भगवान श्रीकृष्ण की एक प्रेमिका थी - राधा। वह उन सोलह हजार गोपियों में एक थीं, जो उन्हें पागलों की तरह प्यार करती थी। उनकी दो पत्नियाँ भी थीं - रुक्मिणी और सत्यभामा। आज इसकी अनुमति नहीं है कि आदमी दो पत्नियाँ हों और सोलह हजार प्रेमिकाऐं। यह एक दैवीक नाटक है, जिसमें हिन्दू परम्परा और सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार हर जीवात्मा उस परम पुरुष की प्रेमिका है। वहाँ ऐसी मान्यता है कि वही अकेला पुरुष है और अन्य सभी नारी हैं। यहाँ शारीरिक रूप से लिंग भेद का प्रश्न नहीं है, ईश्वर के मामले में स्त्री और पुरुष सभी उसकी प्रेमिका ही हैं। वह प्रियतम है और हम प्रेमी हैं। वह स्वाभाविक भी है के ईश्वर के द्वारा निर्मित उसकी सृष्टि उसका प्रेमी हो। उसमें से सोलह हजार ऐसे थे, जो उनहें विशिष्ट रूप से प्रेम करते थे और उसमें से भी विशिष्ट थी- वह लड़की राधा। उसके अनन्य प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण को राधाकृष्ण के नाम से जाना जाता है- राधा का नाम पहले आता है। भारतीय सामाजिक जीवन में पुरुष का नाम पहले आता है, लेकिन हिन्दू परम्परा में स्त्री पहले आती है, उसे हम गृहलक्ष्मी, परिवार की समृ(,ि अन्नपूर्णा, कल्याणी कहते हैं। कल्याणी अर्थात् आनन्द, प्रसन्नता, सुख, प्रकाश, प्रफुल्लता लाने वाली। इसीलिए कृष्णराधा न कहकर राधाकृष्ण कहा जाता है। यह दैवीय प्रेम कथा है। जब श्रीकृष्ण दूसरा काम करने वृन्दावन छोड़कर द्वारिका जाने लगते हैं, तो अपनी बाँसुरी राधा को दे जाते हैं। भारत में यह बाँस से बनी होती है। राधा को एकमात्र यही भौतिक वस्तु श्रीकृष्ण से मिली थी। वह उनके प्रेम और याद में खो गयी। रात और दिन अहर्निश कृष्ण, कृष्ण रटती रही। और ऐसा कहा जाता है कि ईश्वर की इस सतत याद से वह ईवश्र ही हो गयी। वह श्रीकृष्ण वन गयी। फिर उसके मुख से राधा, राधा निकलने लगा। वह अपना ही नाम जपने लगी। जिसने भी उसे देखा, मूर्ख समझा। यह क्या है? वह कहती है कि मैं श्रीकृष्ण को प्यार करती हूँ और अपना ही नाम जप रही है। लेकिन यह उसका रूपान्तरण था, जिसकी प्राप्ति उसने चमत्कारिक रूप से सतत स्मरण और संपूर्ण प्रेम द्वारा की थी। कृष्ण, कृष्ण कहते हुए वह कृष्ण हो गयी थी और अब कृष्ण बनकर राधा, राधा कह रही थी।वस्तुतः कौन किसे प्रेम कर रहा है? कौन प्रेमी है और प्रियतम? यह भी पता नहीं चलता। यह प्रेम का चमत्कार है। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे हम जानें, खोजें, पाएँ और बिगाड़ दें। यह तो पशुता है, मूर्खता है, इन्द्रिय-प्रेम है, वासना का खेल है। वास्तविक प्रेम में न प्रेमी का पता होता है न प्रियतम का और जब प्र्रेम चरमोत्कर्ष पर पहुँचता है, तो दोनों परस्पर लय होकर एक हो जाते हैं, पे्रमी भी समाप्त हो जाता है, प्रियतम भी, प्रेम भी समाप्त हो जाता है। फिर तो एक संयुक्त एकतताब( अस्तित्व बचता है, जो कुछ नहीं जानता, उसे न तो अपने अस्तित्व का पता होता है, न ही पहचान का। यहाँ हम अपने लक्ष्य पर पहुँचते हैं।
पार्थ सारथी राज गोपालाचारी के प्रवचन से
1 comment:
bahut badhiya jaankari mili ........bahut bahut dhanyaawaad...
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