तीर्थयात्रा की महिमा में तो सभी धर्मों द्वारा कहा गया है। वह स्थान जो गुरुओं से किसी न किसी रूप में जुड़े हों, तीर्थ कहलाते हैं। इन स्थानों पर कुछ ऐसी दिव्यता होती है कि वहाँ जाकर मनुष्य की प्रभु से लगन लगने लगती है। वह कतारों में खड़ा होकर सब्र से अपनी बारी की प्रतीक्षा करता है। लंगरों में खाकर खुद को सभी के बराबर महसूस करता है, भगवान की कीरत करता है। गुरुबानी व सबद सुनकर झूम उठता है। ऐसे ही स्थानों का माहौल मन को भक्ति के रंग में डुबो देता है। बार-बार तीर्थयात्रा करने से मन भगवान में लगने लगता है। पर गुरुनानक ने एक बात और कही है कि तीर्थ, तप, दान सब कुछ तभी सफल है, जब मन नीवा हो और मनुष्य विनयशील निरअहंकारी हो। यदि तीर्थ करके आए और अहंकार कर बैठे कि हम तो तीर्थ पर जाते हैं, हम तो बड़े दानी हैं, हमारी बड़ी तपस्या है तो ऐसी तीर्थयात्रा को गुरुनानक 'कुंजर स्नान' की संज्ञा देते हुए कहते हैं-
तीरथ, तप और दान करे, मन में धरे गुमान। नानक निष्फल जात है, ज्यों कुंजर स्नान॥
अर्थात् जिस प्रकार हाथी स्नान करने के उपरांत पुनः अपने ऊपर धूल डाल लेता है, उसी प्रकार तीर्थयात्रा, तप और दान करने के बाद जो शु(ि व सत्कर्म का फल मिलना चाहिए। वह अहंकार करने से क्षीण हो जाता है। तीर्थयात्रा, तप व दान तीनों ही को ऐसा माने कि "प्रभु की कृपा से ही हुआ है, उन्हीं ने करा लिया, हम कुछ नाहीं।''
प्रस्तुति : सरदार रणजीत सिंह, अलीगढ़
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