महाराज जी कहते - छोटों को बड़ों में दोष नहीं बल्कि अच्छाईयाँ देखनी चाहिए और स्वयं बड़प्पन नहीं लेना नहीं देना चाहिए। हमें अपने पूज्यनीय व सभी बड़ों को सम्मान और बड़प्पन देना चाहिए यही हमारी सभ्यता और संस्कृति है, लेकिन हम क्या कहते हैं अभी इस पल हमारे अन्दर जो सेवा और सम्मान का भाव है। दूसरे ही पल बड़ो के कुछ कह देने मात्र से हो ;चाहे वह बात हमारे भले की ही क्यों ना हो। इस पर ध्यान न करद्ध वही सेवा और सम्मान का भाव कुभाव बदलने लगता है। और हम भूलने लगते हैं कि यह हमसे बड़ा है और इस दुर्भाव के चलते गालियाँ देने से भी नहीं हिचकिचाते हैं।
सद्भाव तो वही होते हैं, जो किसी भी स्थिती में बदले नहीं, क्योंकि भगवान प्रतिकूल परस्थिती बनाकर ही परीक्षा लेते हैं। और जो व्यक्ति उस परीक्षा को पास कर लेता है, वही प्रभु और गुरु चरणों के परम पद का अधिकारी होता है। अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को विरासत में सभ्यता और संस्कार भी दे सके, इसलिए सबसे पहले हम बड़ों को संस्कारी होगा। गुरुदेव कहते हैं, "संस्कार जिसके शुभ हैं ;आचार-विचार को दृढ़ करने वाली धारणाद्ध वह भले ही संस्कृत भाषा, व्याकरण, अरबी, नहीं पढ़ा है वह सुसंस्कृत है- दूसरी भले ही वह संस्कृत, व्याकरण या अरबी का विद्वान है लेकिन जिस में अशुभ संस्कार अशुभ धारणा है वह न हिन्दू है, न मुसलमान है, न सिख है, न ईसाई है, न पारसी है, न बौद्ध है, न जैन कोई भी? शुभ संस्कारों की दृढ़ धारणा से ही मनुष्य में मनुष्यता आती है।''
महाराज जी तो यहाँ तक कहते हैं कि, "मनुष्य का शरीर प्राप्त करने से ही मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता वरन् मनुष्य जैसी प्रज्ञा एवं संवेदनाओं से बनता है। इसलिए मनुष्य जाती विवेकशील होनी चाहिए और उसे संस्कारित करके ही मनुष्य बनाया जा सकता है।'' "मनुष्य को ये संस्कार वंश, कुल, गोत्र से नहीं संगति और मन को लगाकर किये हुए कर्मों से प्राप्त होते हैं।''
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