आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Sunday, July 26, 2009

गीत गोविन्द का हिन्दी रूपांतरण

और हे सखी!

उन्मद मदन मनोरथ पथिक वधूजन जनित विलापे,

अलिकुल संकुल कुसुम समूह निराकुल वकुल कलापे॥३॥

मृगमद सौरभ रमसवंशवद नवदल माल तमाले,

युवजन हृदय विदारण मनसिज लख रुचि किंशुक जाले॥४॥

अर्थात्‌- इस बसंत ऋतू से समस्त संसार आनन्दित होता है। श्री कृष्ण नारायण स्वरूप जगत के कर्ता- बसंत में दुर्जनादि उदालम्मों से आलिप्त कहे जाते हैं। नारायण प्रोषिताओं की पीड़ा जानते हुए भी इनके विरह जनित विलाप की बसंत के रूप में अनदेखी करते हैं। ये पथिक वधुऐं कामदेव से पीड़ित हुयी जब वकुल पुष्प पर भ्रमर को बैठे देखती है, तो और भी पीड़ित हो जाती हैं। तमाल वृक्षों की कस्तूरी सुगन्ध निकुंज वन में व्याप्त है, जो पलाश पुष्पों से वेष्टित स्वर्ण आभायुक्त हो रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कामाग्नि से दहन हृदयों को और विदीर्ण करने के लिए निज नखों को और भी तीव्र एवं विस्तृत कर रहा है।

Wednesday, July 22, 2009

गीत गोविन्दम


ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे,

मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे।

विहरन्ति हरि रिह सरस वँसते।

नृत्यति युवति जनेन- संगसखि विरहि जनस्य दुरन्ते॥

(गीत गोविन्द तृतीय प्रबंध श्लोक ३)

अभिप्राय यह कि- हे सखी। यह मलयपवन लवंग पल्लवों से निकुंज वन को आलिंगित कर रहा है, यमुना के शीतल जल को ऊर्मित कर रहा है। मधुमक्खियाँ, कोकिला, पपीहादि पक्षीगण, अपनी-अपनी मधुर ध्वनियों से इस वन को आनन्दमय बना रहे हैं। स्वयं नारायण श्री कृष्ण, नारियों के समूह के साथ नृत्य कर रहे हैं। यह बसंत )तु विरही जनों को अत्यन्त दुखदायी है अतः चलो अपने इष्टदेव से चलकर मिलो ताकि विरहानल शान्त हो- यह अभिप्राय।

गीत गोविन्दम


ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे,

मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे।

विहरन्ति हरि रिह सरस वँसते।

नृत्यति युवति जनेन- संगसखि विरहि जनस्य दुरन्ते॥

(गीत गोविन्द तृतीय प्रबंध श्लोक ३)

अभिप्राय यह कि- हे सखी। यह मलयपवन लवंग पल्लवों से निकुंज वन को आलिंगित कर रहा है, यमुना के शीतल जल को ऊर्मित कर रहा है। मधुमक्खियाँ, कोकिला, पपीहादि पक्षीगण, अपनी-अपनी मधुर ध्वनियों से इस वन को आनन्दमय बना रहे हैं। स्वयं नारायण श्री कृष्ण, नारियों के समूह के साथ नृत्य कर रहे हैं। यह बसंत )तु विरही जनों को अत्यन्त दुखदायी है अतः चलो अपने इष्टदेव से चलकर मिलो ताकि विरहानल शान्त हो- यह अभिप्राय।

Wednesday, July 15, 2009

गीत गोविन्द का हिन्दी रूपांतरण

संस्कृत के महाकवि पं। जयदेव कृत "गीत गोविन्द'' महाकाव्य में बसन्त ritu का विभिन्न रूपों में अनुभवित प्रसंग अत्यंत ही मार्मिक शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्रणय क्षणों की प्रतीक्षा, विरहानल को उसी प्रकार क्षण-क्षण उद्दीप्त करती है, जैसे यज्ञानल को घृताहुतियाँ। ग्रीष्म ऋतू आयी, चली गयी, वर्षा (पावसा) ऋतू भी आयी और चली गयी। इन्हीं की भांति शरद ऋतू भी आकर प्रस्थान कर गई- कोई विशेष अनुभूति प्रोषिताओं को उतनी कष्टकारी नहीं हुयी, जितनी बसन्त ऋतू । बसन्त ऋतू का आगमन ही मानो सहस्त कन्दर्पों का दल लेकर विरहानियों के आंगन में आ एक क्रूर यु( की सृष्टि करने लगता है। सब कुछ दुखदायी होने लगता है। सारे दृश्य-परिदृश्य मानो उन्हें काटने दौड़ पड़े हों। इसी मनोअनुभूति का प्राकट्य श्री राधा के हृदयांगन में होता है।

आइये हम भी लीलाधारी श्री कृष्ण चन्द्र जी की लीलावती श्री राधा जी की हृदयानुभूतियों जो बसन्तागमन के कारण हो रही है- का आनन्द लें और जीवन सफल करें:- "

बसंते वासंती कुसुम सुकुमारैरवयवै, भ्रमन्ती कान्तारे बहु विहित कृष्णानुसरणम्‌।

अमन्दकन्दर्प ज्वर जनित चिंताकुल तया, चलब्दाधां राधा सरस मिदमूचे सहचरी॥''

(गीत गोविन्द त्रतीय प्रबन्ध श्लोक २)

अर्थात्‌ बसन्त ऋतू में कामदेव के उग्र वाणों से विधी पीड़ित श्री राधा जी श्री कृष्णचन्द्र जी से मिलने के लिए, धूप से पीड़ित पुष्पों से परिपूर्ण शोभायमान वन में भ्रमण करने लगीं। उसी समय श्री राधा जी की कोई अत्यन्त प्रिय सखी, उदासीन राधा का देखकर कहने लगीः-

Sunday, July 12, 2009

प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा?

एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था, जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता तो संख्या को खड़िया से दीवार पर लिखता जाता। किसी दिन वह लाख तक की संख्या छू लेता किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता। उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते और मुस्कुरा देते। एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये। जब वे थक गये तो लौटते में एक बरगद की छांह में बैठे, उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी, जो आता उसे बर्तन में नाप कर देती और गिनकर पैसे रखवाती। वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे। तभी एक आकर्षक युवक आया और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया, दूधवाली मुस्कुराई और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया, पैसे भी नहीं लिये। गुरु मुस्कुरा दिये, शिष्य हतप्रभ! उन दोनों के जाने के बाद, वे दोनों भी उठे और अपनी राह चल पड़े। चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरु ने उत्तर दिया,''प्रेम वत्स, प्रेम! यह प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा? उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है, जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो, उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा?'' और गुरु वैसे ही मुस्कुराये व्यंग्य से।'' समझ गया गुरुवर। मैं समझ गया प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को।

प्रस्तुति : सुधा रानी

Friday, July 10, 2009

मंत्र विज्ञान विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है।

मंत्र एक वैज्ञानिक विचारधारा है, एक सत्य है, जिसमे कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है तथा न ही यह रूढ़िवादिता है। अपितु मंत्र विज्ञान विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। यह धन दे कर खरीदी जा सकने वाली वस्तु नहीं है। क्यों कि यह तो एक सिद्धि है, सूक्ष्म वैज्ञानिक विचारधारा है, सचेतन शास्त्र है। इसमें न तो आधुनिक मशीनरी सी जटिलता है और न ही अधिभौतिकता, अपितु यह तो एक गहन तकनीक है जिसको समझने के लिए आस्था और संयम बनाए रखकर आध्यात्मिक सागर में उतरना होता है। आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार मंत्र शक्ति मुख्यतः शब्दों की ध्वनि और लय पर आधारित है। मंत्रों में ध्वनि और लय का विशेष महत्व है। जो व्यक्ति एक निश्चित लय के साथ मंत्र का उच्चारण करता है, वह उस मंत्र की शक्ति से अवश्य लाभान्वित होता है। लेकिन एक सीधे रूप में उस मंत्र का मात्र पठन कर लिया जाए तो उसका प्रभाव नहीं होगा, क्यों कि उस शब्द और वाक्य के साथ लय का संयोग नहीं है। किसी शब्द की मूल ध्वनि वह है जिससे उसका निश्चित प्रभाव पड़ सके। मंत्रों में शब्द अथवा उसका अर्थ अपने आप में अधिक महत्व नहीं रखते, अपितु उसकी ध्वनि विशेष महत्वपूर्ण है। आंतरिक विद्युत धारा विज्ञान के अनुसार जिस भी शब्द का उच्चारण हम लोग करते हैं, वह इस ब्रह्मांड में तैरने लगता है। उदाहरण के लिए एक रेडियो स्टेशन पर किसी भी गीत की पंक्ति का अंश बोला जाता है तो वह उसी समय वायुमंडल में फैल जाता है तथा विश्व के किसी भी देश, किसी भी कोने में श्रोता यदि चाहे तो उसके रेडियो के माध्यम से उस गीत की पंक्ति का अंश सुन सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि रेडियो में सूई उसी फ्रीक्वैंसी पर लगाने की जानकारी हो। इस प्रकार ग्राहक और ग्राह्य का आपस में पूर्ण संपर्क आवश्यक है, उसी प्रकार मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तो मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विद्युत भी तरंगों में निहित रहती है। यह आंतरिक विद्युत, जो शब्द उच्चारण से उत्पन्ना तरंगों में निहित रहती है, शब्द की लहरों को व्यक्ति विशेष या संबंधित देवता, ग्रह की दिशा विशेष की ओर भेजती है। अब प्रश्न यह उठता है कि यह आन्तरिक विद्युत किस प्रकार उत्पन्ना होती है? यह बात वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा मान ली गई है कि ध्यान,मनन,चिन्तन आदि करते समय जब व्यक्ति एकाग्र चित्त होता है, उस अवस्था में रसायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विद्युत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है (आंतरिक विद्युत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्ना होता है। इसे आप मानसिक विद्युत कह सकते हैं। यही मानसिक विद्युत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर, दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। यह मानसिक विद्युत (उर्जा) भूयोजित न हो जाए, इसीलिए मंत्र जाप करते समय भूमि पर कंबल, चटाई, कुशा इत्यादि के आसन का उपयोग किया जाता है। मानव की भौतिक इच्छाओं की लालसा से प्रेरित होकर हमारे आर्य ऋषियों नें, ध्वनि समायोजन कर के, भाषा को मंत्रों का स्वरूप प्रदान किया था, जिसे कि आज हम रूढ़िवादिता मान बैठे हैं।

प्रस्तुतु : दीके शर्मा

Wednesday, July 8, 2009

गुरु पूर्णिमा पर्व बड़े धूम धाम से मनाया गया

गुरु पूर्णिमा पर्व बड़े धूम धाम से मनाया गया। इस अवसर पर दिव्या रुद्रगिरिजी ने कहा की गुरु वह नहीं जो जगत में दीखता है वरन वह तो उससे परे है। इस अवसर पर लाखों शिष्यों ने गुरु पूजन कर आर्शीवाद प्राप्त किया। आव्हान अखाडे के श्री महंत दिग्विजयी बाल योगेश्वर अनंत श्री विभूषित श्री रुद्र ने अनेकों प्रकार के आख्यानों के माध्यम से मनुष्य की नैतिकता के उन्नयन का आव्हान किया।

Sunday, July 5, 2009

रुद्रवानी

तेरौ अचला चल चल डौले, कहा करि लेगी लगोंटिया रे।
बाहिर ओढ़ै भीतर छोड़ै। बाहिर जोड़ै भीतर तोड़ै॥
अन्तर पट नां खोलै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ १॥
बाहिर साधू, भीतर स्वादू। बाहिर ब्रह्म, ज्ञान मन व्यादू॥
काम क्रोध झक झोरै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ २॥
बाहिर कौ कछु काम न आवै। राम के नाम हराम कमावै॥
ये तराजू न तौले, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ ३॥
अन्त समय जो भरियौ सो आबै। चतुराई छूटै फिरि पछि तावे॥
काल करम जब घोलै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे॥ ४॥
मन कौ संयम अचला होवै। प्रज्ञा बुद्धि लंगोंटी होबै॥
'रुद्र' प्रमाणित बोलै, कहा करि लेगी लगोंटिया रे।
तेरौ अचला..............................................