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Sunday, April 12, 2009

जैन मतानुसार भवसागर से पार उतरने का मार्ग बताने वाला स्थान ही तीर्थ


जैन दृष्टि से तो तीर्थ शब्द का एक ही अर्थ लिया जाता है, 'भवसागर से पार उतरने का मार्ग बताने वाला स्थान'। इसलिए जिन स्थानों पर तीर्थंकरों ने जन्म लिया हो, दीक्षा धारण की हो, तप किया हो, पूर्णज्ञान प्राप्त किया हो, या मोक्ष प्राप्त किया हो, उन स्थानों को जैनी तीर्थ स्थान मानते हैं। अथवा जहाँ कोई पूज्य वस्तु विद्यमान हो, तीर्थंकरों के सिवा अन्य महापुरुष रहे हों या उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया हो, वे स्थान भी तीर्थ माने जाते हैं। जैनों के तीर्थों की संख्या बहुत है। यहाँ सबके वर्णन शम्भव नहीं हैऋ क्योंकि जैन धर्म की अवनति के कारण अनेक प्राचीन तीर्थ आज विस्मृत हो चुके हैं, अनेक स्थान दूसरों के द्वारा अपनाए जा चुके हैं, कई प्रसि( स्थानों पर जैन मूर्तियाँ दूसरे देवताओं के रूप में पूजी जाती हैं। उदाहरण के लिए प्रख्यात बद्रीनाथ तीर्थ के मन्दिर में भगवान्‌ पार्श्वनाथ की मूर्ति बद्री-विशाल के रूप में तमाम हिन्दू-धर्मियों द्वारा पूजी जाती है। उस पर चन्दन का मोटा लेप थोपकर तथा हाथ वगैराह लगाकर उसका रूप बदल दिया जाता है, इसीलिए जब प्रातःकाल श्रृंगार किया जाता है, तब किसी को देखने नहीं दिया जाता। क्या आश्चर्य है जो कभी वह जैन मन्दिर रहा हो और शंकराचार्य द्वारा इस रूप में कर दिया गया हो, जैसा कि वहाँ के पुराने बूढ़ों के मुँह से सुना जाता है। अस्तु। दिगम्बर ही नहीं श्वेताम्बर आदि संप्रदायों के भी तीर्थ स्थान हैं। उनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्हें दोनों ही मानते-पूजते हैं और बहुत से ऐसे हैं जिन्हें या तो दिगम्बर ही मानते-पूजते हैं, या केवल श्वेताम्बर, अथवा एक संप्रदाय एक स्थान में मानता है तो दूसरा दूसरे स्थान में। कैलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, शत्रुंजय और सम्मेद शिखर आदि ऐसे तीर्थ हैं जिनको दोनों ही मानते हैं। गजपन्था, तुंगी, पावागिरि, द्रोणगिरि, मेडगिरी, सि(वरकूट, बड़वानी आदि तीर्थ ऐसे हैं जिन्हें केवल दिगम्बर परम्परा ही मानती है और आबू, शंखेश्वर आदि कुछ ऐसे तीर्थ हैं जिन्हें श्वेताम्बर संप्रदाय ही मानता है।

प्रस्तुति : पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री

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