:- प्रार्थना भगवान से तुरंत सम्बन्ध स्थापित करवाती है। यह भगवान से वार्ता करने तथा उनके आशीषों के लिए उनको धन्यवाद देने का एक माध्यम है। यह न मांगने के और न ही उनसे अपने कष्टों को हरने के उद्देश्य से की जाए। परन्तु कलियुग में प्रार्थना की यही अधोगति हो गई है। एक कृतज्ञ हृदय की भावाभिव्यक्ति ही सच्ची प्रार्थना है। यह उस भावना से तुलनीय है, जब आपके हृदय में मौन भावातिरेक हो, आँखें नम, हाथों में कम्पन, काँपते होंठ हों जैसे- जब आप किसी परम प्रिय से लम्बे अन्तराल के बाद मिलते हैं। इस क्षण सब कुछ निशब्द ही, स्वतः ही कह दिया जाता है तथा आप उसे करीब पाकर स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। ''प्रार्थना सदा हमारी कृतज्ञता की भावना का स्वतः प्रवाह हो... हमारे अस्तित्व से.... न कि मन से।''
प्रस्तुति : अतुल
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