अंतः चतुष्टय का प्रमुख अंग है चित्त। महाराजजी कहते हैं, चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। चित्त पर अंकित छाप ही जीव को विभिन्न योनियों में भटकाती है। अलग अलग सम्प्रदाय अलग अलग तरीके से पूजा के तरीके अपनाते हैं। अगर गम्भीरता से चिंतन करें तो पाते हैं कि विभिन्न नामकरण होते के बाद भी सभी यह अवश्य स्वीकारते हैं कि चित्त पर अंकित छाप के अनुसार ही जीव के कर्मों के लेखे जोखे का फल मिलता है। कयामत के दिन नेकी और बदी के फरिश्ते जिस बही को लेकर बैठेंगे क्या वह हमारा चित्त ही है? पतांजलि ने भी चित्त वृत्ति निरोध को ही योग कहा है।
Thursday, November 26, 2009
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