आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Sunday, June 28, 2009

भगवान भी करते हैं भक्त की आराधना ?

एक बार नारद जी श्रीकृष्ण से मिलने पहुंचे। वह बड़ी आतुरता से उनके कक्ष में प्रवेश करने लगे कि तभी द्वार पालों ने रास्ता रोक दिया। नारद जी ने कारण पूछा तो उत्तर मिला, प्रभु अभी आराधना में व्यस्त हैं । नारद ने कहा, रास्ता छोड़ो, मैं तुम्हारे इस बहकावे में नहीं आने वाला। पर यह सुनकर भी संतरी डटे रहे। मन मसोस कर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। कुछ देर बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने कपाट खोले। नारद जी ने प्रणाम करके तुरंत शिकायत की, देखिए न, आपके द्वारपालों ने एक बेतुका बहाना बनाकर मुझे भीतर जाने से रोक दिया। ये कह रहे थे कि आप पूजा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण बोले, यह सत्यवचन है नारद। हम आराधना में ही मग्न थे। नारद ने कहा, भगवन्‌ आप और आराधना? श्रीकृष्ण बोले, देखना चाहोगे, हम किसकी आराधना में लीन थे? आओ भीतर आओ। भीतर एक पुष्पमंडित पालने पर अनेक छोटी छोटी प्रतिमाएं झूल रही थीं। नारद जी ने एकाग्र दृष्टि से देखा। कुछ प्रतिमाएं गोकुल की गोप मंडली की थीं, तो कुछ स्वयं उनकी। तब नारद जी ने बौराई आंखों से प्रभु को निहारा। फिर पूछा, भला आराध्य आराधकों की आराधना कब से करने लगा? भक्त गुहार करे और भगवान कृपा, यह सीधी रीत तो समझ में आती है। पर यह दूसरी अटपटी परंपरा आपने क्यों चलाई? श्रीकृष्ण ने कहा, मुझे बताओ नारद, भक्त मेरी आराधना क्यों करते हैं? किस प्रयोजन से मेरी उपासना करते हैं? नारद बोले, प्रभु वे आपसे आपका प्रेम चाहते है। श्रीकृष्ण ने कहा नारद, ठीक इसी प्रयोजन से मैं भी अपने भक्तों की आराधना करता हूं। मैं भी भक्त से प्रेम की आकांक्षा रखता हूं। भक्त से उसका प्रेम मांगता हूं। प्रेम का यही महादान पाने के लिए मैं निराकार से साकार होकर आता हूं। पर मानव इसी बात को नहीं समझ पाता। वह तो हमसे केवल धन दौलत ही मांगता है जबकि मैं भक्त का प्रेम पाने के लिए उसकी ओर देखता रहता हूं।

भगवान भी करते हैं भक्त की आराधना ?

एक बार नारद जी श्रीकृष्ण से मिलने पहुंचे। वह बड़ी आतुरता से उनके कक्ष में प्रवेश करने लगे कि तभी द्वार पालों ने रास्ता रोक दिया। नारद जी ने कारण पूछा तो उत्तर मिला, प्रभु अभी आराधना में व्यस्त हैं । नारद ने कहा, रास्ता छोड़ो, मैं तुम्हारे इस बहकावे में नहीं आने वाला। पर यह सुनकर भी संतरी डटे रहे। मन मसोस कर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। कुछ देर बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने कपाट खोले। नारद जी ने प्रणाम करके तुरंत शिकायत की, देखिए न, आपके द्वारपालों ने एक बेतुका बहाना बनाकर मुझे भीतर जाने से रोक दिया। ये कह रहे थे कि आप पूजा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण बोले, यह सत्यवचन है नारद। हम आराधना में ही मग्न थे। नारद ने कहा, भगवन्‌ आप और आराधना? श्रीकृष्ण बोले, देखना चाहोगे, हम किसकी आराधना में लीन थे? आओ भीतर आओ। भीतर एक पुष्पमंडित पालने पर अनेक छोटी छोटी प्रतिमाएं झूल रही थीं। नारद जी ने एकाग्र दृष्टि से देखा। कुछ प्रतिमाएं गोकुल की गोप मंडली की थीं, तो कुछ स्वयं उनकी। तब नारद जी ने बौराई आंखों से प्रभु को निहारा। फिर पूछा, भला आराध्य आराधकों की आराधना कब से करने लगा? भक्त गुहार करे और भगवान कृपा, यह सीधी रीत तो समझ में आती है। पर यह दूसरी अटपटी परंपरा आपने क्यों चलाई? श्रीकृष्ण ने कहा, मुझे बताओ नारद, भक्त मेरी आराधना क्यों करते हैं? किस प्रयोजन से मेरी उपासना करते हैं? नारद बोले, प्रभु वे आपसे आपका प्रेम चाहते है। श्रीकृष्ण ने कहा नारद, ठीक इसी प्रयोजन से मैं भी अपने भक्तों की आराधना करता हूं। मैं भी भक्त से प्रेम की आकांक्षा रखता हूं। भक्त से उसका प्रेम मांगता हूं। प्रेम का यही महादान पाने के लिए मैं निराकार से साकार होकर आता हूं। पर मानव इसी बात को नहीं समझ पाता। वह तो हमसे केवल धन दौलत ही मांगता है जबकि मैं भक्त का प्रेम पाने के लिए उसकी ओर देखता रहता हूं।

Friday, June 26, 2009

कौन प्रेमी है और प्रियतम?

भगवान श्रीकृष्ण की एक प्रेमिका थी - राधा। वह उन सोलह हजार गोपियों में एक थीं, जो उन्हें पागलों की तरह प्यार करती थी। उनकी दो पत्नियाँ भी थीं - रुक्मिणी और सत्यभामा। आज इसकी अनुमति नहीं है कि आदमी दो पत्नियाँ हों और सोलह हजार प्रेमिकाऐं। यह एक दैवीक नाटक है, जिसमें हिन्दू परम्परा और सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार हर जीवात्मा उस परम पुरुष की प्रेमिका है। वहाँ ऐसी मान्यता है कि वही अकेला पुरुष है और अन्य सभी नारी हैं। यहाँ शारीरिक रूप से लिंग भेद का प्रश्न नहीं है, ईश्वर के मामले में स्त्री और पुरुष सभी उसकी प्रेमिका ही हैं। वह प्रियतम है और हम प्रेमी हैं। वह स्वाभाविक भी है के ईश्वर के द्वारा निर्मित उसकी सृष्टि उसका प्रेमी हो। उसमें से सोलह हजार ऐसे थे, जो उनहें विशिष्ट रूप से प्रेम करते थे और उसमें से भी विशिष्ट थी- वह लड़की राधा। उसके अनन्य प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण को राधाकृष्ण के नाम से जाना जाता है- राधा का नाम पहले आता है। भारतीय सामाजिक जीवन में पुरुष का नाम पहले आता है, लेकिन हिन्दू परम्परा में स्त्री पहले आती है, उसे हम गृहलक्ष्मी, परिवार की समृ(,ि अन्नपूर्णा, कल्याणी कहते हैं। कल्याणी अर्थात्‌ आनन्द, प्रसन्नता, सुख, प्रकाश, प्रफुल्लता लाने वाली। इसीलिए कृष्णराधा न कहकर राधाकृष्ण कहा जाता है। यह दैवीय प्रेम कथा है। जब श्रीकृष्ण दूसरा काम करने वृन्दावन छोड़कर द्वारिका जाने लगते हैं, तो अपनी बाँसुरी राधा को दे जाते हैं। भारत में यह बाँस से बनी होती है। राधा को एकमात्र यही भौतिक वस्तु श्रीकृष्ण से मिली थी। वह उनके प्रेम और याद में खो गयी। रात और दिन अहर्निश कृष्ण, कृष्ण रटती रही। और ऐसा कहा जाता है कि ईश्वर की इस सतत याद से वह ईवश्र ही हो गयी। वह श्रीकृष्ण वन गयी। फिर उसके मुख से राधा, राधा निकलने लगा। वह अपना ही नाम जपने लगी। जिसने भी उसे देखा, मूर्ख समझा। यह क्या है? वह कहती है कि मैं श्रीकृष्ण को प्यार करती हूँ और अपना ही नाम जप रही है। लेकिन यह उसका रूपान्तरण था, जिसकी प्राप्ति उसने चमत्कारिक रूप से सतत स्मरण और संपूर्ण प्रेम द्वारा की थी। कृष्ण, कृष्ण कहते हुए वह कृष्ण हो गयी थी और अब कृष्ण बनकर राधा, राधा कह रही थी।वस्तुतः कौन किसे प्रेम कर रहा है? कौन प्रेमी है और प्रियतम? यह भी पता नहीं चलता। यह प्रेम का चमत्कार है। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे हम जानें, खोजें, पाएँ और बिगाड़ दें। यह तो पशुता है, मूर्खता है, इन्द्रिय-प्रेम है, वासना का खेल है। वास्तविक प्रेम में न प्रेमी का पता होता है न प्रियतम का और जब प्र्रेम चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है, तो दोनों परस्पर लय होकर एक हो जाते हैं, पे्रमी भी समाप्त हो जाता है, प्रियतम भी, प्रेम भी समाप्त हो जाता है। फिर तो एक संयुक्त एकतताब( अस्तित्व बचता है, जो कुछ नहीं जानता, उसे न तो अपने अस्तित्व का पता होता है, न ही पहचान का। यहाँ हम अपने लक्ष्य पर पहुँचते हैं।

पार्थ सारथी राज गोपालाचारी के प्रवचन से

Monday, June 22, 2009

यहाँ न किसी का जन्म होता है न किसी की मृत्यु होती है

हमारे ब्रह्मांड का मुख्य घटक द्रव्य है, इसे हम दो भागों में बांट सकते हैं, 1 सूक्ष्म 2 स्थूल द्रव्य सूक्ष्म रूप में रहता है, जबकि पृथ्वी सहित अन्य ग्रहों एवं उपग्रहों पर सारा द्रव्य स्थूल रूप में रहता है। हमारा सारा ब्रह्मांड गतिशील एवं परिवर्तनशील है हम देखते हैं कि यहां प्रत्येक जीव एवं वनस्पति का जन्म होता है एवं उसका जीवन काल पूरा होने पर मृत्यु होती है, इसी प्रकार निर्जीव पदार्थ बनते एवं नष्ट होते रहते हैं, परंतु वास्तविकता यह नहीं है यहां न किसी का जन्म होता है न किसी की मृत्यु होती है यहां सिर्फ द्रव्य का रूप परिवर्तन होता है। इसी को हम जन्म मृत्यु का नाम दे देते हैं, इसलिए इस संसार को मायावी जगत या नश्वर जगत भी कहते हैं। यह द्रव्य ईश्वर से लेकर स्थूल पदार्थों तक अपना रूप परिवर्तन करने में सक्षम होता है, सूक्ष्म द्रव्य जैसे प्रकाश तरंग शब्द विचार मन आदि स्थूल पदार्थ जैसे सजीव निर्जीव ग्रह उपग्रह आदि, सब इसी द्रव्य से उत्पन्न होते हैं एवं इसी द्रव्य में लीन होते हैं। स्वयं ब्रह्मांड भी इससे अछूता नहीं है इसका भी जन्म एवं मृत्यु होती है हमारा सूर्य अपने अंतिम समय में फैलने लगता है एवं अपने सभी ग्रहों को भस्म कर अपने में लीन कर लेता है इसके बाद इसका ठंडा होना एवं सिकुडना शुरू होता है अंत में यह ब्लेक होल एक कृष्ण विवर में बदल जाता है जिसमें कि असीमित गुरूत्वाकर्षण होता है इतना कि यहां से कोई तरंग या प्रकाश भी परावर्तित नहीं हो सकता अत: इन्हें किसी प्रकार देखा नहीं जा सकता । वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड में इनकी उपस्थिति का पता लगा लिया है, इसी प्रकार जब ब्रह्मांड के सभी सूर्य एवं तारे कृष्ण विवर में परिवर्तित हो जाते हैं तब ये अपने असीमित गुरूत्वाकर्षण के कारण एक दूसरे में समा जाते हैं एवं एक पिंड का रूप ले लेते हैं इस पिंड में ब्रह्मांड का सारा द्रव्य ईश्वर रूप में होता है। इतने अधिक दबाव पर द्रव्य परमाणु या अन्य किसी रूप में नहीं रह सकता इसी को जगत का ईश्वर में लीन होना कहते हैं। जब इस पिंड का संपीडन अपने चरम बिंदु पर पहुंचता है तब इसमें महाविस्फोट होता है इस महा विस्फोट के कारण ब्रह्मांड असंख्य वर्षों तक फैलता रहता है।

Sunday, June 21, 2009

पानी के संग्रहण की समस्या ही सबसे प्रमुख साबित होने वाली है।


विशेषज्ञों का मानना है कि अभी संसार में मानव जितना पानी इस्तेमाल कर रहा है अगले दो दशकों में यह और अधिक बढ़ेगा। यह इस्तेमाल वर्तमान के मुकाबले ४० प्रतिशत अधिक तक जा सकता है। विषय विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इन बातों से अत्याधिक चिंतित हैं और मानते हैं कि यह शताब्दी मानव सभ्यता के लिए पिछली शताब्दियों जितनी आसान साबित होने वाली नहीं है। वैज्ञानिक मीठे पानी के सबसे प्रमुख श्रोत बारिश के पानी को संचित करने पर जोर दे रहे हैं। जिन जगहों से नदियाँ बह रही हैं, वैज्ञानिक उन जगहों के लोगों से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि वो इस अथाह जल राशि को अपनी आँखों के सामने से यूँ ही बह नहीं जाने दें और उसे संचित करने के यत्न करें। वैज्ञानिकों के अनुसार इस शताब्दी में ग्लोबल वार्मिंग के बाद पानी के संग्रहण की समस्या ही सबसे प्रमुख साबित होने वाली है। खेती कहाँ से होगी : मीठे पानी का सबसे अधिक उपयोग खेती में होता है। मानव द्वारा उपयोग में लिए जाने वाले पानी का ७० प्रतिशत सिर्फ खेती के लिए होता है। वर्ल्ड वाटर काउंसिल के अनुसार २०२० तक खेती के लिए उपयोग होने वाली पानी में १७ प्रतिशत का इजाफा होगा। अगर यह नहीं हुआ तो विश्व का पेट भरने में मुश्किल आ जाएगी। इस बात को सोचकर ही रूह काँप जाती है कि अगर खेती के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिला तो विश्व की एक बड़ी आबादी को रोजाना भूखे पेट सोना पड़ेगा। और इनमें से भी कई प्यासे रह जाएँगे। अफ्रीका में तो प्रतिदिन ५० हजार बच्चे पाँच साल का होने से पूर्व ही काल के गाल में समा जाते हैं और इसकी वजह सिर्फ भूख होती है। एशिया पर सबसे अधिक संकट : दुनिया की ६० प्रतिशत आबादी को अपने में समाहित करने वाला एशिया महाद्वीप जल संकट का सबसे अधिक सामना कर रहा है। इस महाद्वीप में भी दक्षिण एशिया की हालत सबसे अधिक खराब है, जहाँ की ९० प्रतिशत आबादी जल संकट का सामना कर रही है। लेकिन सिर्फ ऐसा नहीं है कि विकसित देश और योरप तथा अमेरिका जैसे महाद्वीप जल संकट से अछूते हैं। यहाँ भी हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं। ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक (जीयो-३) की रिपोर्ट के अनुसार २०३२ तक संसार की आधी से अधिक आबादी भीषण जल संकट की चपेट में आ जाएगी। भू-जल का उपयोग सौम्य चोरी : वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के गर्भ में सुरक्षित भू-जल को रिर्जव वॉटर कहा है। लेकिन भारत में जहाँ-तहाँ बोरिंग करवाकर इसका उपयोग शुरू कर लिया जाता है। ऐसा विश्व के कई अन्य देशों में भी किया जाता है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को प्रकृति के बैंक से की जा रही चोरी की संज्ञा देते हैं क्योंकि इस अमूल्य पानी के उपयोग के बदले कुछ भी चुकाया नहीं जाता। वहीं भारत के जल प्रबंधन विशेषज्ञ अनुपम मिश्र इसे पानी की सौम्य चोरी की संज्ञा देते हैं।

Saturday, June 20, 2009

पीने योग्य मीठा पानी बहुत ही सीमित है

प्रस्तुति : सचिन शर्मा

दुनिया में पानी की मात्रा सीमित है। हालाँकि हमें हमेशा से यही सुनने को मिलता रहा है कि पानी असीमित है। संसार में पानी की बहुतायत है और इसलिए मानव जाति ने पानी का हमेशा दुरुपयोग ही किया। लेकिन यह बात गलत साबित हो गई और २०वीं शताब्दी के अंत तक हमें पता चल गया कि पीने योग्य मीठा पानी बहुत ही सीमित है और इसी सीमित पानी से संसार में रहने वाली सभी प्रजातियों (मानव समेत) को गुजारा करना होगा। वैज्ञानिकों के अनुसार अगले दो दशकों में पानी की कमी के कारण हमें जो कुछ भुगतना पड़ सकता है, उसकी फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथ्वी का नक्शा देखने पर हमें लगता है कि वह सब तरफ से नीली ही नीली है। संसार का ७५ प्रतिशत भाग पानी है। यहाँ सागर हैं। महासागर हैं। बड़ी-बड़ी खाड़ियाँ हैं, लेकिन यह हमारे किसी काम के नहीं हैं। यह सब नमकीन है। हम इन्हें पीने के उपयोग में नहीं ले सकते, इनसे खेती नहीं कर सकते। हाँ, यह अलग बात है कि ये पानी के अथाह भंडार विश्व के वायुमंडल, तापमान और मौसम को नियंत्रित करने में महती भूमिका निभाते हैं लेकिन हमारे जिंदा रहने के लिए जरूरी पीने का पानी इन श्राोतों से नहीं मिल सकता। बात सिर्फ पीने योग्य पानी की करें तो विश्व के कुल भू-भाग में हिलोरे ले रहा ७५ प्रतिशत भाग यानी पानी का सिर्फ २.५ प्रतिशत ही मीठा पानी है। इस ढाई प्रतिशत मीठे पानी का भी ७५ प्रतिशत भाग ग्लेशियर और आइसकैप्स के रूप में संरक्षित है। ये ग्लेशियर और आइसकैप्स दुनिया में दुर्गम जगहों पर स्थित हैं और हर किसी की वहाँ तक पहुँच संभव नहीं। इतना ही नहीं ग्लोबल वार्मिंग के चलते इन बर्फीले पानी के श्रोतों पर भी नजर लग रही है और ये पिघल रहे हैं। इनके पिघलने से मीठा पानी कई जगह नमकीन समुद्री पानी से मिलकर बेकार हो जाता है। आर्कटिक और अंटार्कटिक से पिघलकर बह रहा मीठा पानी इसका उदाहरण है। सिर्फ उस पानी की बात करें जो मनुष्य के लिए उपलब्ध है तो वो धरती के कुल पानी का मात्र ०.०८ प्रतिशत ही है। मीठे पानी का सिर्फ ०.३ प्रतिशत ही नदियों और तालाबों जैसे श्रोतों में मिलता है। बाकी जमीन के अंदर भू-जल के रूप में संरक्षित है। लेकिन अब भूजल पर भी लोग डाका डालने लगे हैं और इसका बेतरतीब उपयोग सब जगह हो रहा है।

Thursday, June 18, 2009

जल के गुण तथा शक्तिः- मनुष्य जीवन हेतु जल अनिवार्य है, यह भूमि की उपज को सुरक्षित रखने हेतु उसे पोषित करता है। यह पोषण से कहीं अधिक पोषण का स्त्रोत है अतः इसकी तुलना न केवल दूध से की गयी है वरन्‌ "गाय'' से भी यह अत्यंत उपयोगी है। यह प्राणाधार है। मृत्यु तथा रोग से यह मनुष्यों को दूर रखता है यह इसका मूल सि(ान्त है। अथर्ववेद के एक सूक्त में इसे इस प्रकार कहा गया है कि "जिस प्रकार माता के दूध से पुत्र को पोषण प्राप्त होता है उसी प्रकार जल के भीतर विद्यमान उत्तम सुखदायक रसों से हमारे शरीर, मन और आत्मा की शक्तियों की वृ(ि हो।'' इसी प्रकार कुछ सूक्तों में जल को कूओं तालाब, तथा घड़ों में एकत्रित करने के संदर्भ में बताया गया है। जो यह बताता है कि तत्कालीन रिग्वैदिक आर्य जल का महत्व समझते थे। जल को आरोग्य वर्धक तथा रोगनिवासक कहा गया है।
रिग्वैदिक नदियाँ:- रिग्वेद के अनेक स्थलों पर नदियों का जल उल्लेख हुआ है वर्तमान में भी अस्तित्व में है परन्तु कुछ विलीन हो चुकी है या अपना अस्तित्व खो चुकी है। वर्तमान में भी नदियां तो किसी भी राष्ट्र की प्राणदायिनी शक्तियां होती हैं। रिग्वेद के लगभग तीन स्थलों पर २० नदियों का उल्लेख हुआ है। नदी सूक्त ;१०/७५द्ध में नदियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख है तथा यह बताया गया है कि नदियों को इन्द्र लाया। यह भी उल्लेख किया गया है नदियां व्यक्ति को पापों से मुक्त करके जीवन को पवित्र करती हैं। अर्थवेद में इन्हें देवी स्वरूप बताकर कहा गया है कि ममतामयी मां होकर इन्होंने मनुष्य की भौतिक आकांक्षाओं को पूरा किया .

उपलब्ध नदियाँ:- रिग्वैदिक नदियाँ जो आज से हजारों वर्ष पूर्व थी तथा इनका उल्लेख रिग्वेद एवं वेदों तथा उपनिषद, एवं ब्राम्हण ग्रंथों में आया है वर्तमान में भी अस्तित्व में है तथा ईश्वर की सृष्टि का वर्णन करती हैं। जो मानव हेतु रची गयी।

गंगा - तीन बार इसका उल्लेख रिग्वेद में आया है। नही सूक्त में सर्वप्रथम गंगा का वर्णन आया है। जिससे उसकी श्रेष्ठता सि( होती है। यह नदी वर्तमान में सम्पूर्ण उत्तर भारत में बहती है। तथा भारतीय विख्यात तीर्थ स्थल इसके किनारे पाये जाते हैं।

यमुनाः- रिग्वेद में तीन बार इस नदी का उल्लेख मिलता है।सरस्वतीः- लगभग ४० बार इस नदी का उल्लेख आया है। इसे माता के रूप में बताया है इसका उदगम स्थल मीरापुर पर्वत तथा बीकानेर में विलुप्त होता बताते हैं। प्रयाग में गंगा यमुना में मिल गयी हैं तथा रिग्वेदिया सप्त सरिताओं में एक है। "इस नदी को सबसे अधिक वेग वाली तथा जलाशय में सब नदियों से बढ़कर बताया गया है। अन्य नदियां तो उसमें जाकर इस प्रकार मिलती है जैसे रंभाती गौवें अपनी बछड़ों के पास दौड़कर जाती हैं।'' उपरोक्त नदियों के अलावा गोमती, सरयू, वितस्ता, झेलम, इत्यादि नदियों का भी उल्लेख आता है। परन्तु नर्मदा जो विशेषतः मध्य प्रदेश में बहती है जो वर्णन कहीं भी नहीं पाया जाता है।

Monday, June 15, 2009

जल के विषय में प्रचलित मिथक

जल के विषय में कइZ मिथक प्रचलित हैं। यद्यपि यह मिथक है जिन्हें हम प्रभाविक नहीं मान सकते हैं परन्तु इनसे हमें यह अवश्य पता चलता है कि जल कितना पवित्र तथा बहुमूल्य है।वैदिक मिथ: एक चमत्कारिक घटना पायी जाती है, जिसमें अधिकार ब्रम्हाण्डीय देवता जल में विचरण करते हैं, वरूण देवता जो प्रकृति पर आधिकार रखते हैं, उनका पानी से बड़ा गहरा संबंध बताया गया है। मित्र के साथ मिलकर वह वषाZ का कारण होते हैं तथा इन्द्र के साथ मिलकर वह यह घोषणा करते हैं कि ‘‘वह मैं हूँ जो सम्पूणZ जल में फैला हुआ ;दौड़ताद्ध हूँ।’’ वरूण को पानी का अभिन्न भाग बताया गया है। जिसे इस प्रकार वणिZत किया गया है ‘‘वह ;वरूणद्ध जल में विश्राम करता है तथा उसका स्वणZमय घर उस पर बना हुआ है दो समुद्र उसकी अंतड़ियां हैं पानी की प्रत्येक बूंद में वह छुपा हुआ है।’’ यद्यपि यह मिथ है परन्तु यह स्पष्ट है कि पानी की बूंद में यदि देवता हैं तो अवश्य ही जल को अपवित्र नहीं करना है।साइबेरियन मिथ:- इस प्रकार पाया जाता है कि प्रारम्भ में जल सब ओर था, इसी समय डोह जो प्रथम शामनी और समुद्र के जल में पक्षयिों के साथ उड़ रहा था तथा कहीं भी विश्राम न पा सका तब उसने रक्तमय छाती युक्त दुष्ट से कहा कि समुद्र में गोता लगा कर कुछ पृथ्वी लाओ। तीसरे प्रयास में वह गोता लेकर अपने साथ कीचड़ लाया जिसे डोह ने बफाZच्छादित किया तथा यह जल बन गया। इसी प्रकार आस्टेªलियाइZ परंपरा में भी पृथ्वी को जलमग्न बताया गया है तथा कइZ आत्माओं के विचरण करना भी बताया गया है। उपरोक्त तथ्यों के अध्ययन से हम यह कह सकते हैं कि जल का स्थान सृष्टि में है तथा शुद्ध एवं पवित्र जल मनुष्य के जीवन हेतु अत्यंत महत्वपूणZ है वेद संहिता में जल को अत्यंत सम्मान दिया गया है तथा सम्पूणZ सृष्टि से इनका संबंध बताया गया है।

Sunday, June 14, 2009

वेदों ने भी बताया जल का महत्व भाग 1

जलः- संस्कृत शब्द आपः है। वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत हिन्दी कोश में इसका गुण बताया गया है। स्फूर्तिहीन ठंडा, शीतल तथा जड़। हिन्दु धर्मकोश में इसकी उत्पत्ति इस प्रकार बतायी गयी है ÷÷पृथ्वी के परमाणुकरण स्वरूप से विराट पुरूष ने स्थूल पृथ्वी उत्पन्न की तथा जल को भी उसी कारण से उत्पन्न किया।'' इसी प्रकार पुरूष सूक्त के सत्तरहवें मंत्र में कहा गया है कि परमेश्वर ने अग्नि के परमाणुओं के साथ जल के परामाणुओं को मिलाकर जल की रचना की। जल वायु के बाद पृथ्वी सम्पूर्ण रूप से वितरित तत्व है। तथा ७५ः भाग पृथ्वी को घेरे हुये हैं। न केवल भारत वरन्‌ विश्व के अनेक प्राचीन देशों में तथा प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यताओं में जल का विस्तृत विवरण है। तथा इसे सर्वोच्च महत्ता दी गयी है जल न केवल मनुष्य के जीवन का महत्वपूर्ण भाग है वरन्‌ उसके धार्मिक जीवन को भी प्रभावित करता है। प्रजनन शक्ति से भरपूर होता है तथा रोगों को नाश करने में भी यह अत्यंत लाभदायक है। बशर्ते वह शु( जल होना चाहिए। )ग्वेद का एक सूक्त जल की महत्वता को इस प्रकार बताता है। अत्स्वन्तरमृतंमप्सु भेंषजमपामुव प्रशंस्तये। देवा्‌ भक्त वाजिनः॥हे विद्वान पुरूषो, जलों के भीतर जो भार डालने वाले रोगों के निवारण करने वाला अमृत रूप रस है तथा जल में ही सब रोगों को दूर करने वाला बल भी है, उसको जानकर जल की क्षमता का ज्ञान प्राप्त कर बलवान हो जाओ। रिग्वैदिक काल में जल को आपः देवता कहा गया है तथा ऐसा माना जाता है कि यह हिंद ईरानी देवता है। जल का संबंध इंद्र देवता से भी है तथा रिग्वेद के लगभग एक चौथाई मंत्रों में यह संबंध प्रगट है। इंद्र को ÷÷मनुष्य रूप से यह वर्षा का देवता है जो कि अजावृष्टि अथवा अंधकार रूपी दैत्य से यु( करता तथा अवरु( जल को विनिर्मुक्त बना देता है। आपः जो जल का देवता है जिनसे यह प्रार्थना की गयी है कि वह सभी प्रकार के जलों से हमारी रक्षा करें समुद्र का जल नदी का जल, कूप तथा तालाब के जल से भी हमारी रक्षा करें। उपरोक्त मंत्र से यह प्रतीत होता है कि रिग्वेद काल में भी जल को तालाबों तथा कूपों में एकत्रित किया जाता था।जल का सेवनः- रिग्वेद के एक मंत्र में जल के देवता आपः को इस प्रकार बताया गया है ÷÷आपः देवता औषधियों से युक्त है, इसीलिये पुरोहितों को इनकी स्तुती हेतु तत्पर रहना चाहिये।'' एक मंत्र में इस प्रकार बताया गया है कि ÷÷इनकी स्तुती मात्र से मानव रोग तथा पाप से मुक्त हो जाता है।'' तत्कालीन रिषियों तथा मुनियों ने तथा आर्यों ने जल की महत्वता तथा उसके गुणों को पहचाना था अतः उपरोक्त मंत्रों की रचना उन्होंने की तथा यह बताया कि "हे जल, इस जीवन में तुम्हें हम अनुकूलता से सेवन करते हैं, तुम्हारे रस स्पर्श तथा तुम्हारे स्वादगुण से हम सम्पन्न होते हैं।.......... हमें तेजस्वी कीजिये।'' जल का संबंध न केवल अग्नि से है वरन्‌ कई पौधों से भी इसका संबंध है। जानवरों विशेषतः सर्प सबसे महत्वपूर्ण है जिससे इसका संबंध है उनमें चीटियां तथा मेंढक भी सम्मिलित हैं। इन संबंधों से हम यह जानते हैं कि पर्यावरण की सुरक्षा यह प्राणी किस प्रकार से करते हैं। जल की तुलना मधु से की गयी है "तथा कहा है कि जल की लहरों में मधु के समान धनाड्यता है।''

Friday, June 5, 2009

रहिमन पानी राखिए.....

ग्लोबल वार्मिंग, पिघलते ग्लेशियर, नीचे जाता जल स्तर और इंसान द्वारा धड़ाधड़ किया जा रहा जल दोहन भयावह भविष्य की ओर इशारा कर रहा है। समूची मानव जाति पर पानी की कमी के बादल मंडराने लगे हैं। दुनिया भर के विद्वान और वैज्ञानिक चीख चीख कर कह रहे हैं कि अगर इंसान ने इस दिशा में ध्यान न दिया तो पानी के लिए दुनिया में जंग हो सकती है। आज जिस बात को वैज्ञानिक कह रहे हैं उसे हमारे मनीषी हजारों हजार साल पहले से जानते थे। केवल वैदिक ही नहीं समस्त सभ्यताओं और धर्मों ने पानी के महत्व को स्वीकार कर इसे स्तुतियोज्ञ माना था। वैदिक संहिताओं में पंचमहाभूतों का वर्णन किया गया है तथा उनके महत्व को बताया गया है। अवश्य ही यह पर्यावरण संतुलन में अत्यंत सहायक है तथा एक दूसरे पर निर्भर है। प्रकृति में पांच आकारो में उपस्थित है, आकाश, वायु, अग्नि ;तेजद्ध, जल ;आपःद्ध तथा पृथ्वी है। दर्शनशास्त्र में इनका विशेष महत्व है। तत्कालीन वैदिक संस्कृति तथा संदर्भ में उपरोक्त तत्वों का क्या महत्व था हम वैदिक संहिताओं में स्पष्ट रूप से पाते हैं। वेदों के कई सूक्त इनकी प्रशंसा में रचे गये हैं जिनका वर्तमान मानवीय जीवन से गहरा संबंध है। प्राचीन काल में ही नहीं रहीम और कबीर ने भी पानी की बहुमूल्यता को समझा तभी तो कहा था कि रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। लेकिन आज हम इसे बेकार कर रहे हैं। इसे संरक्षित करने की आवश्यकता है। इस विषय पर विस्त्रत आलेख इस श्रंखला में प्रकाशित हैं।