ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
अनुवादः- प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं कि जो आत्मा इस संसार में जीव रूप में है वह मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन तथा पाँचों इन्द्रियों को अपना मान लेता है।
गूढ़ार्थः- यह श्लोक अति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रत्येक जिज्ञासु की इस जिज्ञासा को शान्त करता है कि मैं कौन हूँ? मेरा क्या है? मैं कहाँ से आया हूँ? और मुझको मेरी पहचान पाने में क्या बाधा है? यहाँ भगवान कहते हैं कि जीव परमात्मा का शाश्वत अंश है "ईश्वर अंश जीव अविनाशी" उसकी इस संसार से कोई एकता नहीं क्योंकि यह तो प्रकृति है, उसी का कार्य है। जीवात्मा इस संसार में जब शरीर धारण करता है तभी से उसे संसार के बंधनों में जकड़ा जाने लगता है। उस पर अपने माता-पिता के नाम, जाति, कुल, गोत्र, देश, रिश्ते आदि के लेबल लग जाते हैं। यह सब इतनी सहजता से होता है कि जीवात्मा भ्रमित हो जाता है और अज्ञानवश इस शरीर की इन पहचानों को ही अपनी पहचान मानने लगता है। वह शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि से एकता मान कर परमात्मा के अंशी आत्मा से जीव बन जाता है। यहाँ जब श्री हरि स्वयं यह कहें कि प्रत्येक जीवात्मा मेरा ही अंश है तो यह हम सबके लिए कितने हर्ष का विषय है! परमात्मा हमें कितना प्रेम करते हैं। हमसे कितनी आत्मीयता रखते हैं। परन्तु हमारी निष्ठुरता तो देखिए। हम परमात्मा से विमुख होकर संसार की ओर आकर्षित हो जाते हैं व मन-इन्द्रियों के दास बन जाते हैं। मन व इन्द्रियाँ हमारी कभी सगी नहीं होतीं। हम चाहें कितना भी प्रयास करें वे संतुष्ट नहीं होतीं हमारी सारी ऊर्जा, समय व धन हम इन्हीं को सन्तुष्ट करने पर लुटा देते हैं, जबकि इन सब पर असल अधिकार परमात्मा का है, जिसकी कृपा से हमें यह सब प्राप्त हुआ है। परन्तु स्वरूप के विस्मरण के कारण ही हम संसार में भ्रमित होते फिरते हैं। सच यह है कि संसार सत्य है ही नहीं क्योंकि सत्य तो शाश्वत होता है जबकि संसार में सब कुछ चलायमान व क्षणभंगुर है। अपने पद, मान, सामान, मकान, जमीन, सौंदर्य, शक्ति, कुल आदि का अभिमान मिथ्या है ये हमारी असली पहचान नहीं बन सकते क्योंकि ये हमारे विजातीय है इनसे हमारा सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। हम परमात्मा का अंश है तो हममें भी उसी के गुण व्याप्त हैं- परमात्मा अजर, अमर, अविनाशी, अकर्त्ता, अभोक्ता है जबकि इन सभी उपरिलिखित वस्तुओं में जरा, मृत्यु, विनाश, कर्तापन व भोक्तापन है। अतः हमारी पहचान कुछ और ही है जो इस संसार में पहचानी जाने वाली हमारी पहचान से परे हैं। वह है हमारी आत्मा-शुद्ध चैतन्य, सत्चित् आनन्द स्वरूप, अजर-अमर अविनाशी
मुझे मेरे स्वरूप के ज्ञान में क्या बाधा है? इस प्रश्न का उत्तर भी इस श्लोक में है- यहाँ यह जान लें कि हम हैं ही आत्मा, बस हमें अपने स्वरूप का विस्मरण हो गया है। अर्जुन ने कहा है-"स्मृतिर्लाब्धा नष्येमोहः।'' अर्थात् अब मुझे स्मृति हो गई है ;अपने स्वरूप की और मेरा मोह रूपी अज्ञान नष्ट हो गया है। स्मरण हो जाने से विस्मरण स्वतः ही चला जाता है बस बाधा है मोह की, अज्ञान की। यह अज्ञान भी क्या है? जीव संसार के सम्मुख हो गया इसमें संसार कारण नहीं, और परमात्मा से विमुख हो गया इसमें परमात्मा कारण नहीं दोनों ही दशाओं में जीव स्वयं ही कारण है। परमात्मा का अंश होने के कारण स्वतंत्रता उस जीव का गुण है। उसे मानने न मानने का अधिकार है। और इसी का दुरुपयोग उसने किया अब उसका सदुपयोग भी उसे ही करना होगा। इसके लिए साधक को श्री भगवान द्वारा तीन मार्ग बताए गए हैं- पहला जो संसार से मिला है उसे संसार की सेवा में लगा दे, निष्काम व निरहंकार होकर। यह मार्ग है कर्मयोग। दूसरा- स्वयं को शरीर और संसार से बिलकुल अलग कर ले अर्थात् ज्ञान योग। तीसरा- स्वयं को ही भगवान के अर्पण कर दे जो है भक्ति योग। तीनों में से कोई भी मार्ग अपना ले फल एक ही-मुक्ति।
1 comment:
gyan vardhak lekh ke liye sadhuvaad
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