आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Saturday, August 15, 2009

राधा उपासना है तो श्रीकृष्ण उपास्य

शशिमुख मुखरय मणिरश्न गुणमनुगुण कंठ निनादम्‌,

मामश्रुति युगले पिकरुत विकले शमय चिरा दव सादम्‌॥६॥

मामति विफलरुषा विकलीकृत मवलोकित मधुनेदम्‌।

मीलित लज्जित मिवनयन मतव विरम विसृज रतिखेदम्‌॥७॥

अर्थात्‌:- हे शशिवदनी! दीर्घसमय से विरह व्यथित तथा कोयल के शब्द सुनकर मेरे विरह व्याकुल कानों में कंठ गीत तरह, मणि जटित स्वर्ण कर्धनी का शब्द करो तो मेरा दुख समाप्त हो जायेगा। हे प्रिये! तेरे युगल नेत्र, अकारण क्रोध से व्याकुल हुये, मुझे देखने को लज्जित की भांति मिचते हैं। अतः इस क्रोध को छोड़कर रतिखेद को त्याग दो अर्थात्‌ प्रीति पूर्वक मेरे साथ रमण करो।

उपरोक्त श्लोकों में, अतिसूक्ष्म भगवान श्रीकृष्ण जी एवं श्री राधा जी को प्रेम प्रसंग की झलक मात्र प्रस्तुत की गयी है। श्री राधा जी आराधना हैं तो भगवान श्री कृष्ण आराध्य।"यः आराधयते सा राधा।'' राधा जी प्रकृति हैं तो श्री कृष्ण जी ब्रह्म। श्री राधा जी प्रेरणा हैं, जगजननीवत हैं तो भगवान कृष्णा संसार के पिता हैं। प्रकृति, सृष्टि (निर्माण) करती है, क्षेत्र है यह, तो कृष्ण क्षेत्रज्ञ हैं। लोक कल्याणार्थ उनकी यह प्रणय लीला अत्यन्त हितकारी है। महा कवि श्री पं। जयदेव जी सृजित यह गीत महाकाव्य संसार के लिए अत्यंत शान्ति प्रदान करने वाला है। इसमें पद पद पर श्री कृष्ण चन्द्र भगवान के आनन्द का वर्णन है। आनन्दकन्द भगवान की महाशक्ति, महाभक्ति राधा का अनन्य समपर्ण प्रभु हिताय एवं जगत हिताय ही है। यह महागीत श्रृंगार रसालिप्त रसिक भक्त जनों को परम शान्ति, विनोद एवं इच्छित प्राप्त कराने वाला है।

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