आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Saturday, March 28, 2009

कई जन्म से भटका हूं मैं, अब तो निज घर पाना है॥


कितने ही हमारे अपने, हमें छोड़ गये यहां पर।

कितनों को हमें छोड़कर, चले जाना है वहां पर॥

जो चले जाते है यहां से, फिर लौट कर नहीं आते।

लाख कोशिश भूलने पर, कभी दिल से नहीं जाते॥

ये दस्तूर है जहां का, इसे ऐसे ही चलते जाना है।

इस चौरासी के चक्कर में, बस आना और जाना है॥

कर लो भजन भगवान का, गर जीवन सफल बनाना है।

लालच की है ये दुनिया, मतलबी सारा जमाना है॥

बड़ी कठिन है डगर वहां की, कांटों पर चलकर जाना है।

कई जन्म से भटका हूं मैं, अब तो निज घर पाना है॥

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