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Sunday, March 29, 2009

माँ साँसों की तरह है।

प्रेमिका छोड़कर जा सकती है, पत्नी छोड़कर जा सकती है, पुत्र और पुत्रियाँ भी छोड़कर जा सकते हैं, किंतु माँ साँसों की तरह है। माँ इस धरती का नमक है। माँ हमारी नसों में दौड़ता खून है। माँ हमारे हृदय की धड़कन है। माँ के बगैर इस ब्रह्मांड का अस्तित्व नहीं। जिन देहधारी स्त्रियों ने माँ होने का दर्द सहा है। वे जानती हैं कि जगत जननी माँ क्या होती है।
कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी माँ सती पार्वती को ही शैलपुत्री‍, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जाना जाता है। इसके अलावा भी माँ के अनेक नाम हैं जैसे दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेराँवाली आदि, लेकिन सबमें सुंदर नाम तो 'माँ' ही है।
माँ को जिसने भी जाना है, वह किसी भी 'माता की सवारी' आने वाली जगह पर नहीं जाएँगे, क्यों‍कि उस विराट शक्ति के समक्ष खड़े होने में देवताओं के दिल काँपते थे, तो उसका किसी के शरीर में आना असत्य है। सत्य के मार्ग पर चलो। सत्य यह है कि चित्त को माँ की श्रद्धा की ओर मोड़ो। माँ को अपनी अँखियों के सामने से मत हटाओ। कम से कम इन नौ दिनों में जानो कि माँ क्या है। उस माँ को भी जिसने तुम्हें ये देह दी और उस माँ को भी जिससे यह जगत जन्मा।
डूब जाओ 'माँ' के प्रेम में। जब तक डूबोगे नहीं, तब तक दु:ख और सुख के खेल में उलझे रहोगे। डूबने से ही मुक्ति मिलेगी। वेद, पुराण और गीता सभी कहते हैं कि जो इस प्रेम के सागर में डूबा है वही पार हुआ है।

प्रस्तुति : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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