एक बड़ा रोचक और मार्मिक मामला इस दौरान हमारे समक्ष आया। हमने अपने एक मुस्लिम विद्वान साथी से इस विषय पर कुछ लिखने को कहा तो वह बोले, संजय जी बड़ा सेंसिटिव इश्यू है। अगर हम कठमुल्लों की भाषा बोलते हैं तो हमारे अंदर जेहाद होने लगता है और अंदर की बात लिखते हैं तो बाहर से जेहादी हमले का खतरा है। उपरोक्त दो पंक्तियां इतना कुछ कह देती हैं कि पूरी थीसिस लिख जाती है। यही सच भी है। धर्म के ठेकेदारों नं अपनी दुकान चलाने की गरज से इस शब्द का बेजा इस्तेमाल करने में कोई कोताही नहीं की है। धार्मिक संगठन चाहे किसी भी धर्म का हो वहां तक ठीक है जहां तक वह अपने अपने को सुधारने के लिए अपने से युद्ध करता है लेकिन जब वह अवनी स्वार्थपूर्ति के लिए दूसरे के नुकसान को अमादा हो तो वह धर्म कहां? वह तो अधर्म है। अर्जुन को कृष्ण ने किसी का राज छीनने के लिए युद्ध करने को नहीं कहा। राम ने रावण का वैभव या राज छीनने की गरज से युद्ध नहीं किया। बुद्ध ने हिंसा करने के लिए युद्ध कला नहीं सिखाई, सिख गुरुओं ने किसी की सत्ता छीनने के लिए युद्ध की आज्ञा नहीं दी और मुहम्मद साहब ने भी मानवता को नष्ट करने के लिए या उसे नुकसान पहुंचाने की गरज से युद्ध को फर्ज करार नहीं दिया था। यह तो हमारा स्वार्थ है, इंसान पर छाई शैतानियत है जो धर्मयुद्ध के नाम पर बेगुनाहों के कत्लेआम करा रही है। महाराजजी कहते हैं कि हर व्यक्ति वैराग्य से पूर्व धर्मयुद्ध करता रहता है। यह युद्ध कहीं बाहर नहीं, किसी दूसरे से नहीं, स्वयं के अंदर छिपे शैतान से है। वही अर्जुन है जो इस आंतरिक युद्ध में अंदर बैठे शैतान को पराजित कर देता है। सदगुरु सारथी के रूप में सदैव उसके साथ है। जो बिना सारथी के धर्मयुद्ध के नाम पर दूसरों की हत्या करे या नुकसान पहुंचाए वह जाने अनजाने अंदर के शैतान द्वारा संचालित होता है। और शैतान की पुष्टि के लिए किया गया युद्ध धर्मयुद्ध नहीं वरन अधर्म का साथ होता है। आज पूरा विश्व आतंकवाद की चपेट में है। देश के देश बर्बाद हो रहे हैं। मानवता सिसक रही है और शैतान मानवता का लहू पीकर मस्त होकर अट्टहास कर रहा है। इसी संवेदनशील बिन्दु पर हमने कुछ चुने हुए विद्वानों के विचारों को ठीक उसी रूप में प्रकाशित करने का प्रयास किया है जैसे हमें मिले हैं।...
Thursday, May 7, 2009
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