आवश्यकता यह जानने की है कि पदार्थ, इन्द्रियाँ तथा मन सभी अनित्य तथा आने जाने वाले हैं। परन्तु हमारा वास्तविक स्वरूप नित्य तथा निर्विकार है। अतः सुख दुःख में धीरज रखकर उन्हें सह लेना चाहिए। संयोग तथा वियोग में अपना दृष्टा-साक्षी भाव बनाए रखें तथा निर्लिप्त, निर्विकार बने रहें। भगवान श्री Krishna ने गीता के दूसरे अध्याय के १४ वें श्लोक में कहा गया है-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः।
आगमापायिनो अनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥''
यह मनुष्य योनि हमें सुख दुःख भोगने के लिए नहीं अपितु इनसे ऊपर उठकर उस परमानन्द की प्राप्ति के लिए मिली है।
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ati sundar
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