हमारा परमेश्वर के प्रति समर्पण किसी भय के कारण नहीं है वरन् अपनी सम्पूर्ण इच्छा से है जिसमें कोई दबाव नहीं वरन् अपनी अपनी स्वेच्छा है जिसमें परमेश्वर का दण्ड या न्याय, क्रोध नहीं वरन् करूणा तथा दयामय प्रेम सम्मिलित हैं जो हमारे अपने चालचलन, व्यवहार या कर्मों से नहीं वरन् परमेश्वर के अनुग्रह से है। अब प्रश्न उठता है कि हमारा समर्पण परमेश्वर के प्रति किस रूप में हो तथा इसमें क्या-क्या सम्मिलित होना चाहिये।१। यह स्वेच्छापूर्वक हो बिना किसी बाध्यता या दबाव के।२। यह व्यक्तिगत होः जो कुछ हमारे पास है, जिसे हम अपना कहते हैं उसमें धन-सम्पत्ति, बैर-भाव, क्रोध, पे्रम, अभिलाषाऐं इत्यादि भी शामिल हैं। अतः इन सबका अधिकार केवल परमेश्वर के हाथ में हो। इनका यह मतलब नहीं हम उसके हाथों में कठपुतली है। याद रखें कठपुतली प्राणविहीन होती है उसमें इच्छाभाव नहीं पाया जाता। हम विपरीत है क्योंकि हममें इच्छाभाव तथा प्राण ;जीवनद्ध दोनों पाया जाता है, परंतु यहाँ हम परमेश्वर को अपने प्राण तथा इच्छा का स्वामी बना लें समर्पण द्वारा।३. यह बलिदान हैः बालक जब अपनी अनिच्छा से पिता से दूर हो जाता है तो पार्थिव पिता दुखित होता है, क्योंकि यदि बालक अपने पिता से सुरक्षा, भोजन एवं वस्त्रों की अपेक्षा रखता है तो पिता भी अपने बालक से घनिष्ठ प्रेम और संगति की अपेक्षा रखता है। वर्तमान समय में समर्पण का अर्थ केवल लेन-देन या उपरी वस्तुओं से है। समर्पण है परंतु वह पूर्णतः नहीं है। कभी जीवन का एक क्षेत्र या इससे अधिक परंतु परमेश्वर चाहते हैं कि हम अपना सब कुछ परमेश्वर को समर्पित करें यद्यपि यह गहन त्याग तथा तपस्या है परंतु इसके बाद महान् आनंद है जो परमेश्वर के साथ घनिष्ठ संगति है जिसमें हमें पूर्ण सुरक्षा तथा करुणा एवं दया के साथ -साथ निर्मल प्रेम प्राप्त होता है जो केवल और केवल परमेश्वर ही दे सकता है क्योंकि उपरोक्त सब कुछ उसके पास भरपूरी से है अतः आइये स्वयं का जीवन परमेश्वर को पूर्ण समर्पित कर दें।
प्रस्तुति : संतोष पाण्डेय धर्म पुरोहित चर्च आफ असेन्सन्स अलीगढ़
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