आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Wednesday, July 30, 2008

दीप जलाकर रखना


मेल से प्राप्त (साभार) एक कविता

अपने दिल को पत्थर का बना कर रखना ,

हर चोट के निशान को सजा कर रखना ।

उड़ना हवा में खुल कर लेकिन ,

अपने कदमों को ज़मी से मिला कर रखना ।

छाव में माना सुकून मिलता है बहुत ,

फिर भी धूप में खुद को जला कर रखना ।

उम्रभर साथ तो रिश्ते नहीं रहते हैं ,

यादों में हर किसी को जिन्दा रखना ।

वक्त के साथ चलते-चलते , खो ना जाना ,

खुद को दुनिया से छिपा कर रखना ।

रातभर जाग कर रोना चाहो जो कभी ,

अपने चेहरे को दोस्तों से छिपा कर रखना ।

तुफानो को कब तक रोक सकोगे तुम ,

कश्ती और मांझी का याद पता रखना ।

हर कहीं जिन्दगी एक सी ही होती हैं ,

अपने ज़ख्मों को अपनो को बता कर रखना ।

मन्दिरो में ही मिलते हो भगवान जरुरी नहीं ,

हर किसी से रिश्ता बना कर रखना ।

मरना जीना बस में कहाँ है अपने ,

हर पल में जिन्दगी का लुफ्त उठाये रखना ।

दर्द कभी आखरी नहीं होता ,

अपनी आँखों में अश्को को बचा कर रखना ।

सूरज तो रोज ही आता है मगर ,

अपने दिलो में ' दीप ' को जला कर रखना। http://www.rudragiriji.net/


it

Saturday, July 26, 2008

संकल्प का फल: कहानी

गौतमगिरिजि महाराज

एक समय की बात है एक बनिया कथा श्रवण करने जाता था। कथाकार महाराज ने उससे कहा- तुम कथा तो सुनते हो सो कुछ अच्छा सा संकल्प करो। सत्य बोलने का संकल्प करो। बनिया बोला वह तो व्यापारी है, सत्य ही बोलेगा तो सारा कारोबार चौपट हो जाएगा। इस पर महाराज ने कहा कि किसी की निन्दा न करने और न सुनने का संकल्प कर लो। बनिया कहने लगा- महाराज, जब तक रात को दो तीन घंटे बातों में न गुजारूँ, मुझे नींद ही नहीं आती है। इसलिए मैं यह संकल्प भी नहीं कर सकता। महाराज जी ने कहा कि चलो तुम जो चाहो संकल्प कर सकते हो, लेकिन उसका पालन नियम पूर्वक करना। बनिया बोला महाराज मैं संकल्प लेता हूँ कि प्रतिदिन अपने घर के सामने रहने वाले कुम्हार का मुँह देखकर ही अपनी दैनिक क्रियाएं प्रारम्भ किया करूँगा। वह रोजाना सुबह जगता तथा कुम्हार का मुँह देख लेता। एक दिन बनिए के जगने से पहले ही कुम्हार मिट्टी लेने गाँव से बाहर चला गया। बनिया जागा तो उसे कुम्हार का मुँह दिखाई नहीं दिया। बनिया अपने संकल्प को पूरा करने के लिए कुम्हार को ढूँढ़ने चल दिया। उधर कुम्हार जब मिट्टी खोद रहा था तो उसे वहाँ गड्ढे में एक सोने से भरा मटका मिला। वह उसे निकाल ही रहा था कि उसी समय बनिया भी कुम्हार का मुँह देखने की नीयत से वहाँ पर पहुँच गया, और मुँह देखकर बोला- चलो मैंने देख लिया। कुम्हार ने समझा कि बनिए ने सोने से भरा मटका देख लिया है। यदि वह राजा से कह देगा तो पूरा का पूरा सोना जब्त हो जाएगा। सो वह बनिए से बोला,- तूने देख तो लिया है पर किसी से कहना मत। मैं तुम्हें आधा भाग देता हूँ। इस प्रकार बनिए को सोना मिल गया।

अब बनिया सोचने लगा कि मैंने इस कुम्हार के मुख दर्शन का संकल्प लिया तो लक्ष्मी जी का आगाज हो गया, अगर मैंने स्वयं प्रभु के दर्शन का संकल्प लिया होता तो कितना अच्छा होता। ऐसे छुल्लक और मजाकिया संकल्प से इतना लाभ हो सकता है तो शुभ संकल्प से कितना लाभ होता। मनुष्य को दो संकल्प तो अवश्य ही करने चाहिए- एक, पाप कर्म न करने का और दूसरा सत्कर्म करने का.

Saturday, July 19, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 12


mahahraj ji

... शौनक, शमीक की आँखे खुलीं तो उन्होंने उस बालक को बहुत डाँटा पर अब कुछ हो नहीं सकता था। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को परीक्षित के पास भेजा। उन्होंने अपने शिष्यों को परीक्षित के पास भेजते समय श्राप के विषय में सचेत किया। परीक्षित महाराज मुकुट उतारकर चिन्तन करने लगे कि ये ऋषिपुत्र मेरे लिए श्राप नहीं हैं, यह चेतावनी है, वरदान है। आदमी दूसरे को देखकर के बड़ा बनता है नशे में। फिर बाद में जब नशा उतरता है, तो सोचता है अकेले में, कि क्या भला है, और क्या बुरा है? ................http://www.bhagawat-katha.blogspot.com/

Saturday, July 12, 2008

कविता


क्यूं कहते हो मेरे साथ कुछ भी बेहतर नही होता

सच ये है के जैसा चाहो वैसा नही होता
कोई सह लेता है कोई कह लेता है क्यूँकी

ग़म कभी ज़िंदगी से बढ़ कर नही होता
आज अपनो ने ही सिखा दिया हमेयहाँ

ठोकर देने वाला हर पत्थर नही होता
क्यूं ज़िंदगी की मुश्क़िलो से हारे बैठे हो

इसके बिना कोई मंज़िल,

कोई सफ़र नही होता
कोई तेरे साथ नही है तो भी ग़म ना कर

ख़ुद से बढ़ कर कोई दुनिया में हमसफ़र नही होता!!!

प्रस्तुतकर्ता :सचिन

Keep Smiling and visit : www.rudra.110mb.com

Thursday, July 10, 2008

गुरु माली ,हम फूल हैं

मानव को सम्पूर्ण अस्तित्व में आने के लिए नौ मास गर्भ में रहने की आवश्यकता होती है, और इस लम्बे समय को एक मां ही सहन करती है। फिर जब बच्चा संसार में आ जाता है तो रात दिन उसके पालन पोषण में अपने आपको भुला देती है। न रात को चैन से सोती है और न दिन को आराम करती है और अपनी हर पीड़ा को भुला देती है। इसीलिए कहा गया है कि मां के चरणों में स्वर्ग है। मां जहां बच्चे का पालन पोषण करती है, वहीं पिता उसकी शिक्षा, खाना, कपड़ा और दूसरी आबश्यकताओं को पूरा करने की चिन्ता में रात दिन मेहनत करता है। दोनों मिलकर अपने बच्चों की परवरिश के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। लेकिन उच्च शिक्षा और संस्कार एक गुरु ही दे सकता है। इंसान के स्वभाव और उसके चरित्र को सजाने संवारने में गुरु अपने कर्तव्य का पालन करता है। इसीलिए गुरु को माता पिता से उच्च श्रेणी में रखा गया है। कहावत है कि "सन्तान माता पिता पैदा करते है, परन्तु उस संतान को इंसान, गुरु बनाता है। जिस तरह बीज, मिट्टी, पानी, गर्मी और हवा माता पिता की तरह पौधे को जन्म देते हैं और एक अनुभवी माली की देख रेख में पौधे का पालन पोषण होता है और वह बड़ा होकर फल देता है या सुन्दर सुन्दर फूल देकर अपने आस पास के वातावरण को और अधिक रंगीन बना देता है। अगर माली अनुभवी और परिश्रमी होता है तो बाग हरा भरा और रंग बिरंगे फूलों से सदैव मालामाल रहता है। इसी तरह किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारने में गुरु की ही सारी मेहनत होती है। शिष्य और गुरु का सम्बन्ध बाग और माली का है। जिस तरह माली तरह तरह के पेड़, पौधे, फूलों से बाग को सुन्दर से सुन्दर बनाने की जिज्ञासा में रहता है वैसे ही गुरु अपने शिष्य को हर तरह से एक सुन्दर व्यक्ति बनाने का प्रयत्न करता है।

इसका उदाहरण फोरबंस के किन्डरगार्टन की तरह है जहां बच्चों को प्रारम्भ से ही हर तरह की शिक्षा और संस्कार देकर एक अच्छा विद्यार्थी बनाने का प्रयत्न होता है। अच्छा गुरु वह होता है जो शिष्य के मस्तिष्क में जिज्ञासा उत्पन्न करे तथा रचनात्मक कार्यों एवं शोध के लिए उनको प्रेरित कर सके। धर्म तथा संसार दोनों के कल्याण के लिए ज्ञान के महत्व को जागृत कर दे।

गुरु का उत्तर दायित्व है कि वे अपने शिष्यों को ज्ञान प्राप्ति के लिए जिज्ञासु बना दे। उनके मानक क्षितिज को विशालता प्रदान करे और साथ ही साथ उत्तम आचरण, स्वच्छता, ईश्वर के प्रति निष्ठा, दयालुता, न्याय और मानव सेवा की भावना को भी प्रेरित करे। उन्हें चाहिए कि छात्रों को बताएं कि संस्कृति क्या है?उन्हें बताया जाए कि दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करें जैसा हम स्वयं अपने साथ चाहते हैं। शिष्यों को यह भी सिखाएं कि किस प्रकार स्वार्थ पर अंकुश लगाएं तथा विपत्ति के समय दूसरों की सहायता करें।

प्रस्तुतकर्ता : इज़हार -उल -हक

अलीगढ

://rudragiriji।net/

Sunday, July 6, 2008

बाइबल में गुरु का ज़िक्र


बाइबिल धर्मशास्त्र में गुरु के लिए rabbi शब्द का प्रयोग किया गया है। इब्रानी भाषा के इस शब्द का अर्थ है- मेरे शिक्षक या मेरा स्वामी। द्वितीय शताब्दी ई० पू० तक यह शिक्षक हेतु इस्तेमाल किया जाने लगा। नये नियम में यह शब्द योहन बपतिस्मादाता के लिए भी कहा गया है। यूनानी भाषा में didaskalos शब्द का उपयोग किया गया है, जो रब्बी के समानान्तर है। प्रभु यीशु मसीह के लिए रब्बूनी शब्द का इस्तेमाल मर. 1०:५१ में अंधे बरतिमाई ने किया है। "हे गुरु! मैं देखने लगूं।'' और वह देखने लगा तथा मरियम ने यूहन्ना 10:26 में यीशु को पहचानते हुए कहा "रब्बूनी'' अर्थात गुरु। यहूदी व्यवस्था में रब्बी (guru) पाठशालाएं होती थीं। प्रत्येक बालक १२ वर्ष का होकर इन पाठशालाओं में यहूदी व्यवस्था का पाठ "शेमा'' सीखा करता था। इसके लिए उसे जमीन पर बैठकर गुरु के सामने सीखना होता था। बारह वर्ष तक गुरु का दायित्व परिवार के पिता का होता था जो बालक को परमेश्वर की दया, करुणा तथा मिस्र से इजराइलियों के छुटकारे की घटना का वर्णन करता था। बाइबिल के नए नियम में प्रभु यीशुमसीह को लगभग १२ संदर्भों में गुरु एवं उत्तम गुरु संबोधनों से पुकारा गया है। गुरु शब्द की अवधारणा को प्रभु यीशुमसीह ने अपने जीवन एवं कार्य के द्वारा अक्षरशः प्रगट किया है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यूहन्ना रचित सुसमाचार के अध्याय १३ में वर्णित है। जहां प्रभु यीशुमसीह ने अंतिम भोज के समय अपने १२ शिष्यों के पैर धोये तथा उन्हें महान आदेश एवं शिक्षा प्रदान की। विश्व में गुरु शिष्य का ऐसा उदाहरण कहीं नहीं पाया जाता। वर्तमान परिदृश्य इन सभी शिक्षाओं को भूल गया है। न केवल तथाकथित गुरुओं ने वरन्‌ शिष्यों ने भी इस पवित्र रिश्ते को कलुषित किया है। आवश्यकता यह है कि हम संभल जाएं तथा जो हमारी वास्तविक संस्कृति है, उसे धरोहर स्वरूप संभालकर रखें। प्रार्थनाओं सहित!!!!http://ruragiriji.net

Saturday, July 5, 2008

संपादक की कलम से .......

रुद्र संदेश का यह बारहवाँ अंक आपके हाथों में है। इस महीने की अठारहवीं तारीख को गुरु पूर्णिमा का महान पर्व भी है। इस एक वर्ष के दौरान हमने पत्रिका को अपने पाठकों की इच्छा के अनुरूप बनाए रखने का भरसक प्रयास किया है। इस प्रयास में हम कितने सफल रहे हैं, यह तो सुधी पाठक ही बता सकते हैं, लेकिन प्रतिदिन बढ़ती पत्रिका की सदस्य संख्या से सम्पादक मण्डल को लगता है कि उनका प्रयास सार्थक दिशा में जा रहा है। प्रस्तुत अंक गुरु अंक है। इसी को ध्यान में रखकर हमारे कला सम्पादक जी ने महाराजजी के श्रीचरणों का सुस्पष्ट चित्र लेकर उसे पत्रिका के आवरण पृष्ठ पर सजाया है। कहते हैं कि इहलोक और परलोक के समस्त वैभव गुरु की चरण रज के सामने तुच्छ हैं। महाराजश्री के चरणों में बना पद्म चिह्‌न स्वयं पत्रिका के आवरण को वैभव प्रदान कर रहा है। अंतिम पृष्ठ पर महाराजजी का सिंहासन पर बैठे हुए जो चित्र बनाया है, इसके लिए अनेक पाठकों की इच्छा को ध्यान में रखा गया है। गुरु पूर्णिमा पर्व के मास की पत्रिका के अंक में गुरु विषय को केन्द्र में रखकर उस पर विभिन्न धर्माचार्यों से एवं इंटरनैट के माध्यम से दुनियां के विभिन्न कोनों में बैठे अपने सुधी पाठकों से विचार आमंत्रित किए गए। जिनमें से कुछ प्रतिनिधि विचारों को हमने प्रस्तुत अंक में ठीक उसी प्रकार छापा है, जिस रूप में वे हमें प्राप्त हुए हैं। गुरु शिक्षा पर एक प्रेरक कहानी हमें इस मास में मिली जो वास्तव में हृदय स्पर्शी एवं प्र्रेरणाप्रद है, उसे भी बिना काटछाँट के स्थान दिया गया है। एक संत श्री द्वारा प्रेषित कहानी भी अत्यंत प्रेरणा प्रद है जो इस अंक में छपी है। पाठकों की इच्छा थी कि महाराजजी द्वारा विरचित श्रीमद्भागवत को भजनों सहित छापा जाए, इसीलिए प्रस्तुत अंक से यह परम्परा भी शुरु की है। इसके बारे में सुधी पाठकों से प्रतिक्रिया अपेक्षित है। प्रस्तुत अंक में हमने श्रीमद्भागवत्‌ गीता के दो श्लोकों का हिन्दी एवं अंग्रेजी में व्याख्यात्मक निरूपण किया है। ये दोनों श्लोक गुरु पर्व के कारण आवश्यक जान पड़े थे। वास्तु सम्मत विभिन्न जानकारियों, स्वास्थ्य एवं आयुर्वेद, जिज्ञासा एवं समाधान, समाचार जगत सहित अन्य परम्परागत आलेखों को अपने में संजोए प्रस्तुत अंक कैसा बन पड़ा है, इसका आंकलन कर हमें लिखने की कृपा करें। डा. श्रीराम वर्मा के भारतीय दर्शन एवं परमाणुवाद विषयक आलेख की दूसरी कड़ी भी इस अंक में है। आशा है अगले अंक में यह आलेख पूरा हो जाएगा और निश्चित रूप से यह सिद्ध करने में सहायक है कि भारतीय दर्शन कितना वैज्ञानिक व प्रामाणिक है। महाराजश्री के आशीर्वाद से अभिसिंचित यह अंक आपके आध्यात्मिक उन्नयन में सहयोगी हो, इसी कामना के साथ................

Friday, July 4, 2008

एक कहानी ( जिदगी जियें और उस पार की व्यवस्था भी करें)


एक ऐसा राज्य था जहॉ राजवंश परम्परा नहीं थी, बल्कि हर पॉच वर्षों के बाद राजा पद के प्रार्थना पत्र आमंत्रित किए जाते थे। फिर उन उम्मीदवारों में से एक को चुनकर पॉच वर्ष के लिए राजा बना दिया जाता था। परन्तु ऐसा नहीं था कि राजा बनने के लिए ज्यादा सेख्या में लोग आवेदन करते हों।
ऐसा क्यों? वह इसलिए कि वहॉ का नियम था कि पॉच वर्षों के शासन के उपरांत राजा को राज्य की सीमा पर बहती विशाल नदी के उस पार जंगली जानवरों से भरे निर्जन वन में अकेला छोड़ दिया जाता था, वहॉ वह निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता था। अधिकतर वृद्ध जन ही राजा बनने के लिए यह सोचकर आवेदन करते थे कि अब बचु कुचे दिन राजा बनकर आनन्दपूर्वक जीलें, फिर तो मरना है ही। परन्तु एक बार उस राज्य में एक सन्त अपने कुछ शिष्यों के साथ आए। संयोग से उसी समय राजा पद हेतु आवेदन किए जाने की मुनादी हो रही थी। एक नौजवान शिष्य ने जब पूरी बात सुनी तो बोला, ''मैं आवेदन करना चाहता हूँ । '' इस पर आस पास खड़े नागरिकों ने आश्चर्यचकित होकर कहा कि, ''नवयुवक इस अवस्था में ही जीवन से इतना उब गए कि शीघ्र मरना चाहते हो।'' इस पर उस शिष्य ने अपने गुरु की तरफ देखते हुए कहा कि, ''मेरे गुरु ने मुझे मनुष्य जीवन का महत्व ओर उद्देश्य बता रखा है। मैं जानता हूँ कि यह कितना बहुमूल्य है। और मैं धन वैभव के भोग का सुख लेने हेतु नहीं अपितु अपने गुरु का संदेश जन जन तक पहुंचाने हेतु इस राज्य का राजा बनना चाहता हूँ । अंततः हुआ यह कि उसे राजा चुन लिया गया। वह शिष्य राजकाज का काम भली भॉंति करता रहा, पर साथ ही उसने एक ऐसा काम किया जो उसके पूर्ववर्ती किसी राजा ने नहीं किया था। उसने नदी के उस पार जंगल के कुछ हिस्से को साफ करवाकर वहॉं वैसा ही एक राजमहल तथा छोटा सा नगर बनवाया तथा उसके चारों तरफ ऊंची दीवार बनवाकर उसे सुरक्षित करवा लिया। फिर वहॉ कुछ नागरिकों को बसाया। दास दासियों की व्यवस्था भी की। देखते देखते नदी के उस पार भी एक छोटा सा रमणीक नगर बस गया। पॉच वर्षों का अपना कार्यकाल पूरा करने के उपरांत वह शिष्य बड़ी शांति तथा प्रसन्नता के साथ नदी के उस पार जाकर राज करने लगा। विदा होते समय अपने आखिरी भाषण में अपने गुरु का ज्ञान सेदेश प्रजा को देते हुए कहा कि,
''यह मनुष्य जीवन अनमोल है, हमें इसी जीवन में मृत्यु के पश्चात मुक्ति की तैयारी करनी है। वह मृत्यु नहीं महा प्रयाण होगा, जिसके बाद हम जन्म मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो जाएंगे। हमें मृत्यु के उपरांत स्वर्ग, नरक, मोक्ष या मुक्ति, क्या मिलेगा यह हमारे जीवन में किए गए कर्मों तथा हमारे मन के भावों पर निर्भर है। अतः हमें ऐसा ध्यान रखकर ही कर्म करने चाहिए कि मृत्यु नजदीक ही है। हमे मृत्यु के बाद की तैयारी ठीक उसी तरह करनी चाहिए जैसी इन पॉंच वर्षों में मैंने नदी के उस पार जाने के लिए की है। मैं अब निडर होकर प्रसन्नता से उस पार जा रहा हूँ न कि डरते और रोते हुए। जीवन में यदि मृत्यु को स्मरण रखा जाए तो हमारे मन, कर्म तथा वचन शुध पवित्र बने रहेंगे। और हमारा परलोक सुधर जाएगा, जैसे मैं उस पार जाकर कष्ट नहीं भोगूंगा वरन राज करूंगा।'' शिष्य ने गुरु के ज्ञान को आत्मसात तो किया ही था। साथ ही उसने उदाहरण प्रस्तुत करके उसे समस्त प्रजा के समक्ष कितना सुबोधगम्य ढंग से प्रस्तु किया। धन्य है वह शिष्य ओर धन्य है उसका गुरु।