आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Friday, March 12, 2010

गुरु के प्रति प्रेम, श्रृद्धा, विश्वास तथा आत्मसमर्पण ही आध्यात्मिक जीवन के मुख्य घटक हैं

जब तक हम अपने मन-इन्द्रियों के दास बने रहेंगे तब-तब गुरु-आज्ञा तथा प्रभु-इच्छा का विरोध उठेगा, शिकवा- शिकायत होगा। मेरे ही साथ ऐसा क्यूँ होता है? मैं ही क्यूँ सहूँ? मेरा लाभ, मेरा हित तो इसमें है नहीं आदि विचार उठ कर साधक को विचलित करते रहेंगे। कई बार सुनते हैं कि फलाँ व्यक्ति ने तो कोई विपरीत परिस्थिति आने के बाद पूजा-अर्चना करनी ही बन्द कर दी। ये कैसा विश्वास है, ये कैसी श्रृद्धा जिसमें समर्पण ही नहीं? समर्पण की स्थिति वह है जब गुरु-भगवान से हेतुरहित प्रेम हो। सांसारिक सुख, वैभव, यश, मान की इच्छा से गुरु-भगवान की शरण में जाना तो मनमत शिष्य का काम है। गुरुमत शिष्य तो बस आध्यात्मिक उन्नति और मुक्ति का ही लक्ष्य रखता है। ऐसे ही लक्ष्य रखता है। ऐसे शिष्य हर मामले में गुरु आज्ञा को ही ऊपर रखते हैं। समर्पण की शुरूआत आज्ञा पालन से ही होती है। जब हम गुरु की गुरुता में विश्वास करते हैं तो श्र(ा उत्पन्न हो जाती है और गुरु वचनों के पालन की इच्छा अन्तर में जाग्रत हो जाती है। परन्तु अक्सर गुरु के समक्ष तो उनके वचनों को आचरण में उतार पाते हैं बाद में विस्मरण हो जाता है। इसके लिए बार-बार अधिक से अधिक गुरु का सान्निध्य लेना आवश्यक है। इसी से धीरे-धीरे जीवन में सतोगुण बढ़ता जाता है। हम गुरु को प्रसन्न रखने हेतु सद्गुणों को धारण करते हैं। समर्पण के उच्च स्तर पर शिष्य सही-गलत सोचता नहीं, वह पूरी तरह मान लेता है कि गुरु वचनों का पालन ही केवल एक कर्त्तव्य है फिर वह सही ही करता है, गलत तो होता ही नहीं। गुरु शिष्य सम्बन्ध वैसे तो सांसारिकता से ऊपर है परन्तु फिर भी शुरु में शिष्य गुरु को पिता, भाई, मित्र या माता कुछ भी मान लेता है जो कि उसे सम्बन्ध को दृढ़ करने में सहायता करता है। इस सम्बन्ध का आकर्षण उसे भक्ति तथा समर्पण की स्थिति में ले जाता है। गुरु को ÷माँ' मानना बहुत ही प्रासंगिक तथा लाभदायक होता है। केवल माँ ही हर पल अपने बच्चे के हित की सोचकर स्वयं कष्ट झेल सकती है। उसी के सान्निध्य में बच्चे की सबसे अधिक सुरक्षा की भावना मिलती है। गुरु भी सदा ही शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का ख्याल रखते है। गुरु से प्रेम ही परमात्मा से भी योग करा देता है क्योंकि गुरु का सम्बन्ध परमात्मा से अति निकट का है। माँ बच्चे का सम्बंध पिता से होता है। माँ बच्चे को नौ माह तक गर्भ में रख कर उसे पोषित करते है। उसी प्रकार गुरु भी कुछ समय तक शिष्य को अपनी कृपा के घेरे में रखते हुए अपनी मानसिक शक्तियों के घेरे में रखते हुए अपनी मानसिक शक्तियों तथा आध्यात्मिक ऊर्जा से उसका पोषण करते हैं फिर उसका ज्ञान के लोक में पुनर्जन्म हो जाता है तथा उसका आध्यात्मिक जीवन प्रारम्भ हो जाता है। गुरु के मानसिक घेरे में स्थान मिल जाने से समर्पण आसान है परन्तु शिष्य को भी अपने विचारों तथा भावों को सत्ता नहीं देने का प्रयास करना होता है। गुरु के प्रति प्रेम, श्रृद्धा, विश्वास तथा आत्मसमर्पण ही आध्यात्मिक जीवन के मुख्य घटक हैं जिनसे हमारी उन्नति की अवस्था निर्धारित होती है।

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