आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, November 26, 2009

चित्त क्या है ?

अंतः चतुष्टय का प्रमुख अंग है चित्त। महाराजजी कहते हैं, चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। चित्त पर अंकित छाप ही जीव को विभिन्न योनियों में भटकाती है। अलग अलग सम्प्रदाय अलग अलग तरीके से पूजा के तरीके अपनाते हैं। अगर गम्भीरता से चिंतन करें तो पाते हैं कि विभिन्न नामकरण होते के बाद भी सभी यह अवश्य स्वीकारते हैं कि चित्त पर अंकित छाप के अनुसार ही जीव के कर्मों के लेखे जोखे का फल मिलता है। कयामत के दिन नेकी और बदी के फरिश्ते जिस बही को लेकर बैठेंगे क्या वह हमारा चित्त ही है? पतांजलि ने भी चित्त वृत्ति निरोध को ही योग कहा है।

Tuesday, November 24, 2009

पलकों का परदा नहीं है तो मन्दिर नहीं जाऐं।

प्रातः काल उठि के रघुनाथा।

मात, पिता, गुरू नावहिं माथा॥

इस प्रकार शौच व स्नान करके शुद्ध पवित्र रहना चाहिए। फिर पंचमहायज्ञ किए बिना भोजन करे तो कृमि भोजन नामक निकृष्ट नर्क में कीड़ा बनना पड़ता है, परीक्षित। इसलिए माता, पिता, गुरू की सेवा करने के पश्चात जहाँ भोजन करे वहाँ नहा धोकर शुद्ध होकर या फिर घुटने तक पाँव धोए, कुहनी तक हाथ धोकर, कुल्ला करें, मुँह धोकर पोंछ कर पालती मारकर पूरव या उत्तर की ओर मुँह करके बैठना चाहिए। मुसलमान भाई हो तो काबे की तरफ मुँह करके बैठना चाहिए। भोजन करें सिर बांध करके नहीं करें, भजन करे तो सिर खुला नहीं रख कर करें। भजन करें मंदिर में जाए तो सिर बाँधकर जाए। आँखों को पलकों से ढक कर जाऐं। आँखों पर पलकों का परदा नहीं है तो मन्दिर नहीं जाऐं। सिर को ढक कर जाए नहीं तो मन्दिर नहीं जाए। बेशर्मों के लिए बेपर्दाओं के लिए मन्दिर नहीं बने।

हरे रामा/ हरे रामा/ रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा/ हरे कृष्णा/ कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥

Monday, November 16, 2009

किसको कौन सा नरक?

, लड़के की बलि चढ़ाते हैं, लड़की की बलि चढ़ाते हैं, उनको प्राणरोध नर्क में यम के दूत कठिन कष्ट देते हैं। जो कोई किसी के घर में आग लगाए, जहर दे दे या चोरी करे उसको सारमेयादन नर्क में सात सौ बीस यम के दूत कुत्ते बन कर काटते हैं। परीक्षित, जो पुरूष किसी की गवाही देने में, व्यापार में या दान के समय झूठ बोले वो मरने के बाद अवीचिमान नर्क में पड़ता है, ऊँचे पहाड़ से नीचे गिराया जाता है। परीक्षित, जो मनुष्य ऊँचे वर्ण का हो बा्रह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो- कुत्ता पाले, गधा पाले, मछली पाले, सूअर, मुर्गा पाले प्राणरोध नर्क में यम के दूत उसको बाणों से बींधते हैं। जो शौच, आचार के नियमों का पालन नहीं करता उसको पुयोद नर्क में जो पीब, विष्टा, कफ और मल से भरा समुद्र है, उसमें डाल दिया जाता है। इसलिए मनुष्य को शौच के नियम का विशेष पालन करना चाहिए। शु(ि को शौच करे, हाथ ढंग से धोए, दातून करे, आठ बार हलक तक उंगली डाल कर कुल्ला करे, नहाए। नहाए लेकिन धुले हुए कपड़े नहीं पहने ये भैंस का स्नान है, हाथी का स्नान है। क्योंकि हाथी और भैंस नहाकर के कीच और धूल लपेटते हैं। इसलिए रोज खाना खाने से पहले नहाए। नहाए और धुले हुए कपड़े पहने लेकिन भजन नहीं करे ये वैश्या और भांड़ का स्नान है। वैश्या बौर भांड़ नहाते हैं, धोते हैं लेकिन भजन के लिए नहीं भोग के लिए। मलूक लगने के लिए। इसलिए नहाए, धोए, भजन करे और भजन करने के बाद में-

Sunday, November 15, 2009

सात लोक नीचे हैं, सात लोक ऊपर।

सात लोक नीचे हैं, सात लोक ऊपर। - १. तल, २. अतल, ३. वितल, ४. तलातल, ५. रसातल, ६. महितल, ७. पाताल, नीचे के। ये भी तीन प्रकार के नास्तिक लोगों को सुख सम्पत्ति से भरे हुए मिलते हैं'' गीता जी में ऐसा कहा गया है। और भू, भुवः, स्व, मह, जन, तप, सत्य से सात ऊर्ध्व लोक हैं। ये शास्त्र के अनुसार चलने वाले सात प्रकार के तीन प्रकार की श्र(ा वाले लोगों को मिलते हैं। परन्तु जिनमें न श्र(ा है, न धर्म है, शास्त्र विरु( जो चलते हैं वो नर्क लोक को जाते हैं। और यह नर्क लोक पृथ्वी से नीचे, जल के ऊपर दक्षिण दिशा में हैं। अग्निश्वातादि पितृगण रहा करते हैं, उल्टे लटके हुए ;वहाँ सूर्य पुत्र यमराज उनको दण्ड़ की व्यवस्था करते हैं।द्ध ये नर्क अट्ठाईस हैं। परीक्षित! देख, जो पुरूष दूसरे के धन, सन्तान, स्त्री का हरण करे, उसको तामिस्र अंधेरा नर्क जिसमें डण्डे मिलते हैं। जो पुरुष संसार में धन कमाए और दान न करे उसको रौरव नर्क मिलता है। और जो मनुष्य गृहस्थ होकर के धन कमाए, दान भी नहीं करे और अपने माँ बाप की सेवा भी नहीं करे उसको महारौरव नर्क मिलता है। इसलिए गृहस्थी चाहे अमीर हो चाहे गरीब हो सभी को दान अवश्य करना चाहिए। कुरान शरीफ में भी आता है, गरीब हो तो भी दान करना चाहिए, अमीर हो, तो भी दान करना चाहिए, अपने सामर्थ्य के हिसाब से। ज्यादा गरीब है तो एक रोटी का टुकड़ा ही चींटियों को डाल दे। कुछ न कुछ दान ज+रूर करें, रोज करें, नहीं तो यही नर्क मिलेगा। जो पशु पक्षियों का मांस खाते हैं उनको कुम्भीपाक,नर्क मिलता है। इसमें उसे गर्म तेल के कढ़ाहे में डाल दिया जाता है। और जो माता-पिता, गुरुजन, ब्राह्मण, संत, वेद, शास्त्र, यज्ञ, कथा, सत्संग से विरोध करते हैं उनको तपी हुई तांबे की जमीन पर लिटा दिया जाता है। जो आदमी वेद के मार्ग को छोड़कर पाखण्ड करता है उसको असिपत्रवन नर्क में ले जाकर कोड़ों से पीटा जाता है। परीक्षित! जो लोग पशु की या मुर्गे की बलि चढ़ाते हैं, भैंसे की बलि चढ़ाते हैं

Monday, November 9, 2009

चित्त में से ही अविद्या उत्पन्न होती है और चित्त को ही आवृत्त कर देती है।

बोले महाराज, बात तो आप बड़े गजब की कह रहे हैं। महाराज, कल्याण का रास्ता बताऐं। भरत जी बोले कि कल्याण का रास्ता न भीतर है, न बाहर ही, ये तो मन से होकर जाता है। मन से ही बंधन है, जब यह बाहर भटकता है और मन से ही कल्याण है, जब वो आत्मा में लय होता है। ये संसार एक भवाटवी है। 'भव' माने 'तृष्णा' और 'अटवी' माने 'जंगल'। वासना-तृष्णा का जंगल है, राजन, जिसमें दिल और चित्त भटक गया है। आत्मा बंधन और मुक्ति दोनों से परे है। मन से ही बंधन है, मन से ही मुक्ति है। विषयों में फंसा हुआ चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। देख, इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। जैसे-मकड़ी में से जाल पैदा होता है, और मकड़ी को ही लटका लेता है। जैसे पानी में से काई पैदा होती है और पानी को ही ढक लेती है। सूरज से कोहरा पैदा होता है और सूरज को ही ढक लेता है। ऐसे ही चित्त में से ही अविद्या उत्पन्न होती है और चित्त को ही आवृत्त कर देती है। समझना ढंग से, अच्छा। फिर यही संसार के बंधन में डालने वाली अवक्षिप्त कर्मों में प्रवृत्ति रहती है। इसकी ये वृत्तियाँ प्रवाह रूप से नित्य ही रहती हैं- जागृत स्वप्न में प्रकट होती हैं, सुषुप्ति में छिप जाती है, रहती तो हैं। यानि तीनों अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ जो विशु( चिन्मात्र है न, वो इनको साक्षी भाव से देखता रहता है। इसलिए साक्षी चेतन केवलो निर्मलश्च। इस भाव में अपने चित्त को लय करने का प्रयास कर।

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। वेद पुराण सन्त सम्मत वद॥

Saturday, November 7, 2009

आत्मा अपरिणामी है?

नहिं जानत ताहि देउ जनायी।
जानत तुमहिं तुमहिं होइ जायी।
तो जड़ भरत जी ने राजा से कहा कि भैया बता मैं तेरी किस प्रकार सेवा करूं। लेकिन इतनी बात जरूर है कि, जो तू कह रहा है वह शरीर के लिए है और शरीर के अभिमानी के लिए है, आत्मा के लिए नहीं है। इतना सुनते ही उस राजा ने सोचा कि ये तो कोई शूद्र नहीं है, सेवक नहीं है। ये तो काई ज्ञानी पुरुष है और ज्ञानी पुरुष इस कदर दुःखी हो गया तो नाश हो जाएगा।
राम विमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवन हारा॥
डोली से उतरा और झुक गया भरत जी के चरणों में। भरत जी ने अपना परिचय दिया, कि हे राजन मैं भी एक समय तेरे जैसा ही राजा था और किस प्रकार इस स्थिति को प्राप्त हुआ हूं। तब उसने भरत जी के चरण पकड़ लिए। कहा कि महाराज आत्मा अपरिणामी है? चार्वाक कहता है कि आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है। भौतिकवादी लोग कहते हैं कि जब भौतिक चीजें मिल जाती हैं तो अपने आप उनमें reaction शुरू हो जाता है। चार्वाक कहते हैं कि ये भौतिक शक्तियां पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु जब मिलती हैं तो अपने आप प्राण शक्ति बन जाती है और क्रिया हो जाती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि इलैक्ट्रान, प्रोटोन और न्यूट्रोन संयुक्त शक्तियां होती हैं। जब तक ये संयुक्त शक्तियां रहती हैं प्रकृति का क्रम चलता रहता है। चलो ये चार शक्तियां हैं, ये अपने आप में हैं या किसी खाली स्थान में हैं। ये जो space है, वो क्या है? अगर space नहीं होगा तो कोइ क्रिया हो जाएगी? इसलिए वेदांत कहता है आकाश। आकाश से भी शूक्ष्म है यह आत्मा। तो जिसमें ये संयुक्त शक्तियां हैं, वह आकाश है और जिससे इनमें गति है वह चेतन। भरत जी कह रहे हैं- यही बात है बेटा। तुम कहते हो कि नदपजमक वितबमे हैं, ये संयुक्त होने पर अपने आप क्रियाशील होते हैं। पर अगर ये अपने आप क्रियाशील होते हैं, तो ये जड़ हैं कि चेतन हैं? जड़ हैं तो मर क्यूं जाते हैं? चेतन हैं तो इनमें ह्रास क्यों होता है। ये जड़ हैं, लेकिन इनमें चेतन का संग है, चेतन की प्रेरणा है। अभिन्न निमित्त उपादान कारण हैं वह परमात्मा, यह वेदान्त कहता है, डंके की चोट।