आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Tuesday, October 25, 2011

Happy Dipawali


Dipawali

Monday, June 13, 2011

हर जगह ज्ञान है हर जगह आनन्द है

.....बजह यही है कि मछली के अन्दर पानी पहुँच नहीं पा रहा है। पानी में है, बाहर भीतर पानी है। कबीर दास जी ने कहा है, कि
"पानी बिच मीन प्यासी, मोहे सुन सुुन आवत हाँसी''
हर जगह ज्ञान है हर जगह आनन्द है फिर भी आदमी मूर्ख है और दुखी है। वजह क्या है? कि मछली उलटेगी तो उसके मुँह में पानी आऐगा। मछली नहीं उलटेगी तो भले ही पानी में ही है, पर प्यासी मरेगी। हर जगह परमात्मा है, हर जगह ज्ञान है फिर भी मूर्ख होकर, दुःख से आदमी मर रहा है। उलटना नहीं जानता।
उलटना यही है-"मैं' को छोड़कर के, गुरु की तरफ। कोई भी महापुरुष हो जो हमारी दिशा को बदल सकते हों, उनकी तरफ समर्पित होना चाहिए। इस लालच से नहीं कि इन्होंने मुझे दिया है तभी मैं इनके लिए समर्पित होऊँ। कोई भी ज्ञानी पुरुष हो, कहीं भी हो सभी के लिए समर्पित होना चाहिए। ये उन के लिए समर्पण नहीं है ये अपनी आत्मा के लिए, अपने ज्ञान के लिए अपने आप के लिए समर्पण होता है। अपनी जिन्दगी के लिए होता है।
बात वहीं पर चल रही थी। जिन्दगी को चलाना बड़ी बात नहीं है। मक्खी, मच्छर भी जी लेते हैं। गधा होता है, वह भी पूरी जिन्दगी जी लेता है, बड़े मजे से जीता है। सबसे बुरा सुअर होता है, वह भी पूरी जिन्दगी जी लेता है, बड़े मजे से जीता है लेकिन जिन्दगी किसके लिए? उलटने के लिए। जो उलटना सीख गया। उलटना कहो या सुनना कहो एक ही बात है, ज्ञान तो तुम्हारे भीतर है जैसे ही तुम उलटे तुम्हारा कल्याण हुआ।
"उल्टा नाम जपा जग जाना''
बाल्मीकी चोरी डकैती, बदमाशी करते थे, किसी की सुनते ही नहीं थे। महात्मा आऐ-ऐ ठहरो, ठहर गए। क्या है तुम्हारे पास? यहीं रख दो। उन्होंने कहा भईया हम तो अपनी लड़की की शादी के लिए जमीन बेच करके लाए हैं, मर जाऐंगे, बारात आई है। कोई सुननी नहीं है, दूसरे को समझना ही नहीं है। जब दूसरे को सुनना नहीं है और फिर जब सुना और समझा तो-
"बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।''
शास्त्रों को सुनों और समझो। हम से जो बड़े बूड़े है, उनसे सुनो और समझो। बड़े लोगों को सुनना और समझना। हर माँ-बाप को अपने बच्चे को यही सिखाना चाहिए। लेकिन माँ क्या सिखाती है-चाची से मत बोलियो, चाचा से मत बोलना, अम्मा बहुत दुष्ट है, चाचा के लिए पचती है। बाबा तेरा बहुत खराब है, उसे गाली देता है। मम्मी खुद बाहियात है तो औलाद तो वही बनेगी। गुरु खुद बाहियात है कहता है,÷÷उस कथा में मत जाना।'' कुछ ऐसे गुरु हो गए हैं, जो कहते हैं कि गीता मत सुनना, रामायण मत सुनना, मन्दिर मत जाना, वेद मत सुनना, घण्टा मत बजाना, बाबा जी के पास मत जाना। बाहियात मम्मी-पापा, बाहियात हो गए बाबा जी और गुरु। चेला और औलाद का फिर क्या होगा?

Monday, May 23, 2011

ज्ञान तो सब में है, उसका अभाव नहीं है.....


बादल होते हैं, मौसम बनता है, हमारे भीतर भावना के बादल बनेंगे और वो बादल क्या करते हैं? पता है। आसमान को ढ़क लेते हैं फिर आसमान क्या करता है, पता है उसके भीतर जो भी है वो बादलों का देकर वर्षा देता है। तो उससे तुम्हारे भीतर छिपा हुआ जो सतगुरु हो वो तुम्हारे कल्याण के लिए जितनी भी अमृत की छींटें हैं, जितनी भी बारिस है, जितनी भी उसके पास है, उसको देगा, भर देगा उसको। आज तक कोई भी ज्ञान को पैदा करने वाला नहीं हुआ। ज्ञान तो अनन्त है, अखण्ड़ हैं, शाश्वत है, उसके कोई टुकड़े नहीं हो सकते, उसका कोई अभाव नहीं हो सकता।
"नासतोविद्यतेभावः नाभावोविद्यते सतः॥''
असत्य वस्तु की कोई सत्ता नहीं, सत्य वस्तु का कोई अभाव नहीं। ज्ञान तो सब में है, उसका अभाव नहीं है। कोई विद्वान है, कोई गुरु है, कोई संत है, समझदार है, ये सब क्यों है? ये ऐसे ही हैं जैसे पानी समुद्र में है। पानी के भीतर मछली प्यासी है। ऐसा नहीं है मछली को पानी नहीं मिल रहा है, जब कि पानी के बिना मछली हो ही नहीं सकती है। ज्ञान के बिना कोई जीवन हो ही नहीं सकता है। ज्ञान चेतना है, जीवन भी चेतना है। अरे जहाँ जिन्दगी है, वहाँ ज्ञान जरूर होगा और लेकिन नहीं दीख रहा है, तो बजह क्या हो सकती है?

Saturday, April 23, 2011

शब्द की विस्मृति याद है...........

याद रखना! शब्द का याद रहना याद नहीं है। शब्द की विस्मृति याद है। जब तक हमारे दिमांग में शब्द बन रहे हैं, तब तक कपड़े हैं। जब तक हमारे दिमांग में विचार बन रहे हैं, तब तक कपड़े हैं और तुम शब्दों को और विचारों को उतार दोगे, तो गुरु तो तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है। ये कपड़े हैं, गुरु थोड़े ही है, ये तो ठवकल है। गुरु तो भीतर है। भगवान कहते हैं कि सुदामा सद्गुरु सबके हृदय में बसा हुआ है।
ये तो ठवकल है, ये तो धोखा भी हो सकता है, गुरु तो अमर होता है, साश्वत होता है। गुरु का मतलब होता है, ऐसी चीज जो तुम्हें अपनी तरफ खींच ले। जिसे हतंअपजंजपवद कहते हैं, जिसे गुरुत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं, जिस में ज्यादा शक्ति होती है, जो चीज ज्यादा ताकतवर होती है, जो चीज ज्यादा वजनदार होती है, उसी चीज को खींच लेती है। जब तुम नियम से रहोगे, सुनोगे तो गुरु के पर्व पर जाओ। तब गुरु के कहते ही तुम कपड़े उतरे हुए मेरे पास आओ तो मैं तुम्हें वहीं दुंगा जो तुम्हारे कल्याण के लिए है, जो तुम्हें चाहिए, फिर तुम्हें किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी।
एक दिन गोपियाँ डर रही हैं कपड़े के बिना, पर हम डरते हैं कि अपनी बात नहीं कही तो हम गुरु की सुन नहीं पाऐंगे। गुरु नहीं समझ पाऐगा कि मेरा चेला बहुुत पढ़ा लिखा विद्वान था। हम अपने आप को दिखाना चाहते हैं वो भी अपने आपको दिखाना चाहती हैं, अपनी हकीकत को सुनाना चाहती हैं। जब तक हम आपको अपने दिल से जीवन का कल्याण होगा उसे छुपाऐंगे तो कुछ नहीं मिलेगा। और जब सोचेंगे कि इनको हमारी गलती दिख गयी है तो दुनियाँ भरके शब्द जोडेंगे, दुनियाँ भर की बात जोड़ोगे। तुम सीख क्या रहे हो, तुम तो गुरु के गुरु बन रहे हो, पापा के पापा बन रहे हो, मम्मी की मम्मी बन रहे हो, बड़ो के बड़े बन रहे हो।
जब तक बड़े बन रहे हो, मत आना, घर ही रहो। और जब बड़ों की मानना सीख लो तब सन्त शरण में आना।
"संत मिलन को जाइए, तजि माया अभिमान।
ज्यों-ज्यों पग आगे बढ़े, कोटिन्ह यज्ञ समान॥
माया अभिमान त्यागने का मतलब ये थोड़े ही है कि अपनी मकान, दुकान, जमीन, जायदाद, गुरु के नाम कर दो। ऐसा नहीं है! मन में जो तुम्हारे में भरा हुआ है कि "मैं', 'मेरा', 'मैं बढ़िया हूँ', ये सारी बात छोड़कर जाना। ये है आषाढ़ की गर्मी, कपड़े उतारने पडेंगे, न सुन्दर हो, न पढ़ा लिखा हो, न विद्वान हो, न जमींदार हो, न नम्बरदार हो, ये सब उतार सकते हो तो ही जाना।

Thursday, February 17, 2011

सुनाने की इच्छा को छोड़ दो......


बुद्धि को सुधारने की जरूरत नहीं है। गलत आदत को सुधारने की जरूरत नहीं है, केवल सुनाने की इच्छा को छोड़ दो तो तुम्हारे अन्दर कोई गलत आदत नहीं है। जो हमारे यहाँ ज्ञान है, वह श्रवण से आता है, सुनने से आता है। ज्ञान कहाँ से आता है? सुनने से। जब बच्चे को तुम स्कूल भेजते हैं, तो कॉलेज के सारे नियमों पर चलता है कि कैसे कपड़े होने चाहिए, कब आना चाहिए, कैसे बैठना चाहिए, सारे कानून को, सारे नियम को जब अपने ऊपर ओढ़ लेता है, तो उसी तरीके से जैसे मास्टर उसको पढ़ाते हैं, उनको जैसे सिखाते हैं, बैठना, बोलना, उसी तरीके से क्लास में करता है। और फिर उसके गुरु का, टीचर का दिया हुआ जो पूरा का पूरा ज्ञान है, उसको भीतर कर लेता है। कुछ नहीं करना है, गुरु को सुनने वाले बन जाओ, केवल सुनने वाले।
तुम कथा सुनते हो परीक्षित की। परीक्षित ने कुछ नहीं किया केवल सुना और मुक्त हो गया। सुनने से ही मोक्ष होगा। और सुनाने से ही आदमी गंवार होगा। सुनाने से ही आदमी कीबुद्धि के अन्दर जो कॉन्सन्ट्रेशन होता है, जो बुद्धि के अन्दर ऐकाग्रता होती है, जो दिल के अन्दर बहुत गहराईयाँ होती हैं, वो डिस्टर्व हो जाती हैं।
तुम कहोगे कि शुकदेव जी से तो परिक्षत ने सुना और उसका मोक्ष हो गया। शुक देव जी ने सुनाई? शुक देव जी ने नहीं सुनाई, जो घटना होती है उसे बताते जाते हैं, सुनाते नहीं हैं। शुक देव जी ने सुनाया नहीं। जो उनके अन्दर हो रहा था उसको बता देंगे, देखा ऐसा-ऐसा हुआ है, ऐसा-ऐसा होता है। ऐसा आदमी जब अपनी बात को कहता है तो उसमें खोया हुआ होता है। उसको सोचने की जरूरत नहीं है। शुक देव जी ने कुछ सोचा नहीं है, जो कुछ उनके अन्दर घटित होता रहता था, उसको बताते रहते थे। वही बात सबके अन्दर एक जैसी घटित होती है।
जरूरी नहीं है कि मेरे भीतर कुछ और, और तुम्हारे भीतर कुछ और, तीसरे के भीतर कुछ और हो। सब को भूख लगती है, सबको प्यास लगती है, सबको दर्द होता है, सबको दुःख होता है, तकलीफ होती है, सब एक जैसी चीज है, कोई अलग नहीं है, तो शुक देव जी के अन्दर जो घटित हो रहा था, उनके अन्दर जो चल रहा था, उसको परिक्षत को कह रहे थे। कहते-कहते चुप भी होगए, क्योंकि जहाँ दर्द और दिल दो होते हैं, तो बात होती है और जहाँ दिल ही बोल जाता है, दर्द ही दर्द रह जाता है, तो कौन किससे मिले। कथा बन्द हो गई।
भगवान शंकर पार्वती जी को कथा बता रहे हैं। प्रवचन नहीं कर रहे हैं, बता रहे हैं कि "पार्वती हनुमान जी लंका जलाकर के सीता जी को राम जी की खबर देकर के लौट कर के आए, भगवान के शरण में पहुँचे, दण्डवत किया, प्रणाम किया प्रभु के चरणों में। राम जी ने उनको आर्शीवाद दिया। शंकर जी बता रहे हैं- प्रभु कर पंकज कपि के दीशा, सुन कथा मगन गौरी सा। 'प्रभु कर पंकज कपि के दीशा' प्रभु के कर कमल हनुमान जी के सिर पर। 'सुन कथा मगन गौरी सा' कथा बन्द हो गई शंकर जी की समाधी लग गई। दर्द ही दर्द रह गया, दिल खो गया। दर्द क्या था?
भगवान शंकर राम जी के भक्त थे। और हनुमान जी शंकर जी तो बने राम जी की सेवा करी। भक्त को अपने भगवान की शरण मिल जाए। जो शिष्य अपने गुरु के लिए तड़पता है, उसे अपने गुरु की शरण मिल जाए, खतम हो गया सब कुछ, उसकी दौड़ खतम हो गई। एक नदी चल रही थी। बडे-बड़े पहाड़ों से जूझती हुई पेड़ों से जूझती हुई, और बड़े-बड़े ऊँचे नीचे रास्ते और ऊँचाईयों से जूझती हुई कहीं नहीं रुकती। बड़े-बड़े बांध बनाऐंगे नहीं रुकती, लेकिन जब समुद्र मिल गया, तब रुकेगी। जब गुरु मिले बात खतम हो गई, प्रभु मिले बात खतम हो गई, समुद्र मिला बात खतम हो गई।
भगवान कृष्ण कहते हैं कि "अर्जुन जब तक गढ्ढ़े मिलते हैं। डोलते रहते हैं। जब प्रभु मिलते हैं फिर कोई पाप नहीं रहता, फिर कुछ नहीं रहता। जब तक नींद नहीं आती है, तो बेचैन रहते हैं और जब नींद आ जाती है, तो कुछ करते हो? कुछ नहीं करते। फिर करना खतम हो जाता है, तो शुक देव जी ने कहा नहीं है, शंकर जी ने कहा नहीं है, तुलसीदास जी ने कहा नहीं है, संतों ने कोई प्रवचन नहीं दिया। जो हुआ है जो उनको पता है, देखा है ऐसा होगा, जो हो रहा है उसको कह रहा है वो सन्त है।
जिसके अन्दर हुआ नहीं उसको कह रहा है, वह कहना है उसमें तुम्हें कुछ मिले या नहीं मिले कोई जरूरी नहीं है। संत वो जिसके अन्दर कुछ घटित होता है, जिसके अन्दर वो चीज चल रही है, जिसके भीतर सारे के सारे अनुभव हैं तो शुक देव जी ने भी सुना। शंकर जी बता भी रहे हैं और सुन भी रहे हैं। शुक देव जी बता भी रहे हैं और सुन भी रहे हैं क्योंकि आनन्द ले रहे हैं पूरा। अगर कहने का आनन्द नहीं लेते, बताने का आनन्द नहीं लेते तो समाधी कैसे लग जाती। शुक देव जी, शंकर जी की समाधी कैसे लग जाती, आनन्द कैसे आता है।
दर्द कैसे आता है, भाव कैसे बनता है, जो कहने में धर्म है, वो कह नहीं रहा है। कहने में अहंकार आ रहा है। कितनी बढ़िया कथा कह रहा है। होई कहेगा मैंने ऐसा प्रवचन किया कि सुनने वाले लोग कन्नी काट गए, उंगली दबा गए ऐसा। खुद ही जो रास्ते से भटक जाऐं, खुद ही जिनकी बुद्धि उल्टी हो गई है, उसे क्या सुधार लेगा। तो इसलिए बात सबसे पहली है कि जब बच्चा स्कूल जाता है, तो स्कूल के क्या नियम हैं, सारे नियमों को अपने स्वभाव में ढाल ले। और मास्टर क्या कहते हैं, उसको सुने, तो गुरु शिष्य के भीतर उतर जाता है। जब सुनने की इच्छा हो जाती है। सुनने लायक हो जाता है, तो ज्ञान और बढ़ जाता है, जब नदी को समुद्र मिल जाता है, तो नदी पूरी हो जाती है। जब शब्दों को भाव मिल जाता है, तो शब्द बन जाते हैं।