दुनिया की परवाह नहीं करते। हम ब्रह्मा की पूजा भले ही न करें, लेकिन हम उन्हें समझ सकेंगे। ब्रह्मा ईश्वर नहीं हैं। वे हम से ज्यादा अलग नहीं हैं। वे अपना अस्तित्व खोज रहे हैं। ठीक उसी तरह हम सभी के अंदर ब्रह्मा हैं। दरअसल, उनकी तरह ही हम भी खुद को जानना चाहते हैं। उस खोज के बगैर हमें शांति नहीं मिलती।

Saturday, April 18, 2009

त्तेर्थ यात्रा के समय यह भी ध्यान रखें

५। धर्मशालाओं को छोड़ते समय कमरे की सफाई कर दें। हमारी गन्दगी कोई अन्य साफ करे तो तीर्थ का फल क्षीण होता है।
६। मन्दिरों, घाटों आदि को गन्दा न करें, इतनी अधिक संख्या में लोग तीर्थों पर जाते हैं। स्थान-स्थान पर भोजन व प्रसाद के दोने, पत्तल फेंकना, पालीथिन फेंकना व बिना सोचे विचारे मन्दिरों में स्थान-स्थान पर प्रसाद फेंकना व दीवारों पर रोली-सिंदूर आदि के हाथ पोंछना, तीर्थ स्थानों की शोभा को नष्ट करता है, उन्हें दूषित करता है। ऐसे तीर्थयात्रियों को तीर्थयात्रा से अच्छा फल प्राप्त नहीं हो सकता। तीर्थों पर बड़ी सावधानी से रहें, कि हमसे कहीं गन्दगी ना हो।
७। तीर्थ पर जाएं तो अपनी किसी गलत आदत को छोड़ने का संकल्प करके आएं। तीर्थ पर प्रभु के प्रेम का इससे बड़ा सुफल नहीं हो सकता कि हम उसकी छाप अपने आचार-विचार पर डाल लें। प्रेम में बुरी आदत सहजता से छूट जाती है। अतः तीर्थों पर जो लोग कुछ पसंद की चीज न खाने का, नए कपड़े न खरीदने आदि का संकल्प लेते हैं, उसके स्थान पर अपनी बुरी लत या आदत जैसे- सिगरेट, शराब, गाली देना, चोरी करना, कपट व द्वेष करना, घमंड आदि को छोड़ने का संकल्प लें तो यह तीर्थयात्रा पूरे जीवन को ही स्वर्गमय बना सकती है।
८. कहते हैं कि माता-पिता की सेवा किए बिना तीर्थ जाने का फल नहीं मिलता। अतः घर पर माता-पिता तथा अन्य गुरूजनों की सेवा करें। उनका आशीर्वाद लेकर ही तीर्थयात्रा का पूर्ण लाभ मिल सकता है।
९. तीर्थस्थल पर भी साधुजनों की सेवा करें। भक्तजनों के सामान व जूते-चप्पल की सम्भालने की व्यवस्था करें। सेवा इस भाव से करें कि हर रूप में नारायण की सेवा हो रही है। सेवा करने से मन नीता होता है व अहंकार कम होता है। उपरोक्त बातों का ध्यान रख कर की गई तीर्थयात्रा सदैव फलित होती है। भक्ति पुष्ट होती है तथा ईश्वर से व सर्वजन से प्रेम बढ़ता है।

Thursday, April 16, 2009

तीर्थ यात्रा के समय ध्यान देने योग्य बातें

तीर्थयात्रा करने तो सभी जाते हैं, पर तीर्थयात्रियों के लिए ग्रन्थों में कुछ बातें कही गई हैं, जिन पर अमल करें तो तीर्थयात्रा अधिक सरल व सुफलदायिनी हो सकती है। इनमें से कुछ ध्यान देने योग्य बातें हैं-

१। अहंकार को त्याग कर जाएं, सभी रूप में नारायण के दर्शन करें। तीर्थों पर इसका अभ्यास प्रारम्भ करें फिर समस्त स्थानों पर ऐसा ही भाव बना रहे- "प्रेम से मिलना इस दुनियाँ में, सबसे तू इनसान रे। जाने कब किस रूप में तुझको, मिल जाए भगवान रे॥'

२। तीर्थ पर जाकर मन में गलत भाव ना लाएं। जूते चुराना, मोबाइल व पर्स मार लेना, ऐसे दुष्कर्म करना तो दूर इनका विचार भी मन में ना आए। अन्य क्षेत्रों में किए हुए दुष्कर्मों की मुक्ति तीर्थों पर जाकर पाई जा सकती है, पर तीर्थों पर किए हुए पापों की कहीं मुक्ति नहीं।

३। असुविधा में भी प्रसन्न रहें। प्रभु प्रेम की ख़ातिर सब कुछ हँस कर सह जाना ही सच्ची तीर्थ यात्रा है। धर्मशालाओं में, कतारों में, यात्रा के दौरान सभी को असुविधा व प्रतीक्षा का सामना करना पड़ता है। ऐसे में अधीर होकर, एक दूसरे को अपशब्द ना कहें। प्रभु के प्रेम के रंग में ऐसे डूबें कि असुविधा का एहसास ही न हो। हमारे प्रेम के चिराग की प्रभु ऐसे हवा के झोंकों से परीक्षा लेते हैं। सब्र से काम लें तो तीर्थयात्रा पर सभी को भरपूर आनन्द मिलेगा।

४. तीर्थों पर अहंकार रहित होकर दान करना जरूरी है। दान करने से पाप क्षीण होते हैं व धन शु( होता है। साधुओं व अन्य पात्रों को दान देना प्रभु को प्रिय है। इससे नट के रूप में नारायण की सेवा होती है।

Wednesday, April 15, 2009

ध्यान से आसक्ति या मुक्ति तक

ध्यान एक ऐसी स्थिति है जब मनुष्य का मन - मस्तिष्क किसी व्यक्ति विषय या वस्तु की और लगा हो । पर यह ध्यान लगने और टूटने वाला होता है जैसे एक कक्षा में पढ़ाई चल रही है सब छात्रों का ध्यान पाठ में लगा है सब पूरे मनो योग से लेक्चर को सुन रहे हैं तभी कक्षा में कोई प्रवेश करे या कोई सामान गिर जाए तो क्या होता है ,सबका ध्यान उस और बह जाता है ।वैसे तो संसार में कुछ भी सदैव टिकने वाला नहीं पर ध्यान मन के आधीन होने के कारण बहता ही रहता है क्योंकि मन सेमान और चंचल है ।

Tuesday, April 14, 2009

विष न घोलो प्यार में, चलते बनो ......

विष न घोलो प्यार में, चलते बनो।
जीत मानो हार में, चलते बनो॥
धूप, बरखा या कि फूलों का मौसम।
प्यार हो व्यवहार में, चलते बनो॥
तरह-तरह की सज गयी हैं दुकाने।
क्रेता आते कार में, चलते बनो॥
जागने के लिये उपवास करते।
सो लिये संसार में, चलते बनो॥
तितलियों के फूल सपने देखते।
झाँको न मन के द्वार में, चलते बनो॥
गाँव वाले मुझे अपना समझते।
प्यार मुश्किल प्यार में, चलते बनो॥
यह नया युग है, नये हैं लोग भी।
सुख न काम-विकार में, चलते बनो॥
प्रस्तुति : रमेशचंद्र शर्मा 'चन्द्र'डी-४, उदय हाउसिंग सोसाइटीबैजलपुर, अहमदाबाद

Monday, April 13, 2009

गुरु के पास जाना ही सच्चा तीरथ

तीर्थयात्रा की महिमा में तो सभी धर्मों द्वारा कहा गया है। वह स्थान जो गुरुओं से किसी न किसी रूप में जुड़े हों, तीर्थ कहलाते हैं। इन स्थानों पर कुछ ऐसी दिव्यता होती है कि वहाँ जाकर मनुष्य की प्रभु से लगन लगने लगती है। वह कतारों में खड़ा होकर सब्र से अपनी बारी की प्रतीक्षा करता है। लंगरों में खाकर खुद को सभी के बराबर महसूस करता है, भगवान की कीरत करता है। गुरुबानी व सबद सुनकर झूम उठता है। ऐसे ही स्थानों का माहौल मन को भक्ति के रंग में डुबो देता है। बार-बार तीर्थयात्रा करने से मन भगवान में लगने लगता है। पर गुरुनानक ने एक बात और कही है कि तीर्थ, तप, दान सब कुछ तभी सफल है, जब मन नीवा हो और मनुष्य विनयशील निरअहंकारी हो। यदि तीर्थ करके आए और अहंकार कर बैठे कि हम तो तीर्थ पर जाते हैं, हम तो बड़े दानी हैं, हमारी बड़ी तपस्या है तो ऐसी तीर्थयात्रा को गुरुनानक 'कुंजर स्नान' की संज्ञा देते हुए कहते हैं-

तीरथ, तप और दान करे, मन में धरे गुमान। नानक निष्फल जात है, ज्यों कुंजर स्नान॥

अर्थात्‌ जिस प्रकार हाथी स्नान करने के उपरांत पुनः अपने ऊपर धूल डाल लेता है, उसी प्रकार तीर्थयात्रा, तप और दान करने के बाद जो शु(ि व सत्कर्म का फल मिलना चाहिए। वह अहंकार करने से क्षीण हो जाता है। तीर्थयात्रा, तप व दान तीनों ही को ऐसा माने कि "प्रभु की कृपा से ही हुआ है, उन्हीं ने करा लिया, हम कुछ नाहीं।''

प्रस्तुति : सरदार रणजीत सिंह, अलीगढ़

Sunday, April 12, 2009

जैन मतानुसार भवसागर से पार उतरने का मार्ग बताने वाला स्थान ही तीर्थ


जैन दृष्टि से तो तीर्थ शब्द का एक ही अर्थ लिया जाता है, 'भवसागर से पार उतरने का मार्ग बताने वाला स्थान'। इसलिए जिन स्थानों पर तीर्थंकरों ने जन्म लिया हो, दीक्षा धारण की हो, तप किया हो, पूर्णज्ञान प्राप्त किया हो, या मोक्ष प्राप्त किया हो, उन स्थानों को जैनी तीर्थ स्थान मानते हैं। अथवा जहाँ कोई पूज्य वस्तु विद्यमान हो, तीर्थंकरों के सिवा अन्य महापुरुष रहे हों या उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया हो, वे स्थान भी तीर्थ माने जाते हैं। जैनों के तीर्थों की संख्या बहुत है। यहाँ सबके वर्णन शम्भव नहीं हैऋ क्योंकि जैन धर्म की अवनति के कारण अनेक प्राचीन तीर्थ आज विस्मृत हो चुके हैं, अनेक स्थान दूसरों के द्वारा अपनाए जा चुके हैं, कई प्रसि( स्थानों पर जैन मूर्तियाँ दूसरे देवताओं के रूप में पूजी जाती हैं। उदाहरण के लिए प्रख्यात बद्रीनाथ तीर्थ के मन्दिर में भगवान्‌ पार्श्वनाथ की मूर्ति बद्री-विशाल के रूप में तमाम हिन्दू-धर्मियों द्वारा पूजी जाती है। उस पर चन्दन का मोटा लेप थोपकर तथा हाथ वगैराह लगाकर उसका रूप बदल दिया जाता है, इसीलिए जब प्रातःकाल श्रृंगार किया जाता है, तब किसी को देखने नहीं दिया जाता। क्या आश्चर्य है जो कभी वह जैन मन्दिर रहा हो और शंकराचार्य द्वारा इस रूप में कर दिया गया हो, जैसा कि वहाँ के पुराने बूढ़ों के मुँह से सुना जाता है। अस्तु। दिगम्बर ही नहीं श्वेताम्बर आदि संप्रदायों के भी तीर्थ स्थान हैं। उनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्हें दोनों ही मानते-पूजते हैं और बहुत से ऐसे हैं जिन्हें या तो दिगम्बर ही मानते-पूजते हैं, या केवल श्वेताम्बर, अथवा एक संप्रदाय एक स्थान में मानता है तो दूसरा दूसरे स्थान में। कैलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, शत्रुंजय और सम्मेद शिखर आदि ऐसे तीर्थ हैं जिनको दोनों ही मानते हैं। गजपन्था, तुंगी, पावागिरि, द्रोणगिरि, मेडगिरी, सि(वरकूट, बड़वानी आदि तीर्थ ऐसे हैं जिन्हें केवल दिगम्बर परम्परा ही मानती है और आबू, शंखेश्वर आदि कुछ ऐसे तीर्थ हैं जिन्हें श्वेताम्बर संप्रदाय ही मानता है।

प्रस्तुति : पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री

Saturday, April 11, 2009

इस्लाम में हज है तीर्थ यात्रा

हज एक ऐसी पूजा है, जिसमें शारीरिक क्षमता व आर्थिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ये दोनों जिस किसी मुसलमान के पास हो, उसके लिए हज करना अनिवार्य है। कोशों में हज का अर्थ "किसी बड़े मक़सद का इरादा करना है।'' जिसके अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण कार्य महत्वपूर्ण समय में किए जाने होते हैं। उम्रभर में एक बार हर मुसलमान (मर्द हो या औरत ) को हज करना अनिवार्य है, पर इसके लिए भी कुछ नियम हैं कि किन लोगों पर हज फ़र्ज है- जो लोग ख़ुदा को खुश रखना चाहते हैं और जो हज के स्थान तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं। एक मुसलमान का बालिग़, आक़िल, आजाद होना और आर्थिक रूप से सम्पन्न होना हज की अनिवार्य शर्तें हैं। अगर कोई शख्स अपाहिज या फालिज है या इतनी उम्र हो चुकी है कि (जईफी) बुढ़ापे के कारण सवारी पर बैठ नहीं सकता, ऐसे लोगों पर ये भी फजर् नहीं है कि अपने बदले किसी अन्य से हज करने के लिए कहें और स्वयं तो उन पर क़र्ज़ है ही नहीं। यदि कोई अन्धा है पर सवारी अर्थात्‌ रुपया ख़र्च करने की क्षमता है, परन्तु उसे कोई साथ नहीं मिल पाता तो उस पर न तो हज की अनिवार्यता है, न अपने बदले किसी से हज करवाना। यदि महिला हज कर रही है तो उसके साथ उसके पति का होना या किसी महरम (वो शख्स जिससे निकाह होने वाला है, जो कि आक़िल (अक्ल वाला) बालिग़ होना अनिवार्य है। ) मनुष्य को हज पर जाने से पहले अपने कर्जों को चुका दिया जाना चाहिए, गुनाहों से तौबा की जाए, नीयत में मुहब्बत हो और अत्याचारों से दूर रहता हो, जिससे लड़ाई झगड़ा हो, उससे सफ़ाई कर ले, जो इबादतें रह गई हैं, उन्हें पूरा कर ले। ख़ुद को नुमाइश, अहंकार से दूर रखें, हलाल कमाई हो। किसी नेक आदमी को हमसफ़र बनाए ताकि जहाँ वह भटके, वह बताता रहे कि सही क्या है? इस्लाम के फ़र्ज़ नमाज , रोजा और जकात की भांति 'हज' भी अत्यन्त महत्वपूर्ण फ़र्ज़ है।
प्रस्तुति : डा- शगुफ्ता नियाज़
http://hindivangmaya.blogspot.com

Monday, April 6, 2009

बाइबिल में तीर्थ का महत्व

पवित्र शास्त्र बाइबल में इसरायली जब मिस्त्र देश में बंधुर गुलाम) थे तथा राजा फिरौन के अत्याचार से पीड़ित थे, परमेश्वर ने अपने दास मूसा को नियुक्त किया कि वह उन्हें इस परतंत्रता से छुटकारा प्रदान कराएं क्योंकि यहाँ वह भौतिक एवं आत्मिक रूप से परतंत्र थे। अपने परमेश्वर यहोवा की उपासना नहीं कर सकते थे, धार्मिक बलिदान नहीं चढ़ा सकते थे। मूसा के नेतृत्व में समस्त इसरायलियों को मिस्त्र की परतंत्रता से छुटकारा प्रदान किया गया और परमेश्वर ने उन्हें प्रतिज्ञा दी कि "मैं तुम्हें उस देश में स्थापित करूंगा, जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।'' लगभग १२०० ई. पू. में इसरायलियों का मिस्त्र से छुटकारा हुआ जिसे ÷निर्गमन की घटना' कहते हैं। प्रतिज्ञा के देश कनान में प्रवेश करने के पूर्व वे लगभग ४० वर्षों तक बियाबान जंगलों, नदियों, पहाड़ों से गुजरते रहे और यहीं पर उन्हें यह संदर्भ मिला की वह परदेशी (तीर्थयात्री) हैं जिन्हें महातीर्थ प्रतिज्ञा के देश में पहुँचना है, जहाँ पर वह अपने परमेश्वर यहोवा की उपासना, बलिदान, धार्मिक उत्सव इत्यादि स्वतंत्र रूप से मना सकते हैं। यहीशू के नेतृत्व में मूसा की मृत्यु पश्चात्‌ समस्त इसरायली प्रतिज्ञात देश ;च्तवउपेम संदकद्ध में पहुँचे। स्थापना पश्चात्‌ कालांतर में एक भव्य मंदिर का निर्माण राजा सुलैमान के द्वारा पवित्र नगरी यरूशलेम में किया गया तथा विशेष प्रार्थना द्वारा भव्य प्रतिष्ठा की गयी जहाँ वाचा का संदूक (मंजूबा) रखा गया। इस मंदिर में प्रत्येक यहूदी भक्त को वर्ष में एक बार 'फसह के पर्व'' के समय आना पडता था तथा बलिदान चढ़ाना, मंदिर का कर एवं अन्य धार्मिक कर्मकांड करना पड़ता था। योसेवस नामक यहूदी इतिहासकार बताते हैं कि इस समय यरूशलेम में तीर्थयात्रियों की संख्या लाखों में होती थी तथा शहर तीर्थयात्रियों से भर जाता था, क्योंकि इसराइल तथा आसपास से लोग मीलों पैदल चलकर इस महातीर्थ में आते थे।

Saturday, April 4, 2009

तीर्थ यात्रा सामूहिक प्रार्थनाओं का वृहद स्वरूप है।

यहां एक उल्लेखनीय बिन्दु यह भी है कि समूह के रूप में एकत्रित होने से व्यक्ति बाह्‌य निरंकुशता से दूर होता है जिससे धीरे धीरे उसके अंतस की निरंकुशता भी क्षीण होती है। समूह में रहने, आने जाने से व्यक्ति दूसरे की अच्छी बातों को ग्रहण करता है तथा बुरी चीजों को त्यागता है। सामूहिक प्रार्थना से सामूहिक ऊर्जा का वृहद बर्तुल विकसित होता है जिससे सभी को लाभ होता है। प्रत्येक धर्म में एक विशेष अंतराल के बाद एक जगह एकत्रित होकर पूजा करने का विधान है। यह एकत्रीकरण स्थानीय होता है लेकिन इस एकत्रीकरण का बड़ा महत्व है। यहां पर की जाने वाली सामूहिक प्रार्थनाएं सर्वशक्तिमान द्वारा आवश्यक रूप से स्वीकार की जाती हैं। ऐसा दुनिया के हर धर्म एवं मनीषियों का मानना है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर एवं गुरुद्वारों में एकत्रित होना इसका लघुरूप है, तो तीर्थ यात्रा इन सामूहिक प्रार्थनाओं का वृहद स्वरूप है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीर्थ और तीर्थ यात्रा दोनों ही मानव जीवन के अभिन्न स्वरूप हैं। इस विषय पर विभिन्न धर्माचार्यों ने अपनी अपनी धर्म पुस्तकों के आधार पर तीर्थ एवं तीर्थ यात्रा से सम्बन्धित जानकारियां प्रस्तुत की हैं जिनको ठीक उसी रूप में जिस रूप में वे हमें प्राप्त हुई हैं, हमने यहां प्रकाशित किया है।

Thursday, April 2, 2009

तीर्थ यात्रा का मानव जीवन में बहुत महत्व है।

तीर्थ यात्रा का मानव जीवन में बहुत महत्व है। हिन्दुओं में कुम्भ मेलों का आयोजन, मुसलमानों में हज, इसाइयों में वैटीकन यात्रा, सिखों में गुरुस्थानों तथा बुद्ध जातकों के बिहार भ्रमण ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे तीर्थ यात्रा का महत्व दिखाई देता है। अति प्राचीन काल से मनुष्य तीर्थाटन करता आ रहा है। गंगा स्नान आदि के लिए भी विशेष पर्वों पर एकत्रित होना तथा सामूहिक रूप से स्नान करना, तीर्थ यात्रा के महत्व को दर्शाता है। आखिर क्या रखा है तीर्थ यात्रा में? लोकोक्ति है कि अपना मन चंगा तो कटौटी में गंगा। बात सही भी है कि इस देश में संत रैदास जैसे संत भी हुए हैं जिनके लिए गंगा चलकर कटौटी में आ जाती है। लेकिन हर कोई तो रैदास नहीं हो सकता जो गंगा घर घर चल पड़ें। महाराज जी कहते हैं कि तीर्थों में एनर्जी का भंडार होता है। तीर्थ वहीं बनता है, जहां कभी लम्बी साधना हुई हो या कोई विशेष प्रतिभा रही हो। जब कोई विशेष प्रतिभा कहीं निवास करती है तो वहां के वातावरण में उसकी ऊर्जा विकरित होती रहती है। उस स्थान पर आने वाले लोग भी नैतिक उन्नयन की भावना लेकर एकत्रित होते हैं। उनके विचारों से उस स्थान पर ऊर्जा का बड़ा केन्द्र विकसित हो जाता है। जिसका लाभ सामान्य जन को भी जाने पर मिलता है। यद्यपि व्यक्ति समस्त शक्तियों को अपने में समेटे है लेकिन उन शक्तियों का उपयोग हर जन को नहीं आता है। व्यक्ति कहीं भी रहकर इन शक्तियों को विकसित कर सकता है लेकिन इसके लिए उसे योग्य गुरु के सानिध्य में रहकर अत्यधिक कड़ी साधना करनी पड़ती है या भक्ति का अतिरेक विकसित करना पड़ता है। जबकि तीर्थों पर यह उसे सहज ही मिल जाता है। तीर्थ क्षेत्र एनर्जी के भण्डार होते हैं जो हर समय विकसित होते रहते हैं।

Wednesday, April 1, 2009

तीर्थयात्रा का उद्देश्य है- आध्यात्मिक विकास

तीर्थयात्रा का उद्देश्य है- आध्यात्मिक विकास और आध्यात्मिक विकास मनुष्य को आनंद प्रदान करता है। दूसरी ओर, यदि हम किसी व्यक्ति की सहायता करते हैं अथवा उसकी इच्छापूर्ति में सहायक होते हैं, तो हमें अपार सुख एवं संतुष्टि मिलती है। दरअसल, हमारे मन में सद्वृत्तियों का विकास भी तीर्थयात्रा के समान ही है, जिसे हम यहां दी गई कहानी के माध्यम से समझ सकते हैं। लक्ष्मी के जीवन का आधार थी उसकी एकमात्र पुत्री माधवी। उसकी पिता की मृत्यु होने के कारण लक्ष्मी अपनी बेटी की परवरिश के लिए दिन-रात श्रम करती। एक दिन स्कूल से घर लौटते समय माधवी बारिश में भीग गई। भीगने के कारण उसे बुखार आ गया। बुखार के कारण उसकी तबियत दिन-ब-दिन बिगड़ती ही चली गई। चिंतातुर माँ मंदिर गई और ईश्वर से प्रार्थना की कि मेरी बेटी की तबियत को ठीक कर दो। मैं तीर्थयात्रा करूंगी। माधवी दो-चार रोज में भली-चंगी हो गई। उधर लक्ष्मी भी अपने वचनानुसार तीर्थयात्रा पर जाने की तैयारी में लग गई। तीर्थयात्रा पर जाने से एक दिन पहले रात में लक्ष्मी को अपने पड़ोस के घर से सिसकने की आवाज सुनाई दी। लक्ष्मी वहाँ गई, तो देखा कि उसकी पड़ोसन राधा रो रही है। लक्ष्मी ने उससे रोने का कारण पूछा, तो उसने बताया कि उसके पति कई दिनों से बीमार हैं। डॉक्टर ने कई टेस्ट और एक्सरे कराने को कहा है, पर घर में फूटी कौड़ी भी नहीं है। लक्ष्मी ने राधा की सारी बात सुन कर कहा कि बहन घबराओ नहीं, ईश्वर सब ठीक कर देंगे। वह घर गई और तीर्थयात्रा पर जाने के लिए जो पैसे रखे थे, लाकर राधा के हाथ पर रख दिए। राधा ने लक्ष्मी से कहा कि तुम तीर्थयात्रा पर न जाकर यह पैसे मुझे दे रही हो! लक्ष्मी ने कहा कि राधा तीर्थयात्रा तो फिर हो जाएगी! लेकिन इस समय उससे ज्यादा जरूरी है तुम्हारे पति का इलाज, इसलिए तुम अपने पति का इलाज कराओ। वास्तव में, किसी व्यक्ति की मदद या सेवा से बढ़ कर कोई तीर्थयात्रा नहीं होता और जिसने इस 'सत्य' को जान लिया, उसका मन ही सबसे बड़ा तीर्थ बन जाता है।

Tuesday, March 31, 2009

मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर,दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है

आंतरिक विधुत धारा विज्ञान के अनुसार जिस भी शब्द का उच्चारण हम लोग करते हैं,वह इस ब्राह्मंड में तैरने लगता है। उदाहरण के लिए एक रेडियो स्टेशन पर किसी भी गीत की पंक्ति का अंश बोला जाता है तो वह उसी समय वायुमंडल में फैल जाता है। तथा विश्व के किसी भी देश,किसी भी कोने में श्रोता यदि चाहे तो उसके रेडियो के माध्यम से उस गीत की पंक्ति का अंश सुन सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि रेडियो में सूई उसी फ्रीक्वैंसी पर लगाने की जानकारी हो। इस प्रकार ग्राहक और ग्राह्य का आपस में पूर्ण संपर्क आवश्यक है, उसी प्रकार मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तो मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विधुत भी तरंगों में निहित रहती है। यह आंतरिक विधुत, जो शब्द उच्चारण से उत्पन्न तरंगों में निहित रहती है, शब्द की लहरों को व्यक्ति विशेष या संबंधित देवता,ग्रह की दिशा विशेष की ओर भेजती है।अब प्रश्न यह उठता है कि यह आन्तरिक विधुत किस प्रकार उत्पन्न होती है? यह बात वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा मान ली गई है कि ध्यान,मनन,चिन्तन आदि करते समय जब व्यक्ति एकाग्र चित्त होता है,उस अवस्था में रसायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विधुत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है(आंतरिक विधुत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्न होता है। इसे आप मानसिक विधुत कह सकते हैं। यही मानसिक विधुत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर,दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। यह मानसिक विधुत(उर्जा)भूयोजित न हो जाए,इसीलिए मंत्र जाप करते समय भूमी पर कंबल,चटाई,कुशा इत्यादि के आसन का उपयोग किया जाता है।

Sunday, March 29, 2009

माँ साँसों की तरह है।

प्रेमिका छोड़कर जा सकती है, पत्नी छोड़कर जा सकती है, पुत्र और पुत्रियाँ भी छोड़कर जा सकते हैं, किंतु माँ साँसों की तरह है। माँ इस धरती का नमक है। माँ हमारी नसों में दौड़ता खून है। माँ हमारे हृदय की धड़कन है। माँ के बगैर इस ब्रह्मांड का अस्तित्व नहीं। जिन देहधारी स्त्रियों ने माँ होने का दर्द सहा है। वे जानती हैं कि जगत जननी माँ क्या होती है।
कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी माँ सती पार्वती को ही शैलपुत्री‍, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जाना जाता है। इसके अलावा भी माँ के अनेक नाम हैं जैसे दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेराँवाली आदि, लेकिन सबमें सुंदर नाम तो 'माँ' ही है।
माँ को जिसने भी जाना है, वह किसी भी 'माता की सवारी' आने वाली जगह पर नहीं जाएँगे, क्यों‍कि उस विराट शक्ति के समक्ष खड़े होने में देवताओं के दिल काँपते थे, तो उसका किसी के शरीर में आना असत्य है। सत्य के मार्ग पर चलो। सत्य यह है कि चित्त को माँ की श्रद्धा की ओर मोड़ो। माँ को अपनी अँखियों के सामने से मत हटाओ। कम से कम इन नौ दिनों में जानो कि माँ क्या है। उस माँ को भी जिसने तुम्हें ये देह दी और उस माँ को भी जिससे यह जगत जन्मा।
डूब जाओ 'माँ' के प्रेम में। जब तक डूबोगे नहीं, तब तक दु:ख और सुख के खेल में उलझे रहोगे। डूबने से ही मुक्ति मिलेगी। वेद, पुराण और गीता सभी कहते हैं कि जो इस प्रेम के सागर में डूबा है वही पार हुआ है।

प्रस्तुति : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

Saturday, March 28, 2009

कई जन्म से भटका हूं मैं, अब तो निज घर पाना है॥


कितने ही हमारे अपने, हमें छोड़ गये यहां पर।

कितनों को हमें छोड़कर, चले जाना है वहां पर॥

जो चले जाते है यहां से, फिर लौट कर नहीं आते।

लाख कोशिश भूलने पर, कभी दिल से नहीं जाते॥

ये दस्तूर है जहां का, इसे ऐसे ही चलते जाना है।

इस चौरासी के चक्कर में, बस आना और जाना है॥

कर लो भजन भगवान का, गर जीवन सफल बनाना है।

लालच की है ये दुनिया, मतलबी सारा जमाना है॥

बड़ी कठिन है डगर वहां की, कांटों पर चलकर जाना है।

कई जन्म से भटका हूं मैं, अब तो निज घर पाना है॥