आंतरिक विधुत धारा विज्ञान के अनुसार जिस भी शब्द का उच्चारण हम लोग करते हैं,वह इस ब्राह्मंड में तैरने लगता है। उदाहरण के लिए एक रेडियो स्टेशन पर किसी भी गीत की पंक्ति का अंश बोला जाता है तो वह उसी समय वायुमंडल में फैल जाता है। तथा विश्व के किसी भी देश,किसी भी कोने में श्रोता यदि चाहे तो उसके रेडियो के माध्यम से उस गीत की पंक्ति का अंश सुन सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि रेडियो में सूई उसी फ्रीक्वैंसी पर लगाने की जानकारी हो। इस प्रकार ग्राहक और ग्राह्य का आपस में पूर्ण संपर्क आवश्यक है, उसी प्रकार मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तो मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विधुत भी तरंगों में निहित रहती है। यह आंतरिक विधुत, जो शब्द उच्चारण से उत्पन्न तरंगों में निहित रहती है, शब्द की लहरों को व्यक्ति विशेष या संबंधित देवता,ग्रह की दिशा विशेष की ओर भेजती है।अब प्रश्न यह उठता है कि यह आन्तरिक विधुत किस प्रकार उत्पन्न होती है? यह बात वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा मान ली गई है कि ध्यान,मनन,चिन्तन आदि करते समय जब व्यक्ति एकाग्र चित्त होता है,उस अवस्था में रसायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विधुत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है(आंतरिक विधुत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्न होता है। इसे आप मानसिक विधुत कह सकते हैं। यही मानसिक विधुत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर,दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। यह मानसिक विधुत(उर्जा)भूयोजित न हो जाए,इसीलिए मंत्र जाप करते समय भूमी पर कंबल,चटाई,कुशा इत्यादि के आसन का उपयोग किया जाता है।
Tuesday, March 31, 2009
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