आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Tuesday, December 14, 2010

ज्ञान की शुरूआत होती है, सुनने की इच्छा से.......



अब इसमें सबसे पहले चीज आती है, सुनने की इच्छा। पिछले गुरूपूर्णिमा पर्व पर यही कहा था कि ज्ञान की जो शुरूआत होती है, वो सुनने की इच्छा से होती है। और जिसकी सुनने की इच्छा नहीं है, जिसको सुनने की इच्छा नहीं है, उसकी सारी बुद्धि उल्टी। क्योंकि जब आदमी सुनता है, तभी बोलना सीखता है, तभी उसके अन्दर कोई चीज आती है और सुनना नहीं जानते तो तुम कुछ सीख नहीं पाओगे और कुछ ऐसा हो जाऐगा, जिससे सुनने की चाहत ही नहीं होती। और सुनना ही चाहता है, बोलना नहीं चाहता तो उसकी इच्छा ही नहीं है, तो ज्ञान कहाँ से शुरू हुआ? हमारे यहाँ ज्ञान की जो शुरूआत है 'श्रवण' से है।


'श्रवण' का अर्थ है सुनना। पहले लोग सुनते थे। अब लोग सुनते ही नहीं हैं, इसलिए बोलते नहीं हैं। कोई बोलना जानता है? नहीं जानता। कोई नहीं बोलना जानता। बोलने की मालुम कब पड़ती है? जहाँ खाने पीने की, लेने-देने की, देखी-सुनी बात नहीं हो। उसके बारे में बात कही जाती है। खाने की, पीने की, लेने की, देने की, देखी, सुनी बाते हैं। धर्म क्या है? नीति क्या है? धर्म दिखेगा नहीं, सुनी हुई चीज है, धर्म के बारे में तुम जानते हो? नहीं जानते। कोई जानता है? सुना जरूर है। किसी से पूछो धर्म क्या है, तो कोई बता सकेगा? क्यों कि ये सुनने से आता है। ये महापुरूषों के पास बैठने से आता है, ये उनकी सेवा करने से आता है। सुनने की इच्छा सब बदल देती है। शुरूआत लेकर आती है। तुम्हारी जिन्दगी किस के लिए है, ये तुम्हारे लिए अहम चीज है। सुनने की इच्छा, लेकिन मेरे मन के भीतर ऐसे कपड़े हैं, मेरे मन के भीतर ऐसी दीवार बनी हुई है, मेरे मन के भीतर ऐसी चीजें भरी पड़ी हैं, जो कहती हैं कि,÷÷मैं जिस बात को कहुँगा वही सही है। और मैं नहीं कह पाया तो बहुत गलत हो जाऐगा।'' ये जो आदमी के अन्दर उल्टी चीज हैं, ये जो आदमी के अन्दर उल्टा वहम है, ये जो आदमी के अन्दर अपने को श्रेष्ठ योनी मान लेने की बात है। जब तक ये आग्रह नहीं जाऐगा तब तक ज्ञान की श्रेणी में प्रवेश नहीं कर सकते हो, चाहे तुम जज हो, कलैक्टर हो, प्ण्।ण्ै हो, च्ण्ब्ण्ै हो, प्रॉफेसर हो, प्रिंसीपल हो, हो सकता है कि तुमने पूरा देश ही टॉप किया हो और तुम संसार के पहले आदमी हो, लेकिन यहाँ उसका कोई महत्व नहीं है। तुम संसार के सबसे बड़े आदमी संसारी चीजों के लिए हो सकते हो, लेकिन जिन्दगी के बारे में कुछ नहीं जानते हो। हम बहुत बड़े वैज्ञानिक होते हैं, हम बहुत बड़े डॉक्टर होते हैं, हम बहुत बड़े प्रॉफेसर होते हैं, लेकिन जब अपनी समस्या आती है, तो फेल हो जाते हैं। ये जो हम पढ़ रहे हैं। बहुत सालों से पढ़ रहे हैं, लेकिन किसी वैज्ञानिक ने ैनबपकम ;आत्महत्याद्ध किया, माने कोई वैज्ञानिक अपने आप मर गया। वैज्ञानिक जो प्रकृति की बड़ी-बड़ी चीजों को जानते हैं, जिन्हें हम नहीं जानते। उन्होंने डवइपसम चीवदम बनाए, रेडियो बनाए, टी।वी सैट बनाए, और फोन बनाए, चन्द्रमा पर पहुँच गए। जो लोग चन्द्रमा पर पहुँच गये वो खोपड़ी कभी नहीं पहुँच पाती। क्यों? जान जाईए। ये बात बुद्धि की है, ये बात दिमांग की है, ये बात समझ की है। श्रवण की इच्छा। जिसके अन्दर श्रवण की इच्छा नहीं है, वो अपनी जिन्दगी के हर पहलू पर फेल होगा। चाहे कितना ही बड़ा अफसर हो, कितना भी बड़ा प्ण्।ण्ै हो। सुनने की इच्छा होती है, सही होती है, सही बुद्धि होती है, तो सुन भी सकता है और सुना भी सकता है। ऐसे कितने लोग हैं जो बोलना जानते हैं? नहीं जानते। सुनी हुई बातों को सुनाना जानते हैं। जो धर्म की चीज है, उसके बारे में बोल सकते है हैं? जिन्दगी की समस्या को नहीं सुलझा सकते। बड़े-बड़े ऊँचे मण्डलेश्वर हैं, महामण्डलेश्वर हैं, साधु हैं, महात्मा हैं, सब बड़े संयम नियम से रहते हैं। लेकिन अपने दिमांग के आगे सरैण्डर हो जाते हैं, फेल हो जाते हैं। दिमांग ऐसा बबण्डर बना देता है कि बड़े-बड़े योगी बड़े-बड़े ज्ञानी- ध्यानी की नींद नहीं, जिन्दगी बरबाद कर देता है। क्यों? कहाँ कमी रह गई। सुनने की कमी रह गयी, सुना, पर पूरा नहीं सुना। बहुत सुना, इसलिए बहुत समझ गए, लेकिन पूरा नहीं सुना इसलिए फेल हो गए। सुनने की इच्छा, सुनने की इच्छा होगी तो बुद्धि सही होगी और भुलाने की इच्छा विपरीत बुद्धि के बीच है।


Sunday, December 5, 2010

बीमारी से ज्यादा उसकी बजह को जानना जरूरी है।

बीमारी को जानना जरूरी नहीं हैं, बीमारी की बजह को जानना जरूरी है। हम लोग क्या करते हैं, बीमारीयों को जानते रहते हैं और बीमारी की बजह को नहीं जान पाते, ऐसे ही आज कल के डॉक्टर क्या हैं, जो मशीन बता देती है ये रोग है, उसी का इलाज करते हैं, लेकिन उसकी बजह नहीं जानते हैं, तो डॉक्टर के पास जाते रहते हैं, रोगी बनकर दवा खाते रहते हैं। थोड़ी देर के लिए कहता है कि दवा खाई तो बड़िया रहा, ठीक रहा। और दवा बन्द कर दी तो फिर बीमार होगया।

क्यों? रोग को देखा, उसकी बजह को नहीं देखा। रोग जान लिया रोग की बजह का नहीं जाना। हर माँ-बाप यही करता है कि अगर बच्चे के अन्दर खराब आदत हैं तो खराब आदत को लेकर माँ लड़ती है, उसको सुधारती है। पिता भी यही करता है, टीचर भी यही करता है। आज कल के सुधारने वाले लोग हैं, जो अपने आप को कहते हैं,"हम गुरू हैं, हम सुधारक हैं या हम धार्मिक लोग हैं वो सब गन्दी आदत को पकड़े हुए हैं। उसकी बजह को नहीं पहिचानेंगे तब तक ये आदतें नहीं जा सकती। तुम्हारे घर में पानी आ रहा है और तुम उलीचते रहो। ये ऐसा पानी है जो आना बन्द नहीं होगा। उल्टी बुद्धि आना बन्द नहीं होगी, तुम बन्द हो जाओ, वो अच्छी रहेगी। घर में जो पानी आ रहा है, आता रहेगा, कब तक उलीचोगे? तुम उलीचोगे और थक जाओगे और तुम जरा भी हारे, थके, सोऐ, तो तुम्हारे घर में पानी भर जाऐगा, दीवार गिर गई, छत गिर गई।

पानी आऐ नहीं वो बात करो। पानी का आना रूकना चाहिए। पानी आ रहा है, कोई बात नहीं है। पानी कहाँ से आ रहा है? क्यों आ रहा है। उस बात को जानना जरूरी है। पानी कहाँ से आ रहा है? पानी जब आता है, तो कभी कभी मालुम पड़ता है कि यहाँ से आ रहा है और कभी कभी मालुम नहीं पड़ता कहाँ से आ रहा है। अब तो खैर लोग पाईप लाइन से पानी बनाते हैं, लेकिन जब मैड़ बाँध कर पानी लगाने जाते हैं तो ऐसा होता था कि पानी एक खेत दूर जा कर फूट रहा है, तो जो पानी फूटने की वजह है, वो एक खेत पीछे है। जहाँ से पानी फूट रहा है, वहाँ से बन्द कर दिया, तो दूसरी जगह, फिर तीसरी जगह वहाँ से बंद किया, तो चौथी जगह, पता चला कि पूरी मैड़ तोड़ दी। अब मैड़ ही तोड़ दी तो क्या करोगे? पूरे घर को साफ कर दो, तब भी बंद नहीं होगा, मालुम पड़ा कि यहाँ से पानी जा रहा है। उल्टी बुद्धि कहाँ से आ गयी? जो लोग कहते हैं तुझ में बुद्धि नहीं है, सुधर जा। जो कह रहा है, वो खुद ही समझदार नहीं है, खुद ही सुधरा हुआ नहीं है। जो लोग गुरू बनते हैं, सिखाने वाले बनते हैं। मम्मी पापा हैं, जो खुद ही बिगड़ जाते हैं, खुद ही बिगड़े हुए हैं, तुम्हें क्या सुधारेंगे, बजह नहीं जानते। बजह न जानना ही विपरीत बुद्धि है। और बजह न जानना, केवल 'मैं' को बड़िया मानना, मैं जो सोचता हूँ बढ़िया है, मैं जो कहता हूँ बढ़िया है। मेरी बात को तुम समझते नहीं हो, मेरी परिस्थिती को तुम समझते नहीं हो, मैं ऐसा क्यों हो गया हूँ, तुम्हें पता नहीं। हमने अपनी जिन्दगी खराब कर ली अब पता नहीं खोपड़ी खराब करोगे, जिन्दगी खराब करोगे।

Tuesday, November 16, 2010

संत किसी भी रूप में मिल सकते हैं.......



कैसे पहचानोगे तुम? वो ही जब चाहेगा तभी तुम पहिचान पाओगे और नहीं चाहेगा तो तुम हजार किताबें पढ़ों, हजार चक्कर लगाओ नहीं पहिचान पाओगे। जिसके हाथ में बर्फ की सिल्ली है, तो वह आग की गर्मी क्या होती है कैसे जान पाऐगा? वो कहीं भी मिल सकते हैं, किसी भी रूप में मिल सकते हैं। संत मिल जाए तो, उसके कपड़ों पर मत जाना, उसके नखड़ों पर मत जाना, उसकी जगह पर मत जाना। तुम लोग ऐसी जगहों पर बहुत जाते हो। अगर मन्दिर में कोई बैठा है तो मान लेते हो कि कोई साधु ही होगा, कोई संत ही होगा। और तुम उसके पास जाते हो तो जो तुम्हारे हाथ हाथ मे है वो भी चला जाता है। तीर्थों में सोचते हो यहाँ तो अच्छे लोग रहते होंगे। तुम जगह देखते हो, तुम नाम देखते हो, तुम रूप देखते हो, तुम भेद देखते हो, भीतर क्या है? उसको नहीं देख सकते हो। उसको नहीं पहिचान पाओगे। इसलिए जो संत होते हैं, किसी मत के नहीं होते, धर्म के नहीं होते, किसी सम्प्रदाय के नहीं होते, किसी पंथ के नहीं होते। उन की जब कृपा होगी तो उनको तुम पूजोगे, लेकिन पूजने के लिए बात यही है, वहाँ तुम्हारे दिमांग में जो बैठा हुआ है, उसे बीच में मत लाना। अगर तुम्हारा दिमांग बीच में आ गया, तो तुम्हारी जिन्दगी का बहुत बड़ा खजाना था, उसे अपने आप खो दिया। फिर पता नहीं तुमको कितने जन्मों तक जुटाना पड़े, बात समझने की है, बात तपिस की है।


कृष्ण कहते हैं,"कपड़े उतारे हुए हो तो आ जाओ।'' लेकिन ये कपड़े दिमांग के होते हैं। दिमांग के कपड़े क्या हैं? वेदांत की भाषा में इसको अध्यास कहते हैं, शरीर का अध्यास। पतंजली इसको प्रत्यय या क्लेश भी कहती है। बात प्रत्यय की है। मानों ५ तरह के कपड़े हैं दिमांग में, या अगर बीमारी की कहो तो डॉक्टर से ५ तरह के रोग हैं। विपर्यय पहली बीमारी, पहला कपड़ा है। विपर्यय कहते हैं- उल्टी buddhi विपरीत बु(,ि उल्टी सोच। उल्टी सोच की बजह क्या होती है, वो अब जानना जरूरी है।

Thursday, November 11, 2010

बर्फ ओढ़ कर आग की तपिश नहीं मिलेगी........



लेकिन गर्मी कब मिलेगी? जब हम सामान्य रूप में जाऐंगे। आग के पास जाऐं और बर्फ ओढ़ कर बैठ जाऐं तो आग की तपिश कहाँ से मिलेगी? नहीं मिलेगी। जो आग की ताप है, टेम्प्रेचर है, वो बर्फ से ठण्ड़ा हो जाता है, बेजान हो जाता है। तुम बर्फ की सिल्ली लेकर गये और आग के पास बैठ गए तो कहेंगे कि आग ने तो कुछ नहीं किया हम तो ठण्डे ही रहे। ऐसे ही तुम किसी सन्त के पास में गए, किसी महापुरूष के पास में गए वो कोई भी हो सकते हैं, उनका कोई सम्प्रदाय नहीं होता, मजहब नहीं होता, कोई मत नहीं होता, कोई भेष नहीं होता कोई देश नहीं होता।


कोई ये कहे साधु तो गेरुए में ही मिलेंगे, नहीं, पेंट-सर्ट में भी रह सकता है, ट्रैक सूट में भी रह सकता है, सफारी सूट में भी रह सकता है, सलवार सूट में भी रह सकता है, नंगा भी रह सकता है, पागल भी रह सकता है। कलारी पर भी मिल सकता है, कोठे पर भी मिल सकता है। तुमने कथा सुनी होगी कि कोठे पर कोई सन्त रहता था, उसको वैश्या कहते थे लोग। लोगों की निगाहें उसी जगह पर ही होती हैं, भीतर नहीं होती, कोठे पर रहती थीं। वैश्याओं में रहती थी, वैश्या नहीं थी, कोठे वाली नहीं थी। उसके भीतर कोई कपड़ा नहीं था, मन पर कोई कवर नहीं था, कुछ नहीं था। जैसे तुम किसी शीशे के सामने हरा फूल रख दो, पत्ता रखोगे तो तुम कहोगे, "शीशा हरा है।'' शीशा हरा नहीं है, जो शीशे के पास में जो हरा पत्ता रखा हुआ है, हरा कपड़ा रखा हुआ है उसका हरा रंग है, शीशे का हरा रंग नहीं है। जैसे कोई संत कोठे पर रहता है तो वो कोठे वाले, कोठे वाले हैं। संत कोठे वालों में से नहीं हैं। उसमें उसका कोई भी रंग रूप, कोई भी लक्षण अवस्था, दोष, कुछ भी नहीं है।

Sunday, November 7, 2010

Who is Rudra?



Parma Bhagawat Divya Rudra is a divine personality whose dynamic philosophy endeares Him to masses wherever he goes. The good news is that he seldom stays at one place thus his mobility is a boon for the people belonging to different places where he goes to bless them with his divine presence and preachings.
His mobility is something visible to ones physical eyes but the equipoise and stillness within Him are seen only by His observant disciples who see Him with the eyes of ‘love’ or ‘gyan’.
He took his bodily form on 19th May 1958 at the Holy land of Braj in India. He took birth to continue His spiritual journey and to spread ight and peace. This became evident during His childhood only. When He was just six He came in touch with a saint to whom He used to go to offer his service. That saint used to say,”Bako bai mai hi mil jaego” (Everything has come out of Infinity and will return to Infinity). These mysterious words set Him on a quest for the Truth. That saint also made Him vow never to marry and never to enter a job. One day that holy saint left Him and Maharaj ji could never see him again but He always kept His vows. He has always been a thoughtful person having a keen insight into the innermost chambers not only of His divine self but also of the people around Him. This is what makes Shri Rudra, an Ahwan Akhara saint, a true Guru for a worthy seeker.
It is literally impossible to limit his teachings in words but He himself has termed that all that he says is aimed at teaching His humble disciples to learn the ‘Art of Dying’. Now, it may seem curious to some but here is a subtle message in it- if you remember that you have to die one day, you will know how petty the world and the worldly wealth are and this will certainly reap within you the divine fruit of vairagya, giving you peace of heart and mind and eventually letting you die in perfect peace remembering Him alone and attaining salvation.
This is just one gem of wisdom that comes from Him and He keeps showering so many everyday in His spiritual discourses, which appeal not only to heart but also to mind and intellect of the listeners, whom he lovingly calls ‘Shravaks’. We can only pray to the Holy Lord that His divine messages may benefit one and all. May all be influenced by the divine teachings of Guru and remain in the secure sphere of His pure thoughts forever………..

Tuesday, November 2, 2010

ख्वाब में भी बताते हैं

कैसे सुधरोगे? तुम तो बेकार हो बिल्कुल। इसलिए अपने दिमांग को बीच में मत लाना, कभी कोई महापुरूष आऐ तो अपने आप को खतम कर लेना। ऐसा नहीं कर सकते तो कम से कम-कम से कम फॉलो अनुसरण करना, पीछे चलना। वो क्या कहते हैं, समझ में नहीं आए तो चरण पकड़ लेना विनती करना, वो तुम्हें बता देंगे। और वो तुम्हें जुवान से नहीं बताऐंगे, कई तरीके से बताऐंगे-वो आँखों से भी बताते हैं, इशारों से भी बताते हैं, सोते हुए भी बताते हैं, बैठे हुए भी बताते हैं, ख्वाब में भी बताते हैं, नजदीक से भी बताते हैं, बहुत दूर से भी बताते हैं, उनकी हर अदा हमारे लिए शिक्षा होती है, अगर मन उसका अनुसरण कर सके, अगर उनको फॉलो कर सके। ये तुम्हारे लिए बहुत सकून की चीज होती है, और अगर तुम ऐसा कर सके और किसी महापुरूष की चरण की धूल भी मिल गयी तो तुम्हारे जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाऐगा, क्योंकि आग के पास जाते हैं तो अपने आप गर्मी मिलती है, बात सही है।

Thursday, October 28, 2010

जो हम अपने लिए चाहते हैं, वो दूसरे के लिए भी करें.......

लेकिन तुम ये नहीं सोचते कि ये फूल भी एक जिन्दगी है। इसकी भी कोई अहमियत है। जितना मैं अपने लिए फूल को चाहता हूँ, कि मेरी जिन्दगी के लिए जरूरी है। अपनी जिन्दगी के लिए किसी दूसरे की जिन्दगी को खराब करना, गुलाम करना, और किसी भी तरह उसको खराब करना, नुकसान पहुँचाना.............................
सोचना पडेगा कि अगर मेरे साथ ऐसा हो तो कैसा हो? मन यहाँ भी खतम नहीं होता, यहाँ भी कपड़े नहीं उतारता। हमें मर जाने दो, हमें तो बस यह फूल चाहिए। फिर क्या करोगे? लोग कहते हैं कि हमें वो चाहते हैं जो हम अपने लिए चाहते हैं, वो दूसरे के लिए भी करें। ये तो समझदार आदमी की बात है। हम अपने लिए बुरा नहीं चाहते तो दूसरे के लिए बुरा नहीं सोचते। कॉमनसैन्स की बात होती है।
अब कॉमन सैन्स रहा कहाँ? आदमी कहता है कि मैं चाहे मर जाऊँ, लेकिन ये चाहिए। मन दूसरे को मार सकता है, और मर जाने के लिए तैयार है, दूसरों को मारने के लिए तैयार है। उन लोगों के लिए गुरू का कोई मतलब नहीं। और जब मन मर जाने को तैयार है, दूसरों को मारने के लिए तैयार हो, खुद को मारने के लिए तैयार हो, उन लोगों के लिए जिन्दगी का मक्सद ही खतम हो गया। मन में फूल को लेकर एक कवर आया, कपड़ा आया, एक दीवार बनी। उसके पहले विचार कहां थे? उससे पहले मन कहां था? वहाँ जाने के लिए बहुत बड़ी बुद्धि चाहिए, बहुत बड़ा तप चाहिए, बहुत बड़ी तैयारी चाहिए।
इसीलिए तो गुरू के पास जाते हैं, लेकिन तप ने के लिए नहीं जाते हैं। इसीलिए इन महापुरुषों ने गुरूपूर्णिमा अषाढ़ की रखी कि पहले तप चाहिए, पहले आग चाहिए। कैसी आग? ऐसी आग नहीं जो तुम्हें जलाऐ या किसी का घर जलाऐ। ऐसी आग, जिससे पानी बरसे। ऐसी आग जिससे ठण्डी हवाएं चलें। ऐसी आग जिससे प्रकृति पूरे शवाब पर और सुन्दर दिखाई दे। ऐसी आग, ऐसी चिन्गारी। उसको तप कहते हैं। वो महापुरूष धन्य हैं, वो धन्य है, जिसके अन्दर इतनी आग होती है। जिसके अन्दर इतनी तपिस होती है, जिसके अन्दर इतनी हीट होती है, ओजस होती है, ऊर्जा होती है, शक्ति होती है, पावर होती है, वो इस संसार में धरती के लिए वरदान होते हैं। और सच कहा जाऐ तो भगवान से भी बडे+ होते हैं, ऐसे महापुरूषों की जीवनियाँ पढ़ोगे तो तुम्हें सुधरने की जरूरत नहीं है।
क्या करोगे? कैसे सुधर सकते हो? तुम न सुधरने को जानते हो और न बिगड़ने को जानते हो। अगर तुम सुधरने को जानते हो तो बिगड़ते ही नहीं। अगर तुम बिगड़ते ही रहे हो तो न तुम बिगाड़ को जानते हो और न सुधार को ही जानते हो।

Sunday, October 17, 2010

दर्द दिमांग में कपड़ा बन कर बैठ गया है.......

इस में बहुत बड़ी जानकारी और बहुत बड़ा हमारा आग्रह है और हमें लगता है कि हमने ये चीज छोड़ दी तो पूरी जिन्दगी का मकसद ही बदल जाऐगा। इतने उसमें इन्वॉलव हो गए हैं। मुझे कोई फूल प्यारा लगता है, वो फूल दिखा, फूल मन को इतना भा गया कि वोही फूल होना चाहिए। लेकिन वो फूल ऐसा है कि जो मेरे बस की बात नहीं है, जो मेरे रैन्ज में नहीं है, जो मेरे अधिकार में नहीं है, जो मेरे पावर के वश की बात नहीं है। जो उस फूल का दर्द है, वो मेरे दिमांग में कपड़ा बन कर बैठ जाएेगा। वो कपड़ा, फूल की चाहत, उसकी सुन्दरता, उसका सुकून, उसका सुख, फूल का महत्व, फूल का रंग रूप, और फूल का जो फल है, जिसको में ले लू तो मेरा ऐसा हो जाऐगा, वैसा हो जाऐगा। ये सारी चीजों को लेकर के रात की नींद, दिन का चैन खत्म, ये ऐसा कपड़ा है। और ये जो सारी चीजें हैं, खटकने की चीजें हैं। ये भी खतरनाक कपड़ा है।

Wednesday, October 13, 2010

मुंह में नमक का डेल है तो मिठास नहीं आ सकती.....

मेरा मन कहीं अटका हुआ है, मेरे मुंह में कोई नमक का डेल है तो उस से मिठास नहीं आ सकती, लेकिन नमक की डली को फैंक दोगे तो मिठाई की मिठास लेने के लिए कोशिश थोड़े ही करनी है। मिठाई तो मुँह में जाऐगी, अपने आप पता चलेगा। कितनी टेस्टी है, कितनी बड़िया है, कितनी आनन्ददायक है, कितनी स्वादिष्ट है, अपने आप पता चल जाऐगा। दिक्कत नमक की डेली को फैंकने की है, दिक्कतें दिमांग के कपड़ों को उतारने की हैं। जिसे पतंजली कहते हैं - योगश्चित्तश्यवृत्ति निरोधः। आम बोलचाल में सुख देव जी ने परीक्षित को समझाया कि ये कपडे+ उतारना।

पतंजली कहते हैं कि ये कपड़े क्या उतारना है? ये दिमांग में जो वृत्तियां हैं, वृत्तियां क्या हैं- जो चीज हमारे दिमाग को आवृत्त कर लेती है, ढक लेती है। हमारे दिमाग के ऊपर कोई चीज आ जाती है, तो दिमाग उसी चीज को देखता है और दिमांग उसी में फँस जाता है। सफेद कपड़े को तुम किसी रंग में डालो तो कपड़ा रंग में ढ़ल जाऐगा, रंग कपड़े में ढ़ल जाएगा। वो क्या था? उसको कौन बताएगा? ऐसे ही हमारा दिमांग होता है। दो तरह के रंग होते हैं दिमांग में eक , जिस को हम चाहते हैं, हमारा मन चाहता है। dउसरे जिस को हम नहीं चाहते। २ तरह के ही रंग हैं, दो तरह के कपड़े। एक जो हमारे मन को अच्छी लगती हैं, उसको चिपकना कहते हैं। और दूसरी वो जो हम को अच्छी नहीं लगती हैं, उसके जो विरोध की चीजें हैं उसको द्वेष कहते हैं। तो हमारा जो जीवन है, हमारा जो मन है, हमने जो कपड़े पहन रखे हैं। हमने चिपकने के लिए पहन रखे हैं, या खटकने के लिए पहन रखे हैं। चिपकने और खटकने के कपड़े हैं तो फिर जिन्दगी में चैन की चीज कहाँ से आई? और शान्ती की चीज कहाँ से आ जाऐगी? वास्तविक चीज कहां से आएगी। जिन्दगी का उद्देश्य किस के लिए है? कहाँ से आ जाऐगा? नहीं आयेगा। चिपकने को भी उतार दें और खटकने को भी उतार दें। और उतारना ऐसे ही नहीं। इन कपड़ों को उतारना कोई ऐसी बात नहीं है, लेकिन मन में जो कपड़े पहन रखे हैं, उनको उतारना। मन में जो कपड़े पहन रखे हैं चिपकने और खटकने के वही जो राग है।

Wednesday, October 6, 2010

गुरू एक मिठास की तरह से है........

तुम अपने मुँह में नमक की डली दबाओ और मिठाई खाओ तो मिठास मिल जाऐगी? नहीं मिलेगी। गुरू एक मिठास की तरह से है। गुरू की जो वाणी है, अमृत की तरह से होती है। संतों की जो वाणी है अमृत है। उस मिठास के लिए जो तुम्हारे मुँह में नमक है, उसे थूकना पडेगा। क्या तुम इसके लिए तैयार हो। अगर तुम ऐसा कर सकते हो तो गुरू के पास जाने के लिए न धन की जरूरत है और न किसी सिफारिश की जरूरत है, न किसी सुन्दरता की जरूरत है।

दक्षिण में एक संत हुए थे पीपा महाराज। उन के तो बाजू ही नहीं थे, घुटने से नीचे पाँव नहीं थे। शक्ल बहुत खराब थी, जैसे किसी खाली डिब्बे को उठा कर रख दो वहीं रखा रहेगा। उसे उठा कर रख दिया, वो वहीं है। क्योंकि हाथ नहीं सरक नहीं सकते, पाँव नहीं हैं खिसक नहीं सकते। तो उनका नाम रख दिया पीपा महाराज। लेकिन उनके पास वो चीज थी जो है असाढ़ की गर्मी। वो कपड़े उतारना जानते थे। कपड़े उतार के नंगे रहते थे। दिमांग में न अंश था न कुल था, न कुटुम्ब था, कुछ नहीं था। ये भी नहीं था कि मैं आदमी की सन्तान हूं। कुछ नहीं। और हम, चीजों को पकड़ते हैं जब हम मैं को लेकर के शरीर और संसार को जोड़ देते हैं, तभी आप देख रहे होंगे कि मैं किसी को देख सकता हूँ और मेरी आँखें किसी को देखती हैं। पहले कहुँगा कि मेरा मन किसी को पकड़े। तो मैं कुछ पहने हुआ हूं, फंसा हुआ हूं।

Tuesday, October 5, 2010

गुरू पूर्णिमा के लिए असाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों चुना?

देखिये गुरू पूर्णिमा के लिए असाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों चुना, कोई और पूर्णिमा क्यों नहीं चुनी गई। शरद पूर्णमा को भी तो मना सकते थे। फर्स्ट क्लास मौसम होता है। न सर्दी होती है, ना गर्मी होती है और उसमें न कीचड़ होती है। साफ रास्ते होते हैं, हरियाली होती है, बढ़िया मौसम होता है। शरद को नहीं चुना। और किसी मौसम की पूर्णिमा को नहीं चुना इसी को क्यों चुना? इसमें खास बात है। इसको चुना है तो इसके पीछे भी एक मकसद है। इस पूर्णिमा को गर्मी होती है, बादल भी होते हैं, भीषण गर्मी, भीषण बरसात, दोनों साथ-साथ। ये जो गर्मी है, वो ज्ञान का और त्याग का सिंम्बल है, प्रतीक है। ये जो अभी कपड़े उतारने की बात कही थी, वही बात है। गर्मी आते ही आदमी कपड़े उतार देता है, कम से कम कपड़े पहनता है और सोचता है कि नंगे बदन रहूँ, और पानी में उतर जाऊँ। गर्मी का, पानी का बहुत ही अच्छा ताल मेल है। असाढ़ का महीना है, इस समय इतनी गर्मी है कपड़े उतारने के लिए, दिमांग की सारी बातों को खत्म करने के लिए। अगर हम दिमांग में कुछ पकड़ करके लाते हैं, कुछ आग्रह करके जाते हैं, तो कहेंगे कुछ नहीं मिला। तुम कहोगे कि हम गुरू के पास जाते हैं, तो क्यों नहीं मिलेगा? तर्क दोगे कि आग के पास कैसे भी जाऐं, गर्मी लगती ही है। सही है। रोशनी के पास जाओ तो रोशनी मिलती ही है। बिल्कुल सही बात है।

Sunday, October 3, 2010

दिमांग के कपड़े उतारना सीख जाओ..........

वहां के लिए तुम्हें अपने कपड़े उतारने होंगे। सारे कपड़े उतार दो सारे। जो शरीर पर कपड़े पहने हो ये भी उतार दो, दिमांग के कपड़े भी उतार दो। दिमांग के कपड़े उतारना सीख जाओगे, तो उनकी शरण में पहुँचकर अपनी जिन्दगी का जो उद्देश्य है उसको पा लोगे। लेकिन हम कपड़े उतारने के लिए तैयार नहीं होते, क्योंकि जब से ये हमारी जिन्दगीयाँ शुरू हुई हैं, तब से हम २१ वीं शदी में आये तब तक हमने कपड़े को पहनना, कपड़े को पकड़ना, कपड़े का कपड़े का फैशन, यही हमारी जिन्दगी की एक नियति बन गयी है। दिमांग में सारे के सारे कपड़ों के दलदल को भर लिया है। ये नहीं चलेगा। जब तक ये दिमाग के कपड़े नहीं उतरेंगे, अपने जीवन के लक्ष्य को नहीं पा सकोगे। तुमने सुना था कथा में, भगवान के ध्यान के लिए गोपियाँ जाया करती थीं, स्नान करने के लिए। तो उसमें चीरहरण का प्रसंग आता है कि गोपियों ने कपड़े उतार दिये और भगवान श्री उनके कपड़े ले गए। उन्होंने श्री कृष्ण से कपड़े मांगे तो श्री कृष्ण ने कहा, ÷÷मेरे पास में आओ।'' वो बात ऐसी नहीं है, जो उन्होंने शरीर के कपड़े उतारे थे, बात समझने की है। उन्होंने दिमांग के कपड़े उतारे थे। और दिमांग के कपड़े उतारना, यही जिन्दगी का एक सबसे फर्स्ट स्टैप पहला कदम होता है।

Monday, September 27, 2010

जिन्दगी तुम्हारी किसके लिए है......

पर्व क्यों बनया गया? पर्व इसलिए है कि जिन्दगी तुम्हारी किसके लिए है। जिन्दगी कैसे चल रही है? वहां दिमांग की जरूरत है। वहाँ तुम्हारी जरूरत है। जिन्दगी किसके लिए होनी चाहिए? वहाँ तुम्हारी अहमियत मालुम पड़ती है कि तुम हो या नहीं। तुम क्या सोचते हो? क्या सोचना है? क्या सोचते हो, से बात नहीं है। क्या सोचना चाहिए, बात ये है। क्या सोचना चाहिए उसके लिए हमें महापुरूषों की शरण में जाना चाहिए। ये परम्परा है ये ज्तंकपजपवद है। जो परम्परा के साथ जुड़ते हैं, उनको जिन्दगी का जो उद्देश्य है, जिन्दगी क्या है? जिन्दगी जीने का जो आनन्द है, जो तरीका है, वो क्या है? वो उन महापुरूषों की शरण में जाने से मिलेगा। वहाँ उन महापुरूषों की शरण में जाने के लिए ये जो तुम्हारे पास किसी दिखावे की जरुरत नहीं है। उनकी शरण में जाने के लिए, उन तक पहुंचने के लिए न कोई ड्रैस काम करेगी, न तुम्हारा अंग, वंश, कुटुम्ब, धर्म, परिवार, खानदान, जाति, रिश्ता, नाता, पढ़ाई-लिखाई, सुन्दराता, कुरूपता, आँख, नाक, कुछ भी नहीं चलेगा। क्या चलेगा?

Wednesday, September 15, 2010

प्राणी का अर्थ क्या है.......

जितने भी शरीरधारी हैं, उनको प्राणी कहते हैं। प्राणी का अर्थ है- जिसके अंदर जान होती है, जिसके अंदर प्राण होता है। जिन्दगी तो किसी भी रूप में हो सकती है और जिन्दगी के लिए लोग कुछ भी करते हैं। चौरासी लाख तरह के प्राणी होते हैं, सब अपनी तरह से जीते हैं। जिन्दगी के लिए जो करना है, उसमें सोचने की जरूरत नहीं है। जैसे पानी का थ्सवू ;बहावद्ध अपने आप नीचे की तरफ होता है। पानी को कोई कुछ भी करे लेकिन वो नीचे को ही चलेगा। कोई कहे कि मैंने पानी को नीचे की गति दी है, तो कहोगे कि पानी का तो स्वभाव है, कि वह नीचे की तरफ जाएगा। ऐसे ही कोई कहे कि मैंने जिन्दगी के लिए ऐसा किया-वैसा किया, तो ये तुमने कुछ नहीं किया। ये तो होना ही था। छोटे-छोटे कीड़े-मकौडे से लेकर बडे+-बड़े विद्वान तक कैसे जीते हैं? कैसे खाते हैं? कैसे पीते हैं। उसमें कोई खास अहमियत की बात नहीं होती। उसमें तुम कहीं नहीं हो ये तुम क्या खाते हो, क्या पीते हो, क्या पहनते हो। ये कोई महत्व की चीज नहीं है। ये सारी भोग की चीजें हैं। इसमें दिमांग लगाने की कोई जरूरत ही नहीं है। ये अपने आप होता है।

Tuesday, June 29, 2010

राम और सुग्रीव का मिलाना


राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। उस पर्वत पर अपने मन्त्रियों सहित सुग्रीव रहता था। सुग्रीव ने, इस आशंका में कि कहीं बालि ने उसे मारने के लिये उन दोनों वीरों को न भेजा हो, हनुमान को राम और लक्ष्मण के विषय में जानकारी लेने के लिये ब्राह्मण के रूप में भेजा। यह जानने के बाद कि उन्हें बालि ने नहीं भेजा है हनुमान ने राम और सुग्रीव में मित्रता करवा दी। सुग्रीव ने राम को सान्त्वना दी कि जानकी जी मिल जायेंगीं और उन्हें खोजने में वह सहायता देगा साथ ही अपने भाई बालि के अपने ऊपर किये गये अत्याचार के विषय में बताया। राम ने बालि का छलपूर्वक वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया।

राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम के नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुँचा दिया जहाँ पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया।

Sunday, April 25, 2010

जो नहीं करना चाहिए वो कर रहे हैं और जो करना चाहिए उससे बच रहे हैं।

इन्द्र ने अपने वज्र से वृत्तासुर की एक भुजा काट दी। तब वृत्तासुर ने इंद्र की ठोड़ी और ऐरावत पर परिघ से प्रहार किया जिससे इंद्र के हाथ से वज्र गिर गया। फिर वृत्तासुर के कहने से इंद्र ने वज्र को उठा लिया। तथा उसकी प्रशंसा भी की। हमारे मन में अच्छी बातें भी हैं, बुरी बातें भी हैं। इन्द्र को ज्ञान भी देना है, भगवान का भजन भी करना है, वृत्रासुर युद्ध भी करना है। ऐसे ही हमारा दिमाग़ है। घरवाली को गाली भी दे दो और फिर उसको प्यार भी कर लो। बच्चे को डाँट भी दो, फिर उसको प्यार भी कर लो। अपने आपको चाहते हैं कि रोग भी नहीं हो और स्वाद भी कर रहे हैं। चाहते हैं कि सुगर नहीं बढ़ जाए और रघा सेठ की चमचम भी चल रही हैं। रघा सेठ की चमचम भी खाए और सुगर भी नही बढ़े, तो ये बात कैसे चलेगी? यही झगड़ा है। जो नहीं करना चाहिए वो कर रहे हैं और जो करना चाहिए उससे बच रहे हैं। यही गड़बड़ है सब। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक। बचपन में माँ बाप मना करते हैं, उसी को करते हैं। जवानी में बीबी मना करे उसी को करते हैं और बुढ़ापे में बेटा नाती मना करते हैं उसे ही करना। पूरी जिन्दगी बदतर ही बना रहे हैं। बताया है कि जो कवच विश्वरूप का बताया हुआ था उससे अपनी रक्षा की और वृत्रासुर के पेट की एक-एक आँत को काट दिया है। मन में जो गन्दी-गन्दी बातें हैं, उनको मनन की हुई कुशाग्र बुद्धि के द्वारा दृढ़ता से निर्ममता पूर्वक काट दे, वह होता है-साधु। पेट को फाड़ कर बाहर निकले। शचि ने बृहस्पति को ढूंढ़ निकाला। बृहस्पति माने जो बड़ी बुद्धि के स्वामी हैं, सुलझी हुई बुद्धि के स्वामी हैं। शास्त्रों को कहना बहुत बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है शास्त्रों की बातों को समझना। भागवत की कथा तो एक बच्चा भी कह लेगा। लेकिन भागवत की कथा को समझा कर कहने वाला है बृहस्पति। भागवत की कथा तो सात-सात साल की बच्चियाँ भी पढ़ दें। जिन पर रोटी खाना नहीं आता वो लड़के-लड़कियाँ कथा पढ़ रहे हैं। तो कथा को समझा कौन सकता है? बात समझने की है और समझाने की है। समझदार लोग ही कर सकते हैं। समझदार लोगों से ही कर सकते हैं। समझदार लोगों से ही कथा कहलवानी चाहिए गधे-घोड़ों से नहीं कहलवानी चाहिए।

हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥

Tuesday, April 20, 2010

कल्याण हमारे अपनी तरफ ध्यान देने से होगा

आप जिसको पढ़ते हैं, उसी का तो ज्ञान होता है। जिस पर ध्यान देते हैं, उसी का ही ज्ञान होता है। अपनी ओर ध्यान देने की बात है। हम अपने पर कभी ध्यान नहीं देते। कभी स्त्री पर, कभी बेटी पर, कभी भाई पर-कभी किसी पर। ये सब भी हमारे जीवन के लिए जरूरी हैं लेकिन कल्याण हमें अपनी तरफ देखने से होगा। पत्नी की तरफ देखने से घर चलेगा, देखना चाहिएऋ बच्चों की तरफ देखने से परिवार चलेगा, देखना चाहिएऋ समाज की तरफ ध्यान देने से जीवन बेहतर होगा, देखना चाहिए। लेकिन कल्याण हमारे अपनी तरफ ध्यान देने से होगा, अपने भीतर जो भरा हुआ है, उस पर ध्यान देने से होगा कल्याण। है ना, समझ में आ रही न बात? स्कूल पर ध्यान दोगे, स्कूल का ज्ञान होगाऋ खेत पर ध्यान दोगे, खेत का ज्ञान होगा, बिजनेस पर ध्यान दोगे, बिजनेस का ज्ञान होगा। तुमने अपने पर ध्यान दिया है कभी? बुरा मत मानना। अब तक नहीं दिया तो कोई बात नहीं। लेकिन अब गलती नहीं होनी चाहिए। चौबीस घण्टे में कभी न कभी ध्यान दिया करो, ध्यान किया करो-अच्छा रहेगा। और जरूरी नहीं है कि ध्यान करने के लिए तुम पद्मासन लगाकर बैठा। चारपाई में पड़े हुए भी ध्यान दे सकते हो। पंखे के नीचे बैठे हुए हैं आराम से सोफे पर बैठकर ध्यान दे सकते हैं। हमारे भीतर क्या है? उसको देखना। मेरे भीतर क्या गलत है, क्या सही है उसे देखो। मैं उस आदमी की बुराई करता हूँ कि वो बीड़ी पीता है लेकिन मैं तो सिगरेट पीता हूँ। तो क्या सिगरेट बीड़ी से बढ़िया है। मैं कहता हूँ दूसरा आदमी बीयर पीता है, पर मैं तो ठर्रा पीता हूँ। ऐसे करके देखना कि जिसकी तू बुराई कर रहा है वो ज्+यादा कुकर्मी है कि तू ज्+यादा कुकर्मी है। ऐसे तुलना करना, अच्छा। ये जरूर करना।

हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे। हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥

Monday, April 19, 2010

आएगा जब तू संतों के द्वार...............


तू इधर जो निकले, तेरे मिट जाऐं सारे अंधेरे,

तू नहीं अकेला, सब मिल के हैं यहाँ जुटे रे।

सन्तों की महफिल में रह, फिर ना भटक पाएगा॥

सुन अभिमानी...

जीवन सँवर जाएगा, सुन अभिमानी।

आएगा जब तू संतों के द्वार...............

जानता नहीं है, सारी दुनियाँ है मतलब का फेरा,

कोई ना किसी का, ये जीवन है जोगी का फेरा।

क्या तेरा, क्या मेरा? अमरत को पा जाएगा॥

सुन अभिमानी.... जीवन सँवर जाएगा, सुन अभिमानी।

आएगा जब तू संतों के द्वार.................

हंस वर्ण है तेरा, क्यूँ चलता है कागा की चालें,

धीर सिन्धु तज के, क्यूँ पकड़े बबूलों की डालें।

भूल नहीं, कबूल यही हरे रुद्र पा जाएगा॥

सुन अभिमानी.........

आएगा जब तू संतों के द्वार महक उठेगा तेरा सब संसार

जीवन सुधर जाएगा, सुन अभिमानी॥

Saturday, April 17, 2010

पाप से घबराए नहीं।

तो ये सब प्रकार की बाते इसमें है। ये घमण्ड नहीं करना चाहिए कि हम तो ध्यान करते हैं, दान करते हैं, भजन करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं। हम तो पवित्र हैं, शुद्ध हैं। पता नहीं तुम्हारे भीतर क्या दबा है, तुम्हें पता है? आदमी कहता है मैं तो नीच हूँ, पापी हूँ। नहीं यह भी गलत है। मन को छोटा नहीं करना है। पता नहीं तुम्हारे भीतर कितने जन्मों के पुण्य दबे पड़े हैं? जैसे अजामिल के दबे पड़े थे। तो जो आदमी कह रहा है कि हम पापी हैं वो भी गलत है और जो कह रहा है कि हम धर्मात्मा हैं वह भी गलत है। पता नहीं कि भीतर क्या-क्या दबा पड़ा है। इसलिए पुण्य का घमण्ड नहीं करें और पाप से घबराए नहीं।

आएगा जब तू संतों के द्वार,

महक उठेगा तेरा सब संसार।

जीवन सँवर जाएगा, सुन अभिमानी॥

Wednesday, April 14, 2010

चित्तरूपी भूमि में जन्मों-जन्मों के पाप-पुण्य रूपी संस्कार पड़े हुए हैं।

एक तरफ दैत्यों की सेना और एक तरफ देवताओं की। नर्मदा के किनारे भयंकर देवासुर संग्राम शुरू हो गया। परीक्षित! ये शूर सिंह देश का चित्रकेतु नामक राजा था। इसके एक बेटा हुआ था, एक करोड़ रानियों में और सौत रानियों ने उस बच्चे को मार दिया था। फिर उस जीवात्मा को उपदेश से वैराग्य हुआ और उसने संकर्षण का भक्ति से विमान प्राप्त किया लेकिन पार्वती जी के श्राप से ये असुर बना। तो वृत्रासुर ये हमारा चित्त है। इसमें जन्मों-जन्मों के संचित कर्म भरे पड़े हैं, पुण्य भी हैं और पाप भी हैं। इसको अवचेतन कहते हैं। हमारे इस मन में, जिनको हम जानते भी नहीं, बड़े-बड़े पाप भरे हैं और बड़े-बड़े पुण्य भरे हैं। जैसे कि इस जमीन में दुनियाँ भर के बीज हैं, पर जिन बीजों को बरसात में उगना है वे बरसात में ही उगेंगे, कितना भी पानी दो, नहीं उपजेंगे। और सड़ेंगे-गलेंगे भी नहीं। वक्+त आने पर ही उपजेंगे। इसी तरह हमारी चित्तरूपी भूमि में जन्मों-जन्मों के पाप-पुण्य रूपी संस्कार पड़े हुए हैं। जब मौसम आता है, तब कभी पाप आ जाता है, कभी पुण्य आ जाता है और यह बड़े-बड़े साधकों को नष्ट और भ्रष्ट कर देता है। बहुत सावधानी की जरूरत है, बहुत मनन की जरूरत है।

सकल पदारथ हैं जग माहीं। करम हीन नर पावत नाहीं॥

Thursday, April 8, 2010

सब कुछ मिला है, आपके भण्डार से गुरु।


रिक्त लौटा है न कोई, आपके इस द्वार से तो।

आत्म-बल टूटे न मेरा, प्रार्थना है ये गुरु जी।

आत्म-सुख सन्तोष पाने, मैं यहाँ पर आ गई हूँ॥

दिव्य अभिनव ज्योति पाकर धन्य हो गयी हूँ॥

सब समय, सब कुछ मिला है, आपके भण्डार से गुरु।

क्यों रुके हम? साधना के, क्षेत्र में बढ़ने से आगे।

सत्य, शिव, सुन्दर सभी तो, मैं यहाँ पर पा गई हूँ॥

दिव्य अभिनव ज्योति पाकर धन्य हो गयी हूँ॥

प्रस्तुति : अंजलि शर्मा अलीगढ

Tuesday, April 6, 2010

दिव्य अभिनव ज्योति पाकर धन्य हो गयी हूँ॥


गुरु द्वार पर अब तो मैं आ गई हूँ।

दिव्य अभिनव ज्योति पाकर धन्य हो गयी हूँ॥

कामना मेरी यही है, गुरु कृपा मुझ पर बनी रह।

चिर अमां की रात में भी, ज्योति पूनम सी बनी रह।

आपके चरणों में गुरु जी, स्वयं अर्पित हो गई हूँ॥

दिव्य अभिनव ज्योति पाकर धन्य हो गयी हूँ॥

ज्ञान गंगा में नहा कर, जी उठे हैं प्राण मेरे।

त्याग-तप-निष्ठा सभी तो, आपने सिखला दिए हैं।

कुछ नहीं है कामना बस, आपके दर आ गई हूँ॥

दिव्य अभिनव ज्योति पाकर धन्य हो गयी हूँ॥

प्रस्तुति : अंजलि शर्मा अलीगढ

Friday, April 2, 2010

अच्छे आचार-विचार और संस्कार नहीं है वह मनुष्य कहलाने के लायक नहीं

गुरुदेव ने यहाँ प्रकट कर दिया कि मनुष्य चाहे कितना भी पढ़ा लिखा हो लेकिन जब तक उसमें अच्छे आचार-विचार और संस्कार नहीं है वह मनुष्य कहलाने के लायक नहीं। इसलिए हमें अपना मन संयम पूर्वक अच्छे कर्मों में लगाना चाहिए, अपनी संगति और आचार-विचार शु( रखते हुए विनम्र रहना चाहिए, कभी भी गालियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि जैसे एक मंत्र हमारे कल्याण के लिए पर्याप्त होता है, वैसे ही एक गाली हमारे आध्यात्मिक मार्ग को अवरु( करने के लिए काफी होती है। अपने पवित्र आचार और विचारों को द्रढ़ता देने के लिए अपने सामने श्र(ा से युक्त होकर एक आदर्श रखना चाहिए, जिससे कि जीवन के प्रत्येक मार्ग में उस आदर्श को सामने रखकर सही और गलत में फर्क करते हुए आगे बढ़ सकें। लेकिन यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि आदर्श कोई फिल्मी अभिनेता या अभिनेत्री नहीं वरन्‌ हमारे देश की महान विभूतियाँ जैसे- राम, कृष्ण, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई और भी ऐसी ही महान हस्तियाँ हैं, जिन्होंने ने देश और समाज केलिए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, जिन्हें हम पथ प्रदर्शक के रूप में अपना आदर्श बना सकते हैं। आओ अब हम दृढ़ संकल्प ले कि हम संस्कारी बनेंगे, अपने पूज्यनीय माता-पिता, गुरुजन व सभी बड़ों को सम्मान और बड़प्पन देंगे चाहे उनसे सुनने को गाली ही क्यों न मिले अर्थात्‌ सद्गुणी बनकर ही रहेंगे। रुद्र कृपा में सबको संस्कारित होने के लिए दृढ़ता और हौसला मिले........।

Friday, March 26, 2010

बड़ों में दोष नहीं बल्कि अच्छाईयाँ देखनी चाहिए

महाराज जी कहते - छोटों को बड़ों में दोष नहीं बल्कि अच्छाईयाँ देखनी चाहिए और स्वयं बड़प्पन नहीं लेना नहीं देना चाहिए। हमें अपने पूज्यनीय व सभी बड़ों को सम्मान और बड़प्पन देना चाहिए यही हमारी सभ्यता और संस्कृति है, लेकिन हम क्या कहते हैं अभी इस पल हमारे अन्दर जो सेवा और सम्मान का भाव है। दूसरे ही पल बड़ो के कुछ कह देने मात्र से हो ;चाहे वह बात हमारे भले की ही क्यों ना हो। इस पर ध्यान न करद्ध वही सेवा और सम्मान का भाव कुभाव बदलने लगता है। और हम भूलने लगते हैं कि यह हमसे बड़ा है और इस दुर्भाव के चलते गालियाँ देने से भी नहीं हिचकिचाते हैं।

सद्भाव तो वही होते हैं, जो किसी भी स्थिती में बदले नहीं, क्योंकि भगवान प्रतिकूल परस्थिती बनाकर ही परीक्षा लेते हैं। और जो व्यक्ति उस परीक्षा को पास कर लेता है, वही प्रभु और गुरु चरणों के परम पद का अधिकारी होता है। अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को विरासत में सभ्यता और संस्कार भी दे सके, इसलिए सबसे पहले हम बड़ों को संस्कारी होगा। गुरुदेव कहते हैं, "संस्कार जिसके शुभ हैं ;आचार-विचार को दृढ़ करने वाली धारणाद्ध वह भले ही संस्कृत भाषा, व्याकरण, अरबी, नहीं पढ़ा है वह सुसंस्कृत है- दूसरी भले ही वह संस्कृत, व्याकरण या अरबी का विद्वान है लेकिन जिस में अशुभ संस्कार अशुभ धारणा है वह न हिन्दू है, न मुसलमान है, न सिख है, न ईसाई है, न पारसी है, न बौद्ध है, न जैन कोई भी? शुभ संस्कारों की दृढ़ धारणा से ही मनुष्य में मनुष्यता आती है।''

महाराज जी तो यहाँ तक कहते हैं कि, "मनुष्य का शरीर प्राप्त करने से ही मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता वरन्‌ मनुष्य जैसी प्रज्ञा एवं संवेदनाओं से बनता है। इसलिए मनुष्य जाती विवेकशील होनी चाहिए और उसे संस्कारित करके ही मनुष्य बनाया जा सकता है।'' "मनुष्य को ये संस्कार वंश, कुल, गोत्र से नहीं संगति और मन को लगाकर किये हुए कर्मों से प्राप्त होते हैं।''

Tuesday, March 23, 2010

पशु और मानव में केवल भेद संयम से ही पहिचाना जाता है।

पशु और मानव में केवल भेद संयम से ही पहिचाना जाता है। नहीं तो छल, कपट, मक्कारी धूर्तता, लालच, दम्म, अभिमान, अकड़, भोग की पकड़, जिद्दीपना, चालाकी, विश्वास घात, घात, घँूसा, लात, लड़ाई, झगड़ा, चोरी, डकैती, बदमाशी, खाना, पीना, सोना, उठना, बैठना, जागना, सन्तान पैदा करना, मैथुन, भय, खेलना, कूदना, चढ़ना, उतरना, तैरना, फिसलना, दांत पीसना, चुंबन लेना, चाटना, नाचना, गाना, सुनना, गुटबन्दी करना, राजनीति करना धूर्तता से रहना, सिद्दड़ी करना, स्वाद में गड़वड़ी देखकर मतलव के लिए गिड़गिड़ाना, सजना संवरना चमड़े का अपनापन परायापन रखना, अहंता, ममता का स्वाभाविक होना, अपना और अपनों का ख्याल रखकर कमाई करना और खर्च करना, स्वाद के लिए सड़सड़कर बर्वाद होते हुए भी जाते जी मरजाना, लत का आदि होना, साम, दाय दण्ड भेद ये सभी तो जानवर आदमी से अधिक अच्छी तरह कौन से कार्य में आदमी को मात्र नहीं दे रहा अर्थात्‌ सभी इन कार्यों में आदमी से ही अग्रणी ही है। वरन्‌ मनुष्य ने ये बातें पाशविकता से ही ग्रहण करी हैं। इसलिए ऐसे आदमी को पाशविक ही कहा जाता है। इन्सान नहीं।

Saturday, March 20, 2010

असंयमी तो निरा ढोर ही है इन्सान नहीं।

संसार में सबसे बड़ा कर्म संयम ही है- वरना एक कूकर, सूकर गर्दभ और मनुष्य जीवन में फिर भेद ही क्या है। क्योंकि कर्म तो पशु, पक्षी सभी करते हैं फिर भी उनको कर्मयोनि नहीं वरन्‌ केवल भोग योनि ही कहते हैं। इनमें कर्म के साथ संयम नहीं है। अगर इनमें कर्म के साथ मन, वचन और कर्मयुक्त संयम हो तो वे विचारशील हो सकते हैं। विचार केवल संयम से ही आता है। विवेक, ज्ञान प्रज्ञा ऋतम्भरा, बुद्धिधृति, धम्र, कर्म सभी संयम की धरती पर ही फलित सुवासित प्रसूनों की बगिया लहलहाती है। मन, वचन और कर्म में गुरू शास्त्र परिस्थितियों द्वारा उपलक्षित रास्ते पर चलने से ही पूर्ण बुद्धित्व,जैनत्व, आर्यत्व की प्राप्ति संभव है। यहाँ किसी भी मत, पंथ, सम्प्रदाय का कोई भी भेद नहीं है। संयमियों ने ही कुरान-शरीफ, जेन्दावस्ता, गुरुग्रन्थ साहिव, बाईविल, त्रिपिटक आदि की रचना की है असंयमी तो निरा ढोर ही है इन्सान नहीं। इसीलिए कहते हैं-

हिन्दू चाहिए न मुसलमान चाहिए

धरती के अम्नो चैन को इन्सान चाहिए।'

Thursday, March 18, 2010

स्वयं का जीवन परमेश्वर को पूर्ण समर्पित कर दें

हमारा परमेश्वर के प्रति समर्पण किसी भय के कारण नहीं है वरन्‌ अपनी सम्पूर्ण इच्छा से है जिसमें कोई दबाव नहीं वरन्‌ अपनी अपनी स्वेच्छा है जिसमें परमेश्वर का दण्ड या न्याय, क्रोध नहीं वरन्‌ करूणा तथा दयामय प्रेम सम्मिलित हैं जो हमारे अपने चालचलन, व्यवहार या कर्मों से नहीं वरन्‌ परमेश्वर के अनुग्रह से है। अब प्रश्न उठता है कि हमारा समर्पण परमेश्वर के प्रति किस रूप में हो तथा इसमें क्या-क्या सम्मिलित होना चाहिये।१। यह स्वेच्छापूर्वक हो बिना किसी बाध्यता या दबाव के।२। यह व्यक्तिगत होः जो कुछ हमारे पास है, जिसे हम अपना कहते हैं उसमें धन-सम्पत्ति, बैर-भाव, क्रोध, पे्रम, अभिलाषाऐं इत्यादि भी शामिल हैं। अतः इन सबका अधिकार केवल परमेश्वर के हाथ में हो। इनका यह मतलब नहीं हम उसके हाथों में कठपुतली है। याद रखें कठपुतली प्राणविहीन होती है उसमें इच्छाभाव नहीं पाया जाता। हम विपरीत है क्योंकि हममें इच्छाभाव तथा प्राण ;जीवनद्ध दोनों पाया जाता है, परंतु यहाँ हम परमेश्वर को अपने प्राण तथा इच्छा का स्वामी बना लें समर्पण द्वारा।३. यह बलिदान हैः बालक जब अपनी अनिच्छा से पिता से दूर हो जाता है तो पार्थिव पिता दुखित होता है, क्योंकि यदि बालक अपने पिता से सुरक्षा, भोजन एवं वस्त्रों की अपेक्षा रखता है तो पिता भी अपने बालक से घनिष्ठ प्रेम और संगति की अपेक्षा रखता है। वर्तमान समय में समर्पण का अर्थ केवल लेन-देन या उपरी वस्तुओं से है। समर्पण है परंतु वह पूर्णतः नहीं है। कभी जीवन का एक क्षेत्र या इससे अधिक परंतु परमेश्वर चाहते हैं कि हम अपना सब कुछ परमेश्वर को समर्पित करें यद्यपि यह गहन त्याग तथा तपस्या है परंतु इसके बाद महान्‌ आनंद है जो परमेश्वर के साथ घनिष्ठ संगति है जिसमें हमें पूर्ण सुरक्षा तथा करुणा एवं दया के साथ -साथ निर्मल प्रेम प्राप्त होता है जो केवल और केवल परमेश्वर ही दे सकता है क्योंकि उपरोक्त सब कुछ उसके पास भरपूरी से है अतः आइये स्वयं का जीवन परमेश्वर को पूर्ण समर्पित कर दें।

प्रस्तुति : संतोष पाण्डेय धर्म पुरोहित चर्च आफ असेन्सन्स अलीगढ़

Monday, March 15, 2010

समर्पण का अर्थ है-अर्पित करना

संतोष पाण्डेय धर्म पुरोहित चर्च आफ असेन्सन्स अलीगढ़

यह शब्द पुरातन नियम का है, जिसका अर्थ है-अर्पित करना या पृथक करना। अपने आपको परमेश्वर की सेवा हेतु अलग कर देना है। नये नियम दो बार यह शब्द प्रयुक्त किया गया है। प्रथमः नियुक्ति से संबंधित है। दूसराः बलिदान से संबंधित है। पौलुस प्रेरित कहते हैं कि "मैं अर्घ की नाई उण्डेला जाता हूँ।'' प्रथमतः जब मनुष्य सूर्य को जल अर्पित करता है और वह जलपात्र से जल उण्डेलता है इसमें केवल जल उण्डेलने का भाव देह, आत्मा और प्राण को सौंपना है। समर्पण से तात्पर्य मानव का स्वयं को पूर्णतः किसी के हाथों में सौंपना है, यदि परमेश्वर को तो इसमें परमेश्वर की इच्छा तथा कार्य सर्वोपरि है इसके अलावा कुछ भी नहीं हैं। संभवतः इस समर्पण में हमारी अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन शामिल है जो असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। एक उदाहरण द्वारा इसे समझ सकते है। ÷÷मादा बांदरी अपने अबोध शिशु को अपने पेट से चिपकाकर वृक्षों में ऊँची छलांग लगाती है।'' यहाँ पर शिशु का अपनी माता के प्रति पूर्ण सौंपना या समर्पण है। यद्यपि माता के हाथ और पैर स्वतंत्र हैं, परन्तु माता को यह अहसास है कि उसका शिशु उससे चिपका हुआ है। यहां पर विश्वास एवं भरोसे की मजबूत दीवार है जहां पर सुरक्षा शामिल है। समर्पण हमारे जीवन में अपने प्रभुत्व या स्वामित्व का त्याग करके परमेश्वर प्रभु यीशु को प्रभु या राजा के रूप में सिंहसनारूढ़ करना है, जो स्वयं का प्रभु यीशु के प्रति आत्म समर्पण है। बाइबिल धर्मग्रंथ में रोमियो की पत्री के द्वादश सोपान में प्रथम पद में इसका सम्पूर्ण वर्णन है कि हम मानव आखिर अपने आपको परमेश्वर की इच्छा पर क्यों छोड़ दे क्या हमारी अपनी इच्छा काफी नहीं है?

क्रमशः

Friday, March 12, 2010

गुरु के प्रति प्रेम, श्रृद्धा, विश्वास तथा आत्मसमर्पण ही आध्यात्मिक जीवन के मुख्य घटक हैं

जब तक हम अपने मन-इन्द्रियों के दास बने रहेंगे तब-तब गुरु-आज्ञा तथा प्रभु-इच्छा का विरोध उठेगा, शिकवा- शिकायत होगा। मेरे ही साथ ऐसा क्यूँ होता है? मैं ही क्यूँ सहूँ? मेरा लाभ, मेरा हित तो इसमें है नहीं आदि विचार उठ कर साधक को विचलित करते रहेंगे। कई बार सुनते हैं कि फलाँ व्यक्ति ने तो कोई विपरीत परिस्थिति आने के बाद पूजा-अर्चना करनी ही बन्द कर दी। ये कैसा विश्वास है, ये कैसी श्रृद्धा जिसमें समर्पण ही नहीं? समर्पण की स्थिति वह है जब गुरु-भगवान से हेतुरहित प्रेम हो। सांसारिक सुख, वैभव, यश, मान की इच्छा से गुरु-भगवान की शरण में जाना तो मनमत शिष्य का काम है। गुरुमत शिष्य तो बस आध्यात्मिक उन्नति और मुक्ति का ही लक्ष्य रखता है। ऐसे ही लक्ष्य रखता है। ऐसे शिष्य हर मामले में गुरु आज्ञा को ही ऊपर रखते हैं। समर्पण की शुरूआत आज्ञा पालन से ही होती है। जब हम गुरु की गुरुता में विश्वास करते हैं तो श्र(ा उत्पन्न हो जाती है और गुरु वचनों के पालन की इच्छा अन्तर में जाग्रत हो जाती है। परन्तु अक्सर गुरु के समक्ष तो उनके वचनों को आचरण में उतार पाते हैं बाद में विस्मरण हो जाता है। इसके लिए बार-बार अधिक से अधिक गुरु का सान्निध्य लेना आवश्यक है। इसी से धीरे-धीरे जीवन में सतोगुण बढ़ता जाता है। हम गुरु को प्रसन्न रखने हेतु सद्गुणों को धारण करते हैं। समर्पण के उच्च स्तर पर शिष्य सही-गलत सोचता नहीं, वह पूरी तरह मान लेता है कि गुरु वचनों का पालन ही केवल एक कर्त्तव्य है फिर वह सही ही करता है, गलत तो होता ही नहीं। गुरु शिष्य सम्बन्ध वैसे तो सांसारिकता से ऊपर है परन्तु फिर भी शुरु में शिष्य गुरु को पिता, भाई, मित्र या माता कुछ भी मान लेता है जो कि उसे सम्बन्ध को दृढ़ करने में सहायता करता है। इस सम्बन्ध का आकर्षण उसे भक्ति तथा समर्पण की स्थिति में ले जाता है। गुरु को ÷माँ' मानना बहुत ही प्रासंगिक तथा लाभदायक होता है। केवल माँ ही हर पल अपने बच्चे के हित की सोचकर स्वयं कष्ट झेल सकती है। उसी के सान्निध्य में बच्चे की सबसे अधिक सुरक्षा की भावना मिलती है। गुरु भी सदा ही शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का ख्याल रखते है। गुरु से प्रेम ही परमात्मा से भी योग करा देता है क्योंकि गुरु का सम्बन्ध परमात्मा से अति निकट का है। माँ बच्चे का सम्बंध पिता से होता है। माँ बच्चे को नौ माह तक गर्भ में रख कर उसे पोषित करते है। उसी प्रकार गुरु भी कुछ समय तक शिष्य को अपनी कृपा के घेरे में रखते हुए अपनी मानसिक शक्तियों के घेरे में रखते हुए अपनी मानसिक शक्तियों तथा आध्यात्मिक ऊर्जा से उसका पोषण करते हैं फिर उसका ज्ञान के लोक में पुनर्जन्म हो जाता है तथा उसका आध्यात्मिक जीवन प्रारम्भ हो जाता है। गुरु के मानसिक घेरे में स्थान मिल जाने से समर्पण आसान है परन्तु शिष्य को भी अपने विचारों तथा भावों को सत्ता नहीं देने का प्रयास करना होता है। गुरु के प्रति प्रेम, श्रृद्धा, विश्वास तथा आत्मसमर्पण ही आध्यात्मिक जीवन के मुख्य घटक हैं जिनसे हमारी उन्नति की अवस्था निर्धारित होती है।

Thursday, March 11, 2010

किसी भी परिस्थिति में कोई विरोध-प्रतिरोध, शिकवा-शिकायत नहीं रह जाता।

जब मनुष्य की इच्छा गुरु भगवान की इच्छा से ही मिल जाती है फिर किसी भी परिस्थिति में कोई विरोध-प्रतिरोध, शिकवा-शिकायत नहीं रह जाता। इसका उदाहरण दिव्य गुरु श्री रामचन्द्र जी महाराज इस प्रकार देते हैं- कि भरत अयोध्या वासियों के साथ वन में श्री रामचन्द्र जी के पास उन्हें अयोध्या वापस लौटने के लिए मनाने हेतु गए थे, परन्तु प्रभु श्री राम ने गम्भीरता से अयोध्या वासियों को ही उत्तर दिया कि यदि भरत उनसे कहें तो वे सहर्ष अयोध्या चलने को तैयार हो जाऐंगे। सभी की आँखें भरत पर जा टिकीं जो कि वहाँ आए ही रामजी को मनाने के लिए थे परन्तु उस समय उनके मन के मौन से यही उत्तर निकला "मैं आदेश नहीं दे सकता केवल आपकी आज्ञा का पालन कर सकता हूँ।'' परन्तु यह अवस्था पाना भी आसान नहीं।

Thursday, March 4, 2010

समर्पित भक्त-साधक इस दुनियाँ में कुछ भी अपना नहीं मानता

समर्पित भक्त-साधक इस दुनियाँ में कुछ भी अपना नहीं मानता उसके लिए सब कुछ उस दिव्य शक्ति की सत्ता से ही होता है वह तो मात्र ट्रस्टी बनकर ही रहता है और जो कुछ भी वह कर रहा है उसे गुरु इच्छा मानकर करता है।

राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रजा है।

यहाँ यूँ भी वाह-वाह है, यहाँ त्यों भी वाह-वाह है॥''

Wednesday, March 3, 2010

निष्काम प्रेम जिसमें मैं-मेरा का भाव गल जाता है

जब भक्त को भगवान में और साधक को गुरु में पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास हो जाता है तब वह उनकी सर्वसमर्थ शक्ति के समक्ष तन, मन, धन, प्राण सर्वस्व समर्पित कर देता है। समर्पव वह अवस्था है जब साधक या भक्त अपनी तरफ से सोचना छोड़ पूरी तरह गुरु-भगवान की इच्छा के समक्ष नतमस्तक हो जाता है, अहंकार पूरी तरह निरोहित हो जाता है और रह जाता है सिर्फ दिव्य निष्काम प्रेम जिसमें मैं-मेरा का भाव गल जाता है। कविवर श्री ओमप्रकाश विकल जी कहते हैं- प्रेम के तरु अधिक ऊँचे और लम्बे हैं न होते। मार से वे प्यार के, नीचे झुके अति नम्र होते॥

Sunday, February 28, 2010

रंग तो लेकिन रस नहीं

आज होली हे । सुबह सुबह होली की आग लेकर जब जौ की बाली भून कर बांटने के लिए निकले तो टोलियों को घूमते देखकर बचपन में लोट गए । बच्चे और बड़े और महिलाएं सभी की टोलियाँ आपस में जौ बाँटते समय हैप्पी होली कह कर जौ दे रहे थे। राम राम सा शब्द सुनाने को आतुर कानों में हैप्पी शब्द किंचित भी हप्पिनेस नहीं ला पा रहा था। क्या मेरे कान कान राम राम सा सुनाने को तरस जायेंगे।
रसिया तो अब बिलकुल खो ही गए हें। एक फागुनी का फोन आया और उसने भी कहा हैप्पी होली । मैंने अपनी इस फागुनी को एक रसिया सुनाया तो बोली -- ये क्या हे। अरे रसिया नहीं समझोगी तो रस कहाँ से आएगा । और यदि रस नहीं तो क्या जीवन ।
फागुन का महीना तो रस का महीना हे । और रसिया हे रसों का राजा। तो आओ आज एक रसिया की अन्तर ही गा लेते हें-----
पर्यो पायो रे पर्यो पायो नाथ मिलमा गाल पर्यो पायो।----------
कौन गाँव के बिछुआ कही प्यारे कौन गाँव को साँचो हे
बिछुवन को अजब तमाशो हे-----------

Saturday, February 27, 2010

होली की शुभ कामना

होली की शुभ कामना सभी को डॉक्टर संजय सिंह एवं रूद्र सन्देश परिवार की और से

Friday, January 1, 2010

प्रायश्चित्त से आदमी पाप से दूर होता है,

सौ प्रतिशत सत्य तो एक ब्रह्म ही है, बाकी सब मिथ्या है-परीक्षित। दुनियाँ में साढ़े छः अरब आदमी हैं। न ये प्रवृत्ति को जानते हैं न निवृत्ति को। इनका कल्याण कैसे होगा? एक अरब से ज्यादा हिन्दुस्तान में हैं। इनका कल्याण कैसे होगा? और एक अरब से ज्यादा चीन में हैं। ढ़ाई अरब से ज्यादा तो इन दो देशों में ही हो गए। न ये प्रवृत्त हो सकते हैं न निवृत्त हो सकते हैं तो क्या ये सबके सब जीवन मरण में पड़े रहेंगे। फिर सन्तों का क्या उपयोग रहेगा? सन्त तो नरक में जाते हुए और पाप और भोगों में फँसे हुए लोगों को उस आग से निकलने वाले होते हैं।
'परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥''
महाराज कहने लगे, ''देख, परीक्षित जब तक चित्त में पड़े हुए तमोगुण और रजोगुण हैं तब तक यह मार्ग बन्द नहीं होगा। इसलिए मनुष्य को अपने चित्त को, अपने विचारों को, अपनी इन्द्रियों की प्रवृत्ति को और अपने शरीर की क्रियाओं को कर्मों को शुद्ध करना चाहिए। फिर वह कितना ही बड़ा पापी हो उसके लिए प्रायश्चित्त है। लोग कहते हैं पुण्य करोगे तो पाप कट जाऐंगे। नहीं, पुण्य करोगे पुण्य बनेगा, पाप करोगे पाप बनेगा। पुण्य से पाप नहीं कटेगा और पाप से पुण्य नहीं कटेंगे। प्रायश्चित्त से आदमी पाप से दूर होता है, पुण्य से भी दूर होता है-मुक्त हो जाता है। 'प्राय' माने 'दोबारा' 'चित्त' माने ÷करना' दोबारा उस गलत काम को नहीं करो- मन से, कर्म से वचन से बस। शराब की सील्ड बोतल को हजार वर्षों तक गंगाजी में रखो, तो क्या वह गंगाजली हो गई। ऐसे जिस आदमी का मन, वचन और कर्म पाप पूर्ण है तो फिर वह चाहे मन्दिर जाए, भजन करे, सत्संग जाए, तिलक-छापा लगाए, चुटिया बांधे, पुराण पढ़े, ये सब करने से कुछ नहीं होता। भीतर शराब है बाहर गंगाजल का लेबिल लगा दो, कृष्ण भगवान का फोटो लगा दो तो क्या शराब की बोतल सोमरस हो जाएगी? सवाल ही नहीं। तो इस ढोंग से क्या होगा? कोई नौटंकी थोडे+ ही है। नौटंकी का रोल तो अच्छा करना है, लेकिन जीवन को शुद्ध करने के लिए कोई कर्म नहीं करना है। उसके लिए तो ऐसा करना होगा, परीक्षित, कि उस शराब की बोतल को खाली करके, साफ शुद्ध कर लो फिर उसे शुद्ध करके उसमें गंगाजल भर लो। फिर चाहे गंगाजी में रखो, चाहे नहीं रखो। जिसके मन में धर्म है, ज्ञान है जिसने, पाप छोड़ दिया, वह फिर चाहे कहीं रहे कोई फर्क नहीं पड़ता। और जिस बोतल में शराब है उसे चाहे गंगा में रखो, मन्दिर में, मस्जि+द में रखो, मैया पर रखो, कहीं रखो शराब है- जहाँ रहेगी वहीं खराब करेगी। इसलिए तिलक, माला, छापा से कुछ नहीं होगा, परीक्षित।
''निर्मल मन जन सो मोहि पाता। माहि कपट छल छिद्र न भावा॥''