प्र्रकृति का दर्शन है प्रवृत्ति व्यवहार का स्वरूप। और निवृत्ति आत्मा का पुरुष का। महाराज, ये आपने वर्णन तो कर दिया कथा का। हकीकत में क्या है? कथा तो बहुत अच्छी है। बहुत बारीक चीजें हैं जो सत्संग करते हैं-गहराई से, वे इनकी बारीकियों को समझते हैं। और तो अधूरे लोग हैं वह तो कुतर्क करके आँखें निकाल कर लड़ने को तैयार हो जायेंगे। बच्चों की किताब नहीं है, न्दपअमतेपजल के बवनतेम की बात नहीं है। ये तो अपनी हकीकत है और हकीकत के लिए, वही हकीकत चाहिए। साढ़े छः अरब आदमी हैं, दुनियां में, एक भी पूरा प्रवृत्ति मार्ग वाला है? और साढ़े छः अरब आदमियों में एक भी पूर्ण निवृत्त है? नहीं है। तो महाराज, मुझे तो ये बताओ जो जिन्दगी भर कुकर्म करे वह कैसे मुक्त हो? क्योंकि गल्तियाँ तो सबसे होती हैं। राम से, कृष्ण से, राधा से, सीता से, रुक्मिणी से जितने भी महापुरुष हुए गल्तियाँ सबसे हुई हैं। नर और नारायण निवृत्त हैं, वह भी प्रवृत्त हो जाते हैं। सनकादि प्रवृत्त हैं, वह भी निवृत्त हो जाते हैं। प्रवृत्ति में निवृत्ति है, निवृत्ति में प्रवृत्ति है, न प्रवृत्ति है, न निवृत्ति है, प्रवृत्ति भी है और निवृत्ति भी है। ये जो ज्ञान का रास्ता है-निवृत्ति और प्रवृत्ति ये तो अप्राप्य है, मैं तो वह हकीकत पूछ रहा हूँ आपसे।
हर-हर महादेव शम्भो। काशी-विश्वनाथ शम्भो।