एक बार नारद जी श्रीकृष्ण से मिलने पहुंचे। वह बड़ी आतुरता से उनके कक्ष में प्रवेश करने लगे कि तभी द्वार पालों ने रास्ता रोक दिया। नारद जी ने कारण पूछा तो उत्तर मिला, प्रभु अभी आराधना में व्यस्त हैं । नारद ने कहा, रास्ता छोड़ो, मैं तुम्हारे इस बहकावे में नहीं आने वाला। पर यह सुनकर भी संतरी डटे रहे। मन मसोस कर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। कुछ देर बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने कपाट खोले। नारद जी ने प्रणाम करके तुरंत शिकायत की, देखिए न, आपके द्वारपालों ने एक बेतुका बहाना बनाकर मुझे भीतर जाने से रोक दिया। ये कह रहे थे कि आप पूजा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण बोले, यह सत्यवचन है नारद। हम आराधना में ही मग्न थे। नारद ने कहा, भगवन् आप और आराधना? श्रीकृष्ण बोले, देखना चाहोगे, हम किसकी आराधना में लीन थे? आओ भीतर आओ। भीतर एक पुष्पमंडित पालने पर अनेक छोटी छोटी प्रतिमाएं झूल रही थीं। नारद जी ने एकाग्र दृष्टि से देखा। कुछ प्रतिमाएं गोकुल की गोप मंडली की थीं, तो कुछ स्वयं उनकी। तब नारद जी ने बौराई आंखों से प्रभु को निहारा। फिर पूछा, भला आराध्य आराधकों की आराधना कब से करने लगा? भक्त गुहार करे और भगवान कृपा, यह सीधी रीत तो समझ में आती है। पर यह दूसरी अटपटी परंपरा आपने क्यों चलाई? श्रीकृष्ण ने कहा, मुझे बताओ नारद, भक्त मेरी आराधना क्यों करते हैं? किस प्रयोजन से मेरी उपासना करते हैं? नारद बोले, प्रभु वे आपसे आपका प्रेम चाहते है। श्रीकृष्ण ने कहा नारद, ठीक इसी प्रयोजन से मैं भी अपने भक्तों की आराधना करता हूं। मैं भी भक्त से प्रेम की आकांक्षा रखता हूं। भक्त से उसका प्रेम मांगता हूं। प्रेम का यही महादान पाने के लिए मैं निराकार से साकार होकर आता हूं। पर मानव इसी बात को नहीं समझ पाता। वह तो हमसे केवल धन दौलत ही मांगता है जबकि मैं भक्त का प्रेम पाने के लिए उसकी ओर देखता रहता हूं।
Sunday, June 28, 2009
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