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Saturday, April 11, 2009

इस्लाम में हज है तीर्थ यात्रा

हज एक ऐसी पूजा है, जिसमें शारीरिक क्षमता व आर्थिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ये दोनों जिस किसी मुसलमान के पास हो, उसके लिए हज करना अनिवार्य है। कोशों में हज का अर्थ "किसी बड़े मक़सद का इरादा करना है।'' जिसके अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण कार्य महत्वपूर्ण समय में किए जाने होते हैं। उम्रभर में एक बार हर मुसलमान (मर्द हो या औरत ) को हज करना अनिवार्य है, पर इसके लिए भी कुछ नियम हैं कि किन लोगों पर हज फ़र्ज है- जो लोग ख़ुदा को खुश रखना चाहते हैं और जो हज के स्थान तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं। एक मुसलमान का बालिग़, आक़िल, आजाद होना और आर्थिक रूप से सम्पन्न होना हज की अनिवार्य शर्तें हैं। अगर कोई शख्स अपाहिज या फालिज है या इतनी उम्र हो चुकी है कि (जईफी) बुढ़ापे के कारण सवारी पर बैठ नहीं सकता, ऐसे लोगों पर ये भी फजर् नहीं है कि अपने बदले किसी अन्य से हज करने के लिए कहें और स्वयं तो उन पर क़र्ज़ है ही नहीं। यदि कोई अन्धा है पर सवारी अर्थात्‌ रुपया ख़र्च करने की क्षमता है, परन्तु उसे कोई साथ नहीं मिल पाता तो उस पर न तो हज की अनिवार्यता है, न अपने बदले किसी से हज करवाना। यदि महिला हज कर रही है तो उसके साथ उसके पति का होना या किसी महरम (वो शख्स जिससे निकाह होने वाला है, जो कि आक़िल (अक्ल वाला) बालिग़ होना अनिवार्य है। ) मनुष्य को हज पर जाने से पहले अपने कर्जों को चुका दिया जाना चाहिए, गुनाहों से तौबा की जाए, नीयत में मुहब्बत हो और अत्याचारों से दूर रहता हो, जिससे लड़ाई झगड़ा हो, उससे सफ़ाई कर ले, जो इबादतें रह गई हैं, उन्हें पूरा कर ले। ख़ुद को नुमाइश, अहंकार से दूर रखें, हलाल कमाई हो। किसी नेक आदमी को हमसफ़र बनाए ताकि जहाँ वह भटके, वह बताता रहे कि सही क्या है? इस्लाम के फ़र्ज़ नमाज , रोजा और जकात की भांति 'हज' भी अत्यन्त महत्वपूर्ण फ़र्ज़ है।
प्रस्तुति : डा- शगुफ्ता नियाज़
http://hindivangmaya.blogspot.com

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