आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Monday, September 28, 2009

मन ही मित्र है और मन ही शत्रु।

कहते हैं परमात्मा इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि के स्तर से ऊपर है। पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इन्द्रियों का, मन का और बुद्धि का परमात्मा प्राप्ति में कोई रोल ही नहीं है। जैसे कि किसी इमारत की छत पर जाने के लिए उसकी हर मन्जिल को पार करके छत पर जाऐंगे इसी प्रकार परमात्मा की प्राप्ति के लिए भी हर स्तर से होकर गुजरना होता है चाहे एक जन्म में, चाहे अनेक जन्मों में। इन्द्रियाँ पूरी तरह परमात्मा में लग जाऐं, कान-हरि नाम का श्रवण करें, जिव्हा हरि का ही भजन करें, आँखें प्रभु का नित दर्शन करें, नाक हरि श्रृंगार व पूजन हेतु सुगन्धि व पुष्पों को चुने, पैर सत्संग व मन्दिर को ले जाऐं, हाथ प्रभु सेवा में जुटे रहें। फिर मन संसार से विलुप्त हो, भगवान के सम्मुख हो जाए। सदा भगवान का स्वरूप का ध्यान रहे। मन में से संसार की कामनाऐं निकल जाऐं। निरन्तर आत्म दर्शन का आनन्द ले। बुद्धि विवेकवती होकर सत्य व असत्य को अलग-अलग जाने। ये सभी स्तर हैं जिन्हें साधक पार करता है और फिर शान्त स्वरूप को प्राप्त होता है। मन को कहीं तो इन्द्रियों का स्वामी कहा गया है और कहीं इसे एक इन्द्रिय ही माना गया है। मन क्योंकि इन्द्रियों का स्वामी है इसलिए इसीमें सामर्थ्य है, कि यह इन्द्रियों को परमात्मा में लगने को प्रवृत्त करे। माने कि हम सत्संग में बैठे गुरुवाणी का श्रवण कर रहे हैं पर मन शेयर के भावों में लगा है तो क्या श्रवण का कोई लाभ है? इसके विपरीत यदि हम बैठे हैं, शेयर मार्केट में पर मार्केट के आदान प्रदान को करते समय भी मन में भगवद्चिन्तन चल रहा है, हर तरफ, हर, जगह उसी एक नूर का नजारा हो रहा है तो हाथ भले ही काम में हैं पर मन 'राम' में ही है। ऐसे साधक का कर्मयोग सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही बुद्धि से ज्ञान बहुत सुन लिया, समझ लिया पर मन का निरोध नहीं कर पाए तो साधना खराब हो सकती है। भगवान कहते हैं- कि मन ही मित्र है और मन ही शत्रु।

1 comment:

हरिमोहन सिंह said...

कभी कभी ये बातें भी मन को सूकून देती है अजब खेल है मन का , सुना है कि मन से ही सारी स़‍़ष्ठि है