उपनिषद इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं: 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' अर्थात् ब्रह्म सत्य स्वरूप, ज्ञान-स्वरूप एवं अनन्त है और जब ब्रह्म 'रसो वै सः' है, परिपूर्ण आनन्द है तब सत्य का आश्रय परिपूर्ण आनन्द ही प्रदान करेगा अन्यथा कुछ भी नहीं, जो हमारी खोती जा रही शांति वापस ला सकता है। सत्य परमात्मा तत्व है।
तत्व के संबंध में कहा गया हैः 'अनारोपिता कारं तत्वम्' उसका कोई रूप नहीं होता। स्वर्ण आभूषणों का तत्व नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह आभूषणों से पूर्व टुकड़े के रूप में होता है। तत्व एक देशीय पदार्थ न होकर सर्वव्यापी तथा दृष्टि से परे होता है तथा अनुभवजन्य होता है। वैसे ही सत्य भी अनुभवजन्य है। जैसे आत्मा की सत्ता सदैव एवं सर्वथा अनुभव की जाती है किंतु उसका दर्शन संभव नहीं है, वैसे ही सत्य एक सुनिश्चित शक्ति सम्पन्न सिद्धान्त है जो सम्पूर्ण सृष्टि रूपी विराट शरीर का संचालक हृदय है। समय पर रितुओं का आना, वृक्षों का पुष्पित और फलित होना, सूर्य चन्द्रादि सहित सभी ग्रहों और आकाश गंगाओं का अपनी अपनी कक्षाओं में रहना आदि परम सत्य का ही प्रत्यक्ष दर्शन है। जन्म और मृत्यु दोनों ही शाश्वत सत्य पर ही आधारित हैं।
मंत्र द्रष्टा आचार्य अपने शिष्यों से संवाद के मध्य 'रितं वदिस्यामि, सत्यं वदिस्यामि' कह कर सत्य की परम सत्ता को ही पुष्ट करते हैं। 'रितं तपः, सत्यं तपः, स्वाध्यायां तपः' परम तप का द्योतक है। मुण्डकोपनिषद में 'सत्यमेव जयते नानृतं', सत्य के समक्ष असत्य को धराशायी करता है। यही तो देश का आस्था वाक्य है।
प्रस्तुति : -संगीता जोशी
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