विष न घोलो प्यार में, चलते बनो।
जीत मानो हार में, चलते बनो॥
धूप, बरखा या कि फूलों का मौसम।
प्यार हो व्यवहार में, चलते बनो॥
तरह-तरह की सज गयी हैं दुकाने।
क्रेता आते कार में, चलते बनो॥
जागने के लिये उपवास करते।
सो लिये संसार में, चलते बनो॥
तितलियों के फूल सपने देखते।
झाँको न मन के द्वार में, चलते बनो॥
गाँव वाले मुझे अपना समझते।
प्यार मुश्किल प्यार में, चलते बनो॥
यह नया युग है, नये हैं लोग भी।
सुख न काम-विकार में, चलते बनो॥
प्रस्तुति : रमेशचंद्र शर्मा 'चन्द्र'डी-४, उदय हाउसिंग सोसाइटीबैजलपुर, अहमदाबाद
Tuesday, April 14, 2009
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1 comment:
are wah!bahut badia. bahut achchhaa likhe hain. likhate rahiega.bilkul aainaa dikhaa diye ho.
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