आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, December 25, 2008

ए लव्य तू मन को सँभाल जरा,


दल दल को थल समझ रहा

गहरे में ना धँस जाना,

जब 'रुद्र' तुम्हें पुकारें तो

तुम ढूड़े से ना मिलो वहाँ।

ए मन मौजी.............॥

'रुद्र' ने तुम्हें आगाह किया

ए लव्य तू मन को सँभाल जरा,

क्यों इसको इतना बिगाड़ लिया

ना इस पर तुमने विचार किया।

एै मन मौजी..........................॥

आगरा से कु. लव्यता द्वारा प्रेषित भजन

3 comments:

P.N. Subramanian said...

सुंदर रचना. आभार.

Truth Eternal said...

Lavyata ji is kriti ke liye apko sadhuwaad

ashish said...

bahut sundar likti hain. aage bhi likhti rahiyega.