आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Wednesday, October 13, 2010

मुंह में नमक का डेल है तो मिठास नहीं आ सकती.....

मेरा मन कहीं अटका हुआ है, मेरे मुंह में कोई नमक का डेल है तो उस से मिठास नहीं आ सकती, लेकिन नमक की डली को फैंक दोगे तो मिठाई की मिठास लेने के लिए कोशिश थोड़े ही करनी है। मिठाई तो मुँह में जाऐगी, अपने आप पता चलेगा। कितनी टेस्टी है, कितनी बड़िया है, कितनी आनन्ददायक है, कितनी स्वादिष्ट है, अपने आप पता चल जाऐगा। दिक्कत नमक की डेली को फैंकने की है, दिक्कतें दिमांग के कपड़ों को उतारने की हैं। जिसे पतंजली कहते हैं - योगश्चित्तश्यवृत्ति निरोधः। आम बोलचाल में सुख देव जी ने परीक्षित को समझाया कि ये कपडे+ उतारना।

पतंजली कहते हैं कि ये कपड़े क्या उतारना है? ये दिमांग में जो वृत्तियां हैं, वृत्तियां क्या हैं- जो चीज हमारे दिमाग को आवृत्त कर लेती है, ढक लेती है। हमारे दिमाग के ऊपर कोई चीज आ जाती है, तो दिमाग उसी चीज को देखता है और दिमांग उसी में फँस जाता है। सफेद कपड़े को तुम किसी रंग में डालो तो कपड़ा रंग में ढ़ल जाऐगा, रंग कपड़े में ढ़ल जाएगा। वो क्या था? उसको कौन बताएगा? ऐसे ही हमारा दिमांग होता है। दो तरह के रंग होते हैं दिमांग में eक , जिस को हम चाहते हैं, हमारा मन चाहता है। dउसरे जिस को हम नहीं चाहते। २ तरह के ही रंग हैं, दो तरह के कपड़े। एक जो हमारे मन को अच्छी लगती हैं, उसको चिपकना कहते हैं। और दूसरी वो जो हम को अच्छी नहीं लगती हैं, उसके जो विरोध की चीजें हैं उसको द्वेष कहते हैं। तो हमारा जो जीवन है, हमारा जो मन है, हमने जो कपड़े पहन रखे हैं। हमने चिपकने के लिए पहन रखे हैं, या खटकने के लिए पहन रखे हैं। चिपकने और खटकने के कपड़े हैं तो फिर जिन्दगी में चैन की चीज कहाँ से आई? और शान्ती की चीज कहाँ से आ जाऐगी? वास्तविक चीज कहां से आएगी। जिन्दगी का उद्देश्य किस के लिए है? कहाँ से आ जाऐगा? नहीं आयेगा। चिपकने को भी उतार दें और खटकने को भी उतार दें। और उतारना ऐसे ही नहीं। इन कपड़ों को उतारना कोई ऐसी बात नहीं है, लेकिन मन में जो कपड़े पहन रखे हैं, उनको उतारना। मन में जो कपड़े पहन रखे हैं चिपकने और खटकने के वही जो राग है।

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