अनंत श्री दिव्य रुद्र कहते हैं कि, ध्यान शब्द का अर्थ भौतिक जगत में है-एकाग्रता और इसी एकाग्रता का जब आध्यात्मिक धरातल पर विस्तार किया जाता है, तो इसकी परिणति ध्यान, फिर शनैः शनैः समाधि में होती है। "ध्यानं निर्विषयं मनः'' जब मन में कोई विषय न हो कोई चिन्तन न हो ऐसी अवस्था को ध्यान कहते हैं। मन को किसी एक विषय में एकाग्र करके फिर उससे भी उपराम हो जाने का नाम ध्यान है। ध्यान शून्य से शुरू होता है। ध्यान शरीर के उन चक्रों पर करना चाहिए जहाँ शून्य है- खाली शून्य स्थान है। शरीर में स्थित ३ चक्रों पर शून्य है- अनहद चक्र, सहस्रार चक्र तथा ब्रह्मरंध। जो साधक इन चक्रों पर ध्यान लगाते हैं उन्हें उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। आज्ञाचक्र पर ध्यान करने से परिणाम भले ही तुरंत दिखाई दे, परन्तु वे दूरगामी नहीं होते तथा ऐसे साधक को काम वासना परेशान कर सकती है, अंधकार मिलता है और माया के प्रपंच में फँसने का डर रहता है।
क्रमशः
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