आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Wednesday, July 22, 2009

गीत गोविन्दम


ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे,

मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे।

विहरन्ति हरि रिह सरस वँसते।

नृत्यति युवति जनेन- संगसखि विरहि जनस्य दुरन्ते॥

(गीत गोविन्द तृतीय प्रबंध श्लोक ३)

अभिप्राय यह कि- हे सखी। यह मलयपवन लवंग पल्लवों से निकुंज वन को आलिंगित कर रहा है, यमुना के शीतल जल को ऊर्मित कर रहा है। मधुमक्खियाँ, कोकिला, पपीहादि पक्षीगण, अपनी-अपनी मधुर ध्वनियों से इस वन को आनन्दमय बना रहे हैं। स्वयं नारायण श्री कृष्ण, नारियों के समूह के साथ नृत्य कर रहे हैं। यह बसंत )तु विरही जनों को अत्यन्त दुखदायी है अतः चलो अपने इष्टदेव से चलकर मिलो ताकि विरहानल शान्त हो- यह अभिप्राय।

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