आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, September 10, 2009

ध्यान और मनन एक दूसरे के पूरक

ध्यान और मनन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। वर्तमान २१ वीं सदी में जब एकल परिवार तथा आजीविका कमाने की होड़ में मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान को दौड़ता रहता है, ऐसे में ईश्वर के प्रति अपनी sहृद्धा दर्शाने हेतु ध्यान-मनन की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है। जब हम वर्तमान संसार की ओर अपनी दृष्टि करते हैं तो पाते हैं मनुष्य कमजोर, असहाय, बीमारियों, तथा अव्यवस्था एवं मानसिक तनाव तथा अवसाद का शिकार है। यद्यपि उसका समाधान जो पूर्णतः अस्थाई है भिन्न-भिन्न क्रियाओं में जैसे योग इत्यादि में देखने में आता है। मानव स्वस्थ्य एवं चैतन्य तो दिखता है, फिर भी परमेश्वर के साथ गहन संबंध नहीं बन पाता और एक समय आता है जब वह निराशा, हताशा एवं कुंठा का शिकार हो जाता है। प्रश्न उठता है कि मानव को कौन सा ध्यान-मनन करना चाहिये जिससे न केवल उसकी काया ;शरीरद्ध निरोगी हो वरन्‌ उसकी आत्मा का गहन संबंध भी परमेश्वर के साथ हो। पवित्र धर्म ग्रंथ बाइबल में ध्यान-मनन हेतु कुछ ऐसे घरेलू पाये जाते हैं, जो शरीर और आत्मा दोनों का मेल परमेश्वर के साथ करवाने का प्रयत्न करते हैं। पवित्र बाइबल की प्रथम पुस्तक उत्पत्ति प्रंथ में पितामह इब्राहिम प्रातः उठकर उस स्थान को गये जहाँ वह परमेश्वर के सम्मुख खड़े रहते थे। [उत्पत्ति १९ह२७ ] उपरोक्त घटना में चार महत्वपूर्ण बातें पाते हैं-

१. इब्राहिम प्रातः काल जल्दी उठेः- प्रातः काल जल्दी उठना एक कठोर अनुशासन है। महानगरों में कॉल सेंटर में कार्य करना, शिफ्ट में नौकरी करना इत्यादि के कारण प्रातः काल उठना बहुत कठिन है, परंतु यही वह उत्तम समय है जहाँ हम शांत एवं बेदखल रह सकते हैं। ध्यान-मनन में प्रतः उठना अत्यंत आवश्यक हैं। क्रमशः

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