बोले महाराज, बात तो आप बड़े गजब की कह रहे हैं। महाराज, कल्याण का रास्ता बताऐं। भरत जी बोले कि कल्याण का रास्ता न भीतर है, न बाहर ही, ये तो मन से होकर जाता है। मन से ही बंधन है, जब यह बाहर भटकता है और मन से ही कल्याण है, जब वो आत्मा में लय होता है। ये संसार एक भवाटवी है। 'भव' माने 'तृष्णा' और 'अटवी' माने 'जंगल'। वासना-तृष्णा का जंगल है, राजन, जिसमें दिल और चित्त भटक गया है। आत्मा बंधन और मुक्ति दोनों से परे है। मन से ही बंधन है, मन से ही मुक्ति है। विषयों में फंसा हुआ चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। देख, इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। जैसे-मकड़ी में से जाल पैदा होता है, और मकड़ी को ही लटका लेता है। जैसे पानी में से काई पैदा होती है और पानी को ही ढक लेती है। सूरज से कोहरा पैदा होता है और सूरज को ही ढक लेता है। ऐसे ही चित्त में से ही अविद्या उत्पन्न होती है और चित्त को ही आवृत्त कर देती है। समझना ढंग से, अच्छा। फिर यही संसार के बंधन में डालने वाली अवक्षिप्त कर्मों में प्रवृत्ति रहती है। इसकी ये वृत्तियाँ प्रवाह रूप से नित्य ही रहती हैं- जागृत स्वप्न में प्रकट होती हैं, सुषुप्ति में छिप जाती है, रहती तो हैं। यानि तीनों अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ जो विशु( चिन्मात्र है न, वो इनको साक्षी भाव से देखता रहता है। इसलिए साक्षी चेतन केवलो निर्मलश्च। इस भाव में अपने चित्त को लय करने का प्रयास कर।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। वेद पुराण सन्त सम्मत वद॥
1 comment:
सत्य को सत्य ही कहा जाएगा लेकिन इस सत्य को कितना स्वीकार किया जाता है यह तो व्यक्ति - व्यक्ति पर निर्भर करता है.
आध्यात्मिक मूल्य कल भी सत्य थे और आज भी सत्य हैं. लेकिन आम पाठक के लिए ये बड़ी बड़ी और गहन गूढ़ बातों में कोई रूचि नहीं होती है.
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