संस्कृत के महाकवि पं। जयदेव कृत "गीत गोविन्द'' महाकाव्य में बसन्त ritu का विभिन्न रूपों में अनुभवित प्रसंग अत्यंत ही मार्मिक शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्रणय क्षणों की प्रतीक्षा, विरहानल को उसी प्रकार क्षण-क्षण उद्दीप्त करती है, जैसे यज्ञानल को घृताहुतियाँ। ग्रीष्म ऋतू आयी, चली गयी, वर्षा (पावसा) ऋतू भी आयी और चली गयी। इन्हीं की भांति शरद ऋतू भी आकर प्रस्थान कर गई- कोई विशेष अनुभूति प्रोषिताओं को उतनी कष्टकारी नहीं हुयी, जितनी बसन्त ऋतू । बसन्त ऋतू का आगमन ही मानो सहस्त कन्दर्पों का दल लेकर विरहानियों के आंगन में आ एक क्रूर यु( की सृष्टि करने लगता है। सब कुछ दुखदायी होने लगता है। सारे दृश्य-परिदृश्य मानो उन्हें काटने दौड़ पड़े हों। इसी मनोअनुभूति का प्राकट्य श्री राधा के हृदयांगन में होता है।
आइये हम भी लीलाधारी श्री कृष्ण चन्द्र जी की लीलावती श्री राधा जी की हृदयानुभूतियों जो बसन्तागमन के कारण हो रही है- का आनन्द लें और जीवन सफल करें:- "
बसंते वासंती कुसुम सुकुमारैरवयवै, भ्रमन्ती कान्तारे बहु विहित कृष्णानुसरणम्।
अमन्दकन्दर्प ज्वर जनित चिंताकुल तया, चलब्दाधां राधा सरस मिदमूचे सहचरी॥''
(गीत गोविन्द त्रतीय प्रबन्ध श्लोक २)
अर्थात् बसन्त ऋतू में कामदेव के उग्र वाणों से विधी पीड़ित श्री राधा जी श्री कृष्णचन्द्र जी से मिलने के लिए, धूप से पीड़ित पुष्पों से परिपूर्ण शोभायमान वन में भ्रमण करने लगीं। उसी समय श्री राधा जी की कोई अत्यन्त प्रिय सखी, उदासीन राधा का देखकर कहने लगीः-
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