जो वस्तु जैसी देखी हो या सुनी हो, उसको वैसा ही न कहना लोक में असत्य कहलाता है, परन्तु जैन धर्म में सत्य कोई स्वतन्त्र व्रत नहीं है, बल्कि अहिंसा व्रत की रक्षा करना ही उसका लक्ष्य है। इसलिए, जो वचन दूसरों को कष्ट पहुँचाने के उद्देश्य से बोला जाता है वह सत्य होने पर भी जैन धर्म में असत्य कहलाता है। जैसे, काने पुरुषों को काना कहना यद्यपि सत्य है,किन्तु उससे उस मनुष्य के दिल को चोट पहुँचती है, या यदि चोट पहुँचाने के विचार से उसे काना कहा जाता है तो वह असत्य गिना जाएगा। इसी दृष्टि से, यदि सत्य बोलने से किसी के प्राणों पर संकट बन आता हो तो उस अवस्था में सत्य बोलना भी बुरा कहा जाएगा। किन्तु ऐसे समय असत्य बोल कर किसी के प्राणों की रक्षा करने से यदि उसके जुल्म और अत्याचारों से दूसरों के प्राणों पर संकट आने की संभावना हो तो उक्त नियम में अपवाद भी हो सकता हैऋ क्योंकि यद्यपि व्यक्ति के जीवन की रक्षा इष्ट है, किन्तु व्यक्ति के जुल्म और अत्याचारों की रक्षा किसी भी अवस्था में इष्ट नहीं है। और अत्याचारों के परिशोध के लिए व्यक्ति या व्यक्तियों की जान ले लेने की अपेक्षा उनका सुधार कर देना अति उत्तम है। यदि यह शक्य न हो तो अन्याय और अत्याचारों को सहायता देना तो कभी भी उचित नहीं है। मगर व्यक्ति सुधर सकता है, इसलिए उसे अवसर अवश्य देना चाहिए। प्राण-रक्षा के लिए असत्य बोलने के मूल में यही भाव है।
असत्य वचन के अनेक भेद हैं, जैसे
१ मनुष्य के विषय में झूठ बोलना, शादी-विवाह के अवसरों पर विरोधियों के द्वारा इस तरह से झूठ बोलने का प्रायः चलन है। विरोधी लोग विवाह न होने देने के लिए किसी की कन्या को दूषण लगा देते हैं, किसी के लड़के में बुराइयाँ बता देते हैं।
२ चौपायों के विषय में झूठ बोलना। जैसे, थोड़ा दूध देने वाली गाय को बहुत दूध देने वाली बताना, या बहुत दूध देने वाली गाय को थोड़ा दूध देने वाली गाय बताना।
३ अचेतन वस्तुओं के विषय में झूठ बोलना। जैसे दूसरे की जमीन को अपनी बताना या टेक्स वगैरह से बचने के लिए अपनी जमीन को दूसरे की बताना।
४ घूस के लोभ से या ईर्ष्या होने से किसी सच्ची घटना के विरुद्ध गवाही देना।
५ अपने पास रखी हुई किसी की धरोहर के संबन्ध में असत्य बोलना।
ये और इस तरह के अन्य झूठ वचन गृहस्थ को नहीं बोलना चाहिए। इससे मनुष्य का विश्वास जाता रहता है और अनाचार को भी प्रोत्साहन मिलता है, तथा जिनके विषय में झूठ बोला गया है उन्हें दुःख पहुँचता है और वे जीवन के वैरी बन जाते हैं। जो लोग कारबार-रोजगार में अधिक झूठ बोलते हैं और सच्चा व्यवहार नहीं रखते, बाजार में भी उनकी साख जाती रहती है। लोग उन्हें झूठा समझने लगते हैं और उनसे लेनदेन तक बन्द कर देते हैं।
बहुत से लोग झूठ बोलने की आदत न होने पर कभी-कभी क्रोध में आकर झूठ बोल जाते हैं, कुछ लोग लोभ में फँसकर झूठ बोले जाते हैं, कुछ लोग हँसी-मजाक में झूठ बोल जाते हैं। अतः सत्यवादी को क्रोध, लालच और भय से भी बचना चाहिए और हँसी-मजाक के समय तो एकदम सावधान रहना चाहिए क्योंकि हँसी-मजाक में झूठ बोलने से लाभ तो कुछ भी नहीं होता, उल्टे झगड़ा बढ़ जाने का ही भय रहता है और आदत भी बिगड़ती है।
प्रस्तुति : पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री जैन सिद्धांताचार्य
असत्य वचन के अनेक भेद हैं, जैसे
१ मनुष्य के विषय में झूठ बोलना, शादी-विवाह के अवसरों पर विरोधियों के द्वारा इस तरह से झूठ बोलने का प्रायः चलन है। विरोधी लोग विवाह न होने देने के लिए किसी की कन्या को दूषण लगा देते हैं, किसी के लड़के में बुराइयाँ बता देते हैं।
२ चौपायों के विषय में झूठ बोलना। जैसे, थोड़ा दूध देने वाली गाय को बहुत दूध देने वाली बताना, या बहुत दूध देने वाली गाय को थोड़ा दूध देने वाली गाय बताना।
३ अचेतन वस्तुओं के विषय में झूठ बोलना। जैसे दूसरे की जमीन को अपनी बताना या टेक्स वगैरह से बचने के लिए अपनी जमीन को दूसरे की बताना।
४ घूस के लोभ से या ईर्ष्या होने से किसी सच्ची घटना के विरुद्ध गवाही देना।
५ अपने पास रखी हुई किसी की धरोहर के संबन्ध में असत्य बोलना।
ये और इस तरह के अन्य झूठ वचन गृहस्थ को नहीं बोलना चाहिए। इससे मनुष्य का विश्वास जाता रहता है और अनाचार को भी प्रोत्साहन मिलता है, तथा जिनके विषय में झूठ बोला गया है उन्हें दुःख पहुँचता है और वे जीवन के वैरी बन जाते हैं। जो लोग कारबार-रोजगार में अधिक झूठ बोलते हैं और सच्चा व्यवहार नहीं रखते, बाजार में भी उनकी साख जाती रहती है। लोग उन्हें झूठा समझने लगते हैं और उनसे लेनदेन तक बन्द कर देते हैं।
बहुत से लोग झूठ बोलने की आदत न होने पर कभी-कभी क्रोध में आकर झूठ बोल जाते हैं, कुछ लोग लोभ में फँसकर झूठ बोले जाते हैं, कुछ लोग हँसी-मजाक में झूठ बोल जाते हैं। अतः सत्यवादी को क्रोध, लालच और भय से भी बचना चाहिए और हँसी-मजाक के समय तो एकदम सावधान रहना चाहिए क्योंकि हँसी-मजाक में झूठ बोलने से लाभ तो कुछ भी नहीं होता, उल्टे झगड़ा बढ़ जाने का ही भय रहता है और आदत भी बिगड़ती है।
प्रस्तुति : पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री जैन सिद्धांताचार्य
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