आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, May 8, 2008

दो वैज्ञानिक तरीके

अनुसंधान
भारत मानवीय सत्ता की किया शक्ति, ज्ञान शक्ति और इच्छा शक्ति का उद्गम केन्द्र रहा है। हमारे ऋषियों- मुनियों की साधना, उनके अनुभवों की सार्थकता और बुद्धत्व का सत्य आज भी उतना ही ताजा, उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले कमी रहा होगा। समग्र ज्ञान को दो भागों में बाटाँ जा सकता है। एक अतंर्वोध पर आधारित अध्यात्म अथवा धर्म दूसरा तर्क परीक्षण तथा तथ्यों के आधार पर भौतिक जगत सम्बन्धी निष्कर्ष अर्थात्‌ विज्ञान। विज्ञान में बुद्धि तथा पदार्थ का संयोग काम करता है। आत्मिक विज्ञान में बुद्धि का परिष्कृत स्तर काम करता है जिसे अध्यात्म कहते हैं। जिसमें धर्म, धाराणा एवं ऋतंभरा प्रज्ञा का प्रार्दुभाव होता है। मनुष्य की विशेषता उसके विचार है। विचारों की विकास यात्रा में ही आध्यात्म, धर्म, विज्ञान उपजे एवं पनपे। इन सभी का उद्देश्य मानवीय जीवन को पूर्णता तक पहुँचाना है। विज्ञान की उत्पत्ति जिज्ञासा से होती। जिज्ञासा मन की प्रवृत्ति है जो किसी वस्तु या घटना को यों ही स्वीकार नहीं करती बल्कि उसके कारण का पता लगाने का प्रयास करती है। महान वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन ने पेड़ से गिरते हुए सेब को देखा। उसे जिज्ञासा हुई कि सेब क्यों गिरा। इसका क्या कारण है और इसी जिज्ञासा के फलस्वरूप उसके अन्दर वैज्ञानिक चिंतन का उदय हुआ। इसी जिज्ञासा और चिंतन के फलस्वरूप गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का जन्म हुआ। विज्ञान की अपनी कुछ मान्यतायें होती हैं जिन्हें माने बिना अनुसंधान, शोध, आविष्कार नहीं हो सकता। वैज्ञानिक इन मान्यताओं के बारे में जैसे भौतिक विज्ञान, भौतिक जगत को सत्य मानकर चलता है उसकी वास्तविकता को प्रमाणित करने की चेष्टा नहीं करता। ये मान्यतायें उसके लिए आधारशिला का काम करती है क्योंकि इन्हें हटा लेने पर विज्ञान का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। उदाहरण के लिए यदि भौतिक जगत की सत्ता को असत्य या संदिग्ध मान लिया जाए तो भौतिक विज्ञान का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा। धर्म की उत्पत्ति मानव के अन्दर सतत्‌ विद्यमान उस आध्यात्मिक भूख से होती है जो उसकी अपूर्णता को दूर कर पूर्णता की प्राप्ति के लिए उसे प्रेरित करती है। यह आध्यात्मक भूख अपूर्णता की चेतना से पैदा होती है। मनुष्य चिन्तनशील प्राणी है जब वह देखता है कि उसकी शारिरिक या मानसिक शक्तियाँ सीमित हैं किन्तु उसे अपनी सीमाऐं नहीं सुहाती। वह चाहता है कि इन सीमाओं को हटा कर ऐसी अवस्था प्राप्त करें जिससे वह पूर्ण हो जायें किन्तु इस मांग की पूर्ति भौतिक पदार्थों से प्राप्त नहीं होती इसी पूर्णता को प्राप्त करने के लिए वह आध्यात्मिक आस्थाओं में विश्वास करने लगता है। विश्व के इतिहास में मानवीय चेतना विज्ञान और आध्यात्म के बीच आन्दोलित होती रहती है। मानवीय इतिहास में ऐसे भी क्षण आये हैं जब आध्यात्म दर्शन, धर्म जीवनधारा के प्रमुख केन्द्र थे और विज्ञान सहायक की भूमिका में था। मनुष्य के जीवन में कभी विज्ञान प्रमुख रहा तो कभी आध्यात्म। आज विज्ञान ने जीवन के हर आयाम को प्रभावित किया है। विज्ञान ने प्रकृति के बहुत से रहस्यों को खोला है। लेकिन विज्ञान के साथ एक कठिनाई है यह भौतिक सुख-सुविधा तो जुटा सकता है लेकिन मन की गहराई, आत्मिक शाँति प्रदान नहीं कर सकता। विज्ञान ने आज अन्तरिक्ष पर भी विजय प्राप्त की लेकिन विज्ञान भावनाओं और आत्मा से अछूता रहा। हमने परमाणु को भी तोड़ा लेकिन स्वयं के अहम्‌ अहंकार को न तोड पाये। आज के आदमी ने चाँद की मात्रा की लेकिन पड़ोसी से मिलने में कठनाई महसूस करता रहा। आज समय आ गया है कि विज्ञान और आध्यात्मवाद दोनों का समन्वय हो। यह ठीक है कि विज्ञान को आध्यात्मवाद की जरूरत नहीं और आध्यात्मवाद को विज्ञान की लेकिन आदमी को मानव कल्याण के लिए दोनों की जरूरत है। हमारे वेदों में इन दोनों विचार धाराओं का समन्वय है। वेद जीवन की सम्पूर्णता तथा जीवन के विभिन्न आयामों को एक दृष्टि प्रदान करते हैं। वेदों में विज्ञान बीज रूप में उपस्थित है। वेदों का विषय प्रधानतया देवताओं और ईश्वर की प्रार्थना एवं उसकी महिमा वर्णन, आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है। वेदों में किसी-किसी पूरे मन्त्र में विज्ञान तत्व है तो दूसरे अंश में ईश्वर महिमा। वेदों में विज्ञान तत्वों का समावेश भी ईश्वर महिमा को पूर्णरूप से निखारने के लिए किया गया है। इस प्रकार वेद मन्त्रों का कार्य दोहरा है। वैज्ञानिक जो कभी पदार्थ को सर्वोपरि माना करते थे। अब क्वाटंम सिद्धांत एवं अनिश्चितता के सिद्धांत के द्वारा उच्चस्तरीय चेतना को भी स्वीकार करते हैं। भारतवर्ष में चेतना के ऋषियों ने शुरुआत में ही इस तत्व को समझ लिया था। जब भी चिंतन या विचार अपने बारे में पूरी तरह से चैतन्य हो जाता है तो वह अध्यात्म बन जाता है। प्राचीन ग्रीक चिंतनशैली में प्राटोगोरस ने जब अपना मंतव्य प्रकट करते हुए कहा था कि सत्य तभी सार्थक है जब वह इन्द्रियों द्वारा ग्रहणशील हो तब प्लेटो ने इसकी कटु आलोचना की थी। प्लेटो ने कहा कि सत्य के उच्चतर पहलू इंद्रियातीत भी हो सकते हैं। मानव जीवन के समग्र एवं सार्थक विकास का अर्थ है जीवन में विचारों के त्रिविध आयामों के रूप में अध्यात्म दर्शन एवं विज्ञान का समन्वय ही मानव की पूर्णता को साकार करेगा। भारतीय विचार पद्धति मानव के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का पथ प्रदर्शक है। भारतीय ग्रन्थों में वर्णित नाद और बिन्दु के सिद्धांत को क्वाटंम सिद्धांत के तरंग और कंण के माध्यम से समझा जा सकता है। विज्ञान उम्ब अध्यात्म की परिधि के करीब घूम रहा है। विज्ञान में ऐसी संम्भावनाए पैदा हो गई है जिसमें अध्यात्म एवं धर्म की प्रतिध्वनिया सुनाई पड़ती है। जर्मन वैज्ञानिक हाइजिन वर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत , अज्ञात जगत में प्रवेश कर रहा है। जो ना ही दिखाई देता है, जो ना ही सुनाई पड़ता वह भी है। हम एक खास बेवलेन्थ ;तरंगद्ध को पकड़ पाते हैं। हमारे आँख, कान और वैज्ञानिक की सीमा है, अज्ञात का बड़ा विस्तार है। भारतीय दर्शन एवं धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित माया को वैज्ञानिक तरीके से समझा जा सकता है। माया हमारी ज्ञान इन्द्रियों की सीमा है। उदाहरण तौर पर हमारी आँखें चार हजार से साढ़े सात हजार की बेवलेन्थ हा देख पाती है। अगर हमारी आँखों की क्षमता एक्स-रे जैसी होती तो हम मानवीय सौन्दर्य उसका रूप नहीं देख पाते हमें सिर्फ ढ़ाँचा ही दिखाई देना। यदि हमारी आँखों की क्षमता और बढ़ जाए और हम परमाणु को देख पाये तो वस्तुऐं हमें परमाणु का समूह लगेगी। कहने का अर्थ यह है कि वस्तुओं का रूप रंग हमारी ज्ञान इन्द्रियों की क्षमता पर निर्भर करता है तथा सब कुछ परिवर्तनशील है, सम्पूर्ण अस्तित्व ही गत्यात्मक है जो कुछ हमारी आँखें देख पाती हैं, कान सुन पाते हैं वह पूर्ण सत्य नहीं है। धर्म ग्रन्थों में इसी को माया कहा गया है, जो काल और स्थान के साथ परिवर्तनीय है। विज्ञान गहरे में गया तो पाया कि सारा अस्तित्व ही ऊर्जामय है। अध्यात्म गहरे में गया तो उसने पाया कि सिर्फ आत्मा है। आत्मा चेतन ऊर्जा है। अध्यात्म चेतन जगत के रहस्यों का उद्घाटन करता है और सृष्टि की महती शक्ति को व्यक्ति और समाज के उत्थान में लगाता है। विज्ञान अगर पदार्थ जगत के कंण ऊर्जा रूपी परिकल्पना से कुछ आगे बढ़ सके तो संभवतः इस अदृश्य कहे जाने वाले जगत की झलक पा सके। विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही सत्य को अपने-अपने तरीके से प्रतिपादित करते हैं और दोनों का समन्वय मानव के लिए हित कर है।